Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

दोषसिद्धि से पहले जमानत को सजा के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता

 24-Jul-2023

चर्चा में क्यों?

दिल्ली की विशेष न्यायाधीश सुनैना शर्मा की अदालत ने 12 लाख रुपये की रिश्वत लेने के आरोपी को जमानत दे दी।

अदालत ने टिप्पणी की कि इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 के तहत दर्ज की गयी है, जिसमें केवल सात साल तक की सजा का प्रावधान है और आरोपी एक महीने से अधिक समय से न्यायिक हिरासत में है।

पृष्ठभूमि

  • यह मामला केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 के तहत जून में दर्ज किया था।
  • आरोपी ने शिकायतकर्ता को एक निजी अस्पताल के कर्मचारियों के भविष्य निधि के रिकॉर्ड में अनियमितता के बारे में बताया।
  • आरोपी ने आगे बताया कि उपरोक्त अनियमितताओं के कारण 1.5 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया जायेगा।
  • बाद में, आरोपी ने रिश्वत के रूप में 20 प्रतिशत राशि की शर्त रखकर मामले को बिना किसी दंड के निपटाने का प्रस्ताव रखा, जिसे घटाकर उसने 12 लाख रुपये कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • अदालत ने कहा कि जमानत देने या खारिज करने के विवेक का प्रयोग करते समय, अदालत को विभिन्न कारकों को ध्यान में रखना होगा जैसे:
  • अपराध की प्रकृति,
  • गवाहों के प्रभावित होने या साक्ष्य बाधित होने की आशंका के कारण,
  • पीड़ित या गवाहों के संदर्भ में अभियुक्त की औहदा और स्थिति।
  • अदालत ने आगे कहा कि "दोषी ठहराये जाने से पहले आरोपी को दंडित करने की अप्रत्यक्ष प्रक्रिया में जमानत से इनकार नहीं किया जा सकता है"।

जमानत के बारे में 

  • किसी आरोपी व्यक्ति को हिरासत से न्यायिक रिहाई की प्रक्रिया, इस शर्त पर कि आरोपी व्यक्ति बाद की तारीख में अदालत में पेश होगा, जमानत के रूप में जानी जाती है।
  • आपराधिक अपराधों को जमानती और गैर-जमानती अपराधों के रूप में वर्गीकृत किया गया है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 द्वारा विनियमित किया जाता है।
  • 'जमानत' शब्द सीआरपीसी के तहत परिभाषित नहीं है।
  • इसके अलावा, यह भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 में निहित स्वतंत्रता का एक अंग है।

जमानत के प्रकार

  • नियमित जमानत (जमानती और गैर-जमानती अपराधों में) - यह उस व्यक्ति को दी जा सकती है जिसे पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है और पुलिस हिरासत में रखा गया है। एक व्यक्ति सीआरपीसी, 1973 की धारा 437 और 439 के तहत नियमित जमानत के लिये जमानत याचिका दायर कर सकता है।
  • अग्रिम जमानत - सीआरपीसी की धारा 438 के तहत, कोई भी व्यक्ति जो यह समझता है कि उस पर गैर-जमानती अपराध के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है, वह अग्रिम या पहले ही जमानत के लिये आवेदन कर सकता है।
  • अंतरिम जमानत - इस प्रकार की जमानत आरोपी को नियमित या अग्रिम जमानत देने के लिये सुनवाई से पहले दी जाती है।
  • डिफ़ॉल्ट जमानत- पुलिस या जांच एजेंसी द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर अपनी रिपोर्ट/शिकायत दर्ज करने में चूक करने पर डिफ़ॉल्ट जमानत दी जाती है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21

  • अनुच्छेद 21 भारत के संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत एक मौलिक अधिकार है। इसमें कहा गया है कि, "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा।"
  • यह अधिकार विशेष रूप से राज्य के विरुद्ध प्रदान किया गया है और नागरिकों और गैर-नागरिकों सहित सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध है।
  • जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 359 के तहत उल्लिखित है, अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।
  • शीर्ष अदालत ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले में कहा कि जीवन के अधिकार का मतलब केवल पशुओं जैसे जीवन से नहीं है। इसमें सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।

कानूनी प्रावधान

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7

लोक सेवक द्वारा पदीय कार्य के लिए वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण लिया जाना- जो कोई लोक सेवक होते हुए या होने की प्रत्याशा रखते हुए वैध पारिश्रमिक से भिन्न किसी प्रकार का भी कोई परितोषण इस बात के करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में किसी व्यक्ति से अपने लिये या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक अपना कोई पदीय कार्य करे या करने से प्रविरत रहे अथवा किसी व्यक्ति को अपने पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह या अननुग्रह दिखाये या दिखाने से प्रविरत रहे अथवा केंद्रीय सरकार या किसी राज्य की सरकार या संसद् या किसी राज्य विधान-मंडल में या धारा 2 के खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या सरकारी कंपनी में या किसी लोक सेवक के यहां, चाहे वह नामित हो या नहीं, किसी व्यक्ति का कोई उपकार या अपकार करे या करने का प्रयत्न करे, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष से कम नहीं और सात वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडित किया जायेगा ।

स्पष्टीकरण

(क) लोक सेवक होने की प्रत्याशा रखते हुए"-यदि कोई व्यक्ति जो किसी पद पर होने की प्रत्याशा न रखते हुए, दूसरों को प्रवंचना से यह विश्वास करा कर कि वह किसी पद पर होने वाला है और यह कि तब वह उनका उपकार करेगा, उससे परितोषण अभिप्राप्त करेगा, तो वह छल करने का दोषी हो सकेगा किंतु वह इस धारा में परिभाषित अपराध का दोषी नहीं है ।

(ख) परितोषण -  "परितोषण" शब्द से धन संबंधी परितोषण तक, या उन परितोषणों तक ही, जो धन में आंके जाने  योग्य हैं, निर्बंधित नहीं है ।

(ग) वैध पारिश्रमिक"-वैध पारिश्रमिक" शब्द उस पारिश्रमिक तक ही निर्बंधित नहीं हैं जिसकी मांग कोई लोक सेवक विधि पूर्ण रूप से कर सकता है, किंतु इसके अंतर्गत वह समस्त पारिश्रमिक आता है जिसको प्रतिगृहीत करने के लिये उस सरकार या संगठन द्वारा, जिसकी सेवा में है, उसे अनुज्ञा दी गई है ।

(घ) कार्य करने के लिए हेतुक या इनाम"-वह व्यक्ति जो वह कार्य करने के लिये हेतुक या इनाम के रूप में, जिसे करने का उसका आशय नहीं है, या जिसे करने की स्थिति में वह नहीं है या जो उसने नहीं किया है, परितोषण प्राप्त करता है, इस पद के अंतर्गत आता है ।

(ङ) जहां कोई लोक सेवक किसी व्यक्ति को यह गलत विश्वास करने के लिये उत्प्रेरित करता है कि सरकार में उसके असर से उस व्यक्ति को कोई हक अभिप्राप्त हुआ है, और इस प्रकार उस व्यक्ति को इस सेवा के लिये पुरस्कार के रूप में लोक सेवक को धन या कोई अन्य परितोषण देने के लिये उत्प्रेरित करता है, तो यह इस धारा के अधीन लोक सेवक द्वारा किया गया अपराध होगा ।


नियामक संस्था

मद्रास उच्च न्यायालय ने भारतीय वायु सेना से आंतरिक शिकायत पैनल स्थापित करने को कहा

 24-Jul-2023

चर्चा में क्यों?

मद्रास उच्च न्यायालय ने केंद्रीय रक्षा मंत्रालय को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि भारतीय वायु सेना में एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) होनी चाहिये और जेंडर-संवेदनशील जागरूकता प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिये।

पृष्ठभूमि

  • एक महिला अधिकारी ने कोयंबटूर में स्थानीय पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी, जब उसे लगा कि भारतीय वायु सेना बल (IAF) के अधिकारियों ने उसकी शिकायत पर आरोपी की जांच करते समय उसे और अधिक प्रताड़ित किया है।
  • पुलिस ने कहा कि महिला ने उनसे इसलिये संपर्क किया था क्योंकि वह वायु सेना द्वारा आंतरिक रूप से की गयी कार्रवाई के तरीके से संतुष्ट नहीं थी।
  • कोयंबटूर पुलिस में दुष्कर्म पीड़िता की शिकायत के बाद फ्लाइट लेफ्टिनेंट को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • महिला ने यह भी गंभीर आरोप लगाया था कि वायुसेना के डॉक्टरों ने बलात्कार की जांच करने के लिए उसका टू-फिंगर टेस्ट किया था, जिस पर 2013 में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी।
  • हालांकि, वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल विवेक राम चौधरी ने इस आरोप से इनकार किया 
  • एयर फोर्स एडमिनिस्ट्रेटिव कॉलेज के वकील ने कहा कि आरोपी पर कोर्ट मार्शल के समक्ष मुकदमा चलाया और उसे अपराध के लिए दोषी ठहराया गया।

 न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. एन. मंजुला ने कहा कि “जागरूकता और संवेदनशीलता के इस युग में, यह समझना मुश्किल है कि सशस्त्र बलों में यौन अपराध की पीड़िता अपनी शिकायत उठाने के लिये पर्याप्त रूप से सहज नहीं थी और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता था” और मामले की रिपोर्ट करने का दुस्साहस न करने के लिये उस पर दबाव डाला गया”।
  • अदालत ने यह भी कहा कि "भले ही मुकदमे के अंत में आरोपी को दोषी ठहराया जाता है, इसे पूर्ण न्याय नहीं कहा जा सकता है और आरोपी की सजा के बाद भी इस तरह का उत्पीड़न जारी रह सकता है।"
  • न्यायमूर्ति आर. एन. मंजुला ने केंद्र सरकार को कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 (Sexual Harassment of Women at Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act of 2013) के अनुसार आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का उचित अस्तित्व सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।

टू फिंगर टेस्ट

  • एक मेडिकल प्रैक्टिशनर द्वारा किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट में महिला की योनि की जाँच की जाती है ताकि यह जाँचा जा सके कि वह संभोग की आदी है या नहीं।
  • जिस महिला का यौन उत्पीड़न किया गया है, उसके स्वास्थ्य और चिकित्सा आवश्यकताओं का पता लगाने, साक्ष्य एकत्र करने आदि के लिए इस मेडिकल टेस्ट से गुजरना पड़ता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने लिलू उर्फ़ राजेश और अन्य बनाम हरियाणा राज्य (2013) मामले में टू-फिंगर टेस्ट (जिसे 'कौमार्य जांच' या virginity test’ or ‘per vaginum’ test भी कहा जाता है) को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। यह कहा गया था कि यह टेस्ट "बलात्कार पीड़िताओं की निजता, शारीरिक और मानसिक अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है।"

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न निवारण अधिनियम, 2013

  • विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997) वह ऐतिहासिक मामला है जिसके कारण इस कानून को अधिनियमित किया गया ।
  • इस मामले में पारित दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:
    • प्रत्येक महिला कर्मचारी को सुरक्षा की भावना प्रदान करना प्रत्येक नियोक्ता का कर्तव्य है।
    • सरकार को यौन उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए सख्त कानून और नियम बनाने चाहिये।
    • इस तरह के किसी भी कृत्य के परिणामस्वरूप अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिये और गलत करने वाले के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी की जानी चाहिये।
    • पीड़ित द्वारा की गई शिकायतों के निवारण के लिए संगठन के पास एक सुव्यवस्थित शिकायत तंत्र होना चाहिये और यह उचित समय सीमा के अधीन होना चाहिये।
    • यह शिकायत तंत्र शिकायत समिति के रूप में होना चाहिये जिसकी अध्यक्षता एक महिला सदस्य द्वारा की जानी चाहिये और समिति में कम से कम 50% सदस्य महिलाएँ होनी चाहिये ताकि पीड़ितों को अपनी समस्याएँ बताते समय शर्म महसूस न हो।
    • इस शिकायत समिति में एक एनजीओ या अन्य निकाय के रूप में तीसरे पक्ष की भागीदारी भी होनी चाहिये जो इस मुद्दे से परिचित हो।
    • इस समिति के कामकाज में पारदर्शिता होना अत्यावश्यक है और इसके लिये सरकार को वार्षिक रिपोर्ट सौंपने की आवश्यकता है।
    • कर्मचारियों की बैठक में यौन उत्पीड़न से संबंधित मुद्दे वर्जित नहीं होने चाहिये और उन पर सकारात्मक चर्चा होनी चाहिये।
    • संगठन का यह कर्तव्य है कि वह महिला कर्मचारियों को जारी किये गये नये दिशानिर्देशों और पारित कानून के बारे में नियमित रूप से सूचित करके उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करे।
    • नियोक्ता या प्रभारी व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह तीसरे पक्ष के कृत्य या चूक के कारण होने वाले यौन उत्पीड़न की पीड़िता को सहायता प्रदान करने के लिये आवश्यक और उचित कदम उठाये।
    • ये दिशानिर्देश केवल सरकारी नियोक्ताओं तक ही सीमित नहीं हैं और निजी क्षेत्रों के नियोक्ताओं को भी इसका पालन करना चाहिये।
  • मेधा कोटवाल लेले और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य मामले (2012) ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवश्यक कदम उठाने के लिये नोटिस जारी करके, जैसा कि ऊपर बताया गया है, विशाखा के मामले में तैयार दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन में मदद की।
  • यौन उत्पीड़न को उक्त अधिनियम की धारा 2(N) द्वारा परिभाषित किया गया है और धारा 3(2) में कुछ परिस्थितियों का उल्लेख है जो यौन उत्पीड़न का कारण बनती हैं।
  • धारा 2(N) - "लैंगिक उत्पीड़न" में निम्नलिखित में से कोई एक या अधिक अवांछित कार्य या व्यवहार (चाहे प्रत्यक्ष या विवक्षत रूप से) शामिल हैं: -
    • शारीरिक संपर्क और अग्रगमन; या
    • यौन अनुकूलता की मांग या अनुरोध करना; या
    • लैंगिक अत्युक्त्त टिप्पणियाँ करना; या
    • अश्लील साहित्य दिखाना; या
    • लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक या अमौखिक आचरण करना;
  • धारा 3-(2) अन्य परिस्थितियों में, निम्नलिखित परिस्थितियाँ, यदि वे लैंगिक उत्पीड़न के किसी कार्य या आचरण के संबंध में होती है या विद्यमान है या उससे संबद्ध है, तो लैंगिक उत्पीड़न की कोटि में आ सकती है –
    • उसके नियोजन में अधिमानी व्यवहार का विवक्षित या सुस्पष्ट वचन देना; या
    • उसके नियोजन में अहितकर व्यवहार की विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
    • उसके वर्तमान या भावी नियोजन की प्रास्थिति के बारे में विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
    •  उसके कार्य में हस्तक्षेप करना या उसके लिए अभित्रासमय या संतापकारी या प्रतिकूल कार्य वातावरण सृजित करना; या
    • उसके स्वास्थ्य या सुरक्षा को प्रभावित करने वाला अपमानजनक व्यवहार करना।
  • उक्त कानून की धारा 4 आंतरिक शिकायत समिति के गठन का प्रावधान करती है।

कानूनी प्रावधान

आंतरिक परिवाद समिति का गठन

आंतरिक परिवाद समिति का गठन – 

(1) किसी कार्यस्थल का प्रत्येक नियोजक, लिखित आदेश द्वारा, "आंतरिक परिवाद समिति" नामक एक समिति का गठन करेगा:

परंतु जहाँ  कार्यस्थल के कार्यालय या प्रशासनिक यूनिटें भिन्न-भिन्न स्थानों या खंड या उपखंड स्तर पर अवस्थित हैं, वहाँ आंतरिक समिति सभी प्रशासनिक यूनिटों या कार्यालयों में गठित की जायेगी।

(2) आंतरिक समिति, नियोजक द्वारा नामनिर्देशित किये जाने वाले निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगी, अर्थात्:- 

(क) एक पीठासीन अधिकारी, जो कर्मचारियों में से कार्यस्थल पर ज्येष्ठ स्तर पर नियोजित महिला होगी :

 परंतु किसी ज्येष्ठ स्तर की महिला कर्मचारी के उपलब्ध नहीं होने की दशा में, पीठासीन अधिकारी, उपधारा (1) में निर्दिष्ट कार्यस्थल के अन्य कार्यालयों या प्रशासनिक यूनिटों से नामनिर्देशित किया जाएगा:

और कार्यस्थल के अन्य कार्यालयों या प्रशासनिक यूनिटों में ज्येष्ठ स्तर की महिला कर्मचारी नहीं होने की दशा में, पीठासीन अधिकारी, उसी नियोजक या अन्य विभाग या संगठन के किसी अन्य कार्यस्थल से नामनिर्दिष्ट किया जायेगा,

 (ख) कर्मचारियों में से दो से अन्यून ऐसे सदस्य, जो महिलाओं की समस्याओं के प्रति अधिमानी रूप से प्रतिबद्ध हैं। या जिनके पास सामाजिक कार्य में अनुभव है या विधिक ज्ञान है;

(ग) गैर-सरकारी संगठनों या संगमों में से ऐसा एक सदस्य जो महिलाओं की समस्याओं के प्रति प्रतिबद्ध है या ऐसा कोई व्यक्ति, जो लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों से सुपरिचित है: परंतु इस प्रकार नामनिर्देशित कुल सदस्यों में से कम से कम आधे सदस्य महिलायें होंगी।

(3) आंतरिक समिति का पीठासीन अधिकारी और प्रत्येक सदस्य अपने नामनिर्देशन की तारीख से तीन वर्ष से अनधिक की ऐसी अवधि के लिये पद धारण करेगा, जो नियोजक द्वारा विनिर्दिष्ट की जाये।

(4) गैर-सरकारी संगठनों या संगमों में से नियुक्त किये गये सदस्य को आंतरिक समिति की कार्यवाहियाँ करने के लिये नियोजक द्वारा ऐसी फीस या भत्ते, जो विहित किए जायें, सदंत किये जायेंगे।

 (5) जहां आंतरिक समिति का पीठासीन अधिकारी या कोई सदस्य,-

 (क) धारा 16 के उपबंधों का उल्लंघन करता है; या

(ख) किसी अपराध के लिये दोषसिद्धि ठहराया गया है या उसके विरुद्ध तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन किसी अपराध की कोई जाँच लंबित है, या

(ग) किन्हीं अनुशासनिक कार्यवाहियों में दोषी पाया गया है या उसके विरुद्ध कोई अनुशासनिक कार्यवाही लंबित है; या

(घ) अपनी हैसियत का इस प्रकार दुरुपयोग करता है, जिससे उसका पद पर बने रहना लोक हित पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला हो गया है,

वहां, यथास्थिति, ऐसे पीठासीन अधिकारी या सदस्य को समिति से हटा दिया जायेगा और इस प्रकार सृजित रिक्ति या किसी अन्य आकस्मिक रिक्ति को इस धारा के उपबंधों के अनुसार नये नामनिर्देशन द्वारा भरा जायेगा।