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आपराधिक कानून
अंतिम बार देखा गया सिद्धांत
08-Sep-2023
आर. श्रीनिवास बनाम कर्नाटक राज्य "जब दो विचार संभव हों, तो अभियुक्त का पक्ष लेने वाले विचार का सहारा लेना चाहिये।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा है कि सिद्ध करने का बोझ आरोपी पर तभी पड़ेगा, जब अंतिम बार देखे जाने का सिद्धांत यानी लास्ट सीन थ्योरी उचित संदेह से परे स्थापित हो।
- उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी आर. श्रीनिवास बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में दी।
पृष्ठभूमि
- अपीलकर्त्ता एक अन्य व्यक्ति के साथ सह-अभियुक्त था।
- ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को बरी कर दिया।
- हालाँकि, कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई एक अपील में, अपीलकर्त्ता को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
- यह तथ्य कि साक्षियों ने घटना से दो दिन पहले अपीलकर्त्ता को मृतक के साथ देखा था, अपीलकर्त्ता को बरी करने के फैसले को पलटने के लिये अंतिम बार देखे जाने के सिद्धांत (Last seen theory) का एक हिस्सा माना गया था।
- राजस्थान राज्य के अधिवक्ता ने राजस्थान राज्य बनाम काशी राम (2006) के मामले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि "एक बार जब यह पता चल जाता है कि आरोपी वही व्यक्ति है जिसके साथ मृतक को आखिरी बार देखा गया था, तो इस बात का स्पष्टीकरण देने की ज़िम्मेदारी आरोपी पर आ जाती है कि पीड़ित कहाँ गया था या घटना कैसे घटित हुई थी।''
न्यायालय की टिप्पणी
- उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया कि वर्तमान मामले में आखिरी बार देखे जाने का कोई निश्चित सबूत नहीं है। कथित तौर पर अंतिम बार देखे जाने और शव की बरामदगी के बीच एक लंबा समय-अंतराल है।
- इसलिये, न्यायालय ने कहा कि साक्ष्य के अन्य पुष्ट हिस्सों के अभाव में, यह नहीं कहा जा सकता है कि परिस्थितियों की श्रृंखला इतनी संपूर्ण है कि केवल यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपीलकर्त्ता ने ही अपराध किया है।
अंतिम बार देखे जाने का सिद्धांत (Last Seen Theory)
- इस सिद्धांत की जड़ें ब्रिटिश सामान्य कानून सिद्धांतों में पाई जाती हैं और यह भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र का एक अभिन्न अंग रहा है।
- यह सिद्धांत इस पर आधारित है कि यदि किसी व्यक्ति को अपराध घटित होने से पहले आखिरी बार पीड़ित के साथ देखा जाता है और कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो एक मज़बूत धारणा बनती है कि वही अपराध के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- यह सिद्धांत उचित संदेह से परे दोषी साबित होने तक निर्दोषता की धारणा से उभरा है, जिसमें परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपराध स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
- इस कानूनी सिद्धांत को भारत में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के तहत दोषसिद्धि सुनिश्चित करने और न्याय सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न मामलों में लागू किया गया है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) में अंतिम बार देखे जाने के सिद्धांत की स्थिति
- धारा 7: इस प्रावधान में कहा गया है कि, ऐसे तथ्य जो प्रासंगिक तथ्यों या विवादग्रस्त तथ्यों का अवसर, कारण या प्रभाव हैं या जो उन चीजों की स्थिति का गठन करते हैं जिनके तहत वे घटित हुए, या जो उनकी घटना या लेनदेन के लिये अवसर प्रदान करते हैं, प्रासंगिक हैं।
- धारा 106: यह अभियुक्त पर साबित करने का भार डालते हैं जब कुछ तथ्य विशेष रूप से उनके ज्ञान में होते हैं।
- धारा 114: इसमें कहा गया है कि न्यायलय कुछ तथ्यों के अस्तित्व को उपधारित कर सकते हैं यदि उनसे संबंधित अन्य तथ्य प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय आचरण और सार्वजनिक और निजी व्यवसाय के सामान्य अनुक्रम में साबित हो जाते हैं।
प्रासंगिक मामले
- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सतीश (2005):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि आखिरी बार देखे जाने का सिद्धांत तब लागू होता है, जब आरोपी और मृतक को आखिरी बार जीवित देखा गया था और जब मृतक मृत पाया गया था, उस समय के बीच का अंतर इतना कम होता है कि आरोपी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति की संभावना नहीं होती है।
- कन्हैया लाल बनाम राजस्थान राज्य (2014):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि आखिरी बार एक साथ देखे जाने की परिस्थिति अपने आप में यह निष्कर्ष नहीं निकालती है कि यह आरोपी ही था जिसने अपराध किया था।
- न्यायालय ने कहा कि संबंध स्थापित करने के लिये कुछ और होना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि आखिरी बार एक साथ देखे जाने की परिस्थिति अपने आप में यह निष्कर्ष नहीं निकालती है कि यह आरोपी ही था जिसने अपराध किया था।
सांविधानिक विधि
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति
08-Sep-2023
"एक स्थायी निकाय के रूप में केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति सभी हितधारकों के हित में होगी।" उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: iee
चर्चा में क्यों?
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक तदर्थ विशेषज्ञ पैनल को बदल दिया, जो वन और पर्यावरण से संबंधित मामलों पर उच्चतम न्यायालय की सहायता करता था और इसके स्थान पर एक नई केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) गठित कर दी है।
- यह वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 की घोषणा के बाद उठाया गया एक कदम है।
पृष्ठभूमि
- मई 2023 में, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 का पालन करते हुए, केंद्र सरकार से एक समिति को स्थायी वैधानिक निकाय बनाने के लिये उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक मसौदा पेश करने के लिये कहा था।
-
- उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) को एक स्थायी वैधानिक निकाय के रूप में तैयार करने के कदम को "हितधारकों के हित में एक कदम" बताया।
- अगस्त 2023 में, उच्चतम न्यायालय ने मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत मसौदे की समीक्षा की और सरकार को केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति को एक स्थायी निकाय के रूप में गठित करने की अनुमति दी।
- केंद्र सरकार ने 5 सितंबर, 2023 को एक अधिसूचना जारी की जिसके अनुसार केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के नए सदस्यों की नियुक्ति की जाएगी और यह समिति अब पर्यावरण मंत्रालय को रिपोर्ट करेगी।
- इस अधिसूचना के जारी होने से पहले, यह समिति उच्चतम न्यायालय के समक्ष रिपोर्ट करने के लिये जवाबदेह थी।
- इस अधिसूचना में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति का कोई सुझाव या सिफारिश राज्य या केंद्र सरकार को स्वीकार्य नहीं है, तो सरकार उसे स्वीकार न करने के लिये लिखित में कारण बतायेगी और केंद्र सरकार का ऐसा निर्णय अंतिम होगा।
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति का इतिहास
- केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की स्थापना टी. एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य (1997) के ऐतिहासिक मामले के बाद किया गया था।
- 1995 में शुरू किया गया यह मामला भारत के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में से एक, नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व के संरक्षण और परिरक्षण से संबंधित था।
- जटिल पर्यावरणीय मामलों के निर्णय में सहायता करने के लिये एक विशेष निकाय की आवश्यकता को पहचानते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2002 में केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति का गठन किया।
- वर्ष 2008 में समिति का पुनर्गठन किया गया।
नई केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति का गठन
- संरचना:
- एक अध्यक्ष, सचिव और 3 विशेषज्ञ सदस्य समिति का गठन करेंगे।
- पिछली समिति में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के सदस्य भी शामिल थे जबकि यह नवगठित समिति एनजीओ सदस्यों की उपस्थिति को पूरी तरह से हटा देती है।
- योग्यता:
- अध्यक्ष के पास पर्यावरण, वानिकी या वन्यजीव क्षेत्रों या पर्याप्त प्रशासनिक अभ्यास में 25 वर्ष का अनुभव होना चाहिये।
- उनका कार्यकाल 3 साल का होगा।
- सचिव के पास पर्यावरण, वानिकी या वन्यजीव मामलों में 12 साल का अनुभव होना चाहिये और सरकार में उप महानिरीक्षक (डीआईजी) या निदेशक से कम रैंक नहीं होनी चाहिये।
- 3 सदस्यों, जिनमें से प्रत्येक पर्यावरण, वानिकी या वन्यजीव मामलों से है, के पास कम से कम 20 वर्ष का अनुभव होना चाहिये।
- अध्यक्ष के पास पर्यावरण, वानिकी या वन्यजीव क्षेत्रों या पर्याप्त प्रशासनिक अभ्यास में 25 वर्ष का अनुभव होना चाहिये।
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति का प्रमुख योगदान
- इस समिति द्वारा वर्ष 2012 में गोवा में अवैध खनन के बारे में विस्तृत रिपोर्ट दी गई थी।
- इस समिति ने 2014 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसमें उड़ीसा राज्य में खनन पट्टों में पर्यावरण मंज़ूरी के बिना या पर्यावरण मंज़ूरी की अवधि समाप्त होने के बाद भी लौह अयस्क और मैंगनीज के उत्पादन के मसले पर ओडिशा सरकार की आलोचना की गई थी।
- इसने कर्नाटक में पश्चिमी घाट क्षेत्र में गैर-वन उपयोग के लिये वन भूमि के कथित अवैध विचलन के संबंध में कुद्रेमुख वन्यजीव फाउंडेशन और अन्य द्वारा उसके समक्ष दायर मामले की सूचना दी।
- इसने कर्नाटक के कैसल रॉक से गोवा के कुलेम तक रेलवे ट्रैक को दो लेन वाला ट्रैक बनाने की याचिका को खारिज कर दिया, जिसे मई 2023 में उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 100A
08-Sep-2023
प्रोमोशर्ट एस. एम. एस. ए. बनाम आर्मसुइसे और अन्य। "जिस मामले में एकल न्यायाधीश ने मूल या अपीलीय डिक्री या आदेश से अपील सुनी थी, उसमें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100A के आधार पर दूसरी अपील दाखिल करना वर्जित है"। न्यायमूर्ति यशवन्त वर्मा और धर्मेश शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रोमोशर्ट एस. एम. एस. ए. बनाम आर्मासुइसे और अन्य के मामले में यह माना है कि जिस मामले किसी एकल न्यायाधीश ने मूल या अपीलीय डिक्री या आदेश से अपील सुनी थी, उसमें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 100A के आधार पर दूसरी अपील दायर करने पर रोक है।
पृष्ठभूमि
- इस मामले में, व्यापार चिह्न उप-पंजीकार ने व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 के प्रावधानों के तहत प्रोमोशर्ट एस. एम. एस. ए. (अपीलकर्त्ता) द्वारा ट्रेडमार्क के पंजीकरण की अनुमति दी।
- व्यापार चिह्न उप-पंजीकार के आदेशों से व्यथित होकर, स्विट्जरलैंड की एक संघीय एजेंसी, आर्मासुइसे ने दिल्ली उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष अपील दायर की।
- एकल न्यायाधीश ने आर्मासुइसे द्वारा दायर की गई अपील को स्वीकार कर लिया और व्यापार चिह्न उप-पंजीकार द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया।
- एकल न्यायाधीश के आदेश को चुनौती देते हुए, प्रोमोशर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष लैटर पेटेंट अपील (Letter patent Appeal (LPA) दायर की।
- प्रतिवादियों (आर्मसुइसे) ने तत्काल लैटर पेटेंट अपील (Letter patent Appeal (LPA) को मान्य करने पर प्रारंभिक आपत्ति जताई है और कहा है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 100A के आलोक में यह मान्य होने योग्य नहीं होगा।
- अपीलों को आगे विचार के लिये सूचीबद्ध करते समय, उच्च न्यायालय ने कहा कि लैटर पेटेंट अपील (Letter patent Appeal (LPA) संहिता की धारा 100A द्वारा वर्जित नहीं होगी और लागू होगी।
लैटर पेटेंट अपील (Letter patent Appeal (LPA)
- यह किसी याचिकाकर्त्ता द्वारा एक न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ उसी न्यायालय की एक से अधिक न्यायाधीशों वाली एक अलग पीठ के समक्ष की गई अपील है।
- उच्चतम न्यायालय जाने से पहले याचिकाकर्त्ता के पास लैटर पेटेंट अपील (Letter patent Appeal (LPA) करने का विकल्प उपलब्ध होता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा और धर्मेश शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 100A ऐसे मामलों में दूसरी अपील दायर करने पर रोक लगाती है, जिसमें एकल न्यायाधीश ने मूल या अपीलीय डिक्री या आदेश के खिलाफ अपील सुनी थी।
- न्यायालय का कहना है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 100A उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा दिये गए फैसले के खिलाफ आगे अपील दायर करने का प्रावधान करती है, जिसमें ऐसा एकल न्यायाधीश मूल या अपीलीय डिक्री या आदेश से अपील सुन रहा था।
- इस प्रकार इसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि जिस मामले में उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने मूल या अपीलीय डिक्री या आदेश से उत्पन्न अपील पर विचार किया है, उसमें कोई और अपील दायर नहीं होगी।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 100A का इरादा अपीलीय शक्तियों का प्रयोग करने वाले एकल न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ दूसरी अपील तक ही सीमित होगा, बशर्ते कि यह सिविल प्रक्रिया संहिता द्वारा परिभाषित डिक्री या आदेश से संबंधित हो।
- इस प्रकार यह सीमा केवल वहीं लागू होगी जिसमें ऐसी डिक्री या आदेश जिसके खिलाफ एकल न्यायाधीश के समक्ष अपील की गई थी, वह सिविल कोर्ट का था।
कानूनी प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100A
- धारा 100A जिसे मूल रूप से 1976 के संशोधन अधिनियम द्वारा पेश किया गया था।
- हालाँकि, 1976 के संशोधन को प्रभावी नहीं किया गया और इस धारा को वर्ष 2002 में संशोधित किया गया।
- धारा 100A में कहा गया है कि किसी उच्च न्यायालय के लिये किसी लेटर्स पेटेंट में या विधि का बल रखने वाली किसी लिखत में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी मूल या अपीली डिक्री या आदेश से अपील की सुनवाई और उसका विनिश्चय किसी उच्च न्यायालय के किसी एकल न्यायाधीश द्वारा किया जाता है वहाँ ऐसे एकल न्यायाधीश के निर्णय और डिक्री से आगे कोई अपील नहीं होगी ।
- सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, तमिलनाडु बनाम भारत संघ (2003) में, उच्चतम न्यायालय ने सीपीसी की धारा 100A की वैधता को बरकरार रखा।
व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999
- व्यापार चिह्न अधिनियम, 1999 ने ट्रेड एंड मर्चेंडाइज मार्क्स अधिनियम, 1958 को निरस्त कर दिया।
- यह अधिनियम वस्तुओं और सेवाओं के लिये ट्रेडमार्क के पंजीकरण और बेहतर सुरक्षा तथा धोखाधड़ी वाले चिह्नों के उपयोग की रोकथाम का प्रावधान करता है।