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आपराधिक कानून
केंद्र सरकार ने आपराधिक न्याय प्रणाली को बदलने के लिये कानून पेश किया
14-Aug-2023
लोकसभा में तीन आपराधिक कानूनों में संशोधन हेतु विधेयक पेश किये गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
भारतीय दंड संहिता, 1860 (The Indian Penal Code, 1860 (IPC) को भारतीय न्याय संहिता 2023 से प्रतिस्थापित किया है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC)) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1972 (Indian Evidence Act, 1972 (IEA) को भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 द्वारा द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा।
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार ने 11 अगस्त, 2023 को लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किये। इन विधेयकों के नाम- भारतीय न्याय संहिता 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 है जो देश की आपराधिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह से बदलने का प्रस्ताव करते हैं।
पृष्ठभूमि
लोकसभा में तीन विधेयक पेश किये गये हैं- भारतीय दंड संहिता को भारतीय न्याय संहिता 2023, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1972 (Indian Evidence Act, 1972 (IEA) को भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 द्वारा द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा।
भारतीय न्याय संहिता, 2023, इस नई संहिता की धारा 150 के तहत निहित एक नए प्रावधान द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code, 1860 (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह के अपराध को पूरी तरह से निरस्त कर देगी।
इस संहिता में धारा 101(2) के तहत मॉब लिंचिंग के नए प्रावधान को शामिल करने और इसके लिये मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या अधिक की जेल की सजा का प्रावधान करने का भी प्रस्ताव है।
भारत के उच्चतम न्यायालय ने 11 मई, 2023 को एस. जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ के मामले में केंद्र सरकार और राज्यों से IPC की धारा 124A के तहत राजद्रोह के अपराध के लिये कोई भी मामला दर्ज करने से परहेज करने को कहा ।
उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान पर रोक लगाते हुए विनिश्चय सुनाया कि यह कानून अब सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप नहीं है।
22वें विधि आयोग ने अप्रैल 2023 में सिफारिश की थी कि धारा 124A को कुछ बदलावों के साथ क़ानून की किताब में बरकरार रखा जाना चाहिये।
प्रस्तावित विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो जाने और राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी मिलने के बाद संसद के एक अधिनियम का रूप ले लेंगे और भारत की आपराधिक कानून प्रणाली पर वर्तमान कानून की जगह ले लेंगे।
राजद्रोह
आईपीसी की धारा 124A, जो राजद्रोह कानून से संबंधित है, का उल्लेख तब नहीं किया गया था, जब अधिनियम पहली बार लागू किया गया था, बल्कि वर्ष 1870 में इसे जोड़ा गया था।
केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने IPC के इस प्रावधान की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा और केदार नाथ सिंह को राजद्रोह के लिये दोषी ठहराया गया।
यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, घाना, नाइज़ीरिया और युगांडा अन्य लोकतांत्रिक देशों में से हैं, जिन्होंने राजद्रोह कानूनों को अलोकतांत्रिक, अवांछित और अनावश्यक बताकर खारिज कर दिया है।
वर्तमान कानून - धारा 124ए, आईपीसी
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124A (Section 124A) में राजद्रोह (Sedition) को परिभाषित (Define) किया गया है, साथ ही इस धारा के तहत दोषी पाए जाने वाले शख्स हेतु सजा और जुर्माना (Punishment and fine) भी बताया गया है। IPC की धारा 124A के अनुसार, जो कोई मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार (Government established by law) के प्रति घृणा या अवमानना (Hatred or contempt) उत्पन्न करेगा, या उत्पन्न करने का प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त (illuminated) करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास (Life imprisonment) से, जिसमें जुर्माना (Fine) जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित (Punished with fine) किया जाएगा।
नया (प्रस्तावित) कानून - धारा 150, भारतीय न्याय संहिता, 2023
संसद में पेश भारतीय न्याय संहिता की धारा 150 के अनुसार कोई भी इरादतन या जानबूझकर मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में , इलेक्ट्रॉनिक संदेश से, वित्तीय साधनों के उपयोग से अगर देश में अलगाव, सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियों और अलगाववादी गतिविधियों की भावना को उकसाता है।
इसके अलावा अगर कोई भारत की संप्रभुता, एकता या अखंडता को खतरे में डालता है या ऐसे कार्य में शामिल होता है तो नए कानून के तहत अपराधी माना जाएगा। इसके तहत 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा के साथ जुर्माना भी हो सकता है।
स्पष्टीकरण- इस धारा में संदर्भित गतिविधियों को बिना उकसाए या उकसाने की कोशिश करके कानूनी तरीके से उनमें बदलाव हासिल करने के लिए सरकार के उपायो, या प्रशासनिक या अन्य कार्यवाही के अननुमोदन व्यक्त करने वाली टिप्पणियाँ ।
22वें विधि आयोग की सिफारिशें - 279 वीं रिपोर्ट
केदार नाथ फैसले को शामिल करना - केदार नाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए कहा कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'उचित प्रतिबंध' के अंतर्गत आता है।
एक नई प्रक्रियात्मक 'सुरक्षा' स्थापित करना - आयोग कानून के 'कथित दुरुपयोग' को रोकने के लिये CrPC में एक प्रमुख प्रक्रियात्मक संशोधन की सिफारिश करता है। इसमें सुझाव दिया गया है कि इंस्पेक्टर या उससे उच्च पद पर आसीन एक पुलिस अधिकारी को पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जाँच करनी चाहिये।
सज़ा की अवधि बढ़ाना – इस आयोग ने सज़ा को सात साल की अवधि या आजीवन कारावास के साथ-साथ जुर्माने तक बढ़ाने की सिफारिश की। वर्तमान में, सजा की अवधि या तो तीन साल की कैद या आजीवन कारावास है।
प्रावधान में नए शब्द शामिल करना – इस रिपोर्ट में प्रावधान में 'हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति' शब्द जोड़ने की सिफारिश की गई है। यह 'प्रवृत्ति' को 'वास्तविक हिंसा या हिंसा के आसन्न खतरे के सबूत के बजाय हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था भड़काने की प्रवृत्ति' के रूप में परिभाषित करता है।
विधेयकों में ये प्रमुख बदलाव पेश किये गए
IPC- भारतीय न्याय संहिता, 2023
IPC में फिलहाल 511 धाराएँ हैं।
नए विधेयक में IPC के 22 प्रावधानों को निरस्त करने, 175 मौजूदा प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव और 8 नई धाराएँ शामिल करने का प्रस्ताव है। इसमें कुल 356 प्रावधान हैं।
CrPc - भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023
CrPc में फिलहाल 484 धाराएँ हैं।
नया विधेयक CrPC के 9 प्रावधानों को निरस्त करता है, 160 प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव करता है और 9 नए प्रावधान पेश करता है। नए विधेयक में कुल 533 धाराएँ हैं।
IEA - भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023
भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 में वर्तमान में 167 धाराएँ हैं।
नया विधेयक IEA के 5 मौजूदा प्रावधानों को निरस्त करता है, 23 प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव करता है और एक नया प्रावधान पेश करता है। इसमें कुल 170 धाराएँ हैं।
भारत का विधि आयोग
भारत का विधि आयोग एक गैर-सांविधिक निकाय है और इसका गठन भारत सरकार, कानून और न्याय मंत्रालय, कानूनी मामलों के विभाग के तहत किया जाता है।
इसका मुख्य उद्देश्य कानून के क्षेत्र में अनुसंधान करना और सरकार से सिफारिशें करना है।
पहला विधि आयोग भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत स्थापित किया गया था और इसकी अध्यक्षता लॉर्ड मैकाले ने की थी।
स्वतंत्र भारत का पहला विधि आयोग 1955 में श्री एम. सी. सीतलवाड की अध्यक्षता में स्थापित किया गया था, जो भारत के पहले अटॉर्नी-जनरल भी थे।
वर्तमान में 22वाँ विधि आयोग न्यायमूर्ति ऋतु राज अवस्थी की अध्यक्षता में कार्य कर रहा है।
विधेयक और अधिनियम के बीच अंतर
विधेयक - एक मसौदा प्रस्तावित कानून जो चर्चा के लिये संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
अधिनियम - जब कोई विधेयक विधायिका द्वारा पारित किया जाता है तो इसे राष्ट्रपति या राज्यपाल, (जैसा भी मामला हो) की सहमति के लिये भेजा जाता है। ऐसी सहमति मिलने पर यह एक अधिनियम बन जाता है।
आपराधिक कानून
विलंब क्षमा
14-Aug-2023
फोटो कंटेंट - स्वास्थ्य विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार बनाम कमला मेहंदीरत्ता एवं अन्य ।
"विलंब क्षमा एक अपवाद है जिसका उपयोग सरकारी विभागों की सुविधा के अनुसार नहीं किया जाना चाहिये"।
जस्टिस चंद्र धारी सिंह
स्रोत- दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य विभाग, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली बनाम कमला मेहंदीरत्ता और अन्य (Dept. of Health, Govt. of NCT of Delhi v. Kamla Mehndiratta & Ors.) के मामले में कहा गया है कि विलंब क्षमा एक अपवाद है जिसका उपयोग सरकारी विभागों की सुविधा के अनुसार नहीं किया जाना चाहिये।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष श्रम न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए रिट याचिका दायर की और 15 मार्च, 2007 के आदेश के तहत मामले को नियमित मामलों की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया।
हालाँकि, याचिकाकर्त्ता की ओर से अधिवक्ताओं के उपस्थित न होने के कारण 3 मई, 2017 के आदेश के तहत न्यायालय द्वारा मामले को डिफ़ॉल्ट रूप से खारिज कर दिया गया था।
याचिका की बहाली की मांग करते हुए आवेदन दाखिल करने में 691 दिनों की देरी को माफ करने की मांग करते हुए वर्तमान आवेदन दायर किया ।
न्यायालय ने यह अर्जी खारिज कर दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह ने कहा कि विलंब क्षमा करना एक अपवाद है जिसका उपयोग सरकारी विभागों की सुविधा के अनुसार नहीं किया जाना चाहिये।
उन्होंने आगे कहा कि अदालतों को विलंब क्षमा के आवेदनों पर निर्णय लेते समय सरकारी एजेंसियों के साथ अलग व्यवहार नहीं करना चाहिये और सरकार यह सुनिश्चित करने के लिये "विशेष दायित्व" के तहत है कि उनके कर्त्तव्यों का ठीक से पालन किया जाए।
न्यायलय ने कहा कि अनुपस्थिति के कारण याचिका खारिज होने की जानकारी होने के बावजूद, सरकारी विभाग समय पर बहाली की मांग करने वाला आवेदन दायर करने में विफल रहा और दो साल बाद और अपनी सुविधा के अनुसार ऐसा करना चुना।
न्यायालय ने यह भी कहा कि 691 दिनों की देरी के लिये आवेदन में दिये गये कथनों को किसी भी तरह से उचित देरी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
कानूनी प्रावधान
विलंब क्षमा का अर्थ है कुछ मामलों में पर्याप्त कारण होने पर निर्धारित समय का विस्तार ।
देरी को माफ करने की अवधारणा को मुख्य रूप से आवेदनों और अपीलों के लिये प्राथमिकता दी जाती है और यह मुकदमों को कवर नहीं करती है।
यह केवल आपराधिक कार्यवाही पर लागू होता है।
परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act, 1963 (LA) की धारा 5 विलंब क्षमा की अवधारणा से संबंधित है।
परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act, 1963 (LA) की धारा 5 कुछ मामलों में निर्धारित अवधि के विस्तार से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, (CPC) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के तहत किसी आवेदन के अलावा किसी अपील या आवेदन को निर्धारित अवधि के बाद प्रवेश दिया जा सकता है यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक अदालत को संतुष्ट करता है कि उसके पास ऐसी अवधि के भीतर अपील न करने या आवेदन न करने का पर्याप्त कारण है।
परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act, 1963 (LA) की धारा 5 के प्रावधान का तात्पर्य यह नहीं है कि विलंब क्षमा करने की अदालत की शक्ति एक आवेदन दायर करने से सीमित है।
विलंब को क्षमा करने की शक्ति का प्रयोग तब किया जा सकता है जब अपीलकर्त्ता अदालत को इस बात से संतुष्ट कर दे कि उसके पास निर्धारित अवधि के भीतर अपील दायर न करने का पर्याप्त कारण है।
यदि कोई अपील बिना किसी औपचारिक या लिखित आवेदन के स्पष्ट करने योग्य परिस्थिति में समय से पहले प्रस्तुत की जाती है, तो न्यायालयों को न्याय के कुप्रबंध से बचने के लिये पक्षों को मामले में संशोधन करने का उचित अवसर देना चाहिये।
धारा 5 के तहत राहत का दावा करने के लिये एक लिखित आवेदन देना आवश्यक नहीं है और यदि न्याय के हित की आवश्यकता हो तो इस धारा के तहत लिखित आवेदन के बिना राहत देने के लिये न्यायालय खुला है।
राम लाल बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड (1962) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे दो महत्वपूर्ण विचार हैं जिन्हें विलंब क्षमा पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिये:
परिसीमा अवधि की समाप्ति डिक्री-धारक के पक्ष में कानूनी अधिकारों को जन्म देती है ताकि वे अपने पक्ष में पारित डिक्री को पार्टियों के बीच बाध्यकारी मान सकें। समय के व्यपगत होने पर डिक्री-धारक को जो कानूनी अधिकार प्राप्त होता है, उसमें छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिये।
यदि देरी के निष्पादन के लिये पर्याप्त कारण दिखाया गया है, तो देरी को माफ करने और अपील स्वीकार करने का विवेक न्यायालय को दिया जाता है। पर्याप्त कारण का प्रमाण विवेकाधीन क्षेत्राधिकार के प्रयोग में एक पूर्व शर्त है।
निम्नलिखित ऐसे उदाहरण हैं जहाँ विलंब क्षमा दी जा सकती है:
बाद में कानून में बदलाव होता है
यदि कोई पक्ष बीमार होता है
यह कोई पक्ष कैद में हो जाता है
यदि कोई पक्ष पर्दानशीं औरत है
यदि कोई पक्ष अपर्याप्त धन वाले अल्पसंख्यक समूह से संबंधित है
यदि कोई पक्ष गरीबी या कंगाली की स्थिति में आ जाता है
यदि कोई पक्ष एक सरकारी सेवक है
यदि रिट याचिका लंबित होने के कारण विलंब हुआ
यदि कोई पक्ष अनपढ़ है
राम काली कुअर बनाम इंद्रदेव चौधरी (1985) मामले में, यह माना गया कि धारा 5 यह प्रावधान नहीं करती है कि उक्त प्रावधान के तहत राहत देने से पहले लिखित रूप में एक आवेदन दायर किया जाना चाहिये।