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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

यौन उत्पीड़ित गर्भवती महिलाओं हेतु व्यवहारात्मक दिशा-निर्देश

 10-Aug-2023

स्रोत : दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने नबल ठाकुर बनाम राज्य मामले में यौन उत्पीड़ित गर्भवती महिलाओं के साथ व्यवहार करने के दौरान अधिकारियों और डॉक्टरों द्वारा पालन किये जाने वाले दिशा-निर्देशों की एक शृंखला जारी की है

पृष्ठभूमि

  • न्यायालय ने एक नाबालिग लड़की के यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्ति द्वारा दायर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC)) की धारा 439 के तहत जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए ये निर्देश जारी किये।
  • वर्तमान प्रकरण/वाद में आरोपी व्यक्ति पीड़िता के घर के पास ही रहता था।
  • उसने लड़की को झूठे बहाने से अपने घर बुलाया और उससे कहा कि वह उसे तब तक नहीं जाने देगा, जब तक वह बालिग नहीं हो जाती, उस समय लड़की 16 वर्ष की थी।
  • पीड़िता को दो महीने बाद उसके घर वापस जाने दिया गया और उसकी मेडिकल जांच से पता चला कि वह गर्भवती थी।
  • उसकी गर्भावस्था की अवधि चार सप्ताह और पांच दिन पाई गई।
  • उसने डॉक्टरों के सामने खुलासा किया कि उस आदमी ने उसके साथ ज़बरन शारीरिक संबंध बनाए।
  • न्यायालयने उस व्यक्ति की जमानत याचिका यह कहते हुए खारिज़ कर दी कि आरोपी ने लड़की के साथ बार-बार बलात्कार किया था और इसलिये, जमानत देने का कोई आधार नहीं है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि इस तथ्य के बावजूद कि लड़की को कई बार अस्पताल में भर्ती कराया गया था, घर पर उसका गर्भपात हो गया, जिसके कारण भ्रूण का नमूना संरक्षित नहीं किया जा सका।

न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)

  • इस प्रकरण/वाद में संबंधित अस्तपाल के मेडिकल रिकॉर्ड में कई खामियाँ पाई गईं, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह खामी है कि इस प्रकरण/वाद में डॉक्टरों की लापरवाही के कारण साक्ष्य (भ्रूण) को संरक्षित नहीं किया जा सका, इसलिये न्यायमूर्ति स्वर्णकांत शर्मा ने अस्पतालों और अन्य अधिकारियों के लिये दिशानिर्देश जारी किये हैं, जिनका उन्हें यौन उत्पीड़न से पीड़ित गर्भवती महिला के साथ व्यवहार करते समय पालन करना चाहिये
  • ये दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:
    • मौजूदा दिशानिर्देशों और मानक संचालन प्रक्रिया (SoP) का प्रसार: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (Department of Health and Family Welfare, Government of NCT of Delhi) और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry of Health and Family Welfare) को यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन उत्पीड़न की पीड़िताओं की जांच के लिये मौजूदा दिशानिर्देश/मानक संचालन प्रक्रिया दिल्ली के सभी अस्पतालों में अवश्य भेजी जाए।
    • इस निर्णय के तहत जारी किये गए अतिरिक्त निर्देशों के संबंध में: उपरोक्त मंत्रालयों को वर्तमान निर्णय में दिये गए अतिरिक्त निर्देशों को प्रसारित करने का भी निर्देश दिया गया है, जिन्हें मौजूदा मानक संचालन प्रक्रिया (SoP) में जोड़ा जाएगा।
    • जब गर्भ 20 सप्ताह से कम अवधि का हो तो आदेश के 24 घंटे के भीतर पीड़िता को अस्पताल में पेश करना: संबंधित जांच अधिकारी सक्षम प्राधिकारी के आदेश पारित होने के 24 घंटे के भीतर पीड़िता को गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन के लिये संबंधित अस्पताल के अस्पताल अधीक्षक के समक्ष पेश करेगा।
    • भ्रूण का संरक्षण : यह निर्देशित किया जाता है कि संबंधित डॉक्टर यह सुनिश्चित करेगा कि भ्रूण संरक्षित है और पीड़िता को जल्दबाजी में छुट्टी नहीं दी जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता के जीवन को खतरा होगा और यौन उत्पीड़न के साक्ष्य समाप्त हो जाएँगे।
    • गर्भ के चिकित्सीय समापन के बिना छुट्टी के कारणों की रिकॉर्डिंग: यदि पीड़िता को गर्भावस्था की चिकित्सीय समाप्ति के बिना छुट्टी दे दी जाती है, तो संबंधित डॉक्टर इसके कारणों का भी उल्लेख करेगा ताकि भ्रूण के रूप में महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नष्ट न हो जाएँ।
    • गर्भ के चिकित्सीय समापन हेतु उपचार के विवरण की रिकॉर्डिंग: संबंधित डॉक्टर का यह कर्तव्य होगा कि वह यौन उत्पीड़न की पीड़िता को दिये गए उपचार, जिसमें गर्भावस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से दी गई कोई दवा या प्रक्रिया भी शामिल है, का विस्तार से उल्लेख करे।
    • यौन उत्पीड़न के मामलों में एमएलसी के पठन में कठिनाई और टंकित एमएलसी दाखिल करने की आवश्यकता: न्यायालय इस तथ्य से अवगत है कि जब मेडिको लीगल केस (MLC) डॉक्टर द्वारा तैयार किया जा रहा है, तो विभिन्न बाधाओं एवं कारणों और पीड़ित की गोपनीयता आदि के कारण, यह हस्तलिखित ही होना चाहिये। इसलिये, न्यायालय ने निर्देश दिया कि ऐसे मामलों में, जिनमें यौन उत्पीड़ित की मेडिकल जांच की जाती है, सभी संबंधित अस्पताल यह सुनिश्चित करेंगे कि संबंधित अस्पताल द्वारा ऐसी पीड़िता की मूल MLC के साथ-साथ डिस्चार्ज समरी की एक टंकित प्रति भी तैयार की जाएँ और यह डिस्चार्ज समरी एक सप्ताह की अवधि के भीतर जांच अधिकारी को प्रदान की जाएगी।
    • एमएलसी की टंकित प्रति इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जांच अधिकारी (IO) को भेजी जा सकती है अर्थात् समय बचाने के लिये टंकित MLC इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी IO को भेजी जा सकती है।

विधायी प्रावधान

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973)

  • जमानत का अर्थ मुकदमे या अपील की प्रतीक्षा कर रहे किसी व्यक्ति की जेल से रिहाई पर सुरक्षा जमा करके यह सुनिश्चित करना है कि वह आवश्यक समय पर कानूनी प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत हो सके ।
  • जमानत के प्रावधान CRPC के अध्याय XXXIII की धारा 436-450 के तहत प्रदान किये जाते हैं।

धारा 439 - जमानत के संबंध में उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय की विशेष शक्तियाँ

(1)उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय निर्देश दे सकता है कि--

(क) किसी ऐसे व्यक्ति को, जिस पर किसी अपराध का अभियोग है और जो अभिरक्षा में है, जमानत पर छोड़ दिया जाए और यदि अपराध धारा 437 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट प्रकार का है, तो वह ऐसी कोई शर्त, जिसे वह उस उपधारा में वर्णित प्रयोजनों के लिये आवश्यक समझे, अधिरोपित कर सकता है;

(ख) किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने के समय मजिस्ट्रेट द्वारा अधिरोपित कोई शर्त अपास्त या उपांतरित कर दी जाए:

परन्तु उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति की, जो ऐसे अपराध का अभियुक्त है जो अनन्यत: सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, या जो यद्यपि इस प्रकार विचारणीय नहीं है, आजीवन कारावास से दंडनीय है, जमानत लेने के पूर्व जमानत के लिये आवेदन की सूचना लोक अभियोजक को उस दशा के सिवाय देगा जब उसकी, ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किये जाएंगे यह राय है कि ऐसी सूचना देना साध्य नहीं है।

(2) उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय, किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसे इस अध्याय के अधीन जमानत पर छोड़ा जा चुका है, गिरफ्तार करने का निदेश दे सकता है और उसे अभिरक्षा के लिये सुपुर्द कर सकता है।

बालकों के यौन शोषण संबंधी कानून

पॉक्सो (POCSO) अधिनियम

  • यह अधिनियम बाल दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न, यौन प्रहार और बालकोंसे जुड़ी अश्लील साहित्य सहित कई प्रकार के कृत्यों को अपराधीकरण से निपटने के लिये अधिनियमित किया गया था और यह 14 नवंबर, 2012 को लागू हुआ।
  • पॉक्सो (POCSO) अधिनियम की धारा 2(D) अठारह वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चे के रूप में परिभाषित करती है।
  • यह कानून बाल यौन उत्पीड़न मामलों में त्वरित सुनवाई की सुविधा के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना को अनिवार्य बनाता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860

इस संहिता में 2018 के संशोधन में बालकों के यौन उत्पीड़न के संबंध में निम्नलिखित बातें जोड़ी गईं।

महिला की आयु

अपराध

प्रावधान

दंड

12 वर्ष से कम

दुष्कर्म

धारा 376 AB

न्यूनतम- 20 वर्ष

अधिकतम- आजीवन कारवास जिसका अर्थ होगा कि उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास, जिसमें जुर्माना और मृत्युदंड भी शामिल किया जा सकता है।

सामूहिक दुष्कर्म

धारा 376 AB

आजीवन कारवास जिसका अर्थहोगा कि उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास, जिसमें जुर्माना और मृत्युदंड भी शामिल किया जा सकता है।

12 वर्षसे कम

सामूहिक दुष्कर्म

धारा 376 DA

आजीवन कारवास जिसका अर्थहोगा कि उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवन के लिये कारावास, जिसमें जुर्माना और मृत्युदंड भी शामिल किया जा सकता है।


आपराधिक कानून

शिनाख्त परेड

 10-Aug-2023

कमल बनाम दिल्ली राज्य (NCT)।

"यदि आरोपियों को पहले ही पुलिस स्टेशन में गवाहों के सामने पेश किया जा चुका है, तो न्यायालय के समक्ष टीआईपी की पवित्रता संदिग्ध है।"

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: सुप्रीम कोर्ट

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि दोषी ठहराने वाली परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति की होनी चाहिये और उन्हें ऐसी हर संभावित परिकल्पना को वर्जित  करना चाहिये ताकि उचित संदेह से परे आरोपी के अपराध को साबित किया जा सके

  • कमल बनाम राज्य (एनसीटी) दिल्ली के मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) ने यह टिप्पणी की।

पृष्ठभूमि

  • अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि मृतक के भाई ने अपने भाई को घर में एक खाट पर मृत पाया और आरोपी पर अपना संदेह ज़ाहिर करते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज (FIR) कराई।
  • अभियोजन का मामला मुख्य रूप से अभियोजक गवाह (PW) - 20 और PW-21 की गवाही पर निर्भर था।
  • अभियोजक गवाह (PW)-21 ने आरोपी की पहचान के संबंध में कई विरोधाभासी बयान दिये।
  • अभियोजक गवाह (PW)-21 ने स्वीकार किया कि उसने आरोपी को मृतक के घर के बाहर देखा था।
  • मुख्य परीक्षा (examination-in-chief) में उन्होंने कहा कि 16 सितंबर, 2009 को पुलिस ने उन्हें मृतक के घर बुलाया था और पुलिस ने उन्हें बताया था कि इन आरोपियों ने मृतक की हत्या की है।
  • वह फिर से प्रति-परीक्षा (cross-examination) के दौरान मुकर गया और कहा कि उसने पहली बार आरोपी को 12 सितंबर, 2009 को पुलिस स्टेशन में देखा था।
  • इस गवाह की गवाही पर संदेह इसलिये हुआ क्योंकि उसने आरोपी को टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) यानी पहचान परेड से पहले ही देख लिया था ।

न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)

  • न्यायालय कहा कि यह प्राथमिक सिद्धांत है कि न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने से पहले आरोपी को दोषी साबित नहीं किया जा सकता
  • न्यायालयने यह भी कहा कि यदि आरोपियों को पहले ही पुलिस स्टेशन में गवाहों के सामने दिखाया जा चुका है, तो न्यायालयके समक्ष टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) यानी शिनाख्त परेड की शुचिता संदिग्ध हो जाती है

शिनाख्त परेड (Test Identification Parade (TIP)

  • टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872 (IEA) की धारा 9 के तहत पहचान स्थापित करने के तरीकों में से एक है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 54A गिरफ्तार किये गए व्यक्ति की पहचान के लिये एक स्थिति भी प्रदान करती है।
    • जहाँ किसी व्यक्ति को अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा उसकी पहचान ऐसे अपराध की जाँच के उद्देश्य से आवश्यक मानी जाती है तो टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) यानी शिनाख्त परेड आयोजित की जा सकती है।
  • यह अवधारणा किसी साक्ष्य की सत्यता का परीक्षण करने के विचार पर आधारित है ।
  • इस प्रक्रिया में गवाह की कई अज्ञात लोगों के बीच से उस व्यक्ति की पहचान करने की क्षमता का परीक्षण किया जाता है जिसे गवाह ने किसी अपराध के संदर्भ में देखा था।
  • जहाँ तक संभव हो शिनाख्त परेड जेल में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा आयोजित और रिकॉर्ड की जाएगी।
    • यदि कोई गवाह गलती भी करता है तो उसे दर्ज किया जाना चाहिये।
  • यदि शिनाख्त परेड किसी पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में की जाती है, तो यह CrPC की धारा 162 के अर्थ के तहत एक बयान के बराबर होता है और अस्वीकार्य साक्ष्य बन जाता है
    • इसका उपयोग पुष्टिकरण के उद्देश्य से नहीं किया जा सकता

शिनाख्त परेड के प्रकार (Types of Identification Parade)

शिनाख्त परेड आपराधिक मामलों में निम्नलिखित की पहचान के लिये आयोजित की जाती हैं:

  • ज्ञात या अज्ञात जीवित या मृत व्यक्ति
  • आग्नेयास्त्रों सहित वस्तुएँ
  • लिखावट, तस्वीरें, उंगली और पैरों के निशान

परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence)

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के तहत निम्नलिखित साक्ष्य की श्रेणी में आते हैं:
    • वे सभी बयान जिन्हें न्यायालय गवाहों द्वारा अपने समक्ष दिये जाने की अनुमति देता है या अपेक्षित करता है, ऐसे बयानों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है;
    • न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किये गए इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड सहित सभी दस्तावेज़ और ऐसे दस्तावेज़ों को दस्तावेज़ी साक्ष्य कहा जाता है।
  • भारत में साक्ष्य को दो व्यापक शीर्षकों में वर्गीकृत किया गया है, प्रत्यक्ष साक्ष्य और अप्रत्यक्ष साक्ष्य अर्थात् परिस्थितिजन्य साक्ष्य ।
    • प्रत्यक्ष साक्ष्य वे होते हैं जो निर्णायक रूप से तथ्य को साबित करते हैं जबकि परिस्थितिजन्य साक्ष्य किसी तथ्य को साबित करने के लिये उपयोग की जाने वाली परिस्थितियों की शृंखला होते हैं।
  • इसकी उत्पत्ति रोमन कानून प्रणाली से हुई है जहाँ इसका उपयोग किसी मामले की जांच के लिये एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में किया जाता था।
  • यह उस सिद्धांत पर आधारित है "आदमी झूठ बोल सकता है, लेकिन परिस्थितियाँ झूठ नहीं बोलतीं"
  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि के लिये पंचशील सिद्धांतों को शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) के प्रकरण/वाद में बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है।

पंचशील सिद्धांत

  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर प्रकरण/वादके साक्ष्य का पंचशील या पांच स्वर्णिम सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
    • जिन परिस्थितियों से अपराध का निष्कर्ष निकाला जाना है, उन्हें पूरी तरह से स्थापित किया जाना चाहिये
    • इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये
    • परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति और प्रवृत्ति की होनी चाहिये
    • ऐसी परिस्थितियों को हर दूसरी परिकल्पना को बाहर करना चाहिये
    • साक्ष्य की शृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिये कि यह निष्कर्ष निकालने या अभियुक्त को निर्दोष साबित करने के लिये कोई उचित आधार न छोड़े और सभी मानवीय संभावना में यह दिखाना चाहिये कि अपराध आरोपी द्वारा किया गया है।

सिविल कानून

महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाना

 10-Aug-2023

नानजम्मा एवं अन्य बनाम राजम्मा और अन्य

" सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 के नियम 1 और 2 के तहत दी गई अस्थायी निषेधाज्ञा एक विवेकाधीन उपाय है जिसका प्रयोग तब नहीं किया जाना चाहिये जब ट्रायल कोर्ट के समक्ष महत्वपूर्ण तथ्य छिपाए गए हों।"

न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश

स्रोत- कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने नंजम्मा और अन्य बनाम राजम्मा और अन्य के मामले में कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure Code, 1908) के आदेश 39 के नियम 1 और 2 के तहत अस्थायी निषेधाज्ञा से राहत एक विवेकाधीन उपाय है।

  • इस उपाय के लिये अंतरिम राहत की आवश्यकता और चल रही कानूनी कार्यवाही के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन बनाने की आवश्यकता है।

पृष्ठभूमि

  • 2014 में, अपीलार्थियों ने निषेधाज्ञा की मांग करते हुए ट्रायल कोर्ट के समक्ष एक मुकदमा दायर किया और एक विशेष संपत्ति पर अपना दावा किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपने आदेश से अपीलार्थियों को प्रतिवादियों के अधिकार, शीर्षक और ब्याज और संपत्ति के स्वामित्व में हस्तक्षेप करने या हस्तक्षेप करने का प्रयास करने से रोक दिया।
  • इसके बाद, अपीलार्थियों ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • अपील दायर करने की अनुमति देते हुए, उच्च न्यायालय ने माना कि अस्थायी निषेधाज्ञा देने में ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण गलत था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations )

न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 39 के नियम 1 और 2 के तहत दी गई अस्थायी निषेधाज्ञा की राहत एक विवेकाधीन उपाय (discretionary remedy) है और इस विवेक का प्रयोग तब नहीं किया जाना चाहिये जब ट्रायल कोर्ट के समक्ष महत्वपूर्ण तथ्यों (material facts) को छुपाया गया हो और ऐसे तथ्यों प्राप्त करने में कोई गलत या भ्रामक जानकारी दी गई हो। ऐसी अंतरिम राहत न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता के लिये हानिकारक हो सकती है।

विधायी प्रावधान

CPC का आदेश 39 (Order 39 CPC)

  • यह नियम अस्थायी निषेधाज्ञा और अंतरिम आदेश (temporary injunctions and interlocutory orders) देने की प्रक्रिया से संबंधित है ।
  • नियम 1 उन प्रकरण/वादों से संबंधित है जिनमें अस्थायी निषेधाज्ञा दी जा सकती है।
    • इसमें कहा गया है कि न्यायालय आदेश द्वारा ऐसे कृत्य पर रोक लगाने के लिये अस्थायी निषेधाज्ञा दे सकता है, जहाँ किसी मुकदमे में यह हलफनामे से या अन्यथा साबित हो गया हो-
      • संपत्ति विवाद के मामले में, यदि विचाराधीन संपत्ति के बर्बाद होने, क्षतिग्रस्त होने या अलग होने या मुकदमे में शामिल किसी व्यक्ति द्वारा गलत तरीके से बेचे जाने का जोखिम है।
      • यदि किसी व्यक्ति ने अपने लेनदारों को धोखा देने के उद्देश्य से अपनी संपत्ति को हटाने या निपटाने की धमकी दी या प्रदर्शित करने का इरादा दिखाया। यह केवल प्रतिवादी के लिये विशिष्ट है।
      • यदि वादी को – प्रतिवादी द्वारा – विचाराधीन संपत्ति विवाद के संदर्भ में बेदखल या चोट पहुंचाने की धमकी दी जाती है।

नियम 2 उल्लंघन की पुनरावृत्ति या निरंतरता को रोकने के लिये निषेधाज्ञा के बारे में बात करता है। यह प्रकट करता है कि

(1) प्रतिवादी को अनुबंध का उल्लंघन करने या किसी भी प्रकार की अन्य क्षति पहुँचाने से रोकने के लिये किसी भी मुकदमे में, वादी मुकदमा शुरू होने के बाद किसी भी समय और निर्णय से पहले या बाद में, प्रतिवादी को अनुबंध का उल्लंघन करने या शिकायत की गई क्षति से रोकने के लिये अस्थायी निषेधाज्ञा के लिये न्यायालयमें आवेदन कर सकता है।

(2) न्यायालय आदेश द्वारा, निषेधाज्ञा की अवधि, लेखा-जोखा रखने, सुरक्षा देने, या अन्यथा जैसी शर्तों पर, जैसा कि न्यायालय उचित समझे, ऐसी निषेधाज्ञा दे सकता है।

निषेधाज्ञा (Injunction)

  • निषेधाज्ञा एक निवारक उपाय है जो किसी दूसरे पक्ष के कृत्यों से व्यथित पक्ष को दिया जाता है, और इस प्रकार भविष्य में गलत काम करने वालों को कोई गलत कृत्य करने से रोकता है, ताकि किसी और क्षति या नुकसान से बचा जा सके और इस प्रकार समानता पर विचार किया जाता है।
  • यह दो प्रकार की होती है:
    • अस्थायी निषेधाज्ञा CPC के आदेश 39 के प्रावधानों के तहत शासित होती है। यह किसी पक्ष को निर्दिष्ट कार्य करने से अस्थायी रूप से रोकती है और केवल मुकदमे के निपटारे तक या न्यायालय के अगले आदेश तक ही इसकी अनुमति दी जा सकती है। इसे मुकदमे के किसी भी चरण में प्रदान किया जा सकता है
    • स्थायी निषेधाज्ञा, जो विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963 (SRA) द्वारा शासित होती है। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 37(2) के अनुसार, स्थायी निषेधाज्ञा केवल सुनवाई में दी गई डिक्री द्वारा और मुकदमे की योग्यता के आधार पर ही दी जा सकती है; इस प्रकार प्रतिवादी को किसी अधिकार का दावा करने, या ऐसा कार्य करने से हमेशा के लिये रोका जाता है, जो वादी के अधिकारों के विपरीत होगा।