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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 (DSPE) अधिनियम की धारा 6A अप्रवर्तनीय

 12-Sep-2023

केंद्रीय जाँच ब्यूरो बनाम डॉ. आर. आर. किशोर

"एक बार जब किसी विधि को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो उसे अनुच्छेद 13(2) के मद्देनजर शुरू से ही शून्य, अकृत, अप्रवर्तनीय और गैर-स्थायी माना जायेगा।"

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, अभय एस. ओका, विक्रम नाथ और जे. के . माहेश्वरी

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, अभय एस. ओका, विक्रम नाथ और जे. के. माहेश्वरी की संवैधानिक पीठ ने कहा कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A पूरी तरह से अकृत और शून्य है।

  • उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो बनाम डॉ. आर. आर. किशोर मामले में यह टिप्पणी दी।

पृष्ठभूमि

  • यह मामला केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) के तहत केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) द्वारा की गई गिरफ्तारी से संबंधित है।
    • चूँकि यह विधि भ्रष्टाचार के मामलों में संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के स्तर के अधिकारी की गिरफ्तारी के मामले में पूर्व मंजूरी लेना अनिवार्य करता है।
    • यह दलील दी गई कि गिरफ्तारी दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A (2) के तहत की गई है
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि उक्त धारा 6A इस मामले में लागू नहीं होगी और सीबीआई को दोबारा जाँच के लिये केंद्र सरकार की मंजूरी लेने का निर्देश दिया गया।
  • सुब्रमण्यम स्वामी बनाम निदेशक, सीबीआई और अन्य (2014) के मामले में धारा 6A को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।
  • सुब्रमण्यम स्वामी मामले में दिये गए फैसले और उसके पूर्वव्यापी प्रभावों पर निर्णय लेने के लिये मामले को एक संवैधानिक पीठ के पास भेजा गया था।

न्यायालय की टिप्पणी-

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक बार जब किसी विधि को संविधान के भाग III का उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के मद्देनजर शुरू से ही शून्य, अकृत, अप्रवर्तनीय और गैर-स्थायी माना जायेगा।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में संविधान पीठ द्वारा की गई घोषणा पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होगी
  • इसलिये, दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A को इसके सम्मिलन की तिथि अर्थात् 11 सितंबर 2003 से लागू नहीं माना जाता है।

उत्तर-संवैधानिक विधियों की स्थिति

  • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 13 संविधान के भाग III के साथ पूर्व और बाद के संवैधानिक विधि की स्थिरता से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 13 (2) में कहा गया है कि राज्य ऐसा कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता या कम करता हो और इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया कोई भी विधि उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा।
  • अनुच्छेद का खंड 2 उन विधियों को अमान्य करता है जो संविधान के प्रारंभ के बाद बनाए गए थे और संविधान के भाग III के लिये अपमानजनक हैं।
    • इन विधिों को आमतौर पर उत्तर संवैधानिक विधि के रूप में जाना जाता है।
  • अनुच्छेद 13(2) मौलिक अधिकारों के लिये एक मज़बूत सुरक्षा के रूप में कार्य करता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि राज्य, अपनी विधायी क्षमता में, संविधान में निहित न्याय, समानता और स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता है
  • अनुच्छेद 13(2) केवल "राज्य" द्वारा बनाए गए विधिों पर लागू होता है जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय या अन्य प्राधिकरण शामिल हैं।
    • इसका विस्तार निजी व्यक्तियों या संस्थाओं के कार्यों तक नहीं होता जब तक कि वे राज्य के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य नहीं कर रहे हों।
  • संविधान के 44 वें संशोधन ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 13(2) के तहत 'विधि' में अनुच्छेद 368 के तहत संवैधानिक संशोधन शामिल हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में अपने फैसलों के माध्यम से स्पष्ट किया कि संविधान के बाद के विधि जिन्हें किसी न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित कर दिया गया है, वे इसके प्रवर्तन से अमान्य होंगे।

ऐतिहासिक मामले

  • महेंद्र लाल जैनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (वर्ष 1968):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान के बाद कोई भी विधि भाग III के प्रावधानों का उल्लंघन करके नहीं बनाया जा सकता है और इसलिये उस सीमा तक विधि, हालांकि बनाया गया है, अपनी स्थापना से ही अमान्य है
    • न्यायालय ने माना कि "संविधान के बाद के सभी विधि जो अनुच्छेद 13 (2) के पहले भाग में निहित अनिवार्य निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हैं, उतने ही शून्य हैं जितने कि विधायी क्षमता के बिना पारित विधि है।"
  • गुजरात राज्य और अन्य बनाम श्री अंबिका मिल्स लिमिटेड (वर्ष 1974):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "जब अनुच्छेद 13(2) 'शून्य' अभिव्यक्ति का उपयोग करता है, तो इसका अर्थ केवल उन व्यक्तियों के खिलाफ शून्य हो सकता है जिनके मौलिक अधिकार विधि द्वारा छीन लिये गए हैं या संक्षिप्त किये गए हैं।"
  • मणिपुर राज्य एवं अन्य बनाम सुरजाकुमार ओकराम और अन्य (वर्ष 2022):
    • उच्तम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये:
      • एक सक्षम विधायिका द्वारा बनाया गया विधि तब तक वैध होता है जब तक कि उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित नहीं कर दिया जाता।
      • किसी विधि को न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने के बाद, यह सभी उद्देश्यों के लिये अमान्य है
      • विधि की घोषणा में, पूर्व निर्णयों या असंवैधानिक ठहराए गए विधियों के तहत पिछले लेनदेन को बचाने के लिये इस न्यायालय द्वारा पूर्वव्यापी ओवररूलिंग के सिद्धांत को लागू किया जा सकता है।
      • किसी विधि को असंवैधानिक घोषित किये जाने के बावजूद, संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करके न्यायालय द्वारा राहत दी जा सकती है।

पूर्वव्यापी अधिनिर्णय का सिद्धांत

  • इस सिद्धांत की उत्पत्ति वर्ष 1900 के प्रारंभ में अमेरिकी न्यायशास्त्र से हुई है।
  • यह न्यायालयों को पूर्वव्यापी प्रभाव न देकर भविष्य के निर्णयों पर उलटफेर के प्रतिकूल प्रभावों को सीमित करते हुए पिछले निर्णयों को पलटने की अनुमति देता है।
    • इसका अर्थ होगा कि फैसले पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होंगे।
  • भारतीय न्यायशास्त्र ने उच्चतम न्यायालय द्वारा आई. सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1967) में दिये गए फैसले के तहत इस सिद्धांत को अपनाया।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उक्त सिद्धांत केवल उच्चतम न्यायालय द्वारा ही लागू किया जा सकता है।

सिविल कानून

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 47

 12-Sep-2023

इंडिया ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अन्य बनाम वाणिज्यिक न्यायालय और अन्य

"मध्यस्थता पंचाट के निष्पादन की कार्यवाही में CPC की धारा 47 के तहत आपत्ति नहीं उठाई जा सकती है"।

न्यायमूर्ति नीरज तिवारी

स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंडिया ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड और अन्य बनाम वाणिज्यिक न्यायालय और अन्य के मामले में माना कि मध्यस्थ पंचाट के निष्पादन की कार्यवाही में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 47 के तहत आपत्ति नहीं उठाई जा सकती है।

पृष्ठभूमि

  • माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 के तहत मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये वर्ष 1989 में एक मुकदमा दायर किया गया था जिसमें 1991 में मध्यस्थ की नियुक्ति की गई थी।
  • मुकदमेबाजी की कार्यवाही लंबित होने के कारण मध्यस्थता वर्ष 2001 में ही शुरू हो सकी
  • प्रतिवादी ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (ए एंड सी अधिनियम) के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही जारी रखने का आदेश पारित किया।
  • याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के पक्ष में आंशिक रूप से निर्णय पारित किया गया था
  • प्रतिवादी ने पंचाट में संशोधन के लिये माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (ए एंड सी अधिनियम) की धारा 33 के तहत एक आवेदन दायर किया था।
  • मुकदमेबाजी के कई दौर के बाद, इस पंचाट को अंतिम रूप दिया गया।
  • प्रतिवादियों ने एक निष्पादन आवेदन दायर किया था जिसमें याचिकाकर्ता ने सीपीसी की धारा 47 के तहत आपत्ति दर्ज की थी और उसे 8 अगस्त 2022 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया गया था।
  • 8 अगस्त, 2022 के आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी
  • न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति नीरज तिवारी की पीठ ने मध्यस्थ पंचाट के निष्पादन के चरण में सीपीसी की धारा 47 के तहत आपत्ति की अस्वीकृति के खिलाफ एक याचिका खारिज कर दी।
  • न्यायालय ने दोहराया कि मध्यस्थता पंचाट सीपीसी की धारा 2(2) के तहत एक डिक्री नहीं है, इसलिये, निष्पादन कार्यवाही में सीपीसी की धारा 47 के तहत दायर आपत्ति सुनवाई योग्य नहीं है।
  • पद्मजीत सिंह पथेजा बनाम आईसीडीएस लिमिटेड (2006) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत को दोहराया।
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक मध्यस्थ पंचाट को ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (ए एंड सी अधिनियम) की धारा 36 के साथ-साथ सीपीसी के प्रावधानों को लागू करके उसी तरह निष्पादित किया जा सकता है जैसे कि यह न्यायालय का आदेश हो।
    • धारा 36 में कहा गया है कि जहाँ धारा 34 के तहत मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये आवेदन करने का समय समाप्त हो गया है, या ऐसा आवेदन किये जाने के बाद इसे अस्वीकार कर दिया गया है, तो दिया गया पंचाट सीपीसी के तहत उसी तरह लागू किया जायेगा जैसे कि न्यायालय का एक आदेश था।

विधिी प्रावधान

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47

  • यह धारा उन प्रश्नों से संबंधित है जिनका निर्धारण डिक्री निष्पादित करने वाले न्यायालय द्वारा किया जाना है। यह बताती है कि –

प्रश्न जिनका अवधारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय करेगा- (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होते है, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, न कि पृथक वाद द्वारा, अवधारित किये जाएंगे।

(3) जहा यह प्रश्न पैदा होता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं है वहाँ ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजनों के लिये अवधारित किया जायेगा।

स्पष्टीकरण 1- वह वादी जिसका बाद खारिज हो चुका हो और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज हो चुका है इस धारा के प्रयोजनो के लिये वाद के पक्षकार है।

स्पष्टीकरण 2 –

(क) डिक्री के निष्पादन के लिये विक्रय में सम्पति का क्रेता इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस वाद का पक्षकार समझा जायेगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है, और

(ख) ऐसी सम्पति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधियों को कब्जा देने से संबंधित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से सबंधित प्रश्न समझे जाएंगे।

  • भारत पंप्स एंड कंप्रेसर्स बनाम चोपड़ा फैब्रिकेटर्स (2022) के मामले में ,उच्चतम न्यायालय ने माना कि मध्यस्थता पंचाट सीपीसी में डिक्री की परिभाषा और अर्थ के तहत शामिल नहीं है और इसलिये ऐसे पंचाट के निष्पादन में कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है।

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996

  • इस अधिनियम ने भारत में मध्यस्थता के संबंध में पिछले विधिों, अर्थात् माध्यस्थम् अधिनियम, 1940, माध्यस्थम् अधिनियम, 1937 और विदेशी पंचाट अधिनियम, 1961 में सुधार किया।
  • यह अधिनियम अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर UNCITRAL (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि पर संयुक्त राष्ट्र आयोग) आदर्श विधि और सुलह पर UNCITRAL (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि पर संयुक्त राष्ट्र आयोग) नियमों से भी अधिकार प्राप्त करता है।
  • घरेलू मध्यस्थता, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मध्यस्थता और विदेशी मध्यस्थता पंचाटों के प्रवर्तन से जुड़े विधिों को एकजुट और प्रबंधित करता है।
  • यह सुलह से संबंधित विधि को भी परिभाषित करता है।
  • यह भारत में घरेलू मध्यस्थता को नियंत्रित करता है और इसे 2015, 2019 और 2021 में संशोधित किया गया था।
  • इस अधिनियम की धारा 33 पंचाट के सुधार और व्याख्या से संबंधित है। यह कहती है कि -

पंचाट का सुधार और निर्वचन, अतिरिक्त पंचाट-(1) जब तक कि पक्षकार अन्य समयाविधि के लिये सहमत न हुए हों, माध्यस्थम् पंचाट की प्राप्ति से तीस दिन के भीतर,-

(क) कोई पक्षकार, दूसरे पक्षकार को सूचना देकर, माध्यस्थम् पंचाट में हुई किसी संगणना की गलती, किसी लिपिकीय या टंकण संबंधी या उसी प्रकृति की किसी अन्य गलती का सुधार करने के लिये माध्यस्थम् अधिकरण से अनुरोध कर सकेगा, और

(ख) यदि पक्षकार इसके लिये सहमत हों तो कोई पक्षकार, दूसरे पक्षकार को सूचना देकर, पंचाट की किसी विनिर्दिष्ट बात या भाग का निर्वचन करने के लिये, माध्यस्थम् अधिकरण से अनुरोध कर सकेगा।

(2) यदि माध्यस्थम् अधिकरण, उपधारा (1) के अधीन किये गए अनुरोध को न्यायसंगत समझता है तो वह, अनुरोध की प्राप्ति से तीस दिन के भीतर सुधार करेगा या निर्वचन करेगा और ऐसा निर्वचन माध्यस्थम् पंचाट का भाग होगा।

(3) माध्यस्थम् अधिकरण, स्वप्रेरणा पर, उपधारा (1) के खंड (क) में निर्दिष्ट प्रकार की किसी गलती को, माध्यस्थम् पंचाट की तारीख से तीस दिन के भीतर सुधार सकेगा।

(4) जब तक कि पक्षकारों ने अन्यथा करार न किया हो, एक पक्षकार, दूसरे पक्षकार को सूचना देकर, माध्यस्थम् पंचाट की प्राप्ति से तीस दिन के भीतर माध्यस्थम् कार्यवाहियों में प्रस्तुत किये गए उन दावों की बाबत जिन पर माध्यस्थम् पंचाट में लोप हो गया है, एक अतिरिक्त माध्यस्थम् पंचाट देने के लिये माध्यस्थम् अधिकरण से अनुरोध कर सकेगा।

(5) यदि माध्यस्थम् अधिकरण, उपधारा (4) के अधीन किये गए किसी अनुरोध को न्यायसंगत समझता है, तो वह ऐसे अनुरोध की प्राप्ति से साठ दिन के भीतर, अतिरिक्त माध्यस्थम् पंचाट देगा।

(6) माध्यस्थम् अधिकरण, यदि आवश्यक हो तो, उस समयावधि को बढ़ा सकेगा जिसके भीतर वह उपधारा (2) या उपधारा (5) के अधीन सुधार करेगा, निर्वचन करेगा या अतिरिक्त पंचाट देगा।

(7) धारा 31, इस धारा के अधीन किये गए माध्यस्थम् पंचाट के सुधार या निर्वचन या अतिरिक्त माध्यस्थम् पंचाट पर, लागू होगी।


सिविल कानून

विनिर्दिष्ट पालन

 12-Sep-2023

सांघी ब्रदर्स (इंदौर) प्रा. लिमिटेड बनाम कमलेंद्र सिंह

"किसी तीसरे पक्ष को संपत्ति की बिक्री विनिर्दिष्ट पालन डिक्री देने और लागू करने को असमान बनाती है।"

न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सांघी ब्रदर्स (इंदौर) प्राइवेट लि. लिमिटेड बनाम कमलेंद्र सिंह ने माना कि किसी तीसरे पक्ष को संपत्ति की बिक्री विनिर्दिष्ट पालन डिक्री देने और लागू करने को असमान बनाती है।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2004 में, पक्षकारों के बीच निष्पादित समझौता ज्ञापन (MoU) के अनुसार मुकदमे की संपत्ति के हस्तांतरण / बिक्री के लिये वादी द्वारा प्रतिवादी के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) के लिये एक मुकदमा दायर किया गया था।
  • इस समझौता ज्ञापन (MoU) के तहत, प्रतिवादी मुकदमे के अधीन संपत्ति में अपने सभी हितों को सौंपने के लिये सहमत हो गया था, जिसके लिये वह वसीयत के प्रमुख लाभार्थी के रूप में हकदार था।
  • इस मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, उक्त वसीयत, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन थी।
  • बाद में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में वसीयत की वैधता को बरकरार रखा।
  • इसलिये, प्रतिवादी ने, मुकदमे वाली संपत्ति का मालिक होने के नाते, संपत्ति को एक निश्चित प्रतिफल पर किसी तीसरे पक्ष को बेच दिया था।
  • प्रतिवादी के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री के लिये वादी की ओर से दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक मुकदमा दायर किया गया था।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने मुकदमे की संपत्ति के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) की डिक्री देने से इनकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह की पीठ ने इस बात पर ध्यान देने के बाद कि मुकदमे के लंबित रहने के दौरान संपत्ति किसी तीसरे पक्ष को बेची गई थी, एक मुकदमे की संपत्ति के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) की डिक्री देने से इनकार कर दिया क्योंकि उक्त परिस्थिति ने विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) डिक्री को देने और लागू करने को असमान बना दिया था।
  • न्यायालय ने दोहराया कि यह एक स्थापित विधि है कि विनिर्दिष्ट पालन की अनुमति दिये जाने की स्थिति में तीसरे पक्ष को होने वाली विभिन्न कठिनाइयों के कारण न्यायालयों द्वारा विनिर्दिष्ट पालन की अनुमति नहीं दी जाती है।
  • न्यायालय ने कहा कि विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) देने के विवेक का प्रयोग करते समय, न्यायालय को इसमें शामिल पक्षों के लिये न्याय और समानता के हितों को संतुलित करना होगा और ऐसे विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) देने के संभावित परिणामों पर गौर करना होगा।
  • न्यायालय ने माना कि चूँकि न्यायालय ने विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) की राहत नहीं दी थी, इसलिये, विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 20 और 21 के संदर्भ में, वादी विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) के बदले मुआवजे के अनुदान के हकदार थे।

विधि प्रावधान

विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance)

  • विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) पक्षकारों के मध्य संविदात्मक प्रतिबद्धताओं को बनाए रखने के लिये न्यायालय द्वारा दिये गए एक वादयोग्य साधन का गठन करता है।
  • क्षति के दावे के विपरीत, जिसमें अनुबंध संबंधी शर्तों को पूरा नहीं करने के लिये मुआवजा शामिल है, विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) एक ऐसे उपाय के रूप में कार्य करता है जो पक्षकारों के बीच सहमत शर्तों को लागू करता है।
  • यह विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963 (SRA)) द्वारा शासित है
  • विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963 (SRA)) की धारा 10 अनुबंधों के संबंध में विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) से संबंधित है, यह कहती है कि-
    • किसी अनुबंध का विनिर्दिष्ट पालन न्यायालय द्वारा धारा 11, धारा 14 और धारा 16 की उप-धारा (2) में निहित प्रावधानों के अधीन लागू किया जायेगा।
  • कट्टा सुजाता रेड्डी बनाम सिद्दमसेट्टी इंफ्रा प्रोजेक्ट्स (पी) लिमिटेड (2023) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन (Special Performance) के लिये अऩुतोष केवल तभी दिया जा सकता है, जब ऐसे अनुतोष का दावा करने वाला पक्ष अनुबंध के तहत अपने दायित्व के बारे में अपनी तत्परता और प्रदर्शन करने की इच्छा दिखाता है।

SRA धारा 20

विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करने के बारे में विवेकाधिकार (1) विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करने की अधिकारिता वैवेकिक है और न्यायालय ऐसा अनुतोष अनुदत्त करने के लिये आवद्ध नहीं है केवल इस कारण से कि ऐसा करना विधिपूर्ण है किन्तु न्यायालय का यह विवेकाधिकार मनमाना नहीं है वरन् स्वस्थ और युक्तियुक्त, न्यायिक सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित तथा अपील न्यायालय द्वारा शुद्धिशक्य है।

(2) निम्नलिखित दशाएँ ऐसी हैं जिनमें न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री न करने के अपने विवेकाधिकार का उचिततया प्रयोग कर सकेगा

(क) जहाँ कि संविदा के निबन्धन या संविदा करने के समय पक्षकारों का आचरण या अन्य परिस्थितियां, जिनके अधीन संविदा की गई थी. ऐसी हो कि संविदा यद्यपि शून्यकरणीय नहीं है, तथापि वादी को प्रतिवादी के ऊपर अजु फायदा देती है, अथवा

(ख) जहाँ कि संविदा का पालन प्रतिवादी को कुछ ऐसे कष्ट में डाल देगा जिसकी वह पहले से कल्पना नहीं कर सका था, और उसका अपालन वादी को वैसे किसी कष्ट में नहीं डालेगा।

(ग) जहाँ कि प्रतिवादी ने संविदा ऐसी परिस्थितियों के अधीन की हो जिनसे यद्यपि संविदा शून्यकरणीय तो नहीं हो जाती किन्तु उसके विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन असामयिक हो जाता है।

स्पष्टीकरण 1 - प्रतिफल की अपर्याप्तता मात्र या वह तथ्य मात्र कि संविदा प्रतिवादी के लिये दुर्भर या अपनी प्रकृति से ही अदूरदर्शी है, खण्ड (क) के अर्थ के भीतर अऋजु फायदा अथवा खण्ड (ख) के अर्थ के भीतर कष्ट न समझा जाएगा।

स्पष्टीकरण 2 – यह प्रश्न कि संविदा का पालन खण्ड (ख) के अर्थ के भीतर प्रतिवादी को कष्ट में डाल देगा या नहीं, संविदा के समय विद्यमान परिस्थितियों के प्रति निर्देशन से अवधारित किया जाएगा सिवाय उन दशाओं के जिनमें कि कष्ट संविदा के पश्चात् वादी द्वारा किए गए ऐसे किसी कार्य के परिणामस्वरूप हुआ हो।

(3) किसी ऐसी दशा में जहाँ कि वादी ने विनिर्दिष्टतः पालनीय संविदा के परिणामस्वरूप सारवान् कार्य किये हैं या हानियाँ उठाई हैं वहाँ न्यायालय विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री करने के विवेकाधिकार का उचिततया प्रयोग कर सकेगा।

(4) न्यायालय किसी पक्षकार को संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराने से इंकार केवल इस आधार पर नहीं करेगा कि संविदा दूसरे पक्षकार की प्रेरणा पर प्रवर्तनीय नहीं है।

SRA की धारा 21

यह धारा कतिपय मामलों में प्रतिकर दिलाने की शक्ति से संबंधित है। यह धारा कहती है कि-

(1) किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में वादी, ऐसे पालन के या तो अतिरिक्त या स्थान पर उसके भंग के लिये प्रतिकर का भी दावा कर सकेगा।

(2) यदि किसी ऐसे वाद में, न्यायालय यह विनिश्चय करे कि विनिर्दिष्ट पालन तो अनुदत्त नहीं किया जाना चाहिये किन्तु पक्षकार के बीच ऐसी संविदा है जो प्रतिवादी द्वारा भंग की गई है और वादी उस भंग के लिये प्रतिकर पाने का हकदार है, तो वह उसे तदनुसार वैसा प्रतिकर दिलाएगा।

(3) यदि किसी ऐसे वाद में, न्यायालय यह विनिश्चय करे कि विनिर्दिष्ट पालन तो अनुदत्त किया जाना चाहिये किन्तु उस मामले में न्याय की तुष्टि के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है और संविदा के भंग के लिये वादी को कुछ प्रतिकर भी दिया जाना चाहिये तो वह तद्नुसार उसको ऐसा प्रतिकर दिलाएगा।

(4) इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत किसी प्रतिकर की रकम के अवधारण में न्यायालय, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 73 में विनिर्दिष्ट सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित होगा।

(5) इस धारा के अधीन कोई प्रतिकर नहीं दिलाया जायेगा जब तब कि वादी ने अपने वादपत्र में ऐसे प्रतिकर का दावा न किया हो:

परन्तु जहाँ वादपत्र में वादी ने किसी ऐसे प्रतिकर का दावा न किया हो वहाँ न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में वादी को वादपत्र में ऐसे प्रतिकर का दावा अन्तर्गत करने के लिये संशोधित करने की अनुज्ञा ऐसे निबन्धनों पर देगा जैसे न्यायसंगत हों।