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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

सार्वजनिक अधिकारियों के विरुद्ध प्रतिकूल टिप्पणियां

 30-Aug-2023

तस्वीर - पंजाब राज्य बनाम शिका ट्रेडिंग कंपनी

किसी न्यायालय की टिप्पणियाँ हर समय न्याय, निष्पक्ष अवसर और संयम के सिद्धांतों द्वारा शासित होनी चाहिये - प्रयुक्त शब्दों में शालीनता, संयम और आत्म-संयम प्रतिबिंबित होना चाहिये।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने पंजाब राज्य बनाम शिखा ट्रेडिंग कंपनी के मामले में कहा है कि जब तक ज़रूरी न हो, सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी नहीं दी जानी चाहिये।

पृष्ठभूमि

  • वर्तमान मामले में शिखा ट्रेडिंग कंपनी (STC) ने 2010 में पंजाब के उत्पाद शुल्क और कराधान विभाग के अधिकारियों द्वारा उसकी दुकान की अवैध सीलिंग के खिलाफ पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय (HC) में एक रिट याचिका दायर की।
  • याचिका का निस्तारण निम्नलिखित निर्देशों के साथ किया गया:
    • चूँकि याचिका के लंबित रहने के दौरान, शिखा ट्रेडिंग कंपनी (STC) की दुकान को सील कर दिया गया था, इससे याचिका निरर्थक हो गई।
    • सहायक उत्पाद शुल्क कराधान आयुक्त (AETC लुधियाना-I) के पद पर तैनात राज्य के अधिकारी ने झूठा बचाव करते हुए एक हलफनामा दायर किया था, इसलिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के पंजीकरण के साथ उसके खिलाफ आपराधिक प्रकृति की कार्यवाही शुरू की जानी चाहिये।
  • वर्तमान अपील उपरोक्त आदेश के दूसरे भाग अर्थात प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के आपराधिक पंजीकरण के अनुसरण में निर्देशित है।
  • पीड़ित पक्ष की ओर से उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता ने अन्य आधारों के साथ-साथ यह आग्रह किया है कि संबंधित अधिकारी को प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों को समझाने का अवसर दिये बिना संबंधित निर्देश पारित किये गए थे।
  • इसके अलावा, एक तर्क यह दिया गया कि कर चोरों के खिलाफ अभियान शुरू करने वाले एक राज्य अधिकारी के खिलाफ इस तरह का आदेश जारी करने से अन्य ईमानदार अधिकारियों पर काम के प्रति हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ सकता है।
  • प्रतिवादी ने राज्य के संबंध में या पंजाब राज्य के किसी भी पदाधिकारी के खिलाफ किसी भी प्रतिकूल बयान का उल्लेख नहीं किया है, इसलिये वर्तमान अपील का कोई विरोध नहीं हो रहा है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल की उच्चतम न्यायालय की पीठ ने न्यायालय में पेश किये गए रिकॉर्ड पर गौर करने के बाद यह माना कि इस मामले को शांत करने की ज़रूरत है क्योंकि उच्च न्यायालय के लिये इस तरह के निष्कर्ष पर पहुँचने का कोई आधार नहीं है।
  • पीठ ने यह भी कहा कि अधिकारी को न तो विवाद में पक्षकार बनाया गया था, न ही उन्हें कारण बताने का अवसर दिया गया था, जबकि उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद नईम (1964) के मामले में पहले की मिसाल पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा था ऐसी टिप्पणियाँ "हमारी वर्दी में निहित महा शक्ति के कारण, न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को खतरे में डालने और समझौता करने की क्षमता है"; और "अधिकारियों और विभिन्न कर्मियों को अपना कर्तव्य निभाने से रोका जा सकता है"। इससे यह भी पता चलता है कि "किसी व्यक्ति के चरित्र और/या पेशेवर क्षमता पर गंभीर प्रकृति की प्रतिकूल टिप्पणियों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये"।

प्रतिकूल टिप्पणियाँ

  • अखिल भारतीय सेवाएँ (गोपनीय नामावली) नियम, 1970 के नियम 8(2) के अनुसार प्रतिकूल टिप्पणी का अर्थ ऐसी टिप्पणी से है जो यह इंगित करती है किसी अधिकारी के काम की गुणवत्ता या प्रदर्शन या आचरण में दोष या कमियाँ है लेकिन अधिकारी को दी गई सलाह या सलाह की प्रकृति में इससे संबंधित कोई शब्द शामिल नहीं हैं।

टिप्पणियाँ लोप करने की शक्ति

  • टिप्पणियों को लोप करना किसी लिखित दस्तावेज़ या रिकॉर्ड से कुछ टिप्पणियों, बयानों या कथनों को हटाने या लोप की प्रक्रिया को संदर्भित करता है।
  • यह आमतौर पर अनुपयुक्त, अप्रासंगिक या आपत्तिजनक मानी जाने वाली सामग्री को खत्म करने के लिये किया जाता है।
  • डॉ. दिलीप कुमार डेका एवं अन्य बनाम असम राज्य और अन्य (1996) मामले में उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद नईम (1964) मामले में निर्धारित तीन परीक्षणों को दोहराया। इसमें ऐसे किसी व्यक्ति या प्राधिकारी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों को हटाने के संबंध में तीन परीक्षणों को दोहराया गया है, जिसका आचरण कानून के न्यायालय के समक्ष विचार के लिये आता है, जिसका निर्णय उसके द्वारा किया जाना है।
    • ये परीक्षण निम्नलिखित है हैं:
      • (i) क्या जिस पक्ष का आचरण प्रश्न में है, वह न्यायालय के समक्ष उपस्थित है या उसके पास स्पष्टीकरण देने या अपना बचाव करने का अवसर है?
      • (ii) क्या उस आचरण पर टिप्पणियों को उचित ठहराने वाले रिकॉर्ड पर कोई सबूत है?
      • (iii) क्या मामले के निर्णय के लिये, उसके अभिन्न अंग के रूप में, आचरण की निंदा करना आवश्यक है?

सिविल कानून

बिना मुहर वाले मध्यस्थ समझौते की स्थिति

 30-Aug-2023

स्प्लेंडर लैंडबेस लिमिटेड बनाम अपर्णा आश्रम सोसायटी (Splendor Landbase Ltd v. Aparna Ashram Society)

"न्यायालय बिना मुहर लगे मध्यस्थता समझौते पर निर्णय लेने के लिये स्टांप संग्रहकर्त्ता को समयबद्ध निर्देश दे सकता है।"

न्यायमूर्ति सचिन दत्ता

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

  • न्यायमूर्ति सचिन दत्ता की पीठ ने कहा कि न्यायालय बिना मुहर लगे मध्यस्थता समझौते पर निर्णय लेने के लिये स्टांप संग्रहकर्त्ता को समयबद्ध निर्देश दे सकता है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी स्प्लेंडर लैंडबेस लिमिटेड बनाम अपर्णा आश्रम सोसायटी (Splendor Landbase Ltd v. Aparna Ashram Society) के मामले में दी

पृष्ठभूमि

  • दिल्ली उच्च न्यायालय बिना मुहर लगे मध्यस्थता समझौतों के मुद्दे पर याचिकाओं की सुनवाई कर रहा था।
  • न्यायालय इस सवाल पर विचार कर रहा थी कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996 (A&C Act) की धारा 11(13) के तहत वैधानिक अधिदेश को एन. एन. ग्लोबल मर्केंटाइल प्राइवेट लिमिटेड बनाम इंडो यूनिक फ्लेम लिमिटेड और अन्य (2021) के फैसले के साथ कैसे सुसंगत बनाया जा सकता है।
    • उपरोक्त फैसले में उच्चतम न्यायालय ने न्यायालयों को मध्यस्थता समझौते से संबंधित मामले से निपटने के दौरान भारतीय स्टांप अधिनियम, 1899 के अनुरूप कार्य करने का निर्देश दिया।

न्यायालय की टिप्पणी

  • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996 (A&C Act) की धारा 11 के तहत कार्यवाही में बिना मुहर लगे/अपर्याप्त मुहर लगे मध्यस्थता समझौते को अनिवार्य रूप से जब्त किया जाना आवश्यक है।

मध्यस्थता समझौता

  • मध्यस्थता को कानूनी रूप से मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996 (A&C Act) द्वारा शासित न्यायालय के बाहर निपटान प्रक्रिया के रूप में मान्यता प्राप्त है।
  • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत, एक मध्यस्थता समझौते को धारा 7 के तहत पार्टियों द्वारा अपने मौजूदा या भविष्य के विवादों को मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत करने के समझौते के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • यह समझौता अलग दस्तावेज़ के रूप में हो सकता है या पार्टियों के बीच मूल अनुबंध के भीतर एक खंड के रूप में शामिल किया जा सकता है।
  • ऐसा मध्यस्थता समझौता लिखित रूप में होना चाहिये।
  • इस अधिनियम की धारा 11 मध्यस्थों की नियुक्ति से संबंधित है।
  • मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(2) के तहत, पार्टियाँ मध्यस्थ या मध्यस्थों को नियुक्त करने की प्रक्रिया पर सहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं।
  • जब किसी विवाद में शामिल पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति पर सहमत नहीं हो पाते हैं, तो मध्यस्थता की नियुक्ति की शक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित व्यक्ति पर स्थानांतरित हो जाती है।

बिना मुहर लगा मध्यस्थता समझौता

  • यह अधिनियम विशेष रूप से यह नहीं बताता है कि बिना मुहर लगा हुआ समझौता शून्य या अप्रवर्तनीय है।
  • इसके बजाय, यह रेखांकित करता है कि अपेक्षित स्टांप शुल्क और स्टांप में देरी के लिये लगाए गए किसी भी जुर्माने के भुगतान पर एक बिना स्टांप वाला समझौता लागू किया जा सकता है।
  • एन. एन. ग्लोबल मर्केंटाइल मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि बिना मुहर लगे मध्यस्थता समझौते को अप्रवर्तनीय अनुबंध माना जाएगा।
    • न्यायालय ने इस मामले में यह भी कहा कि स्टाम्प अधिनियम की धारा 35, जो किसी भी बिना मुहर लगे या अपर्याप्त मुहर वाले दस्तावेज़ को साक्ष्य में अस्वीकार्य बनाती है, वही सिद्धांत मध्यस्थता समझौतों पर लागू होता है।

ऐतिहासिक मामले

  • मैसर्स एस. एम. एस. टी एस्टेट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम मैसर्स चांदमारी टी कंपनी लिमिटेड (2011) (M/S Sms Tea Estates P.Ltd vs M/S Chandmari Tea Co.P.Ltd (2011)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब तक लिखत के संबंध में देय स्टांप शुल्क और जुर्माने का भुगतान नहीं किया जाता, तब तक न्यायालय लिखत पर कार्रवाई नहीं कर सकता है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि न्यायालय उस मध्यस्थता समझौते पर भी कार्रवाई नहीं कर सकता है, जो उस दस्तावेज़ का एक हिस्सा है।
  • गरवारे वॉल रोपर्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन (2019):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि, जब एक मध्यस्थता खंड "अनुबंध में" शामिल होता है, तो यह महत्वपूर्ण है कि समझौता केवल तभी अनुबंध बनता है जब यह कानून द्वारा लागू करने योग्य हो।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि स्टाम्प अधिनियम के तहत, ऐसा समझौता एक अनुबंध नहीं बनता है, अर्थात्, यह कानून द्वारा लागू करने योग्य नहीं है, जब तक कि इस पर विधिवत मुहर न लगाई जाए।
    • इसलिये, किसी समझौते में मध्यस्थता खंड तब अस्तित्व में नहीं होगा जब यह कानून द्वारा लागू करने योग्य न हो।

कानूनी प्रावधान

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(13) में कहा गया है कि, मध्यस्थ या मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये इस धारा के तहत किये गए आवेदन का निपटारा उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या ऐसे न्यायालय द्वारा नामित व्यक्ति या संस्था द्वारा किया जाएगा। ऐसे मामले को यथासंभव शीघ्रता से निपटाया जाएगा और विपरीत पक्ष को नोटिस की तामील की तारीख से साठ दिनों की अवधि के भीतर मामले को निपटाने का प्रयास किया जाएगा।


पारिवारिक कानून

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14(1)

 30-Aug-2023

एम. शिवदासन (मृत) कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से बनाम ए.सौदामिनी (मृत) कानूनी प्रतिनिधि और अन्य के माध्यम से।

"हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के तहत अधिकारों का दावा करने के लिये एक महिला के लिये संपत्ति पर कब्ज़ा आवश्यक है"।

न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और सुधांशु धूलिया

स्रोत- उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने कानूनी प्रतिनिधियों और अन्य के माध्यम से एम. सिवादासन (मृत) बनाम ए.सौदामिनी (मृत) के मामले में कहा है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) की धारा 14(1) के तहत अधिकारों का दावा करने के लिए एक हिंदू महिला के पास संपत्ति का कब्ज़ा होना चाहिये।

पृष्ठभूमि

  • किसी संपत्ति पर पैतृक अधिकार का दावा करने के लिये, अपीलकर्त्ताओं ने केरल में ट्रायल कोर्ट के समक्ष विभाजन और मध्यवर्ती लाभ (mesne profit) पाने के लिये मुकदमा दायर किया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने इस आधार पर यह मुकदमा खारिज कर दिया कि जिस महिला से वे अपना अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, कभी भी संपत्ति उसके कब्जे में नहीं थी और इसलिये हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) की धारा 14 (1) लागू नहीं थी।
  • ट्रायल कोर्ट के इस निष्कर्ष को प्रथम अपीलीय न्यायालय और अंततः केरल उच्च न्यायालय ने दूसरी अपील में बरकरार रखा।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट के फैसले की पुष्टि करते हुए उच्चतम न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका (SLP) को खारिज कर दिया।

मध्यवर्ती लाभ (mesne profit)

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 मध्यवर्ती लाभ से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि संपत्ति के न्यूनतम लाभ का अर्थ उन लाभों से है जो ऐसी संपत्ति पर गलत तरीके से कब्ज़ा करने वाले व्यक्ति को वास्तव में प्राप्त हुए हैं या साधारण परिश्रम से प्राप्त हो सकते हैं, साथ ही ऐसे लाभों पर ब्याज भी शामिल है, लेकिन इसमें गलत तरीके से कब्जा की गई संपत्ति पर उस व्यक्ति द्वारा किये गए सुधारों के कारण होने वाले लाभ शामिल नहीं होंगे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि धारा 14 (1) का इस मामले में कोई उपयोग नहीं है क्योंकि धारा 14 (1) का आवश्यक घटक इस धारा के तहत अधिकारों का दावा करने के लिये एक हिंदू महिला के लिये संपत्ति पर कब्ज़ा है।
  • न्यायालय ने यह कहा कि इस अधिनियम की धारा 14 की उपधारा (1) के तहत दावा कायम रखने के लिये कब्ज़ा एक शर्त थी। हिंदू महिला के पास न केवल संपत्ति होनी चाहिये, बल्कि उसके द्वारा संपत्ति अर्जित भी की होनी चाहिये थी। ऐसा अधिग्रहण या तो विरासत या वसीयत के माध्यम से या विभाजन के माध्यम से या भरण-पोषण के बदले में या भरण-पोषण के बकाया के रूप में या उपहार द्वारा या अपने स्वयं के कौशल या परिश्रम से या खरीद या आदेश द्वारा होना चाहिये।

कानूनी प्रावधान

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

  • इसे 17 जून, 1956 को हिंदुओं के बीच निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून में संशोधन और संहिताबद्ध करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 ने सहदायिक संपत्ति के प्रावधानों में संशोधन किया, जिससे मृतक की बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिये गए और उन्हें समान देनदारियों के अधीन कर दिया गया।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14

  • धारा 14 एक महिला हिंदू की संपत्ति से संबंधित है और इसे उसकी पूर्ण संपत्ति मानती है। यह कहती है कि हिन्दू नारी की सम्पत्ति उसकी आत्यंतिकतः अपनी सम्पत्ति होगी--(1) हिन्दू नारी के कब्जे में की कोई भी सम्पत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व या पश्चात्‌ अर्जित की गई हो, उसके द्वारा पूर्ण स्वामी के तौर पर न कि परिसीमित स्वामी के तौर पर धारित की जाएगी।

स्पष्टीकरण--इस उपधारा में “सम्पत्ति” के अंतर्गत वह जंगम और स्थावर सम्पत्ति आती है जो हिन्दू नारी ने विरासत द्वारा अथवा वसीयत द्वारा अथवा विभाजन में अथवा भरण-पोषण के या भरण-पोषण की बकाया के बदले में अथवा अपने विवाह के पूर्व या विवाह के समय या पश्चात्‌ दान द्वारा किसी व्यक्ति से, चाहे वह सम्बन्धी हो या न हो, अथवा अपने कौशल या परिश्रम द्वारा अथवा क्रय द्वारा अथवा चिरभोग द्वारा अथवा किसी अन्य रीति से, चाहे वह कैसी ही क्यों न हो, अर्जित की हो और ऐसी सम्पत्ति भी जो इस अधिनियम के प्रारम्भ से अव्यवहित पूर्व स्त्रीधन के रूप में उसके द्वारा धारित थी।

(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसी किसी सम्पत्ति पर लागू नहीं होगी जो दान अथवा विल द्वारा या अन्य किसी 'लिखत के अधीन सिविल न्यायालय की डिक्री या आदेश के अधीन या पंचाट के अधीन अर्जित की गई हो यदि दान, विल या अन्य लिखत अथवा डिग्री, आदेश या पंचाट के निबन्धन ऐसी सम्पत्ति में निर्वन्धित सम्पदा विहित करते हों।

  • चौधरी बनाम अजुधिया (2003) में, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि यह बात मायने नहीं रखती कि महिला ने संपत्ति कैसे अर्जित की और यदि उसके पास कोई संपत्ति है, तो वह संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति मानी जाती है।