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आपराधिक कानून
घृणास्पद भाषण रोकना आवश्यक है
18-Aug-2023
"दिल्ली उच्च न्यायालय महिला वकील फोरम (Delhi High Court Women Lawyers Forum (WLF) ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ के समक्ष एक पत्र याचिका प्रस्तुत की, जिसमें नूंह जिले सहित हरियाणा में घृणास्पद भाषणों के मामलों में हस्तक्षेप की मांग की गई।"
स्रोतः टाइम्स ऑफ इंडिया
चर्चा में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय महिला वकील फोरम (Delhi High Court Women Lawyers Forum (WLF) की दिल्ली और गुड़गांव में प्रैक्टिस करने वाली 101 महिला वकीलों ने नूंह सहित पूरे हरियाणा में विभिन्न स्थानों पर नफरत भरे भाषणों की हालिया घटनाओं के मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) के हस्तक्षेप की मांग करने के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ को एक पत्र याचिका सौंपी है।
हरियाणा हिंसा (Haryana Violence)
- 31 जुलाई 2023 को, विश्व हिंदू परिषद (VHP) द्वारा आयोजित वार्षिक ब्रजमंडल यात्रा तीर्थयात्रा के दौरान मुसलमानों और हिंदुओं के बीच हरियाणा के नूंह जिले में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी।
- नूंह मेवात क्षेत्र का हिस्सा है, जो मेव समुदाय का घर है, जिन्होंने मुस्लिम काल के दौरान इस्लाम अपना लिया था।
- हरियाणा के नूंह में ब्रजमंडल यात्रा जिले में पवित्र हिंदू स्थलों को पुनर्जीवित करने के लिये तीन साल पहले विश्व हिंदू परिषद द्वारा शुरू की गई थी।
- हमले तब शुरू हुए जब विहिप की ब्रजमंडल यात्रा, जो पिछले तीन साल से नूंह से गुजर रही थी, को इस साल नूंह के खेड़ला मोड़ पर एक भीड़ ने रोक दिया और उस पर पत्थरों से हमला किया।
पृष्ठभूमि
- दिल्ली उच्च न्यायालय महिला वकील फोरम (Delhi High Court Women Lawyers Forum (WLF) ने अपने पत्र में दलील दी कि राज्य को घृणास्पद भाषण की घटनाओं पर अंकुश लगाने के निर्देश दिये जाने चाहिये क्योंकि सोशल मीडिया पर घृणास्पद भाषण वाले वीडियो सामने आये हैं।
- आगे यह भी कहा गया कि प्रसारित वीडियो जो किसी समुदाय/पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने, क्षति पहुंचाने की धमकी देने या किसी समुदाय के आर्थिक बहिष्कार का आग्रह करने से संबंधित हैं, उन्हें ट्रैक किया जाना चाहिये और प्रतिबंधित किया जाना चाहिये।
- इस पत्र याचिका में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने नूंह हिंसा के बाद राज्य के अधिकारियों द्वारा किये गये विध्वंस का स्वत: संज्ञान कैसे लिया और न्यायालय के इस दृष्टिकोण ने कानून के शासन में नागरिकों का विश्वास पैदा करने में काफी मदद की है।
- पत्र याचिका निम्नलिखित घोषणाओं पर आधारित थी:
- तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ और अन्य (2018) के मामले में, उच्चतम ने माना था कि कड़े उपायों के माध्यम से भीड़ की सतर्कता और भीड़ की हिंसा पर अंकुश लगाना संबंधित सरकारों की जिम्मेदारी है।
- इसके अलावा, शाहीन अब्दुल्ला बनाम भारत संघ (2023) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि समुदायों के बीच सद्भाव होना चाहिये और नूंह में हाल की सांप्रदायिक हिंसा के बाद मुस्लिम समुदाय का बहिष्कार करने का आह्वान "अस्वीकार्य" था।
- दिल्ली उच्च न्यायालय महिला वकील फोरम (Delhi High Court Women Lawyers Forum (WLF) द्वारा यह आग्रह किया गया था कि राज्य सरकार को निम्नलिखित निर्देश जारी किये जाएं:
- हरियाणा राज्य में सभी धर्मों के नागरिकों के लिये सम्मान और स्वतंत्रता के माहौल को बढ़ावा देना और सांप्रदायिक सद्भाव के कार्यों के लिये समावेशन और पुरस्कारों को उजागर करने वाले कार्यक्रमों की घोषणा करके समुदायों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देना;
- घृणास्पद भाषण की घटनाओं को रोकने के लिये माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार कदम उठाना;
- उन वीडियो को ट्रैक करना और प्रतिबंधित करना जो किसी समुदाय/पूजा स्थलों को नुकसान पहुंचाने की धमकी देते हैं या किसी समुदाय के आर्थिक बहिष्कार का आग्रह करते हैं;
- घृणास्पद भाषण के कृत्यों के लिये जिम्मेदार पाए गये व्यक्तियों के ख़िलाफ़ तत्काल कार्रवाई करना।
घृणास्पद भाषण
- संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुसार आम बोलचाल की भाषा में "घृणास्पद भाषण" का तात्पर्य किसी समूह, या किसी व्यक्ति को अंतर्निहित विशेषताओं (जैसे जाति, धर्म या लिंग) के आधार पर लक्षित करने वाले आक्रामक भाषण या बोल से है और जो सामाजिक शांति के लिये खतरा हो सकता है।
- राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, नफरत फैलाने वाले भाषण को बढ़ावा देने के लिये दर्ज किये गये मामलों में भारी वृद्धि हुई है क्योंकि इस सिलसिले में 2014 में केवल 323 मामले दर्ज किये गये थे, जो 2020 में बढ़कर 1,804 मामले हो गये हैं।
- भारत में किसी भी कानून में नफरत फैलाने वाले भाषण को परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, धारा 295A, 153A, 505 आदि भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) उन भाषणों या शब्दों से संबंधित है जो शरारत/नफ़रत पैदा कर सकते हैं या राष्ट्रीय एकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 नाम का विधेयक जो हाल ही में संसद में पेश किया गया है, धारा 297 के तहत नफरत फैलाने वाले भाषण से संबंधित है, अगर इसे संसद की मंजूरी मिल जाती है तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 295A को प्रतिस्थापित करेगा।
- धारा 297 - जो कोई भारत के नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के ठिमर्शित और विद्वेषपूर्ण आशय से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासाँ का अपमान उच्चारित या लिखित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपणों द्वारा या अन्यथा करेगा या करने का प्रयल्न करेगा, वह दोनों में से किसी भांति कै कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
निर्णय विधि
उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व पर जोर दिया है और ऑनलाइन भाषण के मामले पर फैसले दिये हैं, जिनमें से कुछ पर नीचे चर्चा की गई है:
- श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015):
- न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (आईटी अधिनियम) की धारा 66A को रद्द कर दिया, जिसमें ऑनलाइन भाषण को अपराध घोषित किया गया था, यह कहते हुए कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
- सुकुमार बनाम तमिलनाडु राज्य (2019):
- न्यायालय ने माना कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नफरत फैलाने वाला भाषण भारत के संविधान (COI), 1950 के तहत प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार द्वारा संरक्षित नहीं है।
घृणास्पद भाषण से संबंधित संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provision Related to Hate Speech)
संविधान का अनुच्छेद 19(1)(A) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ उचित प्रतिबंधों से संबंधित है जो अनुच्छेद 19(2) के तहत लगाए जा सकते हैं।
अनुच्छेद 19 - बोलने की स्वतंत्रता आदि से संबंधित कुछ अधिकारों का संरक्षण
(1) सभी नागरिकों को अधिकार होगा-
(a) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये।
अनुच्छेद 19 (2) खंड (1) के उपखंड (क) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर [भारत की प्रभुता और अखंडता], राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहाँ तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहाँ तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत घृणास्पद भाषण (Constitutional Provision Related to Hate Speech)
भारतीय दंड संहिता में मुख्य रूप से धारा 153A, 295A, 505 आदि के तहत नफरत फैलाने वाले भाषण के प्रावधान शामिल हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है:
भारतीय दंड संहिता की धारा 153क के अनुसार,
जो कोई--
(क) बोले गए या लिखे गए शब्दों या संकेतों या दृश्यरूपणों द्वारा या अन्यथा विभिन्न धार्मिक, मूलवंशीय या भाषायी या प्रादेशिक समूहों, जातियों या समुदायों के बीच असौहार्द्र अथवा शत्रुता, घॄणा या वैमनस्य की भावनाएं, धर्म, मूलवंश, जन्म-स्थान, निवास-स्थान, भाषा, जाति या समुदाय के आधारों पर या अन्य किसी भी आधार पर संप्रवर्तित करेगा या संप्रवर्तित करने का प्रयत्न करेगा, अथवा
(ख) कोई ऐसा कार्य करेगा, जो विभिन्न धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूहों या जातियों या समुदायों के बीच सौहार्द्र बने रहने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला है और जो लोक-शान्ति में विघ्न डालता है या जिससे उसमें विघ्न पड़ना सम्भाव्य हो, अथवा
(ग) कोई ऐसा अभ्यास, आन्दोलन, कवायद या अन्य वैसा ही क्रियाकलाप इस आशय से संचालित करेगा कि ऐसे क्रियाकलाप में भाग लेने वाले व्यक्ति किसी धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूह या जाति या समुदाय के विरुद्ध आपराधिक बल या हिंसा का प्रयोग करेंगे या प्रयोग करने के लिये प्रशिक्षित किये जाएंगे या यह सम्भाव्य जानते हुए संचालित करेगा कि ऐसे क्रियाकलाप में भाग लेने वाले व्यक्ति किसी धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूह या जाति या समुदाय के विरुद्ध आपराधिक बल या हिंसा का प्रयोग करेंगे या प्रयोग करने के लिये प्रशिक्षित किये जाएंगे अथवा ऐसे क्रियाकलाप में इस आशय से भाग लेगा कि किसी धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूह या जाति या समुदाय के विरुद्ध आपराधिक बल या हिंसा का प्रयोग करे या प्रयोग करने के लिये प्रशिक्षित किया जाए या यह सम्भाव्य जानते हुए भाग लेगा कि ऐसे क्रियाकलाप में भाग लेने वाले व्यक्ति किसी धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूह या जाति या समुदाय के विरुद्ध आपराधिक बल या हिंसा का प्रयोग करेंगे या प्रयोग करने के लिये प्रशिक्षित किये जाएंगे और ऐसे क्रियाकलाप से ऐसी धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूह या जाति या समुदाय के सदस्यों के बीच, चाहे किसी भी कारण से, भय या संत्रास या असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है या उत्पन्न होनी सम्भाव्य है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
पूजा के स्थान आदि में किया गया अपराध - जो कोई उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अपराध किसी पूजा के स्थान में या किसी जमाव में, जो धार्मिक पूजा या धार्मिक कर्म करने में लगा हुआ हो, करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जाएगा, और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
- धारा 505 - भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के अनुसार, जो भी कोई किसी कथन, जनश्रुति या सूचना -
(क) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, भारत की सेना, नौसेना या वायुसेना का कोई अधिकारी, सैनिक, नाविक या वायुसैनिक विद्रोह करे या अन्यथा वह उस नाते, अपने कर्तव्य की अवहेलना करे या उसके पालन में असफल रहे, अथवा
(ख) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, सामान्य जन या जनता के किसी भाग को ऐसा भय या संत्रास कारित हो जिससे कोई व्यक्ति राज्य के विरुद्ध या सार्वजनिक शांति के विरुद्ध अपराध करने के लिये उत्प्रेरित हो, अथवा
(ग) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, उससे व्यक्तियों का कोई वर्ग या समुदाय किसी दूसरे वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अपराध करने के लिये उकसाया जाए, को रचेगा, प्रकाशित या परिचालित करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
विभिन्न वर्गों में शत्रुता, घॄणा या वैमनस्य पैदा या सम्प्रवर्तित करने वाले कथन - जो भी कोई जनश्रुति या संत्रासकारी समाचार अन्तर्विष्ट करने वाले किसी कथन या सूचना, इस आशय से कि, या जिससे यह संभाव्य हो कि, विभिन्न धार्मिक, मूलवंशीय, भाषायी या प्रादेशिक समूहों या जातियों या समुदायों के बीच शत्रुता, घॄणा या वैमनस्य की भावनाएं, धर्म, मूलवंश, जन्म-स्थान, निवास-स्थान, भाषा, जाति या समुदाय के आधारों पर या अन्य किसी भी आधार पर पैदा या संप्रवर्तित हो, को रचेगा, प्रकाशित करेगा या परिचालित करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
पूजा के स्थान आदि में किया गया उपधारा (2) के अधीन अपराध - जो भी कोई उपधारा (2) में निर्दिष्ट अपराध किसी पूजा के स्थान पर या किसी जनसमूह में, जो धार्मिक पूजा या कर्म करने में लगा हुआ हो, करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
अपवाद--ऐसा कोई कथन, जनश्रुति या सूचना इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत अपराध की कोटि में नहीं आती, जब उसे रचने, प्रकाशित करने या परिचालित करने वाले व्यक्ति के पास इस विश्वास के लिये यथोचित आधार हो कि ऐसा कथन, जनश्रुति या सूचना सत्य है और वह उसे सद्भावपूर्वक तथा पूर्वोक्त जैसे किसी आशय के बिना रचता, प्रकाशित करता या परिचालित करता है।
आपराधिक कानून
उत्पाद शुल्क मामले में आरोपी को न्यायिक हिरासत
18-Aug-2023
चर्चा में क्यों ?
- दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति मामले (Delhi excise policy case) में एक व्यवसायी को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने आरोपी की रिमांड अवधि के अंत में उसे अदालत में पेश किया।
पृष्ठभूमि
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने आरोपी 6 जुलाई, 2023 को गिरफ्तार किया था।
- आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि आरोपी सीबीआई मामले में सरकारी गवाह था, इसलिये उसे अन्य सह-अभियुक्तों के आवास वाली जेल की कोठरी में नहीं रखा जाना चाहिये।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) के प्रतिनिधियों ने अदालत को बताया कि हिरासत के दौरान उनसे पूछताछ की गई थी।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) के प्रतिनिधि द्वारा यह भी खुलासा किया गया कि आरोपी ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का खुलासा किया है, जिन पर एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में कार्रवाई की जा रही है और उससे आगे की पूछताछ की आवश्यकता नहीं है, लेकिन उसने दावा किया कि अगर आरोपी की इस वक्त रिहा किया जाता है, तो वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है, गवाहों को प्रभावित कर सकता है, या न्याय से भाग सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- अदालत ने जेल अधिकारियों को आरोपियों को एक ऐसी अलग जेल में रखने का निर्देश देते हुये सुनवाई की अगली तारीख 25 जुलाई 2023 रखी है, जहाँ जहाँ अन्य आरोपी मौजूद नहीं हो।
कानूनी प्रावधान
- हिरासत (Custody) - इसका मतलब सुरक्षात्मक देखभाल के लिये किसी को पकड़ना।
- पुलिस हिरासत (Police Custody) - यह किसी संदिग्ध को हिरासत में लेने के लिये जेल में पुलिस के पास किसी संदिग्ध की हिरासत होती है। मामले के प्रभारी अधिकारी को 24 घंटे के भीतर संदिग्ध को उचित न्यायाधीश के समक्ष पेश करना आवश्यक है, इस समय अवधि में पुलिस स्टेशन से अदालत तक जाने में लगने वाला समय शामिल नहीं है।
- न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) - इसके तहत आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और जेल में बंद होता है।
आपराधिक कानून पहलू (Criminal Law Aspect)
- पुलिस रिमांड की अवधारणा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CRPC) की धारा 167 के तहत प्रदान की गई है।
सीआरपीसी की धारा 167 :- जब चौबीस घण्टे के अन्दर अन्वेषण पूरा न किया जा सके तब प्रक्रिया —
जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घण्टे की अवधि के अन्दर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिये आधार है कि अभियोग या इत्तिला दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।
- धारा 167(1) के तहत रिमांड आवेदन पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या जांच करने वाले व्यक्ति द्वारा किया जाता है, यदि वह उप निरीक्षक के पद से नीचे का नहीं है।
- धारा 167(2) के अनुसार न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 15 दिन दी जा सकती है।
- रिमांड के पीछे का उद्देश्य आरोपी को ऐसी जगह से स्थानांतरित करना है जहां उसकी गिरफ्तारी हुई है, जहां उस पर मुकदमा चलाया जाना है।
- राम दोस बनाम तमिलनाडु राज्य (1992) मामले में, अदालत द्वारा यह माना गया था कि धारा 167 के तहत रिमांड देने से पहले, मजिस्ट्रेट को यह ध्यान में रखना चाहिये:
- 24 घंटे बाद भी आरोपी को हिरासत में रखने का कारण और किस आधार पर आरोपी को पुलिस हिरासत में रखा जाना है।
- क्या रिपोर्ट में संज्ञेय अपराध मौजूद है।
- क्या मामला दर्ज करके ही जांच की गयी है।
- सीआरपीसी की धारा 167 के तहत आरोपी की रिमांड के समय उसकी शारीरिक या वर्चुअल उपस्थिति एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- जिगर उर्फ जिमी प्रवीणचंद्र अदातिया बनाम गुजरात राज्य (2022) मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) ने माना है कि जांच के लिये समय बढ़ाने के आवेदन पर विचार करते समय अदालत के समक्ष आरोपी को पेश करने में विफलता उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- सीआरपीसी की धारा 167(2) के अनुसार न्यायिक हिरासत निम्नलिखित के लिये दी जा सकती है:
- नब्बे दिन, जहां जांच किसी ऐसे दंडनीय अपराध से संबंधित है जिसमें मौत, आजीवन कारावास या कम से कम दस साल की अवधि का कारावास भी हो सकता है;
- साठ दिन, जहां जांच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो।
- जैसा भी मामला हो, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर, आरोपी व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया जायेगा, ऐसा तभी किया जायेगा जब वह जमानत देने के लिये तैयार है और जमानत जमा करता है।
- कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा हिरासत - धारा 167(2क) के अनुसार यदि आरोपी को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाता है, और उसके बाद ऐसे कार्यकारी मजिस्ट्रेट, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिये, आरोपी व्यक्ति को उतने दिन की हिरासत में रखने के लिये अधिकृत करें, जितने दिन वह उचित समझे, कुल मिलाकर यह समय सात दिन से अधिक नहीं होना चाहिये।
अनुमोदक (Approver)
- अनुमोदक वह व्यक्ति होता है जिस पर किसी अपराध का आरोप लगाया गया हो लेकिन बाद में वह अपराध कबूल कर लेता है और अभियोजन पक्ष के लिये गवाही देने के लिये सहमत हो जाता है।
- ऐसे व्यक्ति को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 306 के तहत अपराध के लिये दोषी अन्य पक्षों के खिलाफ व्यक्ति के साक्ष्य प्राप्त करने के इरादे से क्षमा प्रदान की जाती है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 133 के अनुसार अनुमोदक का साक्ष्य मूल्य सहयोगी साक्ष्य की श्रेणी में आता है और एक सहयोगी सह-अभियुक्त के खिलाफ एक सक्षम गवाह माना जाता है।
संवैधानिक कानून पहलू
- भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 22 गिरफ्तार व्यक्ति को दोहरी सुरक्षा देता है:
- अनुच्छेद 22(1) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में सूचित किया जाना चाहिये और उसे अपनी पसंद के कानूनी व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने का अधिकार है।
- अनुच्छेद 22(2) यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार और हिरासत में लिये गये प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिये,और बिना मजिस्ट्रेट के अधिकार के उस अवधि से अधिक व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
प्रवर्तन निदेशालय
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक घरेलू कानून प्रवर्तन और आर्थिक खुफिया एजेंसी है जो भारत में आर्थिक कानूनों को लागू करने और आर्थिक अपराध से लड़ने के लिये जिम्मेदार है।
- यह भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग का हिस्सा है।
- प्रवर्तन निदेशालय मनी लॉन्ड्रिंग, विदेशी मुद्रा उल्लंघन और आर्थिक अपराधों से संबंधित मामलों की जांच और मुकदमा चलाने पर ध्यान केंद्रित करता है।
- इसका प्राथमिक उद्देश्य काले धन के प्रसार पर अंकुश लगाना और वि
आपराधिक कानून
पॉक्सो के तहत नाबालिग लड़की का नाम उजागर करना ज़रूरी नहीं
18-Aug-2023
काजेन्द्रन बनाम पुलिस अधीक्षक एवं अन्य
" सहमति से बनाए गये संबंधों से गर्भधारण को समाप्त करते समय डॉक्टरों को पॉक्सो अधिनियम के तहत रिपोर्ट में नाबालिग लड़की के नाम का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है।"
न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश और सुंदर मोहन”।
स्रोत - मद्रास उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
काजेंद्रन बनाम पुलिस अधीक्षक और अन्य के मामले में कहा है कि जब कोई नाबालिग सहमति से यौन संबंध से उत्पन्न गर्भावस्था को समाप्त करना चाहती है, तो पंजीकृत चिकित्सक उस लड़की के नाम का खुलासा करने पर जोर नहीं दे सकता है। नाबालिग को यौन उत्पीड़न से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 ((Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) की धारा 19 के तहत रिपोर्ट तैयार करने के लिये कहा गया।
पृष्ठभूमि
- उक्त मामला मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा किशोर न्याय बोर्ड को दिया गया था।
- इसके बाद, न्यायिक पक्ष में पॉक्सो और किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के प्रावधानों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये न्यायमूर्ति आनंद वेंकटेश और न्यायमूर्ति सुंदर मोहन की एक पीठ का गठन किया गया था क्योंकि इस मामले की सुनवाई के दौरान उठाए गये मुद्दों पर निर्णय लेने की आवश्यकता थी। यह सुनिश्चित करने के लिये आगे बढ़ना ज़रूरी था कि सभी हितधारकों के लिये सर्वोत्तम प्रथाएँ लागू की जाएँ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने कहा कि यदि कोई नाबालिग सहमति से यौन गतिविधि से उत्पन्न गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन के लिये एक पंजीकृत चिकित्सक के पास जाती है, तो डॉक्टर को पॉक्सो अधिनियम के तहत दी जाने वाली रिपोर्ट में नाबालिग के नाम के खुलासे के लिये जोर देना जरूरी नहीं है, यह रिपोर्ट आम तौर पर इस अधिनियम धारा 19 (1) के तहत दी जाती है।
- इस प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये, क्योंकि ऐसे उदाहरण सामने आये हैं जहां एक नाबालिग और उनके अभिभावक मामले को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं और कानूनी प्रक्रिया में फँस जाते हैं। ऐसे मामलों में, नाबालिग के नाम का खुलासा किये बिना गर्भावस्था की समाप्ति की जा सकती है।
- न्यायालय ने कहा कि पीड़ित लड़कियों के मेडिकल टेस्ट के संबंध में मानक संचालन प्रक्रिया (SoP) तैयार करते समय इन टिप्पणियों को ध्यान में रखा जा सकता है।
कानूनी प्रावधान
पॉक्सो अधिनियम, 2012
- यह अधिनियम 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत पारित किया गया था।
- यह बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन हमले और अश्लील साहित्य सहित अन्य अपराधों से बचाने के लिये बनाया गया एक व्यापक कानून है।
- यह लैंगिक रूप से तटस्थ अधिनियम है और बालकों के कल्याण को सर्वोपरि महत्व का विषय मानता है।
- यह ऐसे अपराधों और संबंधित मामलों और घटनाओं की सुनवाई के लिये विशेष अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है।
- पॉक्सो संशोधन विधेयक, 2019 द्वारा इस अधिनियम में प्रवेशन यौन उत्पीड़न और गंभीर प्रवेशन यौन उत्पीड़न के अपराधों के लिये सजा के रूप में मृत्युदंड की शुरुआत की गई थी।
- धारा 4 में प्रवेशन यौन उत्पीड़न के लिये सजा का प्रावधान है।
- पॉक्सो अधिनियम की धारा 2(1)(d) के तहत, 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बालिग माना जाता है।
- धारा 19 में 'अपराधों की रिपोर्टिंग' से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। यह धारा प्रकट करती है कि –
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में उल्लिखित होते हुए भी कोई व्यक्ति (जिसके अंतर्गत बालिग भी है) जिसको यह आशंका है कि इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किये जाने की संभावना है या यह जानकारी रखता है कि ऐसा कोई अपराध किया गया है, वह निम्नलिखित को ऐसी जानकारी उपलब्ध कराएगाः-
(क) विशेष किशोर पुलिस यूनिट; या
(ख) स्थानीय पुलिस।
(2) उपधारा (1) के अधीन दी गई प्रत्येक रिपोर्ट में...
(क) एक प्रविष्टि संख्या अंकित होगी और लेखबद्ध की जाएगी;
(ख) सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी;
(ग) पुलिस यूनिट द्वारा रखी जाने वाली पुस्तिका में प्रविष्ट की जाएगी।
(3) जहां उपधारा (1) के अधीन रिपोर्ट बालक द्वारा दी गई है, उसे उपधारा (2) के अधीन सरल भाषा में अभिलिखित किया जाएगा जिससे बच्चे अभिलिखित की जा रही अंतर्वस्तुओं को समझ सके।
(4) यदि बच्चे द्वारा नहीं समझी जाने वाली भाषा में अंतर्वस्तु अभिलिखित की जा रही है या बच्चे यदि वह उसको समझने में असफल रहता है तो कोई अनुवादक या कोई दुभाषिया जो ऐसी अर्हताएं, अनुभव रखता हो और ऐसी फीस के संदाय पर जो विहित की जाए, जब कभी आवश्यक समझा जाए, उपलब्ध कराया जाएगा।
(5) जहाँ विशेष किशोर पुलिस यूनिट या स्थानीय पुलिस का यह समाधान हो जाता है कि उस बच्चे को, जिसके विरुद्ध कोई अपराध किया गया है, देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता है तब रिपोर्ट के चौबीस घंटे के भीतर कारणों को लेखबद्ध करने के पश्चात् उसको यथाविहित ऐसी देखरेख और संरक्षण में (जिसके अंतर्गत बच्चे को संरक्षण गृह या निकटतम अस्पताल में भर्ती किया जाना भी है) रखने की तुरन्त व्यवस्था करेगी।
(6) विशेष किशोर पुलिस यूनिट या स्थानीय पुलिस अनावश्यक विलंब के बिना किन्तु चौबीस घंटे की अवधि के भीतर मामले को बाल कल्याण समिति और विशेष न्यायालय या जहाँ कोई विशेष न्यायालय पदाभिहित नहीं किया गया है वहाँ सेशन न्यायालय को रिपोर्ट करेगी, जिसके अंतर्गत बच्चे की देखभाल और संरक्षण के लिये आवश्यकता और इस संबंध में किये गए उपाय भी हैं।
(7) उपधारा (1) के प्रयोजन के लिये सद्भावपूर्वक दी गई जानकारी के लिये किसी व्यक्ति द्वारा सिविल या दांडिक कोई दायित्व उपगत नहीं होगा।
किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015
- यह अधिनियम 15 जनवरी, 2016 को लागू हुआ।
- इसने किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 को निरस्त कर दिया।
- यह अधिनियम 11 दिसंबर 1992 को भारत द्वारा अनुसमर्थित बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहता है।
- यह कानून का उल्लंघन करने की स्थिति में फंसे बालकों के मामलों में 58+ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को निर्दिष्ट करता है।
- यह मौजूदा अधिनियम में चुनौतियों का समाधान करना चाहता है जैसे गोद लेने की प्रक्रियाओं में देरी, मामलों की उच्च लंबितता, संस्थानों की जवाबदेही इत्यादि।
- यह अधिनियम कानून का उल्लंघन करने वाले 16-18 आयु वर्ग के बच्चों को संबोधित करने का प्रयास करता है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में उनके द्वारा किये गए अपराधों की घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है।
- किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2021 के अनुसार, बच्चोंजाएगा।
सिविल कानून
साक्ष्य या पर्याप्त सबूत पेश कर चुके पक्ष की अनुपस्थिति
18-Aug-2023
वाई. पी. लेले बनाम महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लिमिटेड और अन्य।
"न्यायालय उस पक्ष की उपस्थिति दर्ज कर सकता है जिसने साक्ष्य या पर्याप्त सबूत पेश किये हैं और न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहा है।"
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि न्यायालय उस पक्ष की उपस्थिति दर्ज़ कर सकता है जिसने सबूतों का एक बड़ा हिस्सा पेश किया है और फिर न्यायालय के समक्ष पेश होने में विफल रहा है।
- उच्चतम न्यायालय ने वाई. पी. लेले बनाम महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लिमिटेड और अन्य के मामले में यह टिप्पणी दी।
पृष्ठभूमि
- महाराष्ट्र राज्य विद्युत बोर्ड द्वारा मिराज इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी लिमिटेड और उसके पांच निदेशकों के खिलाफ धन और ब्याज की वसूली के लिये मुकदमा दायर किया गया था।
- प्रतिवादी के वकील ने मामले से अपना नाम वापस ले लिया और गवाहों से प्रति-परीक्षा (cross-examination) भी नहीं की।
- इसके बाद, ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादियों के खिलाफ सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) के आदेश XVII नियम 2 के तहत मुकदमा आगे बढ़ाने का निर्देश दिया और मुकदमे में लागत के साथ एकपक्षीय (ex-parte) फैसला सुनाया।
- प्रतिवादियों ने एकपक्षीय (ex-parte) डिक्री को रद्द करने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) के आदेश IX नियम 13 के तहत एक आवेदन दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट ने आवेदन स्वीकार कर लिया और मुकदमा बहाल कर दिया।
- इसके बाद वादी ने बॉम्बे हाई कोर्ट (HC) में एक रिट याचिका दायर की, जहां उच्च न्यायालय ने आदेश XVII नियम 2 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के तहत स्पष्टीकरण लागू किया और एकपक्षीय डिक्री को वैध माना।
- उच्च न्यायालय के आदेश से व्यथित अपीलकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
न्यायालय की टिप्पणी (Court’s Observation)
- न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को प्रतिवादियों को एक और वकील नियुक्त करने के लिये नोटिस जारी करना चाहिये था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और एकतरफा कार्रवाई की।
- उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि जहां किसी पक्ष के साक्ष्य या सबूत का एक बड़ा हिस्सा पहले ही दर्ज़ किया जा चुका है और ऐसा पक्ष न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहता है तो न्यायालय को यह मानते हुए आगे बढ़ने की स्वतंत्रता है कि ऐसा पक्ष मौजूद है।
एकपक्षीय डिक्री (Ex-Parte Decree)
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) का आदेश IX किसी पक्ष की उपस्थिति और गैर-उपस्थिति से संबंधित है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) के आदेश IX नियम 6 के तहत प्रतिवादी के खिलाफ एकपक्षीय डिक्री पारित की जाती है।
- यदि कोई पक्ष न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि पर उपस्थित नहीं होता है, तो न्यायालय उपस्थित होने के लिये सम्मन और नोटिस जारी करेगा।
- सिविल मुकदमे की कार्यवाही के मामले में , यदि वादी उपस्थित था और प्रतिवादी उपस्थित नहीं था, और समन विधिवत जारी किया गया था, तो न्यायालय प्रतिवादी के खिलाफ कार्यवाही कर सकता है और एक पक्षीय डिक्री पारित कर सकता है।
यदि पार्टियाँ नियत दिन पर उपस्थित होने में विफल रहती हैं (If Parties Fail to Appear on Day Fixed)
- यदि कोई पक्ष नियत दिन पर उपस्थित होने में विफल रहते हैं तो प्रक्रिया आदेश XVII सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) के नियम 2 के तहत उल्लिखित है।
- इसमें उस स्थिति का उल्लेख है, जिसमें किसी भी दिन, जिस दिन मुकदमे की सुनवाई स्थगित की जाती है, पक्षकार या उनमें से कोई भी उपस्थित होने में विफल रहता है।
- ऐसी स्थिति में न्यायालय आदेश IX द्वारा निर्देशित किसी एक तरीके से मुकदमे का निपटान करने के लिये आगे बढ़ सकता है या ऐसा कोई अन्य आदेश दे सकता है जो वह उचित समझे।
- आदेश IX नियम 6 के तहत एक तरीका एकपक्षीय डिक्री पारित करना है।
- आदेश XVII नियम 2 के तहत स्पष्टीकरण में कहा गया है कि न्यायालय के पास उस पक्ष के खिलाफ आगे बढ़ने का विवेक है जिसके साक्ष्य या सबूत का बड़ा हिस्सा पहले ही दर्ज किया जा चुका है।
एकपक्षीय डिक्री के विरुद्ध प्रतिवादी के लिये उपाय (Remedy for Defendant Against Ex-Parte Decree)
- ऐसा कोई भी मामला जिसमें प्रतिवादी के खिलाफ एकतरफा डिक्री पारित की जाती है, वह इसे रद्द करने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश IX के नियम 13 के तहत आवेदन दाखिल करने का उपाय चुन सकता है।
- प्रतिवादी इसे रद्द करने के आदेश के लिये उस न्यायालय में आवेदन कर सकता है जिसके द्वारा डिक्री पारित की गई थी।
- यदि न्यायालय निम्नलिखित आधारों पर संतुष्ट हो तो वह उस डिक्री को रद्द करने का आदेश देगी:
- यदि प्रतिवादी न्यायालय को इस बात से संतुष्ट करता है कि समन का क्रियान्वयन ठीक से नहीं से नहीं किया गया है ।
- जब मुकदमा की सुनवाई की जा रही थी तो उसे किसी पर्याप्त कारण से उपस्थित होने से रोका गया।