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आपराधिक कानून
दो न्यायाधीशों को उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत किया गया
13-Aug-2023
चर्चा में क्यों?
- केंद्र सरकार ने दो उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की अधिसूचना जारी की है।
- 5 जुलाई, 2023 को उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदोन्नति की सिफारिश की गई थी ।
- पदोन्नति के लिये अनुशंसित दो नाम हैं:
- न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां, वर्तमान में तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं।
- न्यायमूर्ति एस. वी. भट्टी, केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश।
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पृष्ठभूमि
- उच्चतम न्यायालय में, न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 है, तीन न्यायाधीशों की कमी है।
- जुलाई 2023 में, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी के सेवानिवृत्त होने के साथ, ये रिक्तियां चार हो जायेंगी।
- वर्तमान में नियुक्तियों और तबादलों के लिए जिम्मेदार कॉलेजियम में भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश (CJI) और तीन अन्य सदस्य जस्टिस संजीव खन्ना, बी. आर. गवई और सूर्यकांत शामिल हैं।
- वर्तमान नियुक्ति से पहले आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रशांत कुमार मिश्रा और वरिष्ठ अधिवक्ता के. वी. विश्वनाथन को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।
कॉलेजियम प्रणाली
- भारत का संविधान, 1950 अनुच्छेद 124(2) और 217 के तहत क्रमशः उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है।
- कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की एक ऐसी प्रणाली है जो उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है, न कि संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों के परामर्श के बाद की जाती है और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीशों के परामर्श के बाद की जाती है।
- मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना अनिवार्य है।
निर्णय विधि
- जिन मामलों से कॉलेजियम प्रणाली विकसित हुई, वे इस प्रकार हैं:
- प्रथम न्यायाधीश मामला – एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981)
- उच्चतम न्यायालय के फैसले में कहा गया कि अनुच्छेद 124 में 'परामर्श' शब्द का मतलब सहमति नहीं है। इसलिए, राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय (SC) के परामर्श के आधार पर निर्णय लेने के लिए बाध्य नहीं थे।
- द्वितीय न्यायाधीश मामला - सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (1993)
- उच्चतम न्यायालय ने यह मानते हुये कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत कर दी कि 'परामर्श' का वास्तव में अर्थ 'सहमति' है।
- आगे यह भी कहा गया कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से बनी एक संस्थागत राय थी।
- तृतीय न्यायाधीश मामला - 1998 के विशेष संदर्भ 1 में
- राष्ट्रपति के संदर्भ पर उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 143) ने कॉलेजियम को पांच सदस्यीय निकाय तक विस्तारित किया, जिसमें सीजेआई और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल थे।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भी सख्त दिशानिर्देश बनाए। इन दिशानिर्देशों को वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली के रूप में जाना जाता है।
- चौथे न्यायाधीशों का मामला - सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड-सोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (2015)
- प्रथम न्यायाधीश मामला – एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981)
- संविधान के 99 वें संशोधन द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 (National Judicial Appointment Commission Act, 2014) बनाया गया जिसके द्वारा भारत के 1950 में अनुच्छेद 124A जोड़ा गया।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014) के संबंध में कानून बनाने के कार्यों और संसद की शक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 124A और 124C में रेखांकित किया गया था।
- वर्तमान मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 124A राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, 2014 (National Judicial Appointment Commission Act, 2014) के न्यायिक घटक को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं करता है, इसलिए इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना गया जो संविधान की आवश्यक संरचना का गठन करती है। न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अमान्य कर दिया और पहले वाली व्यवस्था बहाल कर दी।
संबंधित संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 124(2) - उच्चतम न्यायालय की स्थापना एवं गठन -
- उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर के तहत वारंट द्वारा नियुक्त किया जाएगा। (अनुच्छेद 124ए में संदर्भित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर) और वह पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त करने तक पद पर बने रहेंगे। :
बशर्ते कि -
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- कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित पत्र द्वारा, अपना पद त्याग सकता है;
- किसी न्यायाधीश को खंड (4) में बताई गई रीति से उसके पद से हटाया जा सकता है।
न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और पद की शर्तें।
- भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात्, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश [अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा, जब तक वह [बासठ वर्ष] की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है। परंतु-
- कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।
- किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा।
- किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किये जाने पर रिक्त हो जायेगा।
- कोई व्यक्ति, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा, जब वह भारत का नागिरक है और-
- भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है; या
- किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है;
स्पष्टीकरण-
इस खंड के प्रयोजनों के लिए-
- भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जायेगी, जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है, जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है;
- (कक) किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जायेगी, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है, जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है;
- भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है।
- संविधान (निन्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2014, क्र. 2 द्वारा प्रतिस्थापित, "उच्चतम न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद जिन्हें राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझे" (13-4-2015 से)। इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ के मामले में अपने निर्णय दिनांक 16-10-2015 से रद्द कर दिया है।
न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां के बारे में
- न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां का मूल उच्च न्यायालय गुवाहाटी उच्च न्यायालय है।
- 21 जुलाई, 2011 को असम के अपर महाधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया गया था।
- 17 अक्टूबर, 2011 को उन्हें गुवाहाटी उच्च न्यायालय के अपर न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया और 20 मार्च 2013 को स्थायी न्यायाधीश बनाया गया ।
- 3 अक्टूबर, 2019 को बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया ।
- 22 अक्टूबर 2021 को तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया ।
- 28 जून 2022 को तेलंगाना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया था ।
- न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां ने कानून के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण अनुभव प्राप्त किया है। उन्होंने कराधान के कानून में विशेषज्ञता और डोमेन ज्ञान हासिल किया है।
जस्टिस एस. वी. भट्टी के बारे में
- 12 अप्रैल, 2013 को उन्हें आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय के अपर न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया और विभाजन तक तेलंगाना और आंध्र प्रदेश राज्य के लिए हैदराबाद में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य किया।
- 24 अप्रैल, 2023 को केरल उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था ।
- उन्हें जून 2023 में केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था
सिविल कानून
निजता का अधिकार वंशानुगत नहीं हैं
13-Aug-2023
चर्चा में क्यों?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के जीवन पर आधारित कथित फिल्म के आगे प्रसारण पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है।
- मुकदमे में फिल्म के आगे प्रसारण पर स्थायी निषेधाज्ञा की प्रार्थना की गई।
- न्यायालय ने कृष्ण किशोर सिंह बनाम सरला ए. सरावगी और अन्य के मामले में टिप्पणियाँ कीं।
पृष्ठभूमि
- यह मुकदमा दिवंगत बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत (SSR) के जीवन पर आधारित फिल्म "न्याय: द जस्टिस" (“Nyay: The Justice”) के प्रसारण के संबंध में है, जो जून 2021 में ओटीटी प्लेटफॉर्म लपालप (OTT platform Lapalap) पर रिलीज हुई थी।
- इस मुकदमे में प्रतिवादियों और अन्य सभी को वादी (SSR के पिता) की पूर्व अनुमति के बिना किसी भी परियोजना या फिल्म में अभिनेता के नाम, कैरिकेचर जीवन शैली का उपयोग करने से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा आदेश की मांग की गई।
- वादी ने आरोप लगाया कि ऐसा कोई भी प्रयास अभिनेता के निजता के अधिकारों का उल्लंघन करेगा और जनता के मन में भी धोखा पैदा करेगा।
- मुकदमे में जिन अधिकारों पर विवाद किया गया है उनमें निजता का अधिकार, प्रचार का अधिकार और अभिनेता के व्यक्तित्व के अधिकार शामिल हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- पीठ ने कहा कि वाद पत्र में बताये गये निजता के अधिकार अभिनेता के लिये में वंशानुगत अधिकार नहीं हैं। वे अभिनेता की मृत्यु के साथ ही खत्म हो गये इसलिये वादी उन पर दावा नहीं कर सकता।
- आम व्यक्ति और सेलिब्रिटी के बीच समानता को बढ़ावा देते हुये, अदालत ने कहा कि कानून खुद को "सेलिब्रिटी संस्कृति को बढ़ावा देने का माध्यम" नहीं बनने दे सकता है और किसी के व्यक्तित्व से निकलने वाले अधिकार सभी के लिये उपलब्ध होंगे, न कि केवल सेलिब्रिटी के लिये।
कानूनी प्रावधान
निजता का अधिकार
- निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया है जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की पुष्टि करता है।
- एम. पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्रा (1954) और खड़क सिंह बनाम भारत संघ (1962) मामले में न्यायालय ने कहा था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है।
- हालाँकि, अदालत ने खड़क सिंह बनाम भारत संघ (1962) मामले में टिप्पणी करते हुए कहा कि अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) अवशिष्ट व्यक्तिगत अधिकारों का भंडार है और निजता के सामान्य कानून के अधिकार को मान्यता देता है।
- न्यायमूर्ति के. एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) के मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
- उपर्युक्त फैसले ने डेटा की सुरक्षा के लिये एक अलग कानून के लिए धर्मयुद्ध को जन्म दिया।
- केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में डिजिटल निजी डेटा संरक्षण (डीपीडीपी) विधेयक को 2023 के आगामी मानसून सत्र में संसद में पेश करने की मंजूरी दे दी है।
स्थायी निषेधाज्ञा
- निषेधाज्ञा अदालत द्वारा किया गया एक ऐसा उपाय होती है जो किसी गलत काम को करने या पहले से ही शुरू किये गये गलत कार्य को जारी रखने पर रोक लगाता है।
- स्थायी निषेधाज्ञा अदालत के आदेश और मामले के तथ्यों और गुणों की जांच के बाद दी जाती है।
- इसे सतत निषेधाज्ञा (perpetual injuction) के रूप में भी जाना जाता है।
- स्थायी निषेधाज्ञा विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 38 से 42 द्वारा शासित होती हैं।
- इसका प्रमुख उद्देश्य निर्णायक और दीर्घकालिक राहत देना है
विविध
25 सप्ताह की गर्भावस्था की समाप्ति
13-Aug-2023
चर्चा में क्यों ?
- हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक्स बनाम यूपी राज्य और अन्य के मामले में मेडिकल बोर्ड की राय पर विचार करने के बाद एक 12 वर्षीय बलात्कार पीड़िता को गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन की अनुमति दी। मेडिकल बोर्ड ने यह राय दी थी कि गर्भावस्था को जारी रखना रेप पीड़िता की "कम उम्र" के कारण उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अधिक खतरा है।
पृष्ठभूमि
- हाल ही में एक रेप पीड़िता ने अपने 25 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने के लिये इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
- यह देखते हुये किसी महिला को उस पुरुष के बच्चे को जन्म देने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता जिसने उसका यौन उत्पीड़न किया था, उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता की जांच करने और अदालत के समक्ष अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिये एक मेडिकल बोर्ड के गठन का अनुरोध किया था।
- मेडिकल बोर्ड द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पीड़िता को उसके 25 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने का आदेश देकर राहत दी जा सकती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की पीठ ने कहा कि यौन उत्पीड़न के मामले में, एक महिला को गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन के लिए न कहने के अधिकार से वंचित करना और उस पर मातृत्व की जिम्मेदारी डालना उसके गरिमा से जीवन व्यतीत करने के मानवाधिकार से इनकार करने जैसा होगा क्योंकि उसे अपने शरीर के संबंध में अधिकार है जिसमें मां बनने के लिए हां या ना कहना भी शामिल है।
कानूनी प्रावधान
गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act, 1971)
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- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम 1971, 1 अप्रैल 1972 को लागू हुआ।
- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 1971 और इसके नियम 2003 के तहत 20 सप्ताह से 24 सप्ताह के बीच की गर्भवती अविवाहित महिलाओं को पंजीकृत चिकित्सा चिकित्सकों की मदद से गर्भपात कराने पर रोक है।
- इस अधिनियम को 2020 में अधिक व्यापक रूप से अद्यतन किया गया, और संशोधित कानून निम्नलिखित संशोधनों के साथ सितंबर 2021 में प्रभावी हो गया:
- एमटीपी अधिनियम, 1971 के तहत अधिकतम गर्भकालीन आयु जिस पर कोई महिला चिकित्सीय गर्भपात करवा सकती है, को 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह कर दिया गया है ।
- गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक एमटीपी तक पहुंचने के लिये एक योग्य चिकित्सा पेशेवर की राय का उपयोग किया जा सकता है और 20 सप्ताह से 24 सप्ताह तक दो पंजीकृत चिकित्सा चिकित्सकों की राय की आवश्यकता होगी।
- दो पंजीकृत चिकित्सकों की राय लेने के बाद, नीचे दी गई शर्तों के तहत गर्भावस्था को 24 सप्ताह की गर्भकालीन आयु तक समाप्त किया जा सकता है:
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- यदि महिला या तो यौन उत्पीड़न या बलात्कार या अनाचार से बची है;
- यदि वह नाबालिग है;
- यदि चल रही गर्भावस्था के दौरान उसकी वैवाहिक स्थिति में कोई बदलाव आया हो (विधवा या तलाक के कारण);
- यदि वह बड़ी शारीरिक अक्षमताओं से पीड़ित है या मानसिक रूप से बीमार है;
- जीवन के साथ असंगत भ्रूण विकृति या गंभीर रूप से विकलांग बच्चे के जन्म की संभावना के आधार पर गर्भावस्था की समाप्ति;
- यदि महिला किसी अमानवीय स्थिति या आपदा में स्थित है या सरकार द्वारा घोषित आपातकाल में फँसी हुई है।
- उन मामलों में भ्रूण की असामान्यताओं के आधार पर गर्भपात किया जाता है जहां गर्भावस्था 24 सप्ताह से अधिक हो गई हो ।
- एमटीपी अधिनियम के तहत प्रत्येक राज्य में स्थापित चार सदस्यीय मेडिकल बोर्ड को इस प्रकार के गर्भपात की अनुमति देनी होगी।
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एक्स बनाम प्रधान सचिव, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, एनसीटी दिल्ली सरकार (2022) में, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया कि सहमति से बनाये गये संबंध से उत्पन्न 20-24 सप्ताह की अवधि में गर्भावस्था के गर्भपात की मांग करने में विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिये। इसमें कहा गया है कि सभी महिलायें सुरक्षित और कानूनी गर्भपात की हकदार हैं।
भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत एक महिला को अपनी प्रजनन पसंद का प्रयोग करने का अधिकार
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 एक अविवाहित महिला को एक विवाहित महिला की तरह ही बच्चे को जन्म देने या न पैदा करने का विकल्प चुनने का अधिकार देता है।
- सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (2009) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि किसी महिला की प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का एक आयाम है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21
- अनुच्छेद 21 को आम तौर पर 'जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने वाला प्रक्रियात्मक मैग्नाकार्टा' के रूप में जाना जाता है।
- फ्रांसिस कोरली मुलिन बनाम प्रशासक (1981) मामले में न्यायमूर्ति भगवती ने कहा कि अनुच्छेद 21 एक लोकतांत्रिक समाज में सर्वोच्च महत्व के संवैधानिक मूल्य का प्रतीक है।
- इस अनुच्छेद का दावा केवल तभी किया जा सकता है जब किसी व्यक्ति को राज्य द्वारा उसके 'जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता' से वंचित किया जाता है। यह अनुच्छेद राज्य या उसकी संस्थाओं के अलावा अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध भी लागू करने योग्य है