रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर बनाम गोवा राज्य
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वाणिज्यिक विधि

रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर बनाम गोवा राज्य

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 17-Jul-2024

परिचय:

यह मामला पेटेंट अवैधता की अवधारणा और मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 एवं धारा 37 के अंतर्गत न्यायालयों के हस्तक्षेप के क्षेत्राधिकार से संबंधित है।

तथ्य:

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता एवं प्रतिवादी ने राज्य में एक बिजली उत्पादन संयंत्र चलाने के लिये एक करार किया।
  • आपसी करार के लिये अपीलकर्त्ता ने बिजली संयंत्र के साथ कुछ तकनीकी संचालन किये, जिसके परिणामस्वरूप बिजली के उत्पादन की लागत अधिक हो गई, जिसके कारण गोवा राज्य अपीलकर्त्ता से बिजली की आपूर्ति रोकने पर विचार कर रहा था।
  • अपीलकर्त्ता ने करार समाप्त होने तक सरकार को निश्चित दर पर बिजली आपूर्ति के लिये अलग विधि अपनाने का प्रस्ताव रखा तथा राज्य ने इस पर सहमति जताई।
  • जब भुगतान देय हो गया तथा अधिसूचनाएँ देने के बाद भी राज्य द्वारा भुगतान नहीं किया गया तो अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी के विरुद्ध संयुक्त विद्युत विनियामक आयोग के समक्ष वाद संस्थित किया।
  • आयोग ने मामले को मध्यस्थता के लिये भेजा, जहाँ अपीलकर्त्ता के पक्ष में मध्यस्थ पंचाट पारित किया गया तथा प्रतिवादी को ब्याज के साथ बकाया राशि का भुगतान करने का आदेश दिया गया।
  • प्रतिवादी ने पंचाट को चुनौती दी तथा मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम (ArC) की धारा 34 एवं धारा 37 के अधीन बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की, जहाँ न्यायालय ने पंचाट को आंशिक रूप से खारिज कर दिया और शेष की पुष्टि की।
  • अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के निर्णय देने के क्रम में उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति अपील दायर की।

शामिल मुद्दे:

  • क्या ArC, 1996 की धारा 34 एवं धारा 37 के अधीन पेटेंट अवैधता के आधार पर मध्यस्थता पंचाट को चुनौती दी जा सकती है?
  • क्या पुनर्मूल्यांकन ArC अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन पंचाट को रद्द करने का एक हिस्सा है?

 टिप्पणी:

  • उच्चतम न्यायालय ने ArC अधिनियम, 1996 की गहन व्याख्या करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि किसी निर्णय को स्पष्ट रूप से अवैध माना जा सकता है, जिसमें ऐसी प्रकृति की विसंगतियाँ होनी चाहिये जो राष्ट्र की सार्वजनिक नीति को प्रभावित करती हों।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि स्पष्ट रूप से अवैधता का दावा केवल तभी किया जा सकता है जब यह निर्णय प्रथम दृष्टया ही दिखाई दे, न कि साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन एवं मामले के प्रत्येक तथ्यात्मक मैट्रिक्स पर पुनर्विचार करके।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि न तो उच्च न्यायालय और न ही आयोग को मध्यस्थता निर्णय का पुनर्मूल्यांकन करने का अधिकार है, बल्कि उसके पास केवल अधिनियम में दिये गए प्रावधानों के आधार पर निर्णय को रद्द करने का अधिकार है।

निष्कर्ष:

उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की अपील स्वीकार कर ली तथा अधिकरण द्वारा पारित मध्यस्थता पंचाट की पुष्टि कर दी।