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आपराधिक कानून
बीमा कंपनी की देनदारी
31-Aug-2023
धोंडुबाई बनाम हनमंतप्पा बंदप्पा गांधीगुडे जब ट्रैक्टर और ट्रेलर किसी दुर्घटना में शामिल होते हैं, तो मुआवज़े का दावा करने के लिये ट्रैक्टर और ट्रेलर दोनों का बीमा कराना आवश्यक होता है। उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय (SC) ने कहा है कि यदि दावेदार ट्रैक्टर से जुड़े ट्रेलर में यात्रा कर रहा था, तो बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं है, जिसका बीमा नहीं किया गया था, हालाँकि धोंडुबाई बनाम हनमंतप्पा बंदप्पा गांधीगुडे के मामले में ट्रैक्टर का बीमा किया गया था।
पृष्ठभूमि
- वर्तमान मामला एक दुर्घटना में लगी चोटों के लिये मांगे गए मुआवज़े से संबंधित है, जिस पर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (MACT) ने 2015 में अपने फैसले के माध्यम से 6% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ 1,78,500/- रुपये का मुआवज़ा दिया था।
- बॉम्बे हाई कोर्ट (HC) ने 2018 में अपने फैसले के माध्यम से मुआवज़े को 9% प्रति वर्ष ब्याज के साथ बढ़ाकर 9,99,280/- रुपये कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने यह स्वीकार करते हुए कि दावेदार उस ट्रेलर में था जिसका बीमा नहीं था, जिसे एक बीमाकृत ट्रैक्टर द्वारा खींचा जा रहा था, बीमा कंपनी को जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया और मुआवज़ा वाहन के मालिक से लिया जाना था।
- इसलिये अपीलकर्ता/दावेदार ने मुआवज़े के भुगतान की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय (SC) के समक्ष दावा प्रस्तुत किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि यह कानून अच्छी तरह से स्थापित है कि जब एक ट्रैक्टर और ट्रेलर किसी दुर्घटना में शामिल होता है, तो ट्रैक्टर और ट्रेलर दोनों का बीमा करना आवश्यक होता है।
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- सामान्य परिस्थिति में, जब दावेदार उस ट्रेलर में यात्रा कर रहा था जिसका बीमा नहीं था, तो बीमा कंपनी पर दायित्व तय नहीं किया जा सकता है।
- हालाँकि, पीठ ने यह देखते हुए कि दावेदार एक महिला है जो दुर्घटना की तारीख के अनुसार लगभग 20 वर्ष की उम्र में एक मज़दूर के रूप में काम कर रही थी, ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम बृज मोहन और अन्य के मामले (2007) का आश्रय लिया और भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा दी गई अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए कहा कि ऐसी परिस्थितियों में, दावेदार के लिये मालिक से राशि वसूल करना संभव नहीं होगा।
- इसलिये, उस परिस्थिति में, यह निर्देश दिया गया कि प्रतिवादी-बीमा कंपनी उच्च न्यायालय द्वारा मुआवज़े के रूप में दी गई राशि का भुगतान अर्जित ब्याज के साथ करेगी और वाहन के मालिक से इसकी वसूली करेगी।
मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (MACT)
- मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण मोटर दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप होने वाले जीवन/संपत्ति के नुकसान और चोट के मामलों से संबंधित दावों से निपटते हैं।
- मोटर वाहन अधिनियम, 1988 द्वारा स्थापित न्यायाधिकरण को धारा 165 के तहत परिभाषित किया गया है, जो राज्य सरकार को मोटर वाहन दुर्घटनाओं, व्यक्तियों की मौत या शारीरिक चोट या तीसरे पक्ष की किसी भी संपत्ति को नुकसान से उत्पन्न मुआवज़े के दावों पर फैसला करने के लिये दावा न्यायाधिकरण का गठन करने के लिये अधिकृत करता है।
- इस अधिनियम की धारा 165(3) ट्रिब्यूनल का सदस्य बनने के लिये निम्नानुसार योग्यताएँ प्रदान करती है:
- कोई व्यक्ति दावा न्यायाधिकरण के सदस्य के रूप में नियुक्ति के लिये तब तक योग्य नहीं होगा जब तक कि वह –
(a) उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है, या रहा है, या
(b) ज़िला न्यायाधीश है या रहा है या
(c) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या ज़िला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये योग्य है।
- कोई व्यक्ति दावा न्यायाधिकरण के सदस्य के रूप में नियुक्ति के लिये तब तक योग्य नहीं होगा जब तक कि वह –
- मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण की मुख्य विशेषताओं में निम्नलिखित शामिल हैं:
- क्षेत्राधिकार : मोटर वाहनों के उपयोग के कारण होने वाली दुर्घटनाओं और परिणामस्वरूप चोटों या मौतों से जुड़े मामलों की सुनवाई करना मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण का अधिकार क्षेत्र है।
- मुआवज़ा : इसका प्राथमिक उद्देश्य मुआवज़े की राशि निर्धारित करना है जो मृत्यु के मामले में पीड़ितों या उनके कानूनी उत्तराधिकारियों को दी जानी चाहिये। यह मुआवज़ा आमतौर पर चिकित्सा व्यय, आय की हानि, विकलांगता और दर्द और पीड़ा को कवर करता है।
- शीघ्र समाधान : उनका लक्ष्य नियमित न्यायालयों की तुलना में दुर्घटना-संबंधी मामलों का त्वरित समाधान प्रदान करना है। पीड़ितों या उनके परिवारों को समय पर मुआवज़ा वितरण के लिये यह महत्वपूर्ण है।
- अपील : मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण द्वारा दिये गये निर्णयों के खिलाफ कोई भी असंतुष्ट पक्ष संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
- मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 173 में कहा गया है, अन्य प्रावधानों के अधीन, दावा न्यायाधिकरण के फैसले से व्यथित कोई भी व्यक्ति, फैसले की तारीख से नब्बे दिनों के भीतर, उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
- इसके अलावा, यदि अपील में विवाद की राशि दस हजार रुपये से कम है, तो दावा न्यायाधिकरण के किसी भी फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की जाएगी।
- बीमा कंपनियाँ : बीमा कंपनियाँ अक्सर इन मामलों में भूमिका निभाती हैं, खासकर जब दुर्घटना के लिये जिम्मेदार वाहन के बीमाकर्ता से मुआवज़ा मांगा जाता है।
भारत का संविधान, 1950
अनुच्छेद 142 - उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन और प्रकटीकरण आदि के बारे में आदेश –
(1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करे, प्रवर्तनीय होगा।
(2) संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को भारत के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्हीं दस्तावेजों के प्रकटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिये कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी।
सिविल कानून
प्रशिक्षु को कर्मकार नहीं माना जा सकता
31-Aug-2023
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम श्री नरेंद्र सिंह शेखावत एवं अन्य और अन्य संबंधित याचिकाएँ "शिक्षु अधिनियम, 1961 के तहत किसी विवाद को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के दायरे में 'औद्योगिक विवाद' नहीं कहा जा सकता है।" न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड |
स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय (सिविल रिट याचिका संख्या 8182/2005)
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा कि शिक्षु अधिनियम, 1961 (1961 का अधिनियम) के तहत किसी विवाद को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (1947 का अधिनियम) के दायरे में 'औद्योगिक विवाद' नहीं कहा जा सकता है।
- राजस्थान उच्च न्यायालय ने इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम श्री नरेंद्र सिंह शेखावत एवं अन्य और अन्य संबंधित याचिकाओं के मामले में यह टिप्पणी की।
पृष्ठभूमि
- 11 महीनों के लिये दोनों पक्षों के बीच प्रशिक्षुता अनुबंध निष्पादित किया गया था और इन 11 महीनों के दौरान प्रतिवादियों को प्रशिक्षुता प्रशिक्षण प्रदान किया गया था।
- उक्त अवधि के पूरा होने के बाद, उनका अनुबंध समाप्ति आदेश (termination order) के माध्यम से समाप्त हो गया।
- इसके बाद, प्रतिवादियों ने अपने समाप्ति आदेश की वैधता को चुनौती देते हुए 1947 के औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 के तहत औद्योगिक न्यायाधिकरण सह श्रम न्यायालय, जयपुर के समक्ष एक औद्योगिक विवाद उठाया।
- इस न्यायाधिकरण ने विवाद को औद्योगिक विवाद मानते हुए और उन्हें 1947 के औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत कर्मकार मानते हुए प्रतिवादियों के पक्ष में आदेश पारित किया और इसलिये, समाप्ति (Termination) को अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन माना।
- याचिकाकर्ताओं ने इस मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की और कहा कि इस विवाद को औद्योगिक विवाद नहीं माना जा सकता है।
- और कहा, प्रतिवादी कर्मकार की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते हैं, इसलिये श्रम न्यायालय के पास प्रतिवादियों द्वारा दायर दावा याचिका पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।
- शिक्षु अधिनियम, 1961 की धारा 18 के अनुसार श्रम कानून के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।
न्यायालय की टिप्पणी
- उच्च न्यायालय ने मुख्य रूप से कहा कि प्रशिक्षुओं के विवाद के मामले में, औद्योगिक विवाद न्यायाधिकरण द्वारा दिया गया पंचाट (Award) अवैध और अधिकार क्षेत्र रहित है।
औद्योगिक विवाद
- औद्योगिक विवाद ऐसे टकराव या संघर्ष होते हैं जो नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच उत्पन्न होते हैं, जो अक्सर हितों, विचारों में अंतर या अधिकारों के कथित उल्लंघन के कारण उत्पन्न होते हैं।
- इन विवादों में शामिल दोनों पक्षों और अर्थव्यवस्था के समग्र कामकाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं।
- औद्योगिक विवादों के परिणामस्वरूप मुकदमे और न्यायालय के आदेश जैसी कानूनी कार्रवाइयाँ हो सकती हैं।
- इस कारण से, इसमें शामिल सभी पक्षों के लिये अतिरिक्त लागत और जटिलताएँ पैदा हो सकती हैं।
- ये विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत शासित होते हैं और इनका निर्णय श्रम न्यायालय/औद्योगिक न्यायाधिकरण द्वारा किया जाता है।
- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(k) औद्योगिक विवाद को परिभाषित करती है।
कर्मकार (Workman)
- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत, 'कर्मकार' का तात्पर्य किसी उद्योग में कार्यरत किसी भी व्यक्ति से है, चाहे वह कुशल या अकुशल, मैनुअल या लिपिक, तकनीकी या गैर-तकनीकी हो।
- कर्मकार में कारखाने के श्रमिकों और मजदूरों से लेकर प्रशासनिक कर्मचारियों तक विविध प्रकार के व्यक्ति शामिल होते हैं, जो सभी एक औद्योगिक प्रतिष्ठान के कामकाज में योगदान करते हैं।
शिक्षु अधिनियम, 1961
- 1961 का यह अधिनियम भारत में कानून का एक महत्वपूर्ण अंश है जो विभिन्न उद्योगों में प्रशिक्षुता प्रशिक्षण कार्यक्रमों की रूपरेखा और कार्यान्वयन को नियंत्रित करता है।
- इस अधिनियम में 38 धाराएँ हैं जिन्हें 3 अध्यायों में विभाजित किया गया है।
- शिक्षु अधिनियम के तहत, पात्र संगठनों को व्यक्तियों को प्रशिक्षुता प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जिससे उन्हें अनुभवी पेशेवरों के मार्गदर्शन में व्यावहारिक ज्ञान और कौशल प्राप्त करने की अनुमति मिलती है।
- इस अधिनियम की धारा 18 प्रशिक्षुओं और श्रमिकों के बीच विभेद करती है।
कानूनी प्रावधान
शिक्षु 1961 के अधिनियम की धारा 18: शिक्षु प्रशिक्षणार्थी हैं, न कि कर्मकार -
उसके सिवाय जैसा कि इस अधिनियम में अन्यथा उपबंधित है -
(a) किसी प्रतिष्ठान में निर्दिष्ट व्यवसाय में शिक्षुता प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला प्रत्येक शिक्षु एक प्रशिक्षणार्थी होगा न कि कर्मकार; और
(b) श्रम के संबंध में किसी भी कानून के प्रावधान ऐसे शिक्षु पर या उसके संबंध में लागू नहीं होंगे।
पारिवारिक कानून
विवाह का अपूरणीय विच्छेद
31-Aug-2023
राजीब कुमार रॉय बनाम सुष्मिता साहा "विवाह के अपूरणीय विच्छेद के बावजूद पार्टियों को एक साथ रखना दोनों पक्षों के लिये क्रूरता के समान है"। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और सुधांशु धूलिया |
स्रोत- उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
राजीव कुमार रॉय बनाम सुष्मिता साहा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विवाह के अपूरणीय विच्छेद के बावजूद दोनों पक्षों को एक साथ रखना दोनों पक्षों के लिये क्रूरता है।
पृष्ठभूमि
- अपीलकर्ता और प्रतिवादी पति-पत्नी हैं जिनकी शादी वर्ष 2007 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी।
- अपीलकर्ता के अनुसार, प्रतिवादी ने 2010 में अपनी ससुराल का घर छोड़ दिया था।
- अपीलकर्ता (पति) ने 2012 में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिये एक याचिका दायर की थी, जिसे 2013 में पारिवारिक न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
- उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में वापस ले लिया गया।
- क्रूरता और परित्याग के आधार पर विवाह विच्छेद की याचिका बाद में पारिवारिक न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी, फिर इस याचिका को भी खारिज कर दिया गया था।
- उस आदेश के खिलाफ अपीलकर्ता द्वारा दायर अपील को भी उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
- इसके बाद, अपीलकर्ता द्वारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
- सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए तलाक की डिक्री दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि किसी मामले के दिये गये तथ्यों और परिस्थितियों में जारी कड़वाहट, भावनात्मक रूप से मृतप्राय यानी जिसमें सुधार की कोई संभावना न हो तथा अपूर्ण रूप से टूट चुके हों और लंबे अलगाव को विवाह के अपूरणीय विच्छेद माना जाएगा और अपूरणीय विच्छेद होने के बावजूद दोनों पक्षों को एक साथ रखने को दोनों पक्षों के लिये क्रूरता के समान मामले के रूप में माना जा सकता है।
- पीठ ने यह भी कहा कि जब विवाह अपूरणीय रूप से टूट जाता है तो विवाह विच्छेद ही एकमात्र समाधान होता है।
कानूनी प्रावधान
विवाह के अपूरणीय विच्छेद का सिद्धांत
- इस अवधारणा की उत्पत्ति 1921 में लॉडर बनाम लॉडी के ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से न्यूज़ीलैंड में हुई थी।
- विवाह का अपूरणीय विच्छेद एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति और पत्नी काफी समय से अलग-अलग रह रहे हैं और उनके दोबारा साथ रहने की कोई संभावना नहीं है।
- इस सिद्धांत को अनौपचारिक वैधता प्राप्त हो गई है क्योंकि इसे तलाक देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में लागू किया गया है।
- भारत में, हिंदू विवाह अधिनिमय में तलाक के लिये इस तरह के आधार को शामिल करना अभी तक संभव नहीं हुआ है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसका पुरजोर तरीके से सुझाव दिया गया है और इस संबंध में विवाह कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 नामक संसद में एक विधेयक पेश किया गया था।
दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना
- ‘दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना’ अभिव्यक्ति का अर्थ उन दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना से है जो पहले पार्टियों द्वारा प्राप्त किये गये थे।
- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। यह कहती है कि -
- जब पति या पत्नी में से कोई भी, बिना किसी उचित कारण के, दूसरे के समाज से अलग हो जाता है, तो पीड़ित पक्ष दाम्पत्य अधिकारों की बहाली के लिये ज़िला न्यायालय में याचिका द्वारा आवेदन कर सकता है और न्यायालय ऐसी याचिका में दिये गए बयानों की सच्चाई से संतुष्ट होने पर आवेदन कर सकती यदि अदालत संतुष्ट है कि याचिका में प्रस्तुत बयान सही हैं और बहाली का उपाय देने में कोई कानूनी रोक नहीं है, तो अदालत वैवाहिक अधिकारों की बहाली की डिक्री पास कर सकती है।
- स्पष्टीकरण - जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या समाज से अलग होने के लिये कोई उचित बहाना है, तो उचित बहाने को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने समाज से अपना नाम वापस ले लिया है।