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आपराधिक कानून

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने सोच-समझकर निर्णय लेने में सक्षम लड़की से बलात्कार का मामला रद्द कर दिया

 20-Jul-2023

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कैलाश शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में बलात्कार के मामले को रद्द कर दिया है और माना है कि 17 या 18 वर्ष की आयु वर्ग का एक किशोर अपनी भलाई के बारे में सोच-समझकर "सचेत निर्णय लेने में सक्षम होगा"।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2022 में बारहवीं कक्षा की 17 साल और 10 महीने की छात्रा ने 30 वर्षीय व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज कराया था, जिसने उसकी अश्लील तस्वीरें वायरल करने की धमकी देकर और शादी का झूठा वादा करके यौन संबंध बनाया था।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376, 506 के साथ-साथ यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 3, 4 के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करने के लिये आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति दीपक कुमार अग्रवाल ने कहा कि न्यायालय उस आयु वर्ग के एक किशोर के शारीरिक और मानसिक विकास पर गौर कर रहा है और न्यायालय इसे तर्कसंगत मानेगा कि ऐसा व्यक्ति अपनी भलाई के संबंध में सचेत निर्णय लेने में सक्षम है । प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कोई आपराधिक मन:स्थिति (mens rea) शामिल नहीं है।
  • न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए विजयलक्ष्मी और अन्य बनाम  पुलिस निरीक्षक, समस्त महिला थाना (2021) राज्य प्रतिनिधि का आश्रय लिया।
  • इस मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) रोमांटिक रिश्तों में किशोरों से जुड़े मामलों को अपने दायरे में लाने का इरादा नहीं रखता है।

कानूनी प्रावधान

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376

  • धारा 376 बलात्कार के लिए सज़ा का प्रावधान करती है।
  • बलात्कार करने की सज़ा दस साल का कठोर कारावास है जिसे आजीवन कारावास और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है।
  • आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध गैर-जमानती और संज्ञेय है।
  • आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2018 के आधार पर धारा 376 में निम्नलिखित संशोधन कियर गये:
    • किसी महिला से बलात्कार के लिए न्यूनतम सज़ा 7 साल से बढ़ाकर 10 साल कर दी गयी।
    • 16 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार के लिए न्यूनतम 20 साल की सजा होगी, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
    • इसमें धारा 376AB जोड़ी गई, जिसमें कहा गया है कि 12 साल से कम उम्र की लड़की का बलात्कार करने पर न्यूनतम 20 साल की सज़ा होगी, जिसे आजीवन कारावास या मौत की सज़ा तक बढ़ाया जा सकता है।
    • इसमें धारा 376DA जोड़ी गई, जिसमें कहा गया है कि 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में सजा आजीवन कारावास होगी।
    • धारा 376DB में कहा गया है कि 12 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में सजा आजीवन कारावास या मौत होगी।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 बलात्कार को परिभाषित करती है और इसमें किसी महिला के साथ बिना सहमति के संभोग से जुड़े सभी प्रकार के यौन हमले शामिल करती है।
  • हालाँकि, यह प्रावधान दो अपवाद भी बताता है:
    • वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के अलावा, इसमें उल्लेख किया गया है कि चिकित्सा प्रक्रियाओं या हस्तक्षेपों को बलात्कार नहीं माना जाएगा।
    • भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है कि "किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध, और यदि पत्नी पंद्रह वर्ष से कम उम्र की न हो, बलात्कार नहीं है"।

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 506 (Section 506 of Indian Penal Code, 1860)

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 506 आपराधिक धमकी/अभित्रास (Criminal intimidation) के अपराध के लिए सजा निर्धारित करती है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी आपराधिक धमकी/अभित्रास (Criminal intimidation) का अपराध करेगा, उसे दो साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा।
  • आपराधिक धमकी/अभित्रास (Criminal intimidation) को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 503 में परिभाषित एक अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उसके व्यक्ति, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए खतरे में डालता है या धमकी देता है ताकि दूसरे व्यक्ति को वह कार्य करने के लिए मजबूर किया जा सके जो कानूनकी नज़रों में दंडनीय होगा।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482

आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 किसी भी अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय के उद्देश्य को सुरक्षित करने के लिए उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करती है। यह प्रावधान नई शक्तियाँ प्रदान नहीं करता है।

पॉक्सो अधिनियम, 2012 (POCSO Act, 2012)

  • यह अधिनियम 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत पारित किया गया था।
  • यह बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन हमले और अश्लील साहित्य सहित अन्य अपराधों से बचाने के लिए बनाया गया एक व्यापक कानून है।
  • यह लैंगिक रूप से तटस्थ अधिनियम है और बच्चों के कल्याण को सर्वोपरि महत्व का विषय मानता है।
  • इस अधिनियम की धारा 3 प्रवेशन यौन हमले से संबंधित है और धारा 4 प्रवेशन यौन हमले के लिये सजा निर्धारित करती है।

धारा 3 पॉक्सो एक्ट -प्रवेशन लैंगिक हमला-

कोई व्यक्ति, “प्रवेशन लैंगिक हमला” करता है, यह कहा जाता है, यदि वह –

(क) अपना लिंग, किसी भी सीमा तक किसी बच्चे की योनि, मुख, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश करता है या बच्चे से उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है; या

(ख) किसी वस्तु या शरीर के किसी ऐसे भाग को, जो लिंग नहीं है, किसी सीमा तक बच्चे की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में घुसेड़ता है या बच्चे से उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है; या

(ग) बच्चे के शरीर के किसी भाग के साथ ऐसा अभिचालन करता है जिससे वह बच्चे की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा या शरीर के किसी भाग में प्रवेश कर सके या बच्चे से उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है; या

(घ) बच्चे के लिंग, योनि, गुदा या मूत्रमार्ग पर अपना मुख लगाता है या ऐसे व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति के साथ बच्चे से ऐसा करवाता है।

धारा 4 - प्रवेशन यौन हमले के लिए सजा -

जो कोई प्रवेशन लैंगिक हमला करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।


आपराधिक कानून

निवारक और सुधारात्मक दंड के बीच उचित संतुलन

 20-Jul-2023

चर्चा में क्यों ?

  • हाल ही में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने 41 चोरियों के मामलों में दोषी ठहराए गये और 83 साल से अधिक जेल की सजा पा चुके एक 30 वर्षीय व्यक्ति को रिहा करने का आदेश दिया है।
    • अदालत ने यह भी कहा कि चूँकि वह जुर्माना भरने की स्थिति में नहीं है, इसलिए जुर्माना राशि का भुगतान न करने पर उसे 10 साल 1 महीने और 26 दिन यानी कुल 93 साल 5 महीने की अतिरिक्त कैद भुगतनी होगी।
  • अदालत असलम सलीम शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य की आपराधिक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी

पृष्ठभूमि

  • रिट क्षेत्राधिकार और अंतर्निहित शक्तियों के तहत विधिक सेवा प्राधिकरण (Legal Services Authority) के माध्यम से दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि 41 मामलों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा दी गई कारावास की सजाएं एक साथ चलेंगी।
  • याचिकाकर्ता ने 1,26,400/- रुपये की जुर्माना राशि को रद्द करने का भी अनुरोध किया।
  • उन्होंने कहा कि उन्हें इन मामलों में झूठा फंसाया गया था और अशिक्षित और आर्थिक रूप से विवश होने के कारण, उन्होंने इस विश्वास के तहत दोषी ठहराया कि उन्हें दिसंबर 2014 से विचाराधीन कैदी (undertrial prisoner) के रूप में बिताई गई अवधि के लिए रिहा कर दिया जायेगा।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CRPC) की धारा 427(1) के तहत सजा को एक साथ चलाने के विवेक का प्रयोग ट्रायल कोर्ट द्वारा नहीं किया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • अदालत ने कहा कि यह सज़ा अपराध के अनुपात से बहुत अधिक है।
  • न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-डेरे और न्यायमूर्ति गौरी गोडसे की खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि सजा का मुख्य लक्ष्य निवारण और सुधार है, और इस मामले में, इस तरह की अत्यधिक सजा से न्याय का मखौल उड़ जाएगा।

भारतीय दंड संहिता, 1860 में सज़ा

  • सज़ा अपराधी द्वारा किये गये अपराध के परिणामस्वरूप किसी समूह या व्यक्ति पर प्राधिकारी द्वारा लगाया गया एक अवांछनीय या अप्रिय परिणाम है।
  • मनु के अनुसार, " दंड लोगों को नियंत्रण में रखता है, दंड उनकी रक्षा करता है, जब लोग सो रहे होते हैं तो दंड जागता रहता है, इसलिए बुद्धिमानों ने दंड को धर्म का स्रोत माना है" ।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 में, धारा 53, विशेष रूप से विभिन्न प्रकार के दंडों से संबंधित है, यदि व्यक्ति को संहिता के तहत उत्तरदायी ठहराया जाता है तो उसे आपराधिक न्यायालयों द्वारा दंड दिये जा सकते हैं। संहिता की धारा 53 के तहत पाँच प्रकार के दंडों को मान्यता दी गयी है :
    • मृत्यु दंड;
    • आजीवन कारावास;
    • कारावास:
    • 3.1. कठोर कारावास; या
    • 3.2. साधारण कारावास
    • संपत्ति की जब्ती;
    • जुर्माना

सज़ा के सिद्धांत

सज़ा के पाँच प्रमुख सिद्धांत नीचे उल्लिखित हैं:

1. प्रतिशोधात्मक (Retributive):

  • यह लेक्स टैलियोनिस (Lex talionis) के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका अर्थ है 'आंख के बदले आंख'।
  • प्लेटो प्रतिशोधात्मक सिद्धांत के समर्थक थे।

2. निवारक (Deterrent):

  • इसका उद्देश्य अपराधी को इस तरह से दंडित करके दोबारा अपराध करने से "रोकना" है कि यह व्यक्तियों या पूरे समाज के लिये एक उदाहरण स्थापित करे।
  • सैल्मंड के अनुसार, " कानून का मुख्य उद्देश्य दुष्ट व्यक्ति को उसके समान विचारधारा वाले सभी लोगों के लिये एक उदाहरण और चेतावनी बनाना है "।

3. प्रतिबंधात्मक (Preventive):

  • सज़ा का प्रतिबंधात्मक सिद्धांत अपराधियों को अस्थायी या स्थायी रूप से अक्षम करके संभावित अपराधों को रोकने का प्रयास करता है।
  • अपराधियों को कारावास, मौत, निर्वासन, पद की जब्ती आदि जैसे दंडों द्वारा अपराध दोहराने से अक्षम कर दिया जाता है।

4. सुधारात्मक (Reformative):

  • यह मानवतावादी नियम पर निर्भर करता है कि गलत काम करने वाला चाहे कोई भी गलत काम करे, वह इंसान को रहता ही है।
  • इसमें कहा गया है कि सजा का प्राथमिक उद्देश्य अपराधी का सुधार होना चाहिए।

5. प्रतिकारात्मक (Compensatory):

  • इसका मुख्य उद्देश्य अपराधी द्वारा किए गए अपराध से पीड़ित को मुआवजा देना है।
  • जिस अपराधी ने किसी व्यक्ति (या व्यक्तियों के समूह) या संपत्ति को चोट पहुंचाई है, उसे पीड़ित को मुआवजा देना होगा।

समवर्ती और सतत सजा

  • सतत सज़ा उस परिदृश्य को संदर्भित करती है जिसमें एक अदालत दो मामलों में सज़ा सुनाती है, दूसरी सज़ा पहली सज़ा की समाप्ति के बाद शुरू होगी।
  • समवर्ती दंडों का मतलब है कि दो दंड समानांतर रूप से गिने जाएंगे।
  • जब दो दंडों को एक साथ चलाने का निर्देश दिया जाता है, तो वे एक दंड में विलीन हो जाते हैं।
  • सीआरपीसी, 1973 की धारा 31(1) न्यायालय को यह निर्देश देने का विवेकाधिकार देती है कि जब किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक अपराधों के एक मुकदमे में दोषी ठहराया जाता है तो सजा एक साथ चलेगी।
  • सीआरपीसी, 1973 की धारा 427 यह निर्देश देती है कि एक सजा पूरी होने के बाद दूसरी सजा प्रभावी होती है। सज़ा सुनाने वाले न्यायालय के पास सज़ाओं की समवर्तीता का आदेश देने का विवेकाधिकार है।

विविध

वैवाहिक बलात्कार याचिका पर उच्चतम न्यायालय करेगा सुनवाई

 20-Jul-2023

चर्चा में क्यों ?  

उच्चतम न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने से संबंधित याचिकाओं पर तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनवाई करने का निर्णय लिया है।

पृष्ठभूमि

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पहले एक अवसर पर माना था कि यदि कोई पति अपनी पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाता है तो उस पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के तहत बलात्कार का आरोप लगाया जा सकता है।
  • कर्नाटक सरकार ने बाद में शीर्ष अदालत में एक हलफनामे में उच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन किया था।
  • कर्नाटक सरकार ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को हटाने की सिफारिश की थी और प्रस्तावित किया था कि कानून को यह निर्दिष्ट करना चाहिए कि "अपराधी या पीड़ित के बीच वैवाहिक या अन्य संबंध बलात्कार या यौन उल्लंघन के अपराधों के खिलाफ वैध बचाव नहीं है"।
  • हृषिकेश साहू बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य एसएलपी (सीआरएल) 4063/2022 (2022) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले पर अंतरिम रोक लगा दी।
  • आरआईटी फाउंडेशन बनाम यूओआई और अन्य जुड़े मामलों (2022) के मामले दिल्ली उच्च न्यायालय के विभक्त फैसले में जस्टिस सी. हरी शंकर ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार अपवाद को रद्द करने से नए अपराध का निर्माण होगा, जिसके खिलाफ शीर्ष न्यायालय के समक्ष अपील लंबित है।

कानूनी प्रावधान

वैवाहिक बलात्कार

  • वैवाहिक बलात्कार या पति-पत्नी का बलात्कार किसी व्यक्ति की सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाना है। सहमति की कमी आवश्यक तत्व है, और इसमें शारीरिक हिंसा शामिल होना जरूरी नहीं है।
  • बलात्कार के प्रावधान को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के तहत परिभाषित किया गया है जबकि इसके लिए सजा का प्रावधान धारा 376 द्वारा किया गया है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अनुसार, एक व्यक्ति ने "बलात्संग" किया है यदि वह -
  • अपने लिंग को किसी भी हद तक, एक महिला के मुख, योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराता है या उस महिला को उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है; या
  • किसी भी हद तक, किसी भी वस्तु या लिंग के अलावा शरीर का एक हिस्सा, एक महिला के मूत्रमार्ग या गुदा या योनि में प्रवेश कराता है, उस महिला को उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है; या
  • एक महिला के शरीर के किसी भी हिस्से को तोड़-मरोड़ कर उस महिला के मूत्रमार्ग, योनि, गुदा या शरीर के किसी भी भाग में प्रवेश कराता है या उस महिला को उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये कहता है; या
  • अपने मुख को एक महिला के मूत्रमार्ग, योनि या गुदा, पर लगाता है या उस महिला को उसके साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिये निम्नलिखित सात में से किसी एक प्रकार की परिस्थिति में कहता है:
    1. उस महिला की इच्छा के विरुद्ध।
    2. उस महिला की सहमति के बिना।
    3. उस महिला की सहमति से जबकि उसकी सहमति, उसे या ऐसे किसी व्यक्ति, जिससे वह हितबद्ध है, को मृत्यु या चोट के भय में डालकर प्राप्त की गई है।
    4. उस महिला की सहमति से, जबकि वह पुरुष यह जानता है कि वह उस महिला का पति नहीं है और उस महिला ने सहमति इसलिए दी है कि वह विश्वास करती है कि वह ऐसा पुरुष है। जिससे वह विधिपूर्वक विवाहित है या विवाहित होने का विश्वास करती है।
    5. उस महिला की सहमति के साथ, जब वह ऐसी सहमति देने के समय, किसी कारणवश मन से अस्वस्थ या नशे में हो या उस व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रबन्धित या किसी और के माध्यम से या किसी भी बदतर या हानिकारक पदार्थ के माध्यम से, जिसकी प्रकृति और परिणामों को समझने में वह महिला असमर्थ है।
    6. उस महिला की सहमति या बिना सहमति के जबकि वह 18 वर्ष से कम आयु की है।
    7. उस महिला की सहमति जब वह सहमति व्यक्त करने में असमर्थ है।

स्पष्टीकरण -

  • इस खंड के प्रयोजनों के लिए, "योनि" में भगोष्ठ भी होना शामिल होगा।
  • सहमति का मतलब एक स्पष्ट स्वैच्छिक समझौता होता है- जब महिला शब्द, इशारों या किसी भी प्रकार के मौखिक या गैर-मौखिक संवाद से विशिष्ट यौन कृत्य में भाग लेने की इच्छा व्यक्त करती है;
  • बशर्ते एक महिला जो शारीरिक रूप से प्रवेश के लिए विरोध नहीं करती, केवल इस तथ्य के आधार पर यौन गतिविधि के लिए सहमति नहीं माना जाएगा।
  • इसमें दो अपवाद भी शामिल हैं-
    • कोई चिकित्सा प्रक्रिया या हस्तक्षेप बलात्कार संस्थापित नहीं करेगा।
    • बलात्संग के अपराध के लिए आवश्यक मैथुन संस्थापित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है।
    • किसी पुरुष द्वारा अपनी ही पत्नी, जिसकी पत्नी पंद्रह वर्ष से कम उम्र की न हो, के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है (यह अपवाद वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार के दायरे से बाहर रखता है)।

2017 में, उच्चतम न्यायालय ने इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारत संघ (Independent T  v. UOI) के अपने ऐतिहासिक फैसले में, इस कानून को यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अनुरूप लाने के लिये इस उम्र को 15 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया।

न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा समिति, 2012

  • दिल्ली में 2012 के सामूहिक बलात्कार के बाद, जिसे निर्भया बलात्कार मामले के रूप में जाना जाता है, न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा को भारत में बलात्कार कानूनों में सुधार के लिए तीन सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • जबकि इसकी कुछ सिफारिशों ने 2013 में पारित आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम को आकार देने में मदद की , वैवाहिक बलात्कार सहित अन्य सुझावों पर कार्रवाई नहीं की गई।
  • महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों के प्रबंधन में सुझाए गए कुछ सुधार इस प्रकार हैं:
    • रेप संकट प्रकोष्ठ (Rape Crisis Cell) का गठन किया जाये।
    • यौन उत्पीड़न के संबंध में एफआईआर होने पर प्रकोष्ठ को तुरंत सूचित किया जाना चाहिये।
    • इस प्रकोष्ठ को पीड़ित को कानूनी सहायता प्रदान करनी चाहिये।
    • सभी पुलिस स्टेशनों के प्रवेश द्वार और पूछताछ कक्ष में सीसीटीवी होने चाहिये।
    • एक शिकायतकर्ता को ऑनलाइन एफआईआर दर्ज करने में सक्षम होना चाहिये।
    • पुलिस अधिकारियों को अपराध के अधिकार क्षेत्र की परवाह किए बिना यौन अपराधों के पीड़ितों की सहायता करने के लिए कर्तव्यबद्ध होना चाहिये।
    • पीड़ितों की मदद करने वाले जनता के सदस्यों को दुर्व्यवहार करने वाला नहीं माना जाना चाहिये।
    • पुलिस को यौन अपराधों से उचित तरीके से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
    • पुलिस कर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए। स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देकर सामुदायिक पुलिसिंग का विकास किया जाना चाहिये।

अन्य देशों में वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण

  • पोलैंड 1932 में वैवाहिक बलात्कार को स्पष्ट रूप से अपराध घोषित करने वाला पहला देश था।
  • 1976 में ऑस्ट्रेलिया सुधार पारित करने और वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने वाला पहला सामान्य कानून वाला देश था।
  • 1980 के दशक के बाद से दक्षिण अफ्रीका, आयरलैंड, इज़राइल, घाना आदि जैसे कई सामान्य कानून वाले देशों ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित कर दिया है।

वैवाहिक बलात्कार के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय

  • 2013 में, महिलाओं के खिलाफ भेदभाव उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति (UN Committee on Elimination of Discrimination Against Women (CEDAW) ने सुझाव दिया कि भारत को वैवाहिक छूट समाप्त करनी चाहिये।
  • महिलाओं के खिलाफ भेदभाव उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति के अनुच्छेद 1 में कहा गया है वर्तमान कन्वेंशन के प्रयोजनों के लिये, "महिलाओं के खिलाफ भेदभाव" शब्द का अर्थ लिंग के आधार पर किया गया कोई भी भेदभाव, बहिष्करण या प्रतिबंध होगा जिसका प्रभाव या उद्देश्य महिलाओं द्वारा मान्यता, आनंद या व्यायाम को ख़राब करना या रद्द करना है, भले ही वह कुछ भी हो। उनकी वैवाहिक स्थिति, पुरुषों और महिलाओं की समानता, मानवाधिकारों और राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक या किसी अन्य क्षेत्र में मौलिक स्वतंत्रता के आधार पर।
  • हालाँकि भारत CEDAW पर हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, फिर भी यह अनुच्छेद 2 (F) के तहत महिलाओं की वैवाहिक स्थिति की परवाह किये बिना उनकी रक्षा करने के लिये बाध्य है।
    • अनुच्छेद 2 - राज्य पार्टियाँ सभी रूपों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव की निंदा करती हैं, सभी उचित तरीकों से और बिना किसी देरी के महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने की नीति को आगे बढ़ाने पर सहमत होती हैं और इस उद्देश्य से, कार्य करती हैं।
  • मौजूदा कानूनों, विनियमों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं बनते हैं।