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आपराधिक कानून

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 307

 28-Aug-2023

एस. के. खाजा बनाम महाराष्ट्र राज्य

"उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत किसी आरोपी की सज़ा बरकरार रखी जा सकती है, भले ही क्षतियाँ बहुत साधारण प्रकृति की हों।"

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता

स्रोत- उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

एस. के. खाजा बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 307 के तहत किसी आरोपी की सज़ा बरकरार रखी जा सकती है, भले ही शिकायतकर्त्ता को हुई क्षति की प्रकृति बहुत साधारण प्रकृति की हों।

पृष्ठभूमि

  • इस मामले में आरोप है कि आरोपी ने महाराष्ट्र के नांदेड़ में एक पुलिस कांस्टेबल के सिर पर गुप्ती से हमला करने की कोशिश की
  • हालाँकि, सिर पर चोट लगने से बचने के दौरान कॉन्स्टेबल के दाहिने कंधे पर चोट लग गई।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता/अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 307 और 332 के तहत अपराध के लिये दोषी ठहराया था और उसे उक्त अपराधों के लिये क्रमशः पांच वर्ष और दो वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा सुनायी थी।
  • ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि बॉम्बे उच्च न्यायालय ने की थी।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत किसी आरोपी की सज़ा बरकरार रखी जा सकती है, भले ही शिकायतकर्त्ता को लगी चोटें बहुत साधारण प्रकृति की हों।
  • पीठ ने आगे कहा कि, केवल इसलिये कि शिकायतकर्त्ता को लगी चोटें बहुत साधारण प्रकृति की थीं, इससे अपीलकर्त्ता/अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने से बरी नहीं किया जा सकेगा। जो महत्त्वपूर्ण है वह अपीलकर्त्ता/अभियुक्त द्वारा किये गए प्रकट कृत्य के साथ जुड़ा एक इरादा है।
  • पीठ ने यह भी कहा कि मौजूदा मामले में, पुख्ता साक्ष्यों से यह साबित हो गया है कि अपीलकर्त्ता/अभियुक्त ने शिकायतकर्त्ता पर गुप्ती से हमला करने की कोशिश की थी और वह भी उसके सिर पर। यद्यपि शिकायतकर्त्ता को गुप्ती के कुंद हिस्से से अपने सिर पर वार से बचने के दौरान उसके दाहिने कंधे पर चोट लगी थी, अपीलकर्त्ता/अभियुक्त की ओर से ऐसा खुला कृत्य भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत दंडनीय अपराध के अंतर्गत आएगा।

कानूनी प्रावधान

भारतीय दंड संहिता की धारा 307,

  • आईपीसी की धारा 307 हत्या के प्रयास के अपराध को परिभाषित करती है। यह प्रकट करता है की -
  • जो भी कोई ऐसे किसी इरादे या बोध के साथ विभिन्न परिस्थितियों में कोई कार्य करता है, जो किसी की मृत्यु का कारण बन जाए, तो वह हत्या का दोषी होगा और उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा एवं यदि इस तरह के कृत्य से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचती है, तो अपराधी को आजीवन कारावास या जिस तरह के दंड का यहाँ उल्लेख किया गया है।
  • आजीवन कारावासी अपराधी द्वारा प्रयास: अगर अपराधी जिसे इस धारा के तहत आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी है, चोट पहुँचता है, तो उसे मृत्यु दंड दिया जा सकता है।
  • धारा 307 के तहत अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और गैर-शमनीय अपराध है।

धारा 307 के आवश्यक तत्व

  • संज्ञानात्मक अपराध।
  • कार्य की प्रकृति ऐसी होनी चाहिये कि यदि कार्य को रोका नहीं जाता तो इससे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती।
  • कृत्य का निष्पादन
  • ऐसा कृत्य जो अपने सामान्य क्रम में मृत्यु का कारण बनता।

निर्णयज विधि

  • रामबाबू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2019) के मामले में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि व्यक्ति को चोट लगने पर, चाहे उनकी गंभीरता कुछ भी हो, धारा 307 के तहत सज़ा दी जाएगी। सभी चोटों को अपराध माना जायेगा और उन्हें करने वाले को दोषी माना जायेगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 332

  • यह धारा लोक सेवक को उसके कर्तव्य से रोकने के लिये स्वेच्छा से चोट पहुँचाने से संबंधित है। यह प्रकट करती है कि-

भारतीय दंड संहिता की धारा 332 के अनुसार, जो भी कोई किसी लोक सेवक को, उस समय जब वह लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा हो अथवा इस आशय से कि उस व्यक्ति को या किसी अन्य लोक सेवक को, लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य के निर्वहन, अथवा लोक सेवक के नाते उस व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्य के विधिपूर्ण निर्वहन में की गई या किये जाने वाली किसी बात के परिणाम से निवारित या भयोपरत कर स्वेच्छापूर्वक गंभीर चोट पहुँचाता है तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दंड, या दोनों से दंडित किया जायेगा।


आपराधिक कानून

महत्त्वपूर्ण तथ्यों का दमन

 28-Aug-2023

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम मितुल कुमार जाना

"यदि कोई व्यक्ति ऐसी जानकारी नहीं देता है जो आवश्यक नहीं है, तो इसे भौतिक तथ्यों को छिपाना नहीं कहा जायेगा।"

न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी, न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे. के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति ऐसी जानकारी नहीं देता है जो आवश्यक नहीं है, तो इसे भौतिक तथ्यों को छिपाना नहीं कहा जायेगा।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी पश्चिम बंगाल राज्य बनाम मितुल कुमार जाना के मामले में की।

पृष्ठभूमि

  • आवश्यक प्रक्रिया से गुजरने के बाद, प्रतिवादी को पश्चिम बंगाल पुलिस बल में कांस्टेबलों की योग्यता सूची में रखा गया।
  • बाद में, प्रतिवादी को 'पुलिस सत्यापन नामावली' प्रदान की गई थी और उसे वह नामावली भरने के लिये कहा गया।
    • उन्होंने इसे निर्धारित समय के भीतर नियुक्ति प्राधिकारी के पास जमा कर दिया।
  • स्थानीय पुलिस स्टेशन द्वारा भेजी गई पुलिस सत्यापन रिपोर्ट के अनुसार, यह आरोप लगाया गया था कि प्रतिवादी को एक आपराधिक मामले में फंसाया गया था।
  • उक्त सत्यापन फॉर्म की जांच करने पर, प्राधिकरण ने एक राय बनाई कि प्रतिवादी ने एक लंबित आपराधिक मामले में अपनी संलिप्तता के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी छिपाई थी।
  • उपरोक्त निष्कर्ष के कारण अपीलकर्त्ता द्वारा प्रतिवादी को नियुक्त करने से इनकार कर दिया गया।
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि लंबित आपराधिक मामला अंतिम परिणाम के अधीन है, इसलिये प्रतिवादी की निर्दोषता की धारणा अभी भी बनी हुई है।
    • उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी की नियुक्ति का आदेश दिया जिसके खिलाफ यह अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणी

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले के तथ्यों में, सत्यापन फॉर्म में प्रतिवादी से मांगी गई जानकारी अस्पष्ट थी।
    • इसलिये उच्च न्यायालय ने इस निष्कर्ष को सही ढंग से दर्ज़ किया है कि यह महत्त्वपूर्ण जानकारी को दबाने का मामला नहीं है।
  • उच्चतम न्यायालय ने फिर प्रतिवादी की नियुक्ति का आदेश दिया।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • महत्त्वपूर्ण तथ्य को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 (Section 3 of the Indian Evidence Act, 1872 (IEA) के तहत परिभाषित किया गया है,
    • ऐसी कोई वस्तु, वस्तुओं की अवस्था, या वस्तुओं का संबंध जो इंद्रियों द्वारा बोधगम्य हो।
    • कोई भी मानसिक दशा जिसके भान किसी व्यक्ति को हो।
  • महत्त्वपूर्ण तथ्य वे तथ्य होते हैं जो मूल रूप से मुद्दे से जुड़े होते हैं और उस मामले पर न्यायालय के निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
    • दूसरे शब्दों में, ये तथ्य न्यायालय को अन्य प्रासंगिक तथ्यों की व्याख्या करने में सहायता करते हैं और विषय वस्तु के मूल्यांकन की ओर ले जाते हैं।
  • ऐसे तथ्यों को छिपाना कानून की दृष्टि से अस्वीकार्य है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप आवश्यक जानकारी छिपाई जाती है।
    • इस संबंध में कानून कहता है कि व्यक्ति को साफ हाथों और स्पष्ट तथ्यों के साथ न्यायालय में आना चाहिये।

प्रमुख निर्णयज विधि

  • सचिव, गृह सुरक्षा विभाग, आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य बनाम बी. चिन्नमा नायडू (वर्ष 2005):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि चूँकि सत्यापन नामावली में लंबित आपराधिक मामले के बारे में उल्लेख करने की विशेष आवश्यकता नहीं थी, इसलिये महत्त्वपूर्ण जानकारी को छिपाने के लिये प्रतिवादी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
  • अवतार सिंह बनाम भारत संघ और अन्य (वर्ष 2016):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि, जानकारी छिपाना या गलत जानकारी का निर्धारण करने के लिये अनुप्रमाणन/सत्यापन फॉर्म में स्पष्ट रूप से जानकारी मांगी जानी चाहिये, अस्पष्ट रूप से नहीं।
    • केवल ऐसी जानकारी का प्रकटीकरण करना होगा जिसका विशेष रूप से उल्लेख किया जाना आवश्यक था।
    • यदि ऐसी जानकारी, जो मांगी तो नहीं गई है, लेकिन प्रासंगिक है, नियोक्ता के संज्ञान में आती है, तो उपयुक्तता के प्रश्न को संबोधित करते समय उस पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार किया जा सकता है।
      • हालाँकि, ऐसे मामलों में उस तथ्य को छिपाने या गलत जानकारी प्रस्तुत करने के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती, जिसके बारे में पूछा ही नहीं गया हो।

आपराधिक कानून

परीक्षण पहचान परेड

 28-Aug-2023

मुकेश सिंह बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)

टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं है।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) को आयोजित करना भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नहीं है।

पृष्ठभूमि

  • जांच के दौरान, जांच अधिकारी (IO) ने आरोपी व्यक्तियों की टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) आयोजित करने का निर्णय लिया।
  • आरोपी/अपीलकर्त्ता के साक्ष्य की रिकॉर्डिंग के समापन पर, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 313 के तहत उसने टीआईपी के लिये इनकार कर दिया क्योंकि पहले ही पुलिस द्वारा गवाहों को पेश किया जा चुका था।
  • प्राथमिक प्रश्नों में से एक यह था कि क्या कोई आरोपी इस आधार पर टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) में भाग लेने से इनकार कर सकता है कि उसे टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) होने से पहले ही प्रत्यक्षदर्शियों को देख लिया था।
  • अपर सत्र न्यायाधीश-द्वितीय ने माना कि वर्तमान मामले में अपीलकर्त्ता भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 302, 392, 394 और 397 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये दोषी है।
  • उच्च न्यायालय ने अपील खारिज़ कर दी और इस तरह अपर सत्र न्यायाधीश-द्वितीय द्वारा आजीवन कारावास के दंड के निर्णय की पुष्टि की।
  • वर्तमान अपील दोषी (अभियुक्त) के अनुरोध पर की गई है और दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और आदेश के खिलाफ निर्देशित है।

न्यायालय की टिप्पणी

न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और जे. बी. पारदीवाला ने कहा है कि एक आरोपी इस आधार पर टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) में शामिल होने से बच नहीं सकता है कि उसे इसमें शामिल होने के लिये मज़बूर नहीं किया जा सकता है।

टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP)

टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) का संचालन भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 9 के अनुसार किया जाता है।

धारा 9 - सुसंगत तथ्यों के स्पष्टीकरण या पुर:स्थापन के लिये आवश्यक तथ्य--वे तथ्य, जो विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के स्पष्टीकरण या पुर:स्थापन के लिये आवश्यक है अथवा जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य द्वारा इंगित अनुमान का समर्थन या खण्डन करते हैं, अथवा जो किसी व्यक्ति या वस्तु का, जिसकी अनन्यता सुसंगत हो, अनन्यता स्थापित करते हैं, अथवा वह समय या स्थान स्थित करते हैं जब या जहाँ कोई विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य घटित हुआ अथवा जो उन पक्षकारों का संबंध दर्शित करते हैं जिनके द्वारा ऐसे किसी तथ्य का संव्यवहार किया गया था, वहाँ तक सुसंगत हैं जहाँ तक वे उस प्रयोजन के लिये आवश्यक हों।

किसी आरोपी की पहचान स्थापित करने के तरीकों में से एक है, भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की धारा 9 के तहत "टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड" का आयोजन।

  • परेड का उद्देश्य साक्षी के दावे की सत्यता का आकलन करना है कि वह उस व्यक्ति की पहचान करने में सक्षम था जो अपराध कर रहा था।
  • जब कोई साक्षी आरोपी व्यक्तियों या जांच के तहत मामले से जुड़े अन्य व्यक्तियों की पहचान करने का प्रस्ताव करता है, तो निरीक्षण अधिकारी केस डायरी में निम्नलिखित बातें दर्ज़ करेगा -
    • उसका विवरण;
    • अपराध के समय मौजूद प्रकाश की सीमा (दिन का प्रकाश, रात्रि, जलता हुआ केरोसिन, विद्युत् या गैस की रोशनी, आदि);
    • अपराध के समय अभियुक्त को देखने के अवसर का विवरण ;
    • ऐसा कुछ भी जो अभियुक्त के चेहरे-मोहरे या आचरण से उसकी पहचान कराता हो (उदाहरण के लिये, शरीर या चेहरे पर कोई तिल या निशान);
    • जिस दूरी से उसने अभियुक्त को देखा; और
    • वह समय सीमा जिसके दौरान उसने अभियुक्त को देखा।
    • जहाँ तक संभव पहचान परेड जेल में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा कराई जाएगी।
    • यह तब आयोजित की जानी चाहिये जब पीड़ित/साक्षी घटना से पहले आरोपी को नहीं जानता था।

निर्णयज विधि

  • दाना यादव बनाम बिहार राज्य के मामले (2002) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि पहचान परेड (TIP) का एकमात्र उद्देश्य साक्ष्य की पुष्टि करना और पहचान करना है। अभियुक्त को न्यायालय में साक्षी की पहचान करनी होगी।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973

संहिता की धारा 313 न्यायालय को अभियुक्त से पूछताछ करने की शक्ति प्रदान करती है।

  • न्यायालय द्वारा उचित कार्यप्रणाली यह होनी चाहिये कि इस प्रावधान के तहत आरोपी का बयान दर्ज़ करते समय उसे उस अपराध के संबंध में परिस्थितियों और पर्याप्त साक्ष्यों की ओर आरोपी का ध्यान आकर्षित करना चाहिये, जिसके लिये उस पर आरोप लगाया गया है और उससे स्पष्टीकरण मांगा गया है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत पूछताछ के दौरान आरोपी को कोई शपथ नहीं दिलाई जाएगी।
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के तहत उनसे पूछे गये प्रश्नों के उनके जवाब का इस्तेमाल अभियोजन पक्ष के गवाहों द्वारा अपने बयानों की कमियों को भरने के लिये नहीं किया जा सकता है।

निर्णयज विधि

  • मध्य प्रदेश राज्य बनाम रमेश (2011) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष मामले की सत्यता परखने के लिये दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत दिये गये आरोपी के बयान को ध्यान में रखा जा सकता है। चूँकि यह बयान शपथ दिलाते समय दर्ज़ नहीं किया जाता है, इसलिये आरोपी से प्रति-परीक्षा नहीं की जा सकती।

भारतीय दंड संहिता, 1860

आरोपी को धारा 302, 392, 394 और 397 सहपठित धारा 34 के तहत सज़ा सुनाई गई।

  • धारा 302 - हत्या के लिये सज़ा - जो कोई भी हत्या करेगा उसे मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा। (हत्या को धारा 300 के तहत परिभाषित किया गया है)।
  • धारा 392 - डकैती के लिये सज़ा - जो कोई भी डकैती करेगा उसे कठोर कारावास से दंडित किया जायेगा जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और वह जुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा; और, यदि डकैती सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच राजमार्ग पर की जाती है, तो कारावास को चौदह वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। (डकैती को धारा 390 के तहत परिभाषित किया गया है)।
  • धारा 394 - डकैती करने में या करने का प्रयास करते समय, स्वेच्छा से चोट पहुँचाना - यदि कोई व्यक्ति, डकैती करते समय या करने का प्रयास करते समय, स्वेच्छा से चोट पहुँचाता है, तो ऐसे व्यक्ति और ऐसी डकैती करने या करने का प्रयास करने में संयुक्त रूप से शामिल किसी अन्य व्यक्ति को कारावास से दंडित किया जायेगा। इसमें आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक की कठोर कारावास की सज़ा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
  • धारा 397 - लूट, या डकैती, मौत या गंभीर चोट पहुँचाने के प्रयास के साथ - यदि लूट या डकैती करते समय, अपराधी किसी घातक हथियार का उपयोग करता है, या किसी व्यक्ति को गंभीर चोट पहुँचाता है, या मौत या गंभीर चोट पहुँचाने का प्रयास करता है और किसी भी व्यक्ति को चोट पहुँचाने पर ऐसे अपराधी को जिस अवधि के लिये कारावास की सज़ा दी जाएगी वह सात वर्ष से कम नहीं होगी।
  • धारा 34 - सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किया गया कार्य - जब कोई आपराधिक कृत्य सभी के सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तो ऐसे प्रत्येक व्यक्ति उस कृत्य के लिये उसी तरह से उत्तरदायी होता है जैसे कि वह उसके द्वारा अकेले किया गया हो।

भारत का संविधान, 1950

अनुच्छेद 20(3) अभियुक्त को आत्म-अभिशंसन (No Self-incrimination) के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 20 - अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण -

(3) किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिये मज़बूर नहीं किया जायेगा।