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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

चित्त विकृति का अपवाद

 21-Aug-2023

रेजी थॉमस @ वायलार बनाम केरल राज्य

"प्रत्येक व्यक्ति जो मानसिक रूप से बीमार है, उसे आपराधिक जिम्मेदारी से छूट नहीं है"।

न्यायमूर्ति पी. बी. सुरेश कुमार और सी. एस. सुधा

स्रोत - केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

रेजी थॉमस @ वायलार बनाम केरल राज्य के मामले में यह माना गया है कि मानसिक रूप से बीमार प्रत्येक व्यक्ति को आपराधिक ज़िम्मेदारी से छूट नहीं है।

  • आगे यह माना गया कि केवल मकसद की कमी किसी मामले को मानसिक अस्वस्थता के सामान्य अपवाद के रूप में भारतीय दंड संहिता की धारा 84 के दायरे में नहीं लाएगी।

पृष्ठभूमि:

  • इस मामले में आरोपी को भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 302 के तहत अपने ही आठ साल के बेटे की कथित तौर पर हत्या करने का दोषी ठहराया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी पाया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
  • इसके बाद आरोपी ने केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने माना कि आरोपी बाइपोलर अफेक्टिव डिसऑर्डर से पीड़ित था।
    • न्यायालय ने कहा कि आरोपी भारतीय दंड संहिता की धारा 84 के तहत मानसिक अस्वस्थता का लाभ पाने का हकदार है और आरोपी को बरी कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति पी. बी. सुरेश कुमार और न्यायमूर्ति सी. एस. सुधा की पीठ ने कहा कि अपराध साबित करने के लिये इरादे और कृत्य का मेल होना चाहिये, लेकिन मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों के मामले में, उन पर कोई दोष नहीं लगाया जा सकता क्योंकि उनकी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि मानसिक अस्वस्थता का लाभ केवल तभी उपलब्ध होता है जब यह साबित हो जाए कि अपराध के दौरान, तर्क दोष और मानसिक बीमारी के कारण आरोपी अपने द्वारा किये जा रहे कृत्य प्रकृति और गुणवत्ता और यह जानने में असमर्थ था कि वह कानून के विपरीत कार्य कर रहा था।

कानूनी प्रावधान:

भारतीय दंड संहिता की धारा 84

  • यह एक विकृत दिमाग वाले व्यक्ति के कृत्य से संबंधित है। इससे प्रकट होता है कि -
    • ऐसा कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो ऐसा करते समय मानसिक अस्वस्थता के कारण कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थ है, या कि वह जो कर रहा है वह या तो गलत है या कानून के विपरीत है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 84 आईपीसी के तहत उपलब्ध सामान्य बचावों में से एक है और यह पागलपन की दलील के लिये प्रावधान करती है
    • पागलपन के कानून की नींव 1843 में हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा रखी गई थी, जिसे एम' नागटेन केस के नाम से जाना जाता है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 84 में 'पागलपन' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है।
    • यह 'मन की अस्वस्थता' अभिव्यक्ति का उपयोग करती है, जिसे संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि भारत में न्यायालयों ने 'मन की अस्वस्थता' अभिव्यक्ति को 'पागलपन' के बराबर माना है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 84 के तहत सुरक्षा पाने के लिये आरोपी के लिये यह साबित करना जरूरी है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण वह कार्य की प्रकृति या यह कार्य कानून के विपरीत था, को जानने में असमर्थ था।
    • रतन लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2002) मामले में यह माना गया था कि समय का वह महत्त्वपूर्ण बिंदु जिस पर यह लाभ दिया जाना चाहिये, वह ऐसा समय है जब अपराध वास्तव में किया गया हो और अभियुक्त ऐसी मानसिक स्थिति में था कि वह धारा 84 से लाभ पाने का हकदार था, यह केवल उन परिस्थितियों से निर्धारित किया जा सकता है जो अपराध से पहले, अपराध के दौरान और उसके बाद हुई थीं।
    • अपराध करने से पहले या उसके बाद का पागलपन अपने आप में उसे आपराधिक दायित्व से मुक्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 302

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 में कहा गया है कि हत्या करने वाले किसी भी व्यक्ति को मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडित किया जा सकता है और उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है

आपराधिक कानून

विवाह विच्छेद के बाद क्रूरता और द्विविवाह पर गुजरात उच्च न्यायालय

 21-Aug-2023

कोई भी महिला विवाह के अस्तित्व के दौरान हुई घटनाओं के लिये तलाक के बाद भी भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A के तहत क्रूरता का मामला दर्ज कर सकती है।

गुजरात उच्च न्यायालय

स्रोतः टाइम्स ऑफ इंडिया

चर्चा में क्यों?

रमेशभाई दानजीभाई सोलंकी बनाम गुजरात राज्य के मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने माना है कि एक महिला तलाक के बाद भी भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 494 और धारा 498A के तहत द्विविवाह और क्रूरता का मामला दर्ज कर सकती है, लेकिन वह ऐसा केवल उन्हीं घटनाओं के लिये कर सकती है जो विवाह-विच्छेद होने से पहले हुई थी।

पृष्ठभूमि

  • वर्तमान मामला CrPC की धारा 482 के तहत दायर की गई एक ऐसी याचिका से संबंधित है जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498(a), 294(b), 323, 114, 506(2) और 494 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने और रद्द करने की मांग की गई है।
  • याचिकाकर्ता (पति) और प्रतिवादी/शिकायतकर्ता (पत्नी) के बीच शादी 2005 में शादी हुई और 2011 में फैमिली कोर्ट में तलाक के लिये याचिका दायर की गई।
    • फैमिली कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों की जांच के बाद 2014 में पति-पत्नी को तलाक दे दिया, जिसे अपील के लिये निर्धारित समय सीमा के भीतर ऊपरी न्यायालय में चुनौती नहीं दिये जाने के कारण अंतिम रूप दे दिया गया।
  • वर्तमान प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) 12.2015 को दर्ज की गई थी।
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में बताया गया है कि प्रतिवादी/शिकायतकर्ता ने घटनाओं/अपराधों के समय, तारीख और स्थान का उल्लेख किये बिना, कथित दुर्व्यवहार, क्रूरता और उत्पीड़न का आरोप लगाया।
    • हालाँकि, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में किसी विशेष घटना का आरोप नहीं लगाया गया था, न ही उसने यह उल्लेख किया था कि याचिकाकर्ताओं द्वारा उसे किस तरह से शारीरिक या मानसिक रूप से परेशान किया गया था।

न्यायालय की टिप्पणी

न्यायमर्ति जितेंद्र दोशी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करते हुए कहा कि सक्षम न्यायालय द्वारा तलाक की मंजूरी देने और शादी को खत्म करने के बाद होने वाले अपराधों या घटनाओं के संबंध में क्रूरता के मामले दर्ज नहीं किये जा सकते हैं।

क्रूरता

  • वैवाहिक संबंधों में क्रूरता - इसका अर्थ एक ऐसा वैवाहिक कृत्य है जो दूसरों को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक जैसे किसी भी प्रकार का दर्द और कष्ट पहुंचाता है।
  • क्रूरता क्या है इसका निर्धारण स्ट्रेट जैकेट फॉर्मूले से नहीं किया जा सकता; बल्कि यह मामले के समय, स्थान, व्यक्ति, तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)

  • यह एक लिखित दस्तावेज है जो पुलिस द्वारा तब तैयार किया जाता है जब उन्हें किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने की सूचना मिलती है।
  • यह सूचना CRPC की धारा 154 (1) के तहत पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को प्रदान की जा सकती है।
    • यदि किसी पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी ऐसी रिपोर्ट को लेने से मना करता है या अस्वीकार करता है, तो इसे CRPC की धारा 154(3) के तहत संबंधित पुलिस अधीक्षक को लिखित रूप में या डाक द्वारा भेजा जा सकता है
  • उच्च न्यायालय द्वारा CRPC की धारा 482 के तहत किसी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द किया जा सकता है। इस संबंध में, मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य (1977) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धांत निर्धारित किये गये हैं जो निम्नलिखित हैं :
    • यदि पीड़ित पक्ष की शिकायतों के निवारण के लिये सीआरपीसी में कोई विशिष्ट प्रावधान है, तो धारा 482 की सहायता नहीं ली जानी चाहिये।
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट रद्द करने की शक्ति का प्रयोग संयम से किया जाना चाहिये और यह सुनिश्चित होना चाहिये कि न्यायालय की किसी भी प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो या न्याय सुनिश्चित करने के लिये अन्यथा न हो।
    • वह संहिता के किसी अन्य प्रावधान में प्रदान किये गए कानून की स्पष्ट बाधा, या कोई अन्य कानून न्यायालय को धारा 482 सीआरपीसी के तहत कार्रवाई करने से रोकता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC, 1860)

वर्तमान मामला भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC, 1860) के निम्नलिखित प्रावधानों के तहत दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट से संबंधित है:

  • धारा 114 - जब अपराध किया जाता है तो दुष्प्रेरक उपस्थित रहता है - भारतीय दंड संहिता की धारा 114 के अनुसार, जब कभी कोई व्यक्ति अनुपस्थित होने पर दुष्प्रेरक के नाते दण्डनीय हो, और वह दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप किये गये अपराध / कार्य के समय उपस्थित होने, के लिये दण्डनीय होता है, तो यह समझा जायेगा कि उसने ऐसा कार्य या अपराध किया है।
  • धारा 294 - अश्लील हरकतें और गाने
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के अनुसार,
  • (ख) किसी भी सार्वजनिक स्थान या उसके आस पास कोई अश्लील गाना, कथागीत या शब्द गाता है या बोलता है तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दंड, या दोनों से दंडित किया जायेगा।
  • धारा 323 - जानबूझ कर स्वेच्छा से किसी को चोट पहुँचाने के लिये दंड -
  • जो भी व्यक्ति (धारा 334 में दिये गए मामलों के सिवा) जानबूझ कर किसी को स्वेच्छा से चोट पहुँचाता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या एक हजार रुपए तक का जुर्माना या दोनों के साथ दंडित किया जा सकता है।
  • धारा 494 - पति या पत्नी के जीवनकाल में पुनः विवाह करना।

जो कोई भी पति या पत्नी के जीवित होते हुए किसी ऐसी स्थिति में विवाह करेगा जिसमें पति या पत्नी के जीवनकाल में विवाह करना अमान्य होता है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही आर्थिक दंड से दंडित किया जायेगा।

अपवाद--इस धारा का विस्तार किसी ऐसे व्यक्ति पर नहीं है, जिसका ऐसे पति या पत्नी के साथ विवाह सक्षम अधिकारिता के न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित कर दिया गया हो, यह न ही किसी ऐसे व्यक्ति पर लागू होता है जो पूर्व पति या पत्नी के जीवन के दौरान विवाह का अनुबंध करता है, यदि ऐसा पति या पत्नी, आगामी विवाह के समय, ऐसे व्यक्ति से सात वर्ष तक लगातार अनुपस्थित रहेगी, और ऐसे व्यक्ति ने उस समय के भीतर जीवित होने के बारे में नहीं सुना होगा, बशर्ते कि ऐसा पश्चातवर्ती विवाह करने वाला व्यक्ति ऐसा विवाह होने से पहले, उस व्यक्ति को, जिसके साथ ऐसा विवाह हुआ है, तथ्यों की वास्तविक स्थिति के बारे में सूचित करें, जहां तक वे उसकी जानकारी में हों।

धारा 498A - किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना

पति या पति के रिश्तेदार, उसकी पत्नी के साथ क्रूरता करते है तो, उन्हें तीन वर्ष कारावास और जुर्माने से दण्डित किया जायेगा।

स्पष्टीकरण -- इस धारा के अनुसार, क्रूरता से निम्नलिखित आशय है :

(क) जानबूझकर एसा व्यवहार करना जो शादीशुदा महिला को आत्महत्या करने के लिये या उसके शरीर के किसी अंग या उसके जीवन को नुकसान पहुँचाने के लिये (जो चाहे मानसिक हो या शारीरिक) उकसाये या;

(ख) शादीशुदा महिला के माता-पिता, भाई-बहन या अन्य रिश्तेदार से किसी संपत्ति या कीमती वस्तु (जैसे सोने के जेवर, मोटर-गाड़ी आदि) की गैर-कानूनी माँग पूरी करवाने के लिये या ऐसी मांग पूरी न करने के कारण उसे तंग किया जाना।

धारा 506- आपराधिक धमकी के लिये सजा

जो कोई भी आपराधिक धमकी का अपराध करता है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे दो साल तक बढ़ाया जा सकता है या आर्थिक दंड या दोनों के साथ दंडित किया जा सकता है।

यदि धमकी मृत्यु या गंभीर चोट, आदि के लिये है - और यदि धमकी मौत या गंभीर चोट पहुंचाने, या आग से किसी संपत्ति का विनाश कारित करने के लिये, या मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध कारित करने के लिये, या सात वर्ष तक की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध कारित करने के लिये, या किसी महिला पर अपवित्रता का आरोप लगाने के लिये हो, तो अपराधी को किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दंड, या दोनों के साथ दंडित किया जा सकता है।


सांविधानिक विधि

एक चीज़ में झूठ, हर चीज़ में झूठ

 21-Aug-2023

टी. जी. कृष्णमूर्ति एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य।

एक चीज में झूठ, हर चीज में झूठ (Falsus in Uno, Falsus in Omnibus)को नियंत्रित करने वाला सिद्धांत भारत में न्यायालयों पर लागू नहीं होता है। - न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला

स्रोत: सुप्रीम कोर्ट

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि "एक चीज में झूठ, हर चीज में झूठ (Falsus in Uno, Falsus in Omnibus)को नियंत्रित करने वाला सिद्धांत भारत में न्यायालयों पर लागू नहीं होता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी टी. जी. कृष्णमूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में दी।

पृष्ठभूमि

  • ट्रायल कोर्ट और कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को दो मृतकों की हत्या करने और गवाहों को घायल करने के लिये दोषी ठहराया।
    • उन पर भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code, 1860) की धारा 120b और 34 के साथ पठित धारा 302 और भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के साथ पठित धारा 307 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने अन्य आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के साक्ष्य को मृतक संख्या 2 की मृत्यु के लिये लागू नहीं किया जा सकता है।
    • हालाँकि, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि ये घायल साक्षी प्रत्यक्षदर्शी हैं, केवल मृतक संख्या 1 की मृत्यु और साक्ष्यों को हुई क्षति के लिये सजा सुनाई गई थी।
  • वर्तमान अपील में अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण (मृतक नंबर 2 की मृत्यु से संबंधित आरोप के लिये अभियोजन पक्ष के साक्षियों के साक्ष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता है) को अन्य अपराधों के लिये भी लागू किया जाना चाहिये था

न्यायालय की टिप्पणी

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सत्य की खोज करते हुए, यह न्यायालय का दायित्व है कि वह सभी तथ्यों में से तार्किक तथ्य चुन ले।

Falsus in Uno, Falsus in Omnibus

इस लैटिन कहावत का अर्थ है एक चीज़ में झूठ, हर चीज़ में झूठ

  • एक सामान्य नियम के रूप में, कानून मानता है कि यदि एक ही कहानी के कुछ तथ्य झूठे हैं, तो पूरी कहानी झूठी है।
  • न्यायालय का यह फैसला साक्षियों के साक्ष्यों पर आधारित है।
    • इसलिये आमतौर पर यह माना जाता है कि जो साक्षी किसी मामले के बारे में झूठा साक्ष्य देता है, वह उसी मामले में किसी अन्य मामले के बारे में साक्ष्य देने के लिये विश्वसनीय नहीं है।
  • न्यायालय ने कई बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि विशेष रूप से भारत में यह खतरनाक सिद्धांत है, यदि पूरे साक्ष्य को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया जाए, क्योंकि साक्षी स्पष्ट रूप से किसी पहलू में झूठ बोल रहा था, तो यह डर है कि भारत में आपराधिक न्याय प्रशासन पूरी तरह से ठप्प हो जायेगा

 निर्णयन विधि

  • गंगाधर बोहरा बनाम उड़ीसा राज्य (2002):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस कहावत 'एक चीज़ में झूठ, हर चीज़ में झूठ’ को सामान्य स्वीकृति नहीं मिली है और न ही यह कहावत कानून के शासन का दर्ज़ा प्राप्त कर पाई है।
    • यह कहावत महज़ सावधानी बरतने का नियम है। इसका तात्पर्य यह है कि गवाही की उपेक्षा की जा सकती है, न कि इसकी अवहेलना की ही जानी चाहिये।
  • प्रेम सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2009):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह अब कानून का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि एक चीज़ में झूठ, हर चीज़ में झूठ के सिद्धांत का भारत में कोई अनुप्रयोग नहीं है
  • महेंद्रन बनाम तमिलनाडु राज्य (2019):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि गवाहों को झूठा नहीं कहा जा सकता।