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राजस्थान
वादपत्र में संशोधन
07-Aug-2023
स्रोत: बॉम्बे हाई कोर्ट
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति मनीष पितले की खंडपीठ ने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श किया कि क्या सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC)) के संशोधित आदेश XI का विशिष्ट आदेश वाद में संशोधन के प्रस्ताव पर लागू होता है।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने खन्ना रेयॉन इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम स्वास्तिक एसोसिएट्स एवं अन्य (Khanna Rayon Industries Pvt. Ltd. v. Swastik Associates & Ors.) के प्रकरण/वाद में यह टिप्पणी की।
पृष्ठभूमि
बॉम्बे हाइकोर्ट ने एक वाणिज्यिक मुकदमे में संशोधन करने के एक आवेदन पर सुनवाई की, जिसमें उन दस्तावेज़ों को रिकॉर्ड पर रखने की मांग की गई थी जो मुकदमा दायर करने के समय वादी की शक्ति, अभिरक्षा, नियंत्रण या कब्ज़े में थे।
आवेदक/वादी ने वादपत्र के साथ प्रस्तुत किये गए दो दस्तावेज़ों (Exibits) में से एक के संदर्भ में वादपत्र में उपरोक्त संशोधन की मांग की।
प्रस्तुत किये गए दूसरे दस्तावेज़ में प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, वादी ने दो दस्तावेज़ रिकॉर्ड पर रखने की मांग की।
प्रतिवादी ने प्रस्तावित संशोधन पर आपत्ति उठाते हुए कहा कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 द्वारा संशोधित CPC के संशोधित आदेश XI की आवश्यकताओं का पालन किये बिना दस्तावेज़ पेश नहीं किये जा सकते।
वादी ने तर्क दिया कि प्रस्तावित संशोधन CPC के आदेश VI नियम 17 के दायरे में था क्योंकि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 ने CPC में विशिष्ट संशोधन पेश किया था लेकिन VI नियम 17 में संशोधन नहीं किया गया था।
वादी ने न्यायालय से उदार दृष्टिकोण अपनाने और चल रहे विवाद में वास्तविक प्रश्न निर्धारित करने के लिये संशोधन की अनुमति देने को कहा।
न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)
न्यायालय ने कहा कि "यह नहीं कहा जा सकता है कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के अनुसार प्रक्रियात्मक कानून अर्थात् CPC में पेश की गई कठोरता को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है क्योंकि CPC के आदेश VI नियम 17 को वाणिज्यिक मुकदमों के संदर्भ में संशोधित नहीं किया गया है।"
न्यायालय ने आगे कहा कि "एक ऐसा आवेदन, जो मूलतः CPC के आदेश XI से संबंधित एक आवेदन है, जैसा कि वाणिज्यिक मुकदमों पर लागू होता है, CPC के आदेश VI नियम 17 के तहत संशोधन के लिये एक आवेदन के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।"
अभिवचनों में संशोधन (Amendment of Pleadings)
CPC के आदेश VI नियम 1 के अनुसार, "अभिवचन" का अर्थ ऐसा वादपात्र या लिखित बयान होगा, जिसमें एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के तर्कों को समझने के लिये आवश्यक सभी विवरण शामिल होते हैं।
CPC के तहत याचिका में संशोधन आदेश VI नियम 17 के तहत किया जा सकता है।
इस नियम का पहला भाग न्यायालय को यह कहकर विवेकाधीन शक्ति देता है कि वह विवाद में वास्तविक प्रश्न निर्धारित करने के लिये संशोधन के लिये आवेदन की अनुमति ‘दे सकता है’।
दूसरा भाग न्यायालय के लिये उस स्थिति में आवेदन को अनुमति देना अनिवार्य बनाता है यदि उसे पता चलता है कि पक्षकार मुकदमा शुरू होने से पहले उचित परिश्रम के बावजूद इस मुद्दे को नहीं उठा सकते थे।
परंतुक के रूप में दूसरा भाग आदेश VI नियम 17 में वर्ष 2002 में जोड़ा गया था।
सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, तमिलनाडु बनाम भारत संघ और अन्य (2005) प्रकरण/वाद में, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि प्रावधान जोड़ने का उद्देश्य उन निरर्थक आवेदनों को रोकना है जो मुकदमे में देरी करने के लिये दायर किये जाते हैं।
मूल सिद्धांत (Cardinal Principles)
रेवाजीतू बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम नारायणस्वामी एंड संस (2009) प्रकरण/वाद में आदेश VI नियम 17 के तहत आवेदन को अनुमति देने या अस्वीकार करने के लिये निम्नलिखित कुछ मूल सिद्धांत निर्धारित किये:
(i) क्या मांगा गया संशोधन प्रकरण/वाद के उचित और प्रभावी निर्णय के लिये अनिवार्य है?
(ii) क्या संशोधन के लिये आवेदन प्रामाणिक है या दुर्भावनापूर्ण?
(iii) संशोधन से दूसरे पक्ष पर ऐसा पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये जिसकी भरपाई धन के रूप में पर्याप्त रूप से नहीं की जा सके;
(iv) संशोधन से इनकार करने से वास्तव में अन्याय होगा या कई मुकदमे चलेंगे;
(v) क्या प्रस्तावित संशोधन संवैधानिक या मूलरूप से प्रकरण/वाद की प्रकृति और चरित्र को बदलता है? और
(vi) यदि संशोधित दावों पर एक नया मुकदमा आवेदन की तिथि के बाद दायर किया जाए तो एक सामान्य नियम के रूप में, न्यायालय को संशोधनों को अस्वीकार कर देना चाहिये।
विधायी प्रावधान (Legal Provisions)
CPC का आदेश VI नियम 17 - अभिवचनों में संशोधन: न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी पक्ष को अपनी दलीलों को इस तरह से और ऐसी शर्तों पर बदलने या संशोधित करने की अनुमति दे सकता है जो उचित हो और ऐसे सभी संशोधन किये जाएँगे जो पार्टियों के बीच विवाद में वास्तविक प्रश्नों को निर्धारित करने के उद्देश्य से आवश्यक होंगे :
बशर्ते कि सुनवाई शुरू होने के बाद संशोधन के लिये किसी भी आवेदन की अनुमति नहीं दी जाएगी जब तक कि न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचती कि उचित परिश्रम के बावजूद, पक्ष सुनवाई शुरू होने से पहले इस मुद्दे को नहीं उठा सकती थी।
CPC के आदेश XI 1(5) - वादी को उन दस्तावेज़ों पर भरोसा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, जो वादी की शक्ति, अभिरक्षा, नियंत्रण या कब्ज़े में थे और वादपत्र के साथ या न्यायलय की अनुमति के सिवाय उपरोक्त उपवर्णित विस्तारित अवधि के भीतर प्रकट नहीं किये गए थे और ऐसी अनुमति केवल वादी द्वारा वादपत्र के साथ गैर-प्रकटीकरण के लिये उचित कारण स्थापित करने पर ही दी जाएगी।
राजस्थान
असम विधायी अधिनियम द्वारा बहुविवाह पर लगाएगा प्रतिबंध
07-Aug-2023
चर्चा में क्यों?
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा है कि राज्य सरकार इस्लामिक कानून के तहत बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिये कानून बनाएगी ।
पृष्ठभूमि (Background )
असम सरकार ने इस तरह का कानून निर्माण के लिये राज्य विधायिका की क्षमता की जाँच करने और 60 दिनों के भीतर एक रिपोर्ट सौंपने के लिये गुवाहाटी उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश रूमी फुकन की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का गठन किया है।
समिति ने कहा कि विवाह और तलाक समवर्ती सूची के विषय हैं, राज्य द्वारा निर्मित कानून राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद ही राज्य में लागू किया जा सकेगा।
यह भी कहा गया कि बहुविवाह भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14,15,21 के तहत इस्लामी महिलाओं को प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
समिति का यह भी कहना था कि बहुविवाह की अनुमति है लेकिन क्या यह एक अनिवार्य प्रथा नहीं है क्योंकि यह इस्लाम की आवश्यक धार्मिक प्रथाओं का हिस्सा नहीं है, इसलिये इस प्रकृति में अधिनियमित कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं करेगा, लेकिन मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम 1937 (Muslim Personal (Shariat) Act 1937) द्वारा संरक्षित है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधिनियमन के बाद हिंदुओं, बौद्धों और सिखों के बीच बहुविवाह को समाप्त कर दिया गया।
ईसाइयों के बीच ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 (Christian Marriage Act, 1872) द्वारा और पारसियों के बीच पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 (Parsi Marriage and Divorce Act, 1936) द्वारा बहुविवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, हालाँकि, मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) अधिनियम 1937 द्वारा संरक्षण के कारण मुसलमानों द्वारा बहुविवाह का चलन जारी है।
समिति ने टिप्पणी की कि उच्चतम न्यायालय ने बार-बार विधायिका को समान नागरिक संहिता (UCC) की वांछनीयता पर ज़ोर देते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य नीति के निदेशक तत्वों (DPSP) पर कार्य करने का सुझाव दिया है।
बहुविवाह (Polygamy)
“बहुविवाह एक ही समय में एक से अधिक व्यक्तियों से विवाह करने का तथ्य या प्रथा है। “
इस्लामी कानून या निकाह के तहत विवाह, एक संस्कार नहीं है (जैसा कि हिंदू धर्म में है), बल्कि एक पुरुष और महिला के बीच पति और पत्नी के रूप में रहने के लिये एक नागरिक अनुबंध है।
मुस्लिम विवाह दोनों पक्षों द्वारा अपनी स्वतंत्र इच्छा से किया जाता है क्योंकि विवाह उपरांत यह अनुबंध का रूप ले लेता है क्योंकि पक्षों के बीच एक प्रस्ताव (इज़ाब) और स्वीकृति (कुबूल) होता है।
शरीयत कानून (Shariat Law)
भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अनुसार, 1860 द्विविवाह एक दाण्डिक अपराध है जबकि शरीयत अधिनियम की धारा 2 मुसलमानों को बहुविवाह करने की अनुमति देती है।
ऑल-इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा व्याख्या किये गए 1937 के मुस्लिम स्वीय विधि एप्लीकेशन एक्ट (शरीयत) की शर्तों के अधीन हैं।
मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह करने की अनुमति नहीं है जो विशेष रूप से धर्म और लिंग पर आधारित विवेकाधीन और गैर-तर्कसंगत आदेश है।
धारा 2. मुसलमानों को स्वीय विधि का लागू होना- निर्वसीयती उत्तराधिकार स्त्रियों की विशेष सम्पत्ति, जिसमें विरासत में मिली या संविदा या दान स्वीय विधि के किसी अन्य उपबंध के अधीन प्राप्त हुई स्वीय संपत्ति आती है, विवाह, विवाह-विघटन, जिसमें तलाक, इला, जिहार, लियान, खुला तथा मुबारात आते हैं, भरणपोषण, मेहर, संरक्षकता, दाने, न्यास तथा न्याय-संपत्ति और वक्फ (जो पूर्त तथा पूर्त संस्थाओं तथा पूर्त धार्मिक विन्यासों से भिन्न हो) से संबंधित (कृषि भूमि से से संबद्ध प्रश्नों के सिवाय) सभी प्रश्नों में तत्प्रतिकूल किसी रूढ़ि या प्रथा के होते हुए भी, ऐसे मामलों में जहाँ पक्षकार मुसलमान है वहाँ विनिश्चय का नियम मुस्लिम स्वीय विधि (शरीयत) होगा।
भारत का संविधान, 1950
अनुच्छेद 14 दो सिद्धांतों का मिश्रण है, विधि के समक्ष समाता और विधि का समान संरक्षण।
अनुच्छेद 14 - विधि के समक्ष समाता - राज्य भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समाता या विधिके समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
अनुच्छेद 15(1) में उल्लेख है कि राज्य द्वारा लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और इसका उल्लेख इस प्रकार है:
अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध - (1) राज्य किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद 25 धार्मिक आस्था की रक्षा करता है न कि ऐसी प्रथा की जो सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य या नैतिकता के विपरीत हो सकती है।
अनुच्छेद 25 - अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता -
अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता
(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो-
(क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है;
(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिये या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिये खोलने का उपबंध करती है।
स्पष्टीकरण 1-कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा ।
स्पष्टीकरण 2-खंड (2) के उपखंड (ख) में हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तद्नुसार लगाया जाएगा।
DPSP के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि "राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा"। UCC का लक्ष्य सभी नागरिकों के लिये एक समान कानूनी ढाँचा स्थापित करना है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो।
समवर्ती सूची - सूची-III (सातवीं अनुसूची) कुल 52 मदों की एक सूची है। इसमें केंद्र और राज्य सरकार दोनों द्वारा कानून निर्माण की शक्ति शामिल है।
उन निर्णयज विधि (case laws) की सूची, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने UCC के महत्त्व पर ज़ोर दिया
मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985)
उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गतगुजारा भत्ता पाने के अधिकार के संबंध में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में निर्णय दिया था । इसके अलावा, इसने सिफारिश की कि एक UCCस्थापित किया जाए।
सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995)
इसमें प्रश्न यह था कि क्या कोई हिंदू पति इस्लाम अपनाकर हिंदू विधि के तहत विवाह कर सकता है, क्या वह दूसरा विवाह कर सकता है? उच्चतम न्यायालय ने माना कि धर्म परिवर्तन किसी व्यक्ति को कानून के प्रावधानों को तोड़ने और द्विविवाह करने की अनुमति नहीं देता है।
टिप्पणी:
हाल ही में, भारत के 22 वें विधि आयोग ने UCC के संबंध में आम जनता के साथ-साथ मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों की राय और सुझाव लेने का विकल्प चुना है।
भारतीय विधि आयोग (2018): इसने कहा कि UCC इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है, क्योंकि यह राष्ट्र की सद्भावना के लिये अनुत्पादक होगा।
इसने यह भी सुझाव दिया कि स्वीय विधियों में सुधार संशोधन द्वारा किया जाना चाहिये न कि प्रतिस्थापन द्वारा।
राजस्थान
शादी के झूठे वादे पर सहमति
07-Aug-2023
चर्चा में क्यों?
बबलूजुम्मन शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य के प्रकरण/वाद में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अपनी मुवक्किल के साथ बलात्कार के आरोपी वकील को अग्रिम जमानत दे दी है, यह देखते हुए कि संबंध सहमति से बने प्रतीत होते हैं।
पृष्ठभूमि
आवेदक और प्राथमिकी दर्ज करवाने वाला व्यक्ति जनवरी 2023 के महीने में एक-दूसरे से परिचित हुए।
प्राथमिकी दर्ज करवाने वाले का दावा है कि आवेदक जो पेशे से वकील है, उसकी मुकदमेबाज़ी में मदद कर रहा था।
उसने उसे बताया कि वह अविवाहित है और उसने शादी का झूठा वादा करके उसकी सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाए।
मार्च 2023 में पीड़ित ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 376 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर ) दर्ज कराई ।
न्यायालय ने उन्हें आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत एक आवेदन पर अग्रिम जमानत दे दी ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
● न्यायमूर्ति अनुजा प्रभुदेसाई ने कहा कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री, विशेष रूप से व्हाट्सएप चैट, संदेश, प्रथम दृष्टया संकेत देते हैं कि प्राथमिकी दर्ज करवाने वाले ने न केवल घटना की कथित तारीख के बाद, बल्कि एफआईआर दर्ज कराने के बाद भी आवेदक के साथ लगातार संपर्क बनाए रखा था, यानी यह जानने के बाद भी कि वह एक शादीशुदा आदमी है।
● न्यायालय ने यह कहा कि प्रथम दृष्टया यह संबंध आपसी सहमति से बना प्रतीत होता है।
कानूनी प्रावधान
धारा 376, आईपीसी
● यह धारा बलात्कार के लिये सज़ा से संबंधित है ।
● बलात्कार करने की सज़ा दस साल का कठोर कारावास है जिसे आजीवन कारावास और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है ।
● आईपीसी की धारा 376 के तहत यह अपराध गैर-जमानती और संज्ञेय है।
● आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 के आधार पर आईपीसी की धारा 376 में निम्नलिखित संशोधन किये गए।
● धारा 376ए जोड़ी गई थी जिसमें कहा गया था कि यदि किसी व्यक्ति ने बलात्कारकिया है, जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो गई, या वह बेहोशी की हालत में है या घायल हो गई है, तो उसे 20 साल की कैद की सजा दी जाएगी, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
● फिर धारा 376ख जोड़ी गई और इस धारा के अनुसार यदि कोई पति अलग होने के बाद अपनी पत्नी से बलात्कार का दोषी है, तो उसे 2 से 7 साल तक की कैद और जुर्माना होगा।
● इसके बाद, धारा 376ग शामिल की गई जिसमें कहा गया है कि अगर किसी भी प्राधिकार का कोई व्यक्ति बलात्कार करता है, तो उस व्यक्ति को कम से कम पाँच साल की कैद की सजा दी जाएगी, जिसे 10 साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना लगाया जाएगा।
● फिर धारा 376घ जोड़ी गई जिसमें सामूहिक बलात्कार के लिये 20 साल की सज़ा का प्रावधान किया गया , जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
● इसके बाद, धारा 376ड जोड़ी गई जिसमें कहा गया है कि बलात्कार के लिये दूसरी बार दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास होगा।
● आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2018 के आधार पर धारा 376 में निम्नलिखित संशोधन किये गए थे ।
o किसी महिला से बलात्कार के लिये न्यूनतम सज़ा 7 साल से बढ़ाकर 10 साल कर दी गई।
o 16 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार के लिये न्यूनतम 20 साल की सजा होगी, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
o 12 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार पर न्यूनतम 20 साल की सज़ा होगी, जिसे आजीवन कारावास या मौत की सज़ा तक बढ़ाया जा सकता है।
o किसी लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में, 16 वर्ष से कम आयु में, आजीवन कारावास की सजा होगी।
o 12 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में, सज़ा आजीवन कारावास या मौत होगी।
● आईपीसी की धारा 375 बलात्कार को परिभाषित करती है और इसमें किसी महिला के साथ बिना सहमति के संभोग सहित सभी प्रकार के यौन उत्पीड़न शामिल हैं।
● हालाँकि, यह प्रावधान दो अपवाद भी बताता है।
o वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के अलावा, इसमें उल्लेख किया गया है कि चिकित्सा प्रक्रियाओं या हस्तक्षेपों को बलात्कार नहीं माना जाएगा।
o आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है कि "किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना, और अगर पत्नी पंद्रह वर्ष से कम उम्र की न हो, तो बलात्कार नहीं है"।
● विजय जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य मामले में यानी (शक्ति मिल्स रेप केस2013) में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 376ई को संवैधानिक रूप से वैध घोषित किया।
● मुकेश और अन्य बनाम दिल्ली एनसीटी और अन्य मामले यानी (निर्भया केस2017) में, सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपियों को दी गई मौत की सज़ा को बरकरार रखा और कहा कि यह मामला "दुर्लभ से दुर्लभतम" श्रेणी में आता है। इस घटना के बाद वर्ष 2013 में आपराधिक कानून में संशोधन किया गया।
धारा 438, सीआरपीसी
● सीआरपीसी की धारा 438 अग्रिम जमानत के प्रावधान से संबंधित है।
● अग्रिम जमानत के तहत, कोई आरोपी गिरफ्तार होने से पहले जमानत के लिये आवेदन कर सकता है।
● यह सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।
● यह जमानत विवेकाधीन है और न्यायालय अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर विचार करने के बाद जमानत दे सकती है।
● सीआरपीसी, 1973 के अनुसार अग्रिम जमानत में निम्नलिखित में से कोई भी शर्त हो सकती है:
o आवेदक आवश्यकता पड़ने पर पूछताछ के लिये उपलब्ध होगा , जिसका अर्थ है कि वह जाँच में सहयोग करेगा।
o आवेदक किसी भी गवाह को प्रेरित नहीं करेगा, धमकी नहीं देगा या मना नहीं करेगा ।
o आवेदक न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ेगा ।
o कोई अन्य शर्त जिसे न्यायालय उचित समझे।
● सीआरपीसी की धारा 437(5) एवं धारा 439 अग्रिम जमानत को रद्द करने से संबंधित है। तथ्यों पर उचित विचार करने पर न्यायालय को जमानत रद्द करने या जमानत से संबंधित आदेश वापस लेने का अधिकार है।
● गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सीआरपीसी की धारा 438(1) की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा) के आलोक में की जानी चाहिये । न्यायालय ने यह भी माना कि किसी व्यक्ति के अधिकार के मामले के रूप में अग्रिम जमानत देना निश्चित अवधि तक सीमित नहीं होना चाहिये।
● सलाउद्दीन अब्दुलसमद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1995) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि अग्रिम जमानत देना निश्चित अवधि तक सीमित होना चाहिये।
● सुशीला अग्रवाल और अन्य बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली 2020) में, शीर्ष न्यायालय ने माना कि सामान्य नियम के रूप में अग्रिम जमानत एक निश्चित अवधि तक सीमित नहीं होगी ।