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सांविधानिक विधि
सुश्री अरुणा रॉय एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2002)
« »24-Oct-2024
परिचय
- यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो धर्मनिरपेक्षता के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को दर्शाता है, जो संविधान का एक मूलभूत तत्त्व है।
- यह निर्णय एकल न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम. बी. शाह द्वारा प्रस्तुत किया गया।
तथ्य
- भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के तहत एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई थी।
- यहाँ मुख्य विवाद यह था कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा प्रकाशित स्कूल शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCFSE) संवैधानिक आदेश के विरुद्ध है, धर्मनिरपेक्षता विरोधी है तथा केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE) से परामर्श किये बिना तैयार की गई है।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि उपरोक्त को निरस्त किया जाना चाहिये।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क किया कि धर्म संबंधी शिक्षा प्रदान करना संविधान के अनुच्छेद 28 का उल्लंघन करेगा और यह संविधान के मूल संरचना अर्थात् धर्मनिरपेक्षता, पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।
शामिल मुद्दा
- क्या CAVE के अनुमोदन के बिना NCFSE को क्रियान्वित किया जा सकता है?
- क्या NCFSE और इसके अंतर्गत विकसित पाठ्यक्रम धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं, जो संविधान के मूल संरचना का अभिन्न हिस्सा है और क्या यह भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 27 और अनुच्छेद 28 का भी उल्लंघन करते हैं?
टिप्पणियाँ
- मुद्दा (i) के संबंध में:
- CABE 1935 से अस्तित्व में था और नए NCFSE के गठन तक CABE से सदैव परामर्श किया जाता था।
- CABE एक वैधानिक निकाय नहीं है क्योंकि इसका गठन किसी अधिनियम या नियम के तहत नहीं किया गया है।
- न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में राज्य और केंद्र के बीच समन्वय के लिये CABE की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि NCERT नामक एक स्वतंत्र संस्था द्वारा नीति तैयार करने से पूर्व CABE का पुनर्गठन आवश्यक था और उससे परामर्श करना अनिवार्य था।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने माना कि CABE से परामर्श न करना NCFSE को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता।
- मुद्दे (ii) के संबंध में:
- यह एक गलत धारणा है कि विभिन्न धर्मों की जानकारी समाज में वैमनस्य उत्पन्न करेगी। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि विभिन्न धार्मिक विचारों का ज्ञान साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने हेतु आवश्यक है, क्योंकि अज्ञानता दूसरे धर्म के प्रति द्वेष और भ्रम की भावना उत्पन्न करती है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि धर्मनिरपेक्ष समाज में नैतिक मूल्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
- धर्मनिरपेक्ष समाज या लोकतंत्र नैतिक मूल्यों के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता।
- संविधान के अनुच्छेद 28 के संदर्भ में न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि इस अनुच्छेद का मुख्य उद्देश्य धार्मिक शिक्षा प्रदान करने या धार्मिक पूजा करने पर रोक लगाना है। हालाँकि, धार्मिक विचारधारा और संस्कृति का अध्ययन करने में, विशेष रूप से ऐसे समाज में जहाँ मूल्य आधारित सामाजिक जीवन जीने की आवश्यकता है, कोई निषेध नहीं है, जो सत्ता, पद या संपत्ति के लिये भ्रष्ट हो रहा है।
- अंततः न्यायालय ने यह देखा कि NCFSE एक मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान करने का प्रयास कर रहा है तथा यह जागरूकता का प्रचार करने का प्रयास कर रहा है कि प्रत्येक धर्म का सार समान है। यह कार्य संविधान के अनुच्छेद 51 A (e) को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये, जिसका उद्देश्य सामंजस्य और सामान्य भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना है।
- इसलिये, न्यायालय ने यह स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि NCFSE संविधान का उल्लंघन करता है।
निष्कर्ष
धर्मनिरपेक्षता एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे संविधान में शामिल किया गया है और यह संविधान की मूल संरचना का अभिन्न अंग भी है।
यह निर्णय इस सिद्धांत की प्रासंगिकता को फिर से प्रमाणित करता है।