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आपराधिक कानून

नाराज़ी याचिका पर मजिस्ट्रेट ले सकते हैं संज्ञान

 01-Sep-2023

जुनैद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

नाराज़ी याचिका को शिकायत मामले के रूप में मानने के लिये मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा चुना गया रास्ता बिल्कुल न्यायसंगत, कानूनी और उचित था।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

जुनैद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अंतिम रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट को नाराज़ी याचिका को शिकायत मामले के रूप में मानने का विवेकाधिकार है।

पृष्ठभूमि

  • वर्तमान मामले में अपीलकर्त्ता (जुनैद) ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी। इसमें आरोप लगाया कि पुरानी दुश्मनी के चलते आरोपियों ने धारदार हथियारों से लैस होकर उस पर और उसके परिवार पर हमला किया और गाली-गलौज भी की।
  • जांच पूरी करने के बाद, अन्वेषण अधिकारी (Investigating Officer (IO) ने अंतिम पुलिस रिपोर्ट प्रस्तुत की।
  • अंतिम पुलिस रिपोर्ट से व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने संबंधित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) के समक्ष एक नाराज़ी याचिका दायर की।
  • संबंधित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) ने अन्वेषण अधिकारी (Investigating Officer (IO) की अंतिम रिपोर्ट को खारिज़ कर दिया और निर्देश दिया कि नाराज़ी याचिका को शिकायत मामले के रूप में दर्ज किया जाए।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 200 और 202 का सहारा लेते हुए और शिकायतकर्त्ता एवं अन्य गवाहों के बयान दर्ज करने के बाद आरोपी प्रतिवादियों को समन जारी किया।
  • उक्त आदेश से व्यथित होकर, प्रतिवादी-अभियुक्त ने उच्च न्यायालय (HC) के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनुमति दे दी।
  • इसलिये, अपीलकर्त्ता (ज़ुनैद) द्वारा उच्चतम न्यायालय में वर्तमान अपील उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेशों से उत्पन्न हुई है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और दीपांकर दत्ता की पीठ ने राकेश और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2014) मामले पर ध्यान दिया जिसमें यह माना गया था -
  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 के तहत पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट तीन विकल्पों का उपयोग कर सकता है:
    • सबसे पहले, वह यह निर्णय ले सकता है कि आगे बढ़ने के लिये कोई पर्याप्त आधार नहीं है और कार्रवाई छोड़ सकता है।
    • दूसरा, वह पुलिस रिपोर्ट और जारी प्रक्रिया के आधार पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190(1)(B) के तहत अपराध का संज्ञान ले सकता है; और
    • तीसरा, वह मूल शिकायत के आधार पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190(1)(A) के तहत अपराध का संज्ञान ले सकता है और धारा 200 के तहत शिकायतकर्त्ता और उसके गवाहों की शपथ पर जांच करने के लिये आगे बढ़ सकता है।
    • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील की अनुमति देते हुए कहा कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) द्वारा अन्वेषण अधिकारी (Investigating Officer (IO) की अंतिम रिपोर्ट को खारिज करना और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के तहत दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 और 202 का सहारा लेना सही, उचित, न्यायोचित, कानूनी कदम था

पुलिस रिपोर्ट

  • पुलिस रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही शुरू करने के लिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत की गई जांच के निष्कर्षों पर रिपोर्ट करने के लिये बनाया गया एक आधिकारिक रिकॉर्ड होता है।
  • इसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 2(R) के तहत एक पुलिस अधिकारी द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 173 की उपधारा (2) के तहत मजिस्ट्रेट को भेजी गई रिपोर्ट के रूप में परिभाषित किया गया है।

CrPc की धारा 173 :- अन्वेषण के समाप्त हो जाने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट -

(2) (i) जैसे ही वह पूरा होता है, वैसे ही पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, पुलिस रिपोर्ट पर उस अपराध का संज्ञान करने के लिये सशक्त मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार द्वारा विहित प्ररूप में एक रिपोर्ट भेजेगा, जिसमें निम्नलिखित बातें कथित होंगी–

(क) पक्षकारों के नाम;

(ख) इत्तिला का स्वरूप;

(ग) मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होने वाले व्यक्तियों के नाम;

(घ) क्या कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है और यदि किया गया प्रतीत होता है, तो किसके द्वारा;

(ङ) क्या अभियुक्त गिरफ्तार कर लिया गया है;

(च) क्या वह अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया गया है और यदि छोड़ दिया गया है तो वह बंधपत्र प्रतिभुओं सहित है या प्रतिभुओं रहित;

(छ) क्या वह धारा 170 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है।

(ज) जहाँ अन्वेषण भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, 376क, 376कख, 376ख, 376ग, 376घ, 376घक, 376घख या धारा 376ङ के अधीन अपराध से संबंधित है, क्या स्त्री की, चिकित्सीय परीक्षण की रिपोर्ट संलग्न की गई है।

(ii) वह अधिकारी अपने द्वारा की गई कार्यवाही की संसूचना, उस व्यक्ति को, यदि कोई हो, जिसने अपराध किये जाने के संबंध में सर्वप्रथम इत्तिला दी उस रीति से देगा, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाए।

नाराज़ी याचिका (Protest Petition)

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) नाराज़ी याचिका के लिये कोई विशिष्ट परिभाषा प्रदान नहीं करती है लेकिन यह आपराधिक कानून का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
  • जब पुलिस किसी मामले की जांच करती है तो जांच पूरी होने के बाद दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 173(2) के तहत पुलिस रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को सौंपी जाती है।
  • यदि पीड़ित या शिकायतकर्त्ता पुलिस रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं है, तो वह संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष अपना असंतोष बताते हुए नाराज़ी याचिका दायर कर सकता है और आगे की जांच के लिये प्रार्थना कर सकता है। साथ ही पीड़ित व्यक्ति दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 200 और 202 के तहत आगे की कार्यवाही के लिये भी प्रार्थना कर सकता है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 202 मजिस्ट्रेट की ओर से प्रक्रिया के मुद्दे (अभियुक्त के खिलाफ) को स्थगित करने पर केंद्रित है।
  • यदि नाराज़ी याचिका स्वीकार कर ली जाती है, तो मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPc) की धारा 190 के तहत मामले का संज्ञान लेता है और आरोपी व्यक्ति को नोटिस जारी करता है।

भारतीय दंड संहिता, 1860

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) धारा 147, 148, 149, 307, 323, 324, 504 से संबंधित है जो इस प्रकार हैं:

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 147 — बल्वा करने के लिये दंड – जो कोई बल्वा करने का दोषी होगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 148 — घातक आयुध से सज्जित होकर बल्वा करना – जो कोई घातक आयुध से, या किसी ऐसी चीज से जिससे आक्रामक आयुध के रूप में उपयोग किये जाने पर मृत्यु कारित होनी संभाव्य हो, सज्जित होते हुए बल्वा करने का दोषी होगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 149 — विधिविरुद्ध जमाव का हर सदस्य, सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में किये गए अपराध का दोषी – यदि विधिविरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में अपराध किया जाता है, या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जमाव के सदस्य उस उद्देश्य को अग्रसर करने में संभाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उस जमाव का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 307 — हत्या करने का प्रयत्न – जो कोई किसी कार्य को ऐसे आशय या ज्ञान से और ऐसी परिस्थितियों में करेगा कि यदि वह उस कार्य द्वारा मृत्यु कारित कर देता है तो वह हत्या का दोषी होता, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा और यदि ऐसे कार्य द्वारा किसी व्यक्ति को उपहति कारित हो जाए, तो वह अपराधी या तो आजीवन कारावास से या ऐसे दंड से दंडनीय होगा, जैसा एतस्मिन पूर्व वर्णित है।
    • आजीवन सिद्धदोष द्वारा प्रयत्न – जबकि इस धारा में वर्णित अपराध करने वाला कोई व्यक्ति आजीवन कारावास के दंडादेश के अधीन हो, तब यदि उपहति कारित हुई हो, तो वह मृत्यु से दंडित किया जा सकेगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 323 — स्वेच्छया उपहति कारित करने के लिये दंड – उस दशा के सिवाय, जिसके लिये धारा 334 में उपबंध है, जो कोई स्वेच्छया उपहति कारित करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो एक हज़ार रुपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 324 — खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छया उपहति कारित करना – उस दशा के सिवाय जिसके लिये धारा 334 में उपबंध है, जो कोई असन, वेधन या काटने के किसी उपकरण द्वारा या किसी ऐसे उपकरण द्वारा जो यदि आक्रामक आयुध के तौर पर उपयोग में लाया जाए, तो उससे मृत्यु कारित होना संभाव्य है या अग्नि या किसी तप्त पदार्थ द्वारा, या किसी विष या किसी संक्षारक पदार्थ द्वारा या किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा या किसी ऐसे पदार्थ द्वारा, जिसका श्वास में जाना या निगलना या रक्त में पहुँचना मानव शरीर के लिये हानिकारक है, या किसी जीवजंतु द्वारा स्वेच्छया उपहति कारित करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 504 — लोकशांति भंग कराने को प्रकोपित करने के आशय से साशय अपमान — जो कोई किसी व्यक्ति को साशय अपमानित करेगा और तद्द्वारा उस व्यक्ति को इस आशय से, या यह संभाव्य जानते हुए, प्रकोपित करेगा कि ऐसे प्रकोपन से वह लोक शांति भंग या कोई अन्य अपराध कारित करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।

आपराधिक कानून

आपराधिक मामलों में व्यक्तिगत समझौता

 01-Sep-2023

भरवाड सनोत्शभाई सोंडाभाई बनाम गुजरात राज्य

"गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा पीड़ित के बेटे के साथ समझौते के आधार पर हत्या के आरोपी को जमानत देने पर प्रश्न उठाये गए।"

न्यायमूर्ति हिमा कोहली और राजेश बिंदल

स्रोत- उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने भरवाड सनोत्शभाई सोंडाभाई बनाम गुजरात राज्य के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश पर निराशा व्यक्त की और गंभीर आपराधिक मामलों में व्यक्तिगत समझौते की अनुमति देने की उपयुक्तता पर प्रश्न खड़े किये।

  • उपरोक्त मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने हत्या के एक मामले में एक आरोपी को उसके और शिकायतकर्त्ता के बीच समझौते के आधार पर जमानत दे दी।

पृष्ठभूमि

  • यह घटना 17 सितंबर, 2021 को हुई, जब आरोपी ने पीड़ित पर हमला किया, जिसने बाद में चोटों के कारण दम तोड़ दिया।
  • आरोपी ने जमानत के लिये दो बार ट्रायल कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और ट्रायल कोर्ट ने कोई भी राहत देने से इनकार कर दिया क्योंकि वह भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत आरोप का सामना कर रहा था।
  • आरोपी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की धारा 439 के तहत एक आवेदन दायर किया।
  • आरोपी और शिकायतकर्त्ता के बीच समझौते को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय ने उसे कुछ शर्तों के अधीन जमानत दे दी।
  • उच्च न्यायालय के इस आदेश से व्यथित होकर उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और आरोपी को ट्रायल कोर्ट के समक्ष तुरंत आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति हिमा कोहली और राजेश बिंदल की पीठ जमानत आदेश को चुनौती न देने के लिये गुजरात राज्य की आलोचना की।
  • पीठ ने इतने बड़े पैमाने के गंभीर आपराधिक मामलों में व्यक्तिगत निपटान की अनुमति देने की उपयुक्तता और गंभीर अपराधों के लिये किसी व्यक्ति की पूर्व दंड की कमी के आधार पर जमानत देने के निहितार्थ पर प्रश्न खड़े किये ।
  • पीठ ने आगे कहा कि आरोपी किसी भी राहत का हकदार नहीं है और भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत गंभीर अपराध के संबंध में जमानत पर रिहा होने से पहले वह बमुश्किल छह महीने तक हिरासत में रहा था। उनके पूर्ववृत्त भी अपराध करने की ओर उनकी प्रवृत्ति का संकेत देते हैं।

कानूनी प्रावधान

भारतीय दंड संहिता की धारा 302,

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 302 में हत्या के लिये दंड का प्रावधान किया गया है। इस धारा के अनुसार-
    • जो कोई भी हत्या करेगा उसे मौत या आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के तहत हत्या से निपटा जाता है और यह अपराध गैर-जमानती, संज्ञेय और सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439

  • यह धारा जमानत के संबंध में उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय की विशेष शक्तियों से संबंधित है। इस धारा के अनुसार –
    (1) उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय यह निदेश दे सकता है कि–
       (क) किसी ऐसे व्यक्ति को, जिस पर किसी अपराध का अभियोग है और जो अभिरक्षा में है, जमानत पर छोड़ दिया जाए और यदि अपराध धारा 437 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट प्रकार का है, तो वह ऐसी कोई शर्त, जिसे वह उस उपधारा में वर्णित प्रयोजनों के लिये आवश्यक समझे, अधिरोपित कर सकता है;
       (ख) किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने के समय मजिस्ट्रेट द्वारा अधिरोपित कोई शर्त अपास्त या उपांतरित कर दी जाए :
    परंतु उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति की, जो ऐसे अपराध का अभियुक्त है जो अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है, या जो यद्यपि इस प्रकार विचारणीय नहीं है, आजीवन कारावास से दंडनीय है, जमानत लेने के पूर्व जमानत के लिये आवेदन की सूचना लोक अभियोजक को उस दशा के सिवाय देगा जब उसकी, ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किये जाएँगे यह राय है कि ऐसी सूचना देना साध्य नहीं है।
    (2) एक उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय निर्देश दे सकता है कि इस अध्याय (अध्याय 33) के तहत जमानत पर रिहा किये गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाये और उसे हिरासत में भेजा जाए।
  • संदीप कुमार बाफना बनाम महाराष्ट्र राज्य (वर्ष 2014) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थितियों में जहाँ आरोपी ने जमानत के लिये पहली बार में मजिस्ट्रेट से संपर्क नहीं किया है, वह CrPC की धारा 439 के तहत जमानत के लिये सीधे सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय से संपर्क कर सकता है।

सिविल कानून

90 वर्ष के बाद विभाजन का मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं

 01-Sep-2023

पी. रामप्रसाद बनाम त्यागराज आर और अन्य

अंतिम डिक्री पारित होने के 90 वर्ष बीत जाने के बाद किसी संपत्ति विभाजन के लिये मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं है, यदि कब्ज़ा प्रारंभिक और अंतिम डिक्री के अनुसार वितरित नहीं किया गया है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पी. रामप्रसाद बनाम त्यागराज आर. एवं अन्य के मामले में आदेश दिया है कि प्रारंभिक और अंतिम डिक्री के अनुसार कब्ज़ा नहीं दिया गया है, तो अंतिम डिक्री पारित होने के 90 वर्ष बीत जाने के बाद संपत्ति विभाजन के लिये मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं है।

पृष्ठभूमि

  • वर्तमान मामला नंजारेड्डी नामक व्यक्ति से संबंधित है, जिनके तीन बेटे थे - रामारेड्डी, लिंगारेड्डी और मुनिरेड्डी।
  • इस परिवार के पास बेंगलुरु शहर में संपत्ति थी, 14 मई, 1928 को बेंगलुरु में ज़िला न्यायाधीश के न्यायालय के अंतिम निर्णय द्वारा, नंजारेड्डी परिवार के सदस्यों के बीच एक पारिवारिक विभाजन हुआ।
  • इस मामले में वादी नानजुंदा सुपुत्र श्री मुनीरेड्डी का पौत्र है।
  • इसमें पहले मुनीरेड्डी को एक निश्चित हिस्सा मिला था, लेकिन मुकदमे के लंबित रहने के दौरान उनकी मृत्यु हो गई और उनके तीन बेटे उत्तराधिकारी बन गए और मुकदमे की संपत्ति में उनके हिस्से के 1/3 हिस्से के लिये कोई हिस्सा नहीं मिला, जिसे न्यायालय ने घोषित कर दिया था।
    • इसमें कहा गया कि पीड़ित पक्ष के बीच मधुर संबंध थे और बंटवारे के बाद भी रामारेड्डी के पास कब्ज़ा जारी रहा।
    • उनका यह दृढ़ विश्वास था कि उक्त कब्ज़े में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन अब उन्होंने हिस्सा देने से इनकार कर दिया है। इसलिये, उन्होंने एक तिहाई वैध हिस्से के विभाजन की राहत के लिये मुकदमा दायर किया।
  • मामले में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें तर्क दिया गया था कि मृतक मुनीरेड्डी के कानूनी उत्तराधिकारियों के बीच विभाजन प्रभावित नहीं हुआ है और वादी मृतक मुनीरेड्डी के कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते हिस्सेदारी का हकदार है।
  • प्रतिवादी न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुआ और आपत्ति का एक बयान दाखिल किया और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1973 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि मुकदमा कानून द्वारा वर्जित है और यह भी कि CPC की धारा 47 के तहत मुकदमा वर्जित है।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपने समक्ष मामले पर विचार करने के बाद, यह राय दी कि CPC की धारा 47 लागू नहीं होती है और मुकदमा परिसीमा से भी वर्जित नहीं है।
  • उक्त आदेश से व्यथित होकर वर्तमान पुनर्विचार याचिका दायर की गयी है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने डॉ. चिरंजी लाल (D) (कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से) बनाम हरि दास (D) बाय (कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से) (वर्ष 2005) के मामले में उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय का संदर्भ दिया, जिसमें न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि डिक्री (विभाजन से संबंधित) को निष्पादित करने के लिये सीमा अवधि की शुरुआत उस तिथि से होती है, यानी यह डिक्री को उसी तिथि से लागू करने योग्य बना देती है।
  • न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि अंतिम डिक्री 14 मई 1928 को पारित की गई थी और निष्पादन याचिका दायर करने और कब्ज़ा प्राप्त करने के बजाय, 90 वर्ष बीत जाने के बाद, एक बार फिर विभाजन की राहत के लिये मुकदमा दायर किया गया है, इसलिये कुछ भी निर्धारित किया जाना बाकी नहीं है।
  • न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश ने उपरोक्त निर्णय पर भरोसा करते हुए मुकदमे को खारिज़ कर दिया और माना कि ट्रायल कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकालने में गलती की है कि मुकदमा परिसीमा से बाधित नहीं है और दृष्टिकोण ही गलत है इसलिये इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1973 (CPC)

आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत वाद पत्र खारिज़ करने का प्रावधान निहित है।

आदेश VII - वादपत्र

नियम 11 - वादपत्र की अस्वीकृति - वादपत्र निम्नलिखित मामलों में खारिज़ कर दिया जाएगा -

(a) जहाँ यह कार्रवाई के कारण का खुलासा नहीं करता है;

(b) जहाँ दावा किया गया राहत का मूल्यांकन नहीं किया गया है और न्यायालय द्वारा निर्धारित समय के भीतर मूल्यांकन को सही करने के लिये न्यायालय द्वारा आवश्यक होने पर वादी ऐसा करने में विफल रहता है;

(c) जहाँ दावा किया गया राहत उचित रूप से मूल्यवान है, लेकिन वाद अपर्याप्त रूप से मुद्रित कागज़ पर लिखा गया है और अदालत द्वारा निर्धारित समय के भीतर अपेक्षित स्टैंप पेपर की आपूर्ति करने के लिये न्यायालय द्वारा आवश्यक होने पर अभियोगी ऐसा करने में विफल रहता है इसलिये;

(d) जहाँ वादपत्र के कथन से वाद किसी विधि द्वारा वर्जित प्रतीत होता है;

(e) जहाँ इसे डुप्लिकेट में फाइल नहीं किया गया है;

(f) जहाँ वादी नियम 9 के प्रावधान का पालन करने में विफल रहता है।

बशर्ते कि मूल्यांकन में सुधार या अपेक्षित स्टाम्प-पेपर उपलब्ध करवाने के लिये न्यायालय द्वारा निर्धारित समय तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि न्यायालय, दर्ज़ किये जाने वाले कारणों से संतुष्ट न हो जाये कि वादी को असाधारण प्रकृति के किसी भी कारण से रोका गया था। मूल्यांकन को सही करने या अपेक्षित स्टांप-पेपर की आपूर्ति करने से, जैसा भी मामला हो, न्यायालय द्वारा निर्धारित समय के भीतर, और ऐसे समय को बढ़ाने से इनकार करने से वादी के साथ गंभीर अन्याय होगा।

धारा 47 - प्रश्न जिनका अवधारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय करेगा— (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होते हैं, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, न कि पृथक् वाद द्वारा, अवधारित किये जाएंगे।

(3) जहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं है वहाँ ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजनों के लिये अवधारित किया जाएगा।

स्पष्टीकरण 1 – वह वादी जिसका वाद खारिज़ हो चुका है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज़ हो चुका है इस धारा के प्रयोजनों के लिये बाद के पक्षकार हैं।

स्पष्टीकरण 2—(क) डिक्री के निष्पादन के लिये विक्रय में संपत्ति का क्रेता इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस बाद का पक्षकार समझा जाएगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है और

(ख) ऐसी सम्पत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्ज़ा देने से संबंधित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से संबंधित प्रश्न समझे जाएंगे।