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आपराधिक कानून
हिस्ट्रीशीटर के खिलाफ FIR रद्द करना
11-Aug-2023
मोहम्मद वाजिद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
"यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करने में विफल रहती है, तो न्यायालय को केवल इस आधार पर आपराधिक मामले को रद्द करने से इनकार नहीं करना चाहिये कि आरोपी हिस्ट्रीशीटर (आपराधिक पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति जिसका लंबा आपराधिक रिकॉर्ड है) है।"
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि जब प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की बात आती है, तो याचिका को अस्वीकार करने के लिये आरोपी के आपराधिक इतिहास को एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद वाजिद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के प्रकरण/वाद में यह टिप्पणी की।
पृष्ठभूमि
- पहले सूचनादाता द्वारा आरोपी के खिलाफ निम्नलिखित धाराओं के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाते हुए एक प्राथमिकी ((FIR)) दर्ज की गई थी:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 323 (Section 323 of Indian Penal Code, 1860 (IPC): किसी को स्वेच्छा से क्षति पहुँचाने के लिये दंड
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 395 (Section 395 of Indian Penal Code, 1860 (IPC): डकैती
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 504 (Section 504 of Indian Penal Code, 1860 (IPC): शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 506 (Section 506 of Indian Penal Code, 1860 (IPC): आपराधिक धमकी के लिये दंड
- उक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) घटना घटित होने के एक वर्ष बाद दर्ज की गई थी, इसमें तिथि और समय दर्ज नहीं था और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने में अत्यधिक देरी का कोई संभावित कारण नहीं बताया गया था।
- उच्च न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये रिट आवेदन पर विचार करने से इनकार कर दिया और उसे खारिज़ कर दिया।
- आरोपियों ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
- प्रतिवादियों ने इस तथ्य पर विश्वास किया कि आरोपी का आपराधिक इतिहास है।
- हालाँकि, उच्चतम न्यायालय ने पहले सूचनादाता द्वारा दर्ज करवाए गये प्रकरण/वाद को मनगढ़ंत पाया और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की अनुमति दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)
न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणी की:
- इसमें कहा गया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने में देरी, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने का आधार नहीं हो सकती।
- हालाँकि, प्रकरण/वाद के रिकॉर्ड से सामने आने वाली अन्य उपस्थित परिस्थितियों में देरी, अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत किये गये पूरे प्रकरण/वाद को स्वाभाविक रूप से असंभव बना देती है और कभी-कभी यह प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) और उसके बाद की जाने वाली कार्यवाही को रद्द करने का एक अच्छा आधार बन सकता है।
- यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि कोई भी अपराध बिना दंड के न हो, लेकिन साथ ही राज्य का यह सुनिश्चित करना भी कर्तव्य है कि देश के किसी भी नागरिक को अनावश्यक रूप से परेशान न किया जाए।
प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) शब्द को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) में परिभाषित नहीं किया गया है।
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 207 के अतिरिक्त, इस संहिता में FIR शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, जिसके तहत मजिस्ट्रेट को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 154 (1) के तहत दर्ज की गई FIR की एक प्रति आरोपी को देने की आवश्यकता होती है।
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154 (1) के तहत प्राप्त सूचना को FIR कहा जाता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के मूल सिद्धांत:
- यह पुलिस अधिकारी को दी गई जानकारी का एक अंश होती है।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संज्ञेय अपराध से संबंधित होनी चाहिये।
- यह समय-समय पर सबसे पहले रिपोर्ट की गई जानकारी का एक अंश है।
- इसे पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा या उसके निर्देशन में लिखित रूप में प्रस्तुत किया जायेगा।
- इसे सूचनादाता को पढ़कर सुनाया जायेगा।
- इस पर सूचना देने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर होंगे।
- धारा 154 की उपधारा (1) के तहत दर्ज की गई जानकारी की एक प्रति सूचनादाता को तुरंत निःशुल्क दी जाएगी।
- यदि किसी पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी सूचना दर्ज करने से इनकार करता है, तो सूचनादाता ऐसी सूचना का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करना
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा एक प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द किया जा सकता है।
- उपर्युक्त प्रावधान न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये उच्च न्यायालय को एक अंतर्निहित शक्ति प्रदान करता है।
- सक्षम क्षेत्राधिकार वाले संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की जानी चाहिये।
- इसे तब रद्द कर दिया जाता है जब न्यायालय को यह पता चलता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट निरर्थक या दुर्भावनापूर्ण आधार पर दर्ज की गई है।
- भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 और 142 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने का पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार उच्चतम न्यायालय के पास है।
हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम भजन लाल और अन्य मामले (1992) में दिशानिर्देश
प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने के लिये न्यायालय ने निम्नलिखित मापदंड निर्धारित किये थे:
- जहाँ आरोपों से प्रथमदृष्टया कोई अपराध नहीं बनता या आरोपी के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
- जहाँ आरोपों से संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं होता है।
- जहाँ सूचना के समर्थन में एकत्र किये गये साक्ष्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा नहीं करते हैं और आरोपी के खिलाफ मामला बनाते हैं।
- जहाँ, प्रथम सूचना रिपोर्ट में लगाए गये आरोप संज्ञेय अपराध नहीं हैं, बल्कि केवल गैर-संज्ञेय अपराध हैं, तो मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना पुलिस अधिकारी द्वारा किसी भी जांच की अनुमति नहीं दी जाती है, जैसा कि संहिता की धारा 155 (2) के तहत विचार किया गया है।
- जहाँ प्रथम सूचना रिपोर्ट या शिकायत में लगाए गये आरोप निरर्थक और स्वाभाविक रूप से असंभव हों।
- जहाँ दंड प्रक्रिया संहिता या किसी अधिनियम में कार्यवाही शुरू करने और जारी रखने के संबंध में स्पष्ट कानूनी रोक या अलग प्रक्रिया मौजूद है।
- जब अभियुक्त पर प्रतिशोध लेने के गुप्त उद्देश्य से एवं निजी और व्यक्तिगत द्वेष के कारण उसे परेशान करने की दृष्टि से दुर्भावनापूर्ण तरीके से FIR दर्ज किया गया था।
सिविल कानून
उम्मीदवारों द्वारा संपत्ति का प्रकटीकरण न करना भ्रष्ट आचरण माना जाएगा
11-Aug-2023
आबिदा बेगम बनाम मोहम्मद इस्माइल और अन्य।
उम्मीदवार द्वारा अपनी स्वयं, अपने पति या पत्नी या आश्रितों की संपत्ति का प्रकटीकरण न करना या संपत्ति छिपाना एक भ्रष्ट आचरण माना जायेगा है और यह अयोग्यता का आधार बन सकता है।
(कर्नाटक उच्च न्यायालय)
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
आबिदा बेगम बनाम मोहम्मद इस्माइल और अन्य के प्रकरण/वाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि किसी उम्मीदवार द्वारा अपनी, अपने पति या पत्नी या आश्रितों की संपत्ति का प्रकटीकरण करने में विफल होना या संपत्ति छिपाना एक भ्रष्ट आचरण माना जायेगा।
पृष्ठभूमि
- उच्च न्यायालय में वर्तमान प्रकरण/वाद भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत आबिदा बेगम द्वारा दायर की गई एक रिट याचिका से संबंधित है, जिसमें वरिष्ठ सिविल न्यायाधीश और न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC), शाहपुर (ट्रायल कोर्ट) के निर्णय को रद्द करने की याचिका की गई है।
- मूल याचिका मोहम्मद इस्माइल द्वारा ट्रायल कोर्ट में दायर की गई थी, जिसमें आबिदा बेगम के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अपनी और अपने पति की संपत्ति का खुलासा करने में विफल रही थीं।
- आगे यह तर्क दिया गया कि उक्त मामला कर्नाटक ग्राम स्वराज और पंचायत राज अधिनियम, 1993 की धारा 19(1)(B) के संदर्भ में आबिदा बेगम द्वारा किया गया भ्रष्ट आचरण होगा।
- ट्रायल कोर्ट ने ग्राम पंचायत के लिये उम्मीदवार आबिदा बेगम की उम्मीदवारी को रद्द कर दिया था।
- इसलिये आबिदा बेगम ने उच्च न्यायालय में अपील की और तर्क दिया कि मोहम्मद इस्माइल सभी उम्मीदवारों को मिलाकर एक दल बनाने में विफल रहे इसलिये ट्रायल कोर्ट को याचिका खारिज़ कर देनी चाहिये।
- उच्च न्यायालय ने बेगम के इस तर्क से सहमति व्यक्त की कि कर्नाटक ग्राम स्वराज और पंचायत राज अधिनियम, 1993 की धारा 15(2)(A) के तहत सभी चुनावी उम्मीदवारों का दल बनाया जाना चाहिये था।
- उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि ट्रायल कोर्ट को चुनाव याचिका को शुरुआत में ही खारिज़ कर देना चाहिये था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)
न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज की पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं :
- संपत्ति का प्रकटीकरण न करने पर उम्मीदवार को कर्नाटक ग्राम स्वराज और पंचायत राज अधिनियम, 1993 के तहत पंचायत चुनाव में भाग लेने से अयोग्य ठहराया जा सकता है।
- ऐसी जानकारी को छिपाना अपने आप में अयोग्यता को आकर्षित करने के लिये पर्याप्त है और यह साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि इस तरह की जानकारी को छिपाने से दूसरे उम्मीदवार की चुनाव संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
रिट याचिका (Writ Petition)
- रिट याचिका (WP) तब दायर की जाती है जब राज्य या किसी व्यक्ति द्वारा किसी के मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है (केवल बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट याचिका के मामले में)।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा रिट जारी की जा सकती है।
- उपर्युक्त न्यायालयों द्वारा जारी किये जाने वाले पाँच प्रकार की रिट निम्नलिखित हैं:
- बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) – सशरीर प्रस्तुत होना।
- परमादेश (Mandamus) - आदेश देना।
- निषेधाज्ञा (Prohibition) - निचली अदालतों, न्यायाधिकरणों और अन्य अर्द्ध-न्यायिक अधिकारियों को उनके अधिकार से परे कुछ करने से रोकने के लिये एक न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।
- उत्प्रेषण (Certiorari) - ऐसी रिट या आदेश जिसके द्वारा उच्च न्यायालय निचली न्यायालय में सुनवाई किये गये मामले की समीक्षा करता है।
- अधिकार-पृच्छा (Quo-Warranto) - किस अधिकार से
निर्णय विधि (Case Law)
लोक प्रहरी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने महासचिव एस. एन. शुक्ला बनाम भारत संघ और अन्य (2018) के माध्यम से निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये इसे अनिवार्य कर दिया गया था कि नामांकन के समय वे अपनी स्वयं की, अपने जीवनसाथी और आश्रितों की संपत्ति और आय के स्रोत की घोषणा करेंगे।
- किसी उम्मीदवार का अपनी संपत्ति और आय के स्रोत दोनों का खुलासा करने का दायित्व संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (A) के तहत नागरिकों के जानने के मूल अधिकार का एक हिस्सा है।
विधायी प्रावधान
भारत का संविधान, 1950
अनुच्छेद 226 - कतिपय रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति. —
Article 226 - Power of High Courts to issue certain writs. —
- अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये और किसी अन्य प्रयोजन के लिये उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति होगी।
कर्नाटक ग्राम स्वराज और पंचायत राज अधिनियम, 1993
Karnataka Gram Swaraj and Panchayat Raj Act, 1993
- धारा 15 - चुनाव याचिका -
(2) एक याचिकाकर्त्ता अपनी याचिका में प्रतिवादी के रूप में शामिल होगा -
(a) जहाँ याचिकाकर्त्ता, ऐसी घोषणा, कि सभी या किसी भी जीते हुए उम्मीदवारों का चुनाव शून्य है, करने के अलावा एक और घोषणा का दावा करता है कि उसे स्वयं या किसी अन्य उम्मीदवार को छोड़कर अन्य सभी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को विधिवत निर्वाचित किया गया है और जहाँ ऐसी कोई और घोषणा का दावा नहीं किया गया है।
- धारा 19 - चुनाव को शून्य घोषित करने का आधार -
(1) उपधारा (2) के प्रावधानों के अधीन यदि नामित न्यायालय की राय है -
(b) किसी निर्वाचित उम्मीदवार या उसके एजेंट या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी निर्वाचित उम्मीदवार या उसके एजेंट की सहमति से कोई भ्रष्ट आचरण किया गया है।
सिविल कानून
दुष्कर्म पीड़ितों को गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन के लिये 24 घंटे के भीतर अस्पताल ले जायेगा
11-Aug-2023
नबल ठाकुर बनाम राज्य
"गर्भावस्था अवधि 20 सप्ताह से कम होने पर भी, दुष्कर्म पीड़िता को 24 घंटे के भीतर गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन (Medical Termination of Pregnancy) के लिये अस्पताल ले जाया जायेगा।"
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा
स्रोत - दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, नबल ठाकुर बनाम राज्य के प्रकरण/वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कहा कि दिल्ली पुलिस के जांच अधिकारियों को दुष्कर्म पीड़िता को 24 घंटे के भीतर गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन प्रक्रिया के लिये संबंधित अस्पताल में भर्ती करना होगा, यहाँ तक कि उन मामलों में भी जहाँ गर्भावस्था की गर्भधारण अवधि 20 सप्ताह से कम है।
पृष्ठभूमि
आरोपी ने 24 नवंबर, 2020 को अभियोक्त्री (prosecutrix) को किसी झूठे बहाने से अपने घर बुलाया और उसके साथ कई बार दुष्कर्म किया।
घटना के समय अभियोक्त्री (prosecutrix)16 वर्ष की थी।
इसके बाद पीड़िता चार सप्ताह और पांच दिन की गर्भवती पाई गई।
इसके बाद, आरोपी ने उच्च न्यायालय के समक्ष जमानत याचिका दायर की जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ (Court’s Observations)
यौन उत्पीड़ित गर्भवती महिलाओं के साथ डॉक्टरों और दिल्ली पुलिस द्वारा पालन किये जाने वाले निम्नलिखित दिशानिर्देश जारी किये :
- जहाँ गर्भावस्था की चिकित्सीय समापन का आदेश पारित किया गया है, दिल्ली पुलिस के जांच अधिकारियों को पीड़िता को 24 घंटे के भीतर गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन की प्रक्रिया के लिये संबंधित अस्पताल में भर्ती करना होगा, यहाँ तक कि उन मामलों में भी जिनमें गर्भधारण अवधि 20 सप्ताह से कम है।
- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार (Department of Health and Family Welfare, Government of NCT of Delhi) तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry of Health and Family Welfare) को यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन उत्पीड़न की पीड़िताओं की जांच के लिये मौजूदा दिशानिर्देश/मानक संचालन प्रक्रिया दिल्ली के सभी अस्पतालों में अवश्य भेजी जाए।
- उपर्युक्त मंत्रालयों को वर्तमान निर्णय में दिये गये अतिरिक्त निर्देशों को प्रसारित करने का भी निर्देश दिया गया है, जिन्हें मौजूदा मानक संचालन प्रक्रिया (SoP) में जोड़ा जायेगा कि यदि पीड़िता गर्भवती है और भ्रूण के संरक्षण सहित गर्भावस्था की चिकित्सीय समापन (MTP) के आदेश दिये गये हैं, तो जांच अधिकारी ऐसा आदेश संबंधित अस्पताल के अधीक्षक के समक्ष प्रस्तुत करेगा, जो यह सुनिश्चित करेगा कि संबंधित डॉक्टर जिसे गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन का कर्तव्य सौंपा गया है, वह अत्यंत सावधानी के साथ ऐसा करेगा।
- गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन करने वाला संबंधित डॉक्टर यह सुनिश्चित करेगा भ्रूण को संरक्षित किया गया है और पीड़िता को ऐसी किसी भी जल्दबाज़ी में छुट्टी नहीं दी गई है, जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता की जान को खतरा हो सकता है और यौन उत्पीड़न मामले में साक्ष्य नष्ट हो सकते हैं।
- ऐसे मामलों में जिनमें यौन उत्पीड़ित महिला की मेडिकल जांच की जाती है, सभी संबंधित अस्पताल यह सुनिश्चित करेंगे कि मूल MLC (मेडिको लीगल सर्टिफिकेट) के साथ-साथ ऐसे पीड़ित की डिस्चार्ज समरी की एक टंकित प्रति भी तैयार की जाए और यह डिस्चार्ज समरी संबंधित अस्पताल और जांच अधिकारी को एक सप्ताह की अवधि के भीतर प्रदान की जायेगी।
- इस न्यायालय के उपरोक्त निर्देशों को इस आदेश के जारी होने और इसकी प्राप्ति के 15 दिनों के भीतर स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली के सभी अस्पतालों में भेजा जाना चाहिये।
- माइनर आर थ्र मदर एच बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (2023) (Minor R Thr Mother H v. State NCT of Delhi (2023) प्रकरण/वाद में जारी किये गये दिशानिर्देशों के अतिरिक्त पढ़ा जायेगा।
विधायी प्रावधान (Legal Provisions)
गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act, 1971 (MTP)
- यह अधिनियम 1 अप्रैल, 1972 को लागू हुआ।
- 1971 का गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 और इसके तहत बने वर्ष 2003 के नियम ऐसी अविवाहित महिलाओं को, जो 20 सप्ताह से 24 सप्ताह के बीच की गर्भवती हैं, पंजीकृत चिकित्सकों की मदद से गर्भपात कराने से रोकते हैं।
- इस अधिनियम को वर्ष 2020 में अधिक व्यापक रूप से अद्यतन किया गया और संशोधित कानून निम्नलिखित संशोधनों के साथ सितंबर 2021 में प्रभावी हो गया।
- गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 के तहत, उस अधिकतम गर्भधारण आयु, जिस पर एक महिला चिकित्सीय गर्भपात करा सकती है को 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह कर दिया गया है।
- गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक, गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन करवाने के लिये एक योग्य चिकित्सा पेशेवर की राय का उपयोग किया जा सकता है और 20 सप्ताह से 24 सप्ताह तक की गर्भावस्था के मामले में दो पंजीकृत चिकित्सकों की राय की आवश्यकता होगी।
- दो पंजीकृत चिकित्सकों की राय लेने के बाद, नीचे दी गई शर्तों के तहत गर्भावस्था को 24 सप्ताह तक की गर्भधारण अवधि तक समाप्त किया जा सकता है:
- यदि महिला या तो यौन उत्पीड़न या दुष्कर्म या अनाचार की पीड़िता है;
- यदि वह नाबालिग है;
- यदि ज़ारी गर्भावस्था के दौरान उसकी वैवाहिक स्थिति में कोई परिवर्तन आया हो (विधवा होने या तलाक होने के कारण);
- यदि वह दिव्यांग है या विक्षिप्त है;
- जीवन के साथ असंगत भ्रूण विकृति या गंभीर रूप से दिव्यांग बच्चे के जन्म की संभावना के आधार पर गर्भावस्था की समाप्ति;
- यदि महिला किसी मानवतावादी बसावट या आपदा में स्थित है या सरकार द्वारा घोषित आपातकाल में फंसी हुई है।
- भ्रूण की असामान्यताओं के आधार पर गर्भपात किया जाता है जहाँ गर्भावस्था 24 सप्ताह से अधिक हो गई हो।
- गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 अधिनियम के तहत प्रत्येक राज्य में चार सदस्यों वाले स्थापित मेडिकल बोर्ड को इस प्रकार के गर्भपात की अनुमति देनी होगी।
- X बनाम प्रधान सचिव, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (2022) प्रकरण/वाद में, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया कि सहमति से बनाए गए संबंध से उत्पन्न 20-24 सप्ताह की अवधि में गर्भावस्था के गर्भपात की मांग करने में विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिये। इसमें कहा गया है कि सभी महिलाएँ सुरक्षित और कानूनी गर्भपात की हकदार हैं।