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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

अपना लिंग बदलना किसी व्यक्ति का एक संवैधानिक अधिकार है

 24-Aug-2023

नेहा सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य

यदि हम किसी व्यक्ति में अपनी पहचान बदलने के निहित अधिकार को स्वीकार नहीं करते हैं, तो हम लिंग पहचान विकार सिंड्रोम को प्रोत्साहित करेंगे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय

स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने नेहा सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य के मामले में माना है कि किसी व्यक्ति को लिंग परिवर्तन सर्जरी (Sex Reassignment Surgery (SRS) के माध्यम से अपना लिंग बदलने का संवैधानिक अधिकार है। 

पृष्ठभूमि

  • यह मामला एक अविवाहित महिला (उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबल के रूप में कार्यरत) द्वारा दायर रिट याचिका से संबंधित है जिन्होंने जेंडर डिस्फोरिया से पीड़ित होने का दावा किया था और लिंग परिवर्तन सर्जरी (Sex Reassignment Surgery (SRS) कराने की इच्छा जताई थी।
  • याचिकाकर्ता द्वारा कहा गया था कि उसने 11 मार्च, 2023 को पुलिस महानिदेशक, लखनऊ, उत्तर प्रदेश से लिंग परिवर्तन सर्जरी (Sex Reassignment Surgery (SRS) करवाने के लिये आवश्यक मंज़ूरी के लिये आवेदन किया था। लेकिन इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया, इसलिये तत्काल आधार पर याचिका दायर की गई।
  • यह तर्क देने के लिये कि याचिकाकर्ता के आवेदन को रोकना प्रतिवादियों के लिये उचित नहीं था, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority) बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में दिये गए उच्चतम न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया गया था (2014) (जिसे आमतौर पर नालसा मामले के रूप में जाना जाता है)। 
    • उपर्युक्त मामले में न्यायालय ने ट्रांसजेंडर लोगों को पुरुष, महिला या तीसरे लिंग के रूप में अपने लिंग की स्वयं पहचान करने का अधिकार देते हुए उन्हें 'तीसरा लिंग' घोषित किया।
    • साथ ही, संवैधानिक प्रावधानों के संबंध में, न्यायालय ने माना कि लिंग पहचान जीवन का अभिन्न अंग है और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता और गरिमा के एक कार्य के रूप में भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत संरक्षित किया जाएगा।
  • याचिकाकर्ता ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 15 पर भी भरोसा किया जो लिंग परिवर्तन सर्जरी (Sex Reassignment Surgery (SRS) और हार्मोनल थेरेपी सहित स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं से संबंधित है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने कहा कि यदि आधुनिक समाज में, हम किसी व्यक्ति में अपनी पहचान बदलने के इस निहित अधिकार को स्वीकार नहीं करते हैं, तो हम "केवल लिंग पहचान विकार सिंड्रोम को प्रोत्साहित करेंगे"।
  • न्यायालय ने राज्य सरकार से यह भी पूछा कि क्या NALSA मामले में उचच्तम न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों के अनुपालन में ऐसे किसी अधिनियम को लागू करने के संबंध में कोई उचित हलफनामा दायर किया गया है और यदि ऐसा है, तो उसे रिकॉर्ड पर भी लाया जा सकता है।

कानूनी प्रावधान

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019

  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति की परिभाषा : धारा 2(K) - "ट्रांसजेंडर व्यक्ति" का अर्थ ट्रांसजेंडर व्यक्ति ऐसा व्यक्ति है जो कि (i) न तो पूरी तरह से महिला है और न ही पुरुष, (ii) महिला और पुरुष, दोनों का संयोजन है, या (iii) न तो महिला है और न ही पुरुष। इसके अतिरिक्त उस व्यक्ति का लिंग जन्म के समय नियत लिंग से मेल नहीं खाता। इसमें ट्रांस-मेन, ट्रांस-विमेन और इंटरसेक्स भिन्नताओं और लिंग विलक्षणताओं वाले व्यक्ति भी आते हैं।
  • भेदभाव के विरुद्ध निषेध: अधिनियम की धारा 3 निम्नलिखित आधार पर भेदभाव पर रोक लगाती है
    • शिक्षा;
    • रोज़गार;
    • स्वास्थ्य देखभाल;
    • जनता के लिये उपलब्ध वस्तुओं, सुविधाओं, अवसरों तक पहुँच या उनका आनंद;
    • आंदोलन का अधिकार;
    • संपत्ति पर निवास करने, किराये पर लेने या अन्यथा कब्ज़ा करने का अधिकार;
    • सार्वजनिक या निजी पद को संभालने का अवसर; और
    • किसी सरकारी या निजी प्रतिष्ठान तक पहुँच जिसकी देखभाल या संरक्षण में एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति है।
  • रोज़गार: कोई भी सरकारी या निजी संस्था भर्ती और पदोन्नति सहित रोज़गार के मामलों में किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं कर सकती है।
  • स्वास्थ्य देखभाल: इस अधिनियम की धारा 15 स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में बात करती है।
    • धारा 15 - समुचित सरकार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संबंध में निम्नलिखित उपाय करेगी, अर्थात्: -
      (a) इस संबंध में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार ऐसे व्यक्तियों हेतु सीरो-निगरानी करने के लिये अलग मानव इम्युनोडेफिशिएंसी वायरस सीरो-निगरानी केंद्र स्थापित करना;
      (b) लिंग परिवर्तन सर्जरी और हार्मोनल थेरेपी सहित चिकित्सा देखभाल सुविधा प्रदान करना;
      (c) लिंग परिवर्तन सर्जरी से पहले और बाद में और हार्मोनल थेरेपी परामर्श;
      (d) वर्ल्ड प्रोफेशन एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ दिशानिर्देशों के अनुसार लिंग परिवर्तन सर्जरी से संबंधित एक स्वास्थ्य मैनुअल जारी करना;
      (e) उनके विशिष्ट स्वास्थ्य मुद्दों के समाधान के लिये डॉक्टरों हेतु चिकित्सा पाठ्यक्रम और अनुसंधान की समीक्षा;
      (f) अस्पतालों और अन्य स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों और केंद्रों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पहुँच को सुविधाजनक बनाना;
      (g) लिंग परिवर्तन सर्जरी, हार्मोनल थेरेपी, लेजर थेरेपी या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के किसी अन्य स्वास्थ्य मुद्दे के लिये एक व्यापक बीमा योजना द्वारा चिकित्सा व्यय के कवरेज का प्रावधान।
    • ट्रांसजेंडर व्यक्ति के लिये पहचान प्रमाण पत्र : अधिनियम की धारा 5 और 6 क्रमशः पहचान प्रमाण पत्र के लिये आवेदन तथा पहचान प्रमाण पत्र जारी करने के बारे में बात करती हैं।
    • राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर व्यक्ति परिषद (NCT) - धारा 2(g) राष्ट्रीय परिषद को धारा 16 के तहत स्थापित ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये राष्ट्रीय परिषद के रूप में परिभाषित करती है।
    • एनसीटी के गठन का उल्लेख इस प्रकार है:
      1. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के प्रभारी केंद्रीय मंत्री, अध्यक्ष, पदेन;
      2. सरकार में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के प्रभारी राज्य मंत्री, उपाध्यक्ष, पदेन सदस्य;
      3. सचिव, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के प्रभारी, पदेन सदस्य;
      4. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, गृह मंत्रालय, आवास और शहरी मामले, अल्पसंख्यक मामले, मानव संसाधन विकास, ग्रामीण विकास, श्रम और रोज़गार तथा कानूनी मामलों के विभाग, पेंशन और पेंशनभोगी कल्याण विभाग तथा नीति आयोग से एक-एक प्रतिनिधि जो भारत सरकार के संयुक्त सचिव के पद से नीचे के स्तर का अधिकारी नहीं होगा, सदस्य, पदेन;
      5. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग से एक-एक प्रतिनिधि, जो भारत सरकार के संयुक्त सचिव पद से नीचे के स्तर का अधिकारी नहीं होगा, पदेन सदस्य;
      6. राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के बारी-बारी से प्रतिनिधि, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और उत्तर-पूर्व क्षेत्रों से एक-एक, केंद्र सरकार द्वारा नामित, पदेन सदस्य;
      7. राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों से बारी-बारी से ट्रांसजेंडर समुदाय के पांच प्रतिनिधि, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और उत्तर-पूर्व क्षेत्रों से एक-एक, केंद्र सरकार द्वारा नामित किये जाने वाले सदस्य;
      8. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण के लिये काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों या संघों का प्रतिनिधित्व करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा नामित पाँच विशेषज्ञ, सदस्य; और
      9. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण से संबंधित सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में भारत सरकार के संयुक्त सचिव, पदेन सदस्य सचिव।
    • अपराध और दंड - वे अधिनियम की धारा 18 के तहत प्रदान किये जाते हैं।

संवैधानिक पहलू

  • लैंगिक न्याय मुख्य रूप से अनुच्छेद 15, 16 के तहत प्रदान किया जाता है, हालाँकि लिंग के स्थान पर सेक्स शब्द का उपयोग किया गया है।
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार - लिंग का तात्पर्य महिलाओं, पुरुषों, लड़कियों और लड़कों की उन विशेषताओं से है जो सामाजिक रूप से निर्मित होती हैं। इसमें एक महिला, पुरुष, लड़की या लड़का होने से जुड़े मानदंड, व्यवहार और भूमिकाएं शामिल हैं, साथ ही एक-दूसरे के साथ संबंध भी शामिल हैं और सेक्स महिलाओं, पुरुषों तथा इंटरसेक्स व्यक्तियों की विभिन्न जैविक एवं शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे कि गुणसूत्र, हार्मोन और प्रजनन अंग।
    • अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है।
    • अनुच्छेद 16 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान, वंश और निवास के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है।
  • नालसा मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि लिंग पहचान संविधान द्वारा अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान की जाती है।
    • उचित प्रतिबंधों के अधीन अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि से संबंधित कुछ अधिकारों के संरक्षण का उल्लेख है -
      (1) सभी नागरिकों को अधिकार होगा-
      (a) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का;
      (b) शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के इकट्ठा होना;
      (c) संघ या यूनियन या सहकारी समितियाँ बनाना;
      (d) भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से घूमने के लिये;
      (e) भारत के क्षेत्र के किसी भी हिस्से में निवास करना और बसना;
      (f) कोई पेशा अपनाना, या कोई व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करना।
    • अनुच्छेद 21 - जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण - किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

सिविल कानून

द्वितीय अपील में विधि का सारभूत प्रश्न

 24-Aug-2023

भाग्यश्री अनंत गांवकर बनाम नरेंद्र@नागेश भारमा होलकर और अन्य।

"सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100 के तहत दूसरी अपील पर विचार करने का उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केवल ऐसी अपीलों तक ही सीमित है जिसमें विधि का कोई सारभूत प्रश्न शामिल है।"  

न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना, न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बी. वी. नागरत्ना और उज्जल भुइयाँ की पीठ ने नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) की धारा 100 के तहत दूसरी अपील के मौजूदा रुख को समझाया।

  • उच्चतम न्यायालय ने भाग्यश्री अनंत गांवकर बनाम नरेंद्र@नागेश भारमा होल्कर और अन्य के मामले में यह टिप्पणी दी।

पृष्ठभूमि

  • न्यायालय के समक्ष जो मामला पेश किया गया वह यह है कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने नियमित दूसरी अपील को नियमित पहली अपील के रूप में निपटा दिया।
  • उच्च न्यायालय ने साक्ष्यों के विवरण पर गौर किया।
  • विधि का कोई सारभूत प्रश्न, जिसे नियमित दूसरी अपील में पूछा जाना चाहिये था और उत्तर दिया जाना चाहिये था, उसे उच्च न्यायालय के फैसले में भी नहीं उठाया गया था।

न्यायालय की टिप्पणी

उच्चतम न्यायालय ने रूप सिंह बनाम राम सिंह, (2000) के मामले में दी गई टिप्पणी को दोहराते हुए कहा सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 उपरोक्त धारा के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालय को तथ्य के शुद्ध प्रश्नों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं करती है।

दूसरी अपील

  • उच्चतम न्यायालय ने दूसरी अपील की अवधारणा को निम्नलिखित शब्दों में समझाया:
    • प्रथम अपीलीय न्यायालय तथ्यों के प्रश्नों पर अंतिम न्यायालय है।
    • नियमित दूसरी अपील से निपटने के लिये उच्च न्यायालय का विशेष क्षेत्राधिकार CRPC की धारा 100 में निर्धारित है, जो उच्च न्यायालय को केवल विधि के सारभूत प्रश्न पर नियमित दूसरी अपील पर विचार करने की शक्ति देता है।
      • कानून के ऐसे सारभूत प्रश्नों का उत्तर दिया जाना चाहिये था।
    • यह प्रथा और अनिवार्य आवश्यकता है कि नियमित दूसरी अपील स्वीकार करते समय, कानून के सारभूत प्रश्न पूछे जाने चाहिये, जिनके आधार पर तर्क आगे बढ़ाए जाने चाहिये और उस पर निर्णय दिया जाना चाहिये।
    • यह भी अनुमति है कि एक बार दलीलें आगे बढ़ जाने के बाद, न्यायालय कानून के नए सारभूत प्रश्नों को फिर से पूछने या तैयार करने और सुनवाई पर उनका उत्तर देने के लिये स्वतंत्र है।
      • राघवेंद्र स्वामी मठ बनाम उताराडी मठ (2016) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अगर उच्च न्यायालय दूसरी अपील की प्रवेश प्रक्रिया के दौरान इसे नहीं ढूँढ पाता है तो यह कानून का सारभूत प्रश्न पूछने के लिये बाध्य है।

कानून का सारभूत प्रश्न

  • उच्चतम न्यायालय के मामले में हीरो विनोथ बनाम सेशम्मल (2006) इस अवधारणा को निम्नलिखित शब्दों में समझाया:
    • यह परीक्षण किया जाना चाहिये कि क्या प्रश्न सामान्य सार्वजनिक महत्व का है या क्या यह पार्टियों के अधिकारों को सीधे और पर्याप्त रूप से प्रभावित करता है।
    • या फिर यह अंतिम रूप से तय नहीं हुआ है या कठिनाई से मुक्त नहीं है या वैकल्पिक विचारों पर चर्चा की मांग करता है।
    • यदि प्रश्न उच्चतम न्यायालय द्वारा तय कर दिया गया है या प्रश्न निर्धारित करने में लागू होने वाले सामान्य सिद्धांत अच्छी तरह से तय हो गए हैं और उन सिद्धांतों को लागू करने का सवाल ही है या उठाया गया तर्क स्पष्ट रूप से बेतुका है तो यह प्रश्न एक कानून का सारभूत प्रश्न नहीं होगा।

कानूनी प्रावधान

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100: दूसरी अपील

(1) उसके सिवाय जैसा इस संहिता के पाठ में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अभिव्यक्त रूप से उपबंधित है, उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा अपील में पारित प्रत्येक डिक्री की उच्च न्यायालय में अपील हो सकेगी, यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उस मामले में विधि का कोई सारवान्‌ प्रश्न अन्तर्वलित है।

(2) एकपक्षीय पारित अपीली डिक्री की अपील इस धारा के अधीन हो सकेगी।

(3) इस धारा के अधीन अपील में अन्तर्वलित विधि के उस सारवान्‌ प्रश्न का अपील के ज्ञापन में प्रमिततः कथन किया जाएगा।

(4) जहाँ उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि किसी मामले में सारवान्‌ विधि का प्रश्न अन्तर्वलित है तो वह उस प्रश्न को बनाएगा।

(5) अपील इस प्रकार बनाए गए प्रश्न पर सुनी जाएगी और प्रतिवादी को अपील की सुनवाई में यह तर्क करने की अनुज्ञा दी जाएगी कि ऐसे मामले में ऐसा प्रश्न अन्तर्वलित नहीं है

परन्तु इस धारा की किसी बात के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि वह, विधि के किसी अन्य ऐसे सारवान्‌ प्रश्न पर जो न्यायालय के द्वारा नहीं बनाया गया है, न्यायालय का यह समाधान हो जाने पर कि उस मामले में ऐसा प्रश्न अन्तर्वलित है, न्यायालय की कारणों को लेखबद्ध करके अपील सुनने की शक्ति वापस लेती है या उसे न्यून करती है।


पारिवारिक कानून

पत्नी का बिना कारण अलग रहने की जिद करना क्रूरता है

 24-Aug-2023

सुनील जुनेजा बनाम सोनिया

"बिना कारण पत्नी का पति के परिवार से अलग रहने की जिद करना क्रूरता है"।

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा

स्रोत- दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

सुनील जुनेजा बनाम सोनिया के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि बिना किसी उचित कारण के पति के परिवार के सदस्यों से अलग रहने को लेकर पत्नी की जिद करना क्रूरता की श्रेणी में आता है।

पृष्ठभूमि

  • दोनों पक्षों ने वर्ष 2000 में हिंदू रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार शादी की।
  • उक्त विवाह से दो बच्चे पैदा हुए।
  • पत्नी ने 2003 में अपने पति का घर छोड़ दिया और बाद में वापस आ गई लेकिन जुलाई 2007 में फिर से वापस चली गई।
  • पति द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955 (HMA) की धारा 13(1) (i-b) के तहत फैमिली कोर्ट के समक्ष तलाक के लिये याचिका दायर की गई थी, जिसे बाद में खारिज कर दिया गया था।
  • पति द्वारा फैमिली कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955 (HMA) की धारा 13(1) (ia) और (ib) के तहत क्रूरता और परित्याग के आधार पर एक दंपत्ति की शादी को खत्म कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि बिना किसी उचित कारण के पति के परिवार के अन्य सदस्यों से अलग रहने के लिये पत्नी की जिद करना क्रूरता की श्रेणी में आता है।
  • पीठ ने आगे कहा कि घर का कटु माहौल दोनों पक्षों के लिये सौहार्दपूर्ण वैवाहिक संबंध बनाने के लिये अनुकूल माहौल नहीं हो सकता। समय के साथ तालमेल की कमी और पत्नी के भ्रामक आचरण के कारण घर में इस तरह का माहौल मानसिक क्रूरता का कारण बनता है।

कानूनी प्रावधान

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955 (HMA) के तहत तलाक

  • इस अधिनियम की धारा 13 तलाक के प्रावधानों से संबंधित है।
  • धारा 13(1) के अनुसार, कोई भी विवाह, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ होने से पहले या बाद में हुआ हो, निम्नलिखित आधारों पर पति या पत्नी द्वारा याचिका प्रस्तुत करने पर तलाक की डिक्री द्वारा भंग किया जा सकता है:
    • व्यभिचार
    • क्रूरता
    • परित्याग
    • परिवर्तन
    • मानसिक विकार
    • गुप्त रोग
    • विषैला एवं असाध्य कुष्ठ रोग
    • संसार का त्याग
    • मृत्यु का अनुमान

तलाक के लिये आधार के रूप में क्रूरता [हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) (i-a)]

  • हिंदू विवाह अधिनियम में 1976 के संशोधन से पहले, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता तलाक का दावा करने का आधार नहीं थी।
  • यह अधिनियम की धारा 10 के तहत न्यायिक अलगाव का दावा करने का केवल एक आधार था।
  • 1976 के संशोधन द्वारा क्रूरता को तलाक का आधार बना दिया गया।
  • हिंदू विवाह अधिनियम में क्रूरता शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • आम तौर पर, क्रूरता कोई भी ऐसा व्यवहार है जो शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुंचाता है। क्रूरता दो प्रकार की होती है.
    • शारीरिक क्रूरता: हिंसक आचरण जिससे जीवनसाथी को कष्ट हो।
    • मानसिक क्रूरता: किसी भी प्रकार का मानसिक तनाव या मानसिक पीड़ा पहुँचाना।
  • शोभा रानी बनाम मधुकर रेड्डी (1988) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि क्रूरता की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती।
  • मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद (2007) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पति-पत्नी में से किसी एक द्वारा झेली गई किसी भी प्रकार की मानसिक क्रूरता के कारण न केवल महिला, बल्कि पुरुष भी क्रूरता के आधार पर तलाक के लिये आवेदन कर सकते हैं।

तलाक के लिये आधार के रूप में परित्याग [हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) (i-b)]

  • 1976 के संशोधन द्वारा, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (i-b) के तहत परित्याग को तलाक के आधार के रूप में शामिल किया गया था।
  • 1976 से पहले, परित्याग केवल न्यायिक पृथक्करण का आधार था लेकिन अब यह तलाक और न्यायिक पृथक्करण दोनों का आधार है।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) (i-b) परित्याग को तलाक के आधार के रूप में पेश करती है और कहती है कि पति या पत्नी द्वारा प्रस्तुत याचिका पर विवाह, तलाक की डिक्री द्वारा इस आधार पर भंग किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष ने याचिका की प्रस्तुति से ठीक पहले कम से कम दो साल की लगातार अवधि के लिये याचिकाकर्ता को त्याग दिया।
  • परित्याग शब्द का अर्थ विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा याचिकाकर्ता का बिना किसी उचित कारण के और ऐसे पक्ष की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध परित्याग करना है और इसमें विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा याचिकाकर्ता की जानबूझकर उपेक्षा करना और इसकी व्याकरणिक विविधताओं और सजातीय अभिव्यक्तियों (grammatical variations and cognate expressions meaning) का तदनुसार अर्थ लगाया जायेगा।
  • परित्याग को तलाक के आधार के रूप में स्थापित करने के लिये, निम्नलिखित आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिये:
    • परित्याग स्वैच्छिक होना चाहिये।
    • परित्याग उचित कारण के बिना होना चाहिये।
    • यह निरंतर और अनुचित होना चाहिये।
    • परित्याग जानबूझकर और सोच-समझकर किया जाना चाहिये।
  • परित्याग को दो तरीकों से समाप्त किया जा सकता है - आपसी सहमति से या सह-आवास की बहाली से।