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आपराधिक कानून
जमानत को किसी विशिष्ट समय अवधि तक सीमित नहीं किया जा सकता
14-Sep-2023
रंजीत दिग्गल बनाम ओडिशा राज्य जब उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि कोई व्यक्ति जमानत का हकदार है, तो जमानत को किसी विशिष्ट समय अवधि तक सीमित करने का कोई कारण नहीं है। उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय (SC) ने हाल ही में उड़ीसा उच्च न्यायालय के एक आदेश को अस्वीकार कर दिया है जिसने रंजीत दिग्गल बनाम ओडिशा राज्य के मामले में एक विशेष समय अवधि के लिये जमानत पर प्रतिबंध लगाया था।
पृष्ठभूमि
- यह मामला स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 धारा 20(b)(ii)(c)/29 (Sections 20(b)(ii)(C)/29 of the Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985 (NDPS Act) के तहत दंडनीय अपराध से संबंधित है। यह विशेष न्यायाधीश सह अपर सत्र न्यायाधीश, बल्लीगुडा की न्यायालय में लंबित था।
- याचिकाकर्ता ने विशेष न्यायाधीश की न्यायालय में जमानत के लिये आवेदन दिया जिसे खारिज कर दिया गया।
- जमानत देने के लिये दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की धारा 439 के तहत उड़ीसा उच्च न्यायालय (HC) में एक आवेदन दायर किया गया था।
- उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को रिहाई की तारीख से तीन महीने की अवधि के लिये अंतरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश देते हुए अंतरिम जमानत आवेदन की अनुमति दी और याचिकाकर्ता को तीन महीने की अवधि समाप्त होने पर तुरंत ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करना होगा। किसी भी नियम और शर्तों का उल्लंघन करने पर अंतरिम जमानत रद्द कर दी जाएगी।
- जमानत की समय सीमा से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति अभय एस. ओका. और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने अपील स्वीकार कर ली और उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि जमानत आदेश ट्रायल कोर्ट द्वारा मामले का निपटारा होने तक प्रभावी रहेगा।
CrPC की धारा 439
- यह प्रावधान उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय को जमानत देने की विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है।
- यदि आरोपी हिरासत में है तो इस प्रावधान के तहत जमानत दी जा सकती है।
- 'हिरासत में' का मतलब न केवल तब होता है जब पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है या उसे रिमांड या अन्य प्रकार की हिरासत के लिये मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती है, बल्कि तब भी होती है जब वह न्यायालय के सामने आत्मसमर्पण करता है और उसके आदेशों का पालन करता है।
CrPC के तहत जमानत के प्रकार
- नियमित जमानत: न्यायालय जमानत राशि के रूप में राशि का भुगतान करने के बाद गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस हिरासत से रिहा करने का आदेश देती है। एक आरोपी CrPC की धारा 437 और 439 के तहत नियमित जमानत के लिये आवेदन कर सकता है।
- अंतरिम जमानत: यह न्यायालय द्वारा आरोपी को अस्थायी और अल्पकालिक जमानत प्रदान करने का एक सीधा आदेश है जब तक कि उसकी नियमित या अग्रिम जमानत याचिका न्यायालय के समक्ष लंबित न हो।
- अग्रिम जमानत : गैर-जमानती अपराध के लिये गिरफ्तारी की आशंका वाला व्यक्ति CrPC की धारा 438 के तहत उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिये आवेदन कर सकता है।
NDPS(नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्स्टांसेस) एक्ट
- NDPS अधिनियम, या स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, नशीले पदार्थों और मन:प्रभावी पदार्थों की अवैध तस्करी और दुरुपयोग से निपटने के लिये बनाया गया एक कानून है।
- यह नवंबर 1985 को लागू हुआ।
- यह नशीले पदार्थों और मन:प्रभावी पदार्थों से संबंधित विभिन्न अपराधों के लिये दंड निर्धारित करता है, जिसका उद्देश्य उनके दुरुपयोग को रोकना और सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
धारा 20 (b)(ii)(c) -
धारा 20 - भांग के पौधे और भांग के संबंध में उल्लंघन के लिये सजा - जो कोई, इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में, -
(ख) कैनेबिस का उत्पादन, विनिर्माण, कब्जा, विक्रय, क्रय, परिवहन अंतर्राज्यीय आयात, अंतर्राज्यीय निर्यात या उपयोग करेगा;
(i) जहाँ उल्लंघन खंड (क) के संबंध में है वहांँ, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी, जो एक लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा; और
(ii) जहाँ उल्लंघन खंड (ख) के संबंध में है, -
(c) और जहाँ वाणिज्यिक मात्रा से संबंधित है, वहां, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु 20 वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किंतु जो दो लाख रुपए तक का हो सकेगा,
धारा 29 - दुष्प्रेरण और आपराधिक षड्यंत्र के लिये दंड-(1) जो कोई इस अध्याय के अधीन दंडनीय किसी अपराध का दुष्प्रेरण करेगा या ऐसा कोई अपराध करने के आपराधिक षड्यंत्र का पक्षकार होगा, वह चाहे ऐसा अपराध ऐसे दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप या ऐसे आपराधिक षड्यंत्र के अनुसरण में किया जाता है या नहीं किया जाता है और भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 116 में किसी बात के होते हुए भी, उस अपराध के लिये उपबन्धित दंड दिया जाएगा।
(2) वह व्यक्ति इस धारा के अर्थ में किसी अपराध का दुष्प्रेरण करता है या ऐसा कोई अपराध करने के आपराधिक षड्यंत्र का पक्षकार होता है जो भारत में, भारत से बाहर और परे किसी स्थान में ऐसा कोई कार्य किये जाने का भारत में दुष्प्रेरण करता है या ऐसे आपराधिक षड्यंत्र का पक्षकार होता है, जो-
(क) यदि भारत के भीतर किया जाता तो, अपराध गठित करता, या
(ख) ऐसे स्थान की विधियों के अधीन स्वापक औषधियों अथवा मनः प्रभावी पदार्थों से सम्बन्धित ऐसा अपराध है, जिसमें उसे ऐसा अपराध गठित करने के लिये अपेक्षित वैसे ही या उसके समरूप सभी विधिक शर्तें हैं जैसी उसे इस अध्याय के अधीन दंडनीय अपराध गठित करने के लिये अपेक्षित विधिक शर्तें होती यदि ऐसा अपराध भारत में किया जाता है।
सांविधानिक विधि
मीडिया ट्रायल
14-Sep-2023
पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य "यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पुलिस के खुलासे का मीडिया ट्रायल न हो ताकि आरोपी के अपराध का पूर्व-निर्धारण हो सके।" भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि पुलिस के खुलासे का मीडिया ट्रायल नहीं होता है, ताकि आरोपी के अपराध का पूर्व-निर्धारण किया जा सके।
- उच्चतम न्यायालय ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में यह टिप्पणी दी।
पृष्ठभूमि
- उच्चतम न्यायालय इस सवाल पर विचार कर रहा था कि मुकदमे के लंबित रहने के दौरान किसी विशेष मामले की मीडिया ब्रीफिंग करते समय पुलिस को किस तरह के व्यवहार का विकल्प चुनना चाहिये, मुठभेड़ों से संबंधित मामले के एक हिस्से पर 2014 में पहले ही फैसला सुनाया जा चुका है।
- सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रिपोर्टिंग में वृद्धि का निर्धारण करने के बाद इस प्रश्न को प्रमुखता दी।
- न्यायालय द्वारा एक न्यायालय मित्र (एमिकस क्यूरी) नियुक्त किया गया, जिसने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक प्रश्नावली भेजी थी और उनमें से कुछ से प्रतिक्रियाएं प्राप्त कीं।
- उन्होंने कहा, ''हम मीडिया को रिपोर्टिंग करने से नहीं रोक सकते, लेकिन सूत्रों पर लगाम लगाई जा सकती है. क्योंकि स्रोत राज्य है”।
- उच्चतम न्यायालय किसी अपराध की मीडिया रिपोर्टिंग के संबंध में गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा दिशानिर्देश या मैनुअल तैयार करने की आवश्यकता से सहमत हुआ और एक व्यापक मैनुअल तैयार करने के लिये गृह मंत्रालय को तीन महीने का समय दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की सिफारिशों पर भी विचार किया जाएगा।
न्यायालय की टिप्पणी
उच्चतम न्यायालय ने मीडिया ट्रायल पर अपने पिछले फैसलों के कार्यान्वयन की कमी से निपटने के दौरान निम्नलिखित टिप्पणियाँ दीं:
- किसी आरोपी को फंसाने वाली मीडिया रिपोर्ट अनुचित है। पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से जनता में यह संदेह भी पैदा होता है कि उस व्यक्ति ने कोई अपराध किया है।
- मीडिया रिपोर्टें अनुच्छेद 21 के तहत पीड़ितों की निजता का भी उल्लंघन कर सकती हैं।
- संघ सरकार द्वारा दिशा निर्देश लगभग एक दशक पहले 1 अप्रैल, 2010 को तैयार किये गये थे। तब से, न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी अपराध की रिपोर्टिंग में वृद्धि के साथ, संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण हो गया है।
मीडिया ट्रायल
- मीडिया ट्रायल से तात्पर्य उस मीडिया रिपोर्टिंग से है जो मुकदमे के लंबित रहने के दौरान या अंतिम फैसले के बाद किसी व्यक्ति के अपराध या निर्दोषता के बारे में चर्चा करती है या उसके इर्द-गिर्द घूमती है।
- भारत में मीडिया ट्रायल एक शक्तिशाली हथियार के रूप में उभरा है जो न्याय के उद्देश्य को पूरा भी कर सकता है और उसे कमज़ोर भी कर सकता है।
- मीडिया ट्रायल में किसी भी स्थिर संवैधानिक पहचान का अभाव है, हालांकि इसकी व्याख्या अनुच्छेद 19 से की जा सकती है जो मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और उन्नत उपकरणों के प्रवेश के बाद, किसी दर्शक के लिये तथ्य और कल्पना के बीच अंतर करना काफी कठिन हो जाता है।
- पेड न्यूज और फर्जी चर्चा में वृद्धि मीडिया की सत्यता को कम कर रही है जिसे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है।
- पेड न्यूज़, फर्जी चर्चा के साथ-साथ कट्टर और दूसरे पर हावी रहने वाली रिपोर्टिंग के जाल में, मीडिया घरानों, चैनलों, सोशल मीडिया पेजों आदि के लिये अंतिम फैसले की परवाह किये बिना अपने फायदे के अनुसार मामले को आकार देना बहुत सुविधाजनक है।
ऐतिहासिक मामले
- सिद्धार्थ वशिष्ठ @ मनु शर्मा बनाम राज्य राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (2010):
- भारत में मीडिया ट्रायल के सबसे शुरुआती और सबसे प्रसिद्ध उदाहरणों में से एक जेसिका लाल हत्याकांड था।
- आरोपी मनु शर्मा एक हाई-प्रोफाइल व्यक्ति था और हत्या दिल्ली के एक प्रमुख नाइट क्लब में हुई थी।
- इस मामले की मीडिया की निरंतर कवरेज़ ने, सार्वजनिक आक्रोश के साथ मिलकर, आरोपियों को न्याय के कटघरे में लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- हालाँकि, इससे मुकदमे की निष्पक्षता पर भी चिंताएँ बढ़ गईं, क्योंकि मीडिया की जाँच से न्यायपालिका और गवाहों पर भारी दबाव पड़ा।
- आख़िरकार उच्चतम न्यायालय के फैसले से साल 2010 में मनु शर्मा को दोषी करार दिया गया, हालांकि उनकी समय से पहले जेल से रिहाई को मंजूरी 2020 में मिली।
- डॉ. श्रीमती नूपुर तलवार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017):
- आरुषि तलवार और हेमराज दोहरे हत्याकांड, जिसे नोएडा दोहरा हत्याकांड भी कहा जाता है, ने देश भर का ध्यान खींचा।
- मीडिया आउटलेट्स ने बड़े पैमाने पर मामले को कवर किया, और उनकी रिपोर्टिंग कभी-कभी सनसनीखेज पर आधारित थी।
- आरोपी, आरुषि के माता-पिता डॉ. राजेश तलवार और डॉ. नूपुर तलवार को लंबी सुनवाई के बाद बरी कर दिया गया।
- मीडिया ट्रायल के कारण जनमत की न्यायालय में दोषसिद्धि हुई, जो वास्तविक न्यायिक परिणाम से बिल्कुल अलग थी।
- इस मामले ने मीडिया ट्रायल के नुकसान और सार्वजनिक धारणा और राय को प्रभावित करने की इसकी क्षमता को प्रदर्शित किया।
- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार बनाम शशि थरूर (2021):
- वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की रहस्यमय मौत ने मीडिया में काफी दिलचस्पी पैदा की।
- इस मामले में मीडिया की जांच से गवाहों से छेड़छाड़ और जाँच की निष्पक्षता पर संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएँ पैदा हुईं।
- न्यायालय ने 2021 में आरोपियों को बरी कर दिया, हालांकि, दिल्ली पुलिस ने 2022 में फैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- रिया चक्रवर्ती बनाम बिहार राज्य (2020):
- बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को मीडिया ने खूब कवर किया।
- मीडिया घरानों द्वारा लगातार कवरेज में अक्सर बिना किसी ठोस सबूत के आरोपी को हत्या के प्राथमिक संदिग्ध के रूप में चित्रित किया गया।
सिविल कानून
किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये परिसीमा अवधि
14-Sep-2023
ए. वल्लियम्मई बनाम के. पी. मुरली जब किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये समय निर्धारित नहीं है, तो विनिर्दिष्ट पालन वाद के लिये सीमा अवधि उस तारीख से चलेगी जिस दिन वादी को प्रतिवादी की ओर से इनकार की सूचना मिली थी। उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय (SC) ने निर्णय दिया कि जब किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये समय तय नहीं किया जाता है, तो एक विनिर्दिष्ट पालन मुकदमे के लिये सीमा अवधि उस तारीख से प्रारंभ होगी, जिस दिन वादी को प्रतिवादी की ओर से इनकार करने की सूचना मिली थी। ए. वल्लियम्मई बनाम के.पी. मुरली के मामले में सीमा की अवधि निर्धारित करने के लिये अनुबंध का पालन करना।
पृष्ठभूमि
- अपीलकर्ता (ए. वल्लियम्मई) के पास कथित तौर पर 11 एकड़ ज़मीन है।
- अपीलकर्ता ने 1988 में संपत्ति बेचने के लिये एक समझौता किया था। 1,00,000/- रुपये की राशि को अग्रिम के रूप में प्राप्त किया गया था और शेष राशि का भुगतान एक वर्ष में किया जाना आवश्यक था।
- शेष बिक्री प्रतिफल (sale consideration) के भुगतान और बिक्री विलेख के निष्पादन की समयसीमा बाद में 6 महीने बढ़ा दी गई थी।
- वर्ष 1991 में अपीलकर्ता को शेष बिक्री प्रतिफल स्वीकार करने एक कानूनी नोटिस जारी किया गया और एक महीने के भीतर बिक्री विलेख निष्पादित करने के लिये कहा गया है। यह सहमति हुई कि सेल डीड को संविदा की तारीख से एक वर्ष के भीतर निष्पादित किया जाएगा।
- इसमें विभाजन का एक मुकदमा लंबित था साथ ही विभाजन के मुकदमे के निपटान के बाद बिक्री विलेख निष्पादित किया जाना था, जिसे बाद में डिफॉल्ट के रूप में खारिज कर दिया गया था।
- वर्ष 1991 में, अपीलकर्ता को बिक्री विलेख (Sale deed) के निष्पादन तक वादकालीन संपत्ति से निपटने से रोकने के लिये स्थायी निषेधाज्ञा के लिये एक मुकदमा दायर किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा अपीलकर्ता के खिलाफ अस्थायी निषेधाज्ञा का आदेश पारित किया गया था।
- अब, वर्तमान प्रतिवादी (के. पी. मुरली) ने वर्ष 1995 में कार्यवाही प्रारंभ की, निषेधाज्ञा के संबंध में वर्ष 1991 में दिये गये नोटिस पर संपत्ति की बिक्री के अनुबंध के अनुसार विनिर्दिष्ट पालन की मांग करना।
- अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन के लिये परिसीमा की बाधा सहित कई आधारों पर बचाव किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने एक मुद्दा तय किया, वह यह कि क्या वादी विनिर्दिष्ट पालन की राहत के हकदार थे और साथ ही निष्पादन का निर्देश भी दिया।
- न्यायालय के उपरोक्त निर्णय की मद्रास उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने पुष्टि की।
- अपीलकर्ता ने अपील में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
परिसीमा अवधि - परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2(J) इसे अनुसूची द्वारा किसी भी मुकदमे, अपील या आवेदन के लिये निर्धारित सीमा की अवधि के रूप में परिभाषित करती है।
निर्धारित अवधि - परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2(J) इसे अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार गणना की गई परिसीमा अवधि के रूप में परिभाषित करती है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की अनुसूची के प्रथम श्रेणी के अनुच्छेद 54 में विनिर्दिष्ट पालन के मुकदमे के लिये 3 वर्ष की सीमा अवधि निर्धारित की गई है।
- न्यायालय ने कहा कि विनिर्दिष्ट पालन के लिये मुकदमा दायर करने की सीमा अवधि वर्ष 1991 में प्रारंभ हुई थी जब निषेधाज्ञा के लिये मुकदमा दायर किया गया था और वर्तमान मुकदमा वर्ष 1995 में दायर किया गया था, जिसमें कहा गया था कि "अपीलकर्ताओं को इस अपील में सफल होना चाहिये क्योंकि विनिर्दिष्ट पालन के लिये मुकदमा दायर किया गया है, स्पष्ट रूप से और बिना किसी संदेह के परिसीमा से वर्जित" के साथ उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया गया।
कानूनी प्रावधान
- किसी अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन के लिये परिसीमा अवधि परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा प्रदान की जाती है।
- अनुबंध का विनिर्दिष्ट पालन : यह विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 के अंर्तगत प्रदान किया गया एक न्यायसंगत अनुतोष है। इस अधिनियम में वर्ष 2018 संशोधन इस प्रकार है:
- धारा 10 - अनुबंधों के संबंध में विनिर्दिष्ट पालन : अनुबंध का विनिर्दिष्ट पालन न्यायालय द्वारा धारा 11, धारा 14 और धारा 16 की उप-धारा (2) में निहित प्रावधानों के अधीन लागू किया जाएगा।
- धारा 11 - ऐसे मामले जिनमें ट्रस्टों से जुड़े अनुबंधों का विनिर्दिष्ट पालन प्रवर्तनीय है : (2) किसी ट्रस्टी द्वारा अपनी शक्तियों से अधिक अथवा विश्वास के उल्लंघन में किया गया अनुबंध विशेष रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
- धारा 14 संविदाएँ जो विनिर्दिष्टतः प्रवर्तनीय नहीं हैं- (1) निम्नलिखित संविदाएँ विनिर्दिष्टतः प्रवर्तित नहीं हैं, अर्थात्: -
(क) वह संविदा जिसके अपालन के लिये धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष हो
(ख) वह संविदा जिसमे सूक्ष्म या अत्यधिक ब्यौरे हों अथवा जो पक्षकारों की वैयक्तिक अर्हताओं या स्वेच्छा पर इतनी आश्रित हो अथवा अन्यथा अपनी प्रकृति के कारण ऐसी हो कि न्यायालय उसके तात्त्विक निबन्धनों के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन न करा सकता हो;
(ग) वह संविदा जो अपनी प्रकृति से ही पर्यवसेय हो;
(घ) वह संविदा जिसके पालन में ऐसा सतत्-कर्तव्य का पालन अन्तर्वलित है जिसका न्यायालय पर्यवेक्षण न कर सके। - धारा 16 - अनुतोष का वैयक्तिक वर्जन-संविदा का विनिर्दिष्ट पालन किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में नही कराया जा सकता-(क) जो उसके भंग के लिये प्रतिकर वसूल करने का हकदार न हो, अथवा
(ख) जो संविदा के किसी मर्मभूत निबन्धन का, जिसका उसकी ओर से पालन किया जाना शेष हो, अथवा पालन करने में असमर्थ हो गया हो, या उसका अतिक्रमण करे, एवं संविदा के प्रति कपट करे साथ ही जानबूझकर ऐसा कार्य करे जो संविदा द्वारा स्थापित किये जाने के लिये आशयित संबंध का विसंवादी या ध्वंसक हो;
अथवा
(ग) जो यह प्रकथन करने और साबित करने में असफल रहे कि उसके संविदा के उन निबन्धनों से भिन्न जिनका पालन प्रतिवादी द्वारा निवारित अथवा अधित्यक्त किया गया है, ऐसे मर्मभूत निबन्धनों का, जो उसके द्वारा पालन किया जाना हैं, उसने पालन कर दिया है अथवा पालन करने के लिये वह सदा तैयार करना तथा सहमति रहा है।
स्पष्टीकरण - खण्ड (ग) के प्रयोजनों के लिये-
(i) जहाँ तक
संविदा में धन का संदाय अन्तर्वलित हो, वादी के लिये आवश्यक नहीं है कि वह प्रतिवादी को किसी धन का वास्तव में निविदान करे या न्यायालय में निक्षेप करे सिवाय जबकि न्यायालय ने ऐसा करने का निदेश दिया हो;
(ii) वादी को यह प्रकथन करना होगा कि वह संविदा का उसके शुद्ध अर्थान्वयन के अनुसार पालन कर चुका, अथवा पालन करने के लिये तैयार करना तथा सहमति है।