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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

एक समान साक्ष्य पर कई आरोपियों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाएगा

 15-Sep-2023

जावेद शौकत अली कुरेशी बनाम गुजरात राज्य

एक आरोपी को बरी किये जाने का लाभ दूसरे आरोपियों को भी देना होगा, भले ही उन्होंने न्यायालय का दरवाज़ा न खटखटाया हो।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

जावेद शौकत अली कुरेशी बनाम गुजरात राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) ने माना है कि जब सभी आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ सबूत एक जैसे ही हैं तो एक आरोपी को बरी करने का लाभ दूसरे आरोपी को भी दिया जाना चाहिये। भले ही उन्होंने न्यायालय का दरवाजा न खटखटाया हो।

पृष्ठभूमि:

  • 7 नवंबर, 2003 को शाह आलम क्षेत्र, अहमदाबाद, गुजरात में हुई भीड़-हिंसा के एक मामले में कुल 13 लोगों पर मुकदमा चलाया गया था।
  • अभियुक्त सं. 1 से 6 और 13 को दोषी ठहराया गया और 10 साल की कैद की सजा सुनाई गई जबकि बाकी को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया।
  • वर्तमान अपीलकर्ता (अभियुक्त) आरोपी संख्या 6 है, उसे भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 396, 395, 307, 435, 201 के साथ पठित धारा 149 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया था।
  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 396 के साथ पठित धारा 149 के तहत दंडनीय अपराध के लिये अधिकतम सजा आजीवन कारावास थी।
  • गुजरात उच्च न्यायालय (HC) की खंडपीठ ने अपील पर विचार करते हुए सजा को घटाकर 10 साल कर दिया।
  • इसके बाद 2016 में अभियुक्त सं. 1, 5 और 13 ने उच्चतम न्यायालय (SC) में एक आपराधिक अपील दायर की और परिणामस्वरूप उक्त तीन आरोपियों को बरी कर दिया गया।
    • न्यायालय ने मूसा खान और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (1976) के मामले में सुनाए गए फैसले के आधार पर बरी किया था। कोई भी न्यायालय यह मानने का हकदार नहीं है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी भी समय दंगाई भीड़ के पास मौजूद था या उसकी गतिविधियों के दौरान किसी भी चरण में इसमें शामिल हुआ या छोड़ दिया था, शुरू से अंत तक उसके द्वारा किये गये हर कृत्य के लिये दोषी है।
  • अभियुक्त संख्या 2 द्वारा एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की गई थी, जिसे खारिज कर दिया गया था।
  • वर्तमान अपीलकर्ता अभियुक्त सं. 6 ने वर्तमान अपील को उच्चतम न्यायालय में भेजा और अभियुक्त संख्या 3 और 4 ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कोई उपचार नहीं मांगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ट्रायल के दौरान अभियुक्त संख्या 3 और 4 को अभियुक्त संख्या 1, 5 और 13 के समान पेश किया गया था जिन्हें शुरू में दोषी ठहराया गया था और बाद में इसे उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था।
  • साथ ही न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त संख्या 2 को भी समता का लाभ मिलना चाहिये। अभियुक्त संख्या 2 ने अपनी दोषसिद्धि को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी थी लेकिन बिना कारण दर्ज़ किये उसकी एसएलपी खारिज कर दी गई थी।
  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और संजय करोल की पीठ ने कहा कि "जब दो अभियुक्तों के खिलाफ समान सबूत हों, तो न्यायालय एक आरोपी को दोषी नहीं ठहरा सकता और दूसरे को बरी नहीं कर सकता। ऐसे मामले में दोनों अभियुक्तों के मामले समानता के सिद्धांत द्वारा शासित होंगे। इस सिद्धांत का अर्थ है कि आपराधिक न्यायालय को समान मामलों में निर्णय लेना चाहिये, और ऐसे मामलों में, न्यायालय दोनों अभियुक्तों के बीच अंतर नहीं कर सकता है, अगर न्यायालय ऐसा करता है तो वह भेदभाव होगा।

कानूनी प्रावधान:

भारतीय दंड संहिता, 1860

  • वर्तमान मामले में आरोप निम्नलिखित प्रावधानों से संबंधित हैं:
  • धारा 201: भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के अनुसार, जो भी कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दण्ड से प्रतिच्छादित करे या उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी जानकारी देगा, जिसके ग़लत होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;
  • यदि अपराध मृत्युदण्ड के समकक्ष हो - यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा। 
  • यदि अपराध के लिये आजीवन कारावास हो - यदि वह अपराध आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक के कारावास, से दण्डनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • यदि अपराध के लिये दस वर्ष से कम का कारावास हो - यदि वह अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय हो, तो उसे उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिये जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की हो, से दण्डित किया जाएगा या आर्थिक दण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
    • धारा 307 - हत्या का प्रयास - जो भी कोई ऐसे किसी इरादे या बोध के साथ विभिन्न परिस्थितियों में कोई कार्य करता है, जो किसी की मृत्यु का कारण बन जाए, तो वह हत्या का दोषी होगा, और उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
      और, यदि इस तरह के कृत्य से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचती है, तो अपराधी को आजीवन कारावास या जिस तरह के दंड का यहाँ उल्लेख किया गया है, से दंडित किया जाएगा।
    • आजीवन कारावास की सज़ा प्राप्त अपराधी द्वारा प्रयास करना: अगर अपराधी जिसे इस धारा के तहत आजीवन कारावास की सजा दी गयी है, चोट पहुँचाता है, तो उसे मृत्युदंड दिया जा सकता है।
    • धारा 395 - डकैती के लिये सजा - भारतीय दंड संहिता की धारा 395 के अनुसार, जो भी कोई डकैती करेगा, तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिये कठोर कारावास, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जायेगा, और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    • धारा 396 - हत्या सहित डकैती - यदि ऐसे पाँच या अधिक व्यक्तियों में से, जो संयुक्त होकर डकैती कर रहे हों, कोई एक व्यक्ति इस प्रकार डकैती करते हुए हत्या कर देगा, तो उन व्यक्तियों में से हर व्यक्ति को, मॄत्युदण्ड, या आजीवन कारावास, या किसी एक अवधि के लिये कठिन कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जायेगा, और साथ ही वे सब आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होंगे।
    • धारा 435 - जो कोई किसी सम्पत्ति को, एक सौ रुपए या उससे अधिक का, या जहाँ कि सम्पत्ति कॄषि उपज हो, वहाँ दस रुपए या उससे अधिक का नुकसान करने के आशय से, या यह सम्भाव्य जानते हुए कि वह एतद्द्वारा ऐसा नुकसान करेगा, अग्नि या किसी विस्फोटक पदार्थ द्वारा कुचेष्टा करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा, जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    • धारा 149 - जनसमूह का हर सदस्य विधिविरुद्ध समान लक्ष्य का अभियोजन करने में किये गए अपराध का दोषी- भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के अनुसार, यदि विधिविरुद्ध जनसमूह के किसी सदस्य द्वारा उस जनसमूह के समान लक्ष्य का अभियोजन करने में कोई अपराध किया जाता है, या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जनसमूह के सदस्य सम्भाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उस जनसमूह का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।

धारा 149 के प्रमुख तत्त्व:

  • विधिविरुद्ध जनसमूह : धारा 149 को लागू करने के लिये, आईपीसी की धारा 141 के तहत परिभाषित विधिविरुद्ध जनसमूह होना चाहिये।
  • सामान्य उद्देश्य : विधिविरुद्ध जनसमूह का सामान्य उद्देश्य निर्दिष्ट किया जाना चाहिये।
    महाराष्ट्र राज्य बनाम काशीराव और अन्य (2003) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "'लक्ष्य' शब्द का अर्थ उद्देश्य है और, इसे 'सामान्य' बनाने के लिये, इसे सभी द्वारा साझा किया जाना चाहिये।
  • दायित्व: धारा 149 विधि-विरूद्ध जनसमूह के प्रत्येक सदस्य को सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिये सभा के किसी भी सदस्य द्वारा किये गये अपराध के लिये उत्तरदायी बनाती है।
    रोहतास बनाम हरियाणा राज्य (2020) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस प्रावधान के तहत अपराध विधि-विरूद्ध जनसमूह में सदस्यता के आधार पर एक परोक्ष दायित्व बनाता है।

सांविधानिक विधि

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड

 15-Sep-2023

"मुक्त डेटा नीति के तहत राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) पोर्टल पर उच्चतम न्यायालय के डेटा को शामिल करना न्यायिक क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिये हमारी ओर से एक कदम है।"

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़

स्रोतः इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ ने हाल ही में घोषणा की कि अब उच्चतम न्यायालय के लंबित मामलों और निपटान से संबंधित डेटा राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) पोर्टल पर उपलब्ध होगा।

पृष्ठभूमि

  • राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC) के साथ उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री के कंप्यूटर सेल ने राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) पोर्टल पर उच्चतम न्यायालय के रियल टाइम आधार पर मामले के डेटा को ऑनबोर्ड करने में योगदान दिया है।
  • उन्होंने संबोधित करते हुए कहा कि 80,000 मामले लंबित हैं, 15,000 अभी तक पंजीकृत नहीं हैं, इसलिये वे अभी तक लंबित नहीं हैं।
  • उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों के पास अब उस डेटा से संबंधित ग्राफ हैं जो अब जुलाई 2023 में 5,000 से अधिक मामलों के निपटारे में सहायता करेंगे।
  • उन्होंने तीन न्यायाधीशों वाली पीठ के समक्ष लंबित 583 मामलों को संबोधित किया, और जल्द ही वह डेटा के निपटान के लिये उन पीठों का गठन करेंगे।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की टिप्पणी

  • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) पर चर्चा करते हुए भारत के 50वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने कहा कि, "मुक्त डेटा नीति के तहत एनजेडीजी पोर्टल पर उच्चतम न्यायालय के डेटा को शामिल करना न्यायिक क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिये हमारी ओर से एक कदम है।"

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG)

  • परिचय:
    • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) को केंद्र सरकार की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस पहल के तहत राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र द्वारा विकसित किया गया था।
    • यह ई-कोर्ट एकीकृत मिशन मोड परियोजना का एक हिस्सा है जो 2007 से कार्यान्वयनाधीन है।
      • इस परियोजना का चरण I वर्ष 2011-2015 के दौरान लागू किया गया था।
      • जिला और अधीनस्थ न्यायालय के डेटा को कंप्यूटरीकृत करने के लिये परियोजना का दूसरा चरण 2015 में शुरू हुआ। हालांकि, इन न्यायालयों का डेटा 7 अगस्त, 2013 को राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) पोर्टल पर अपडेट किया गया था।
      • उच्च न्यायालयों के लिये राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) का शुभारंभ 3 जुलाई, 2020 को श्री के. के. वेणुगोपाल द्वारा किया गया था।
      • वर्ष 2023 से, उच्चतम न्यायालय का डेटा भी पोर्टल पर उपलब्ध है।
    • इसका प्राथमिक उद्देश्य उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों के भीतर लंबित और हल किये गये मामलों की स्थिति की निगरानी करना है।
  • कार्य:
    • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) एक व्यापक भंडार प्रदान करता है जिसमें जिला और अधीनस्थ न्यायालयों, उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के आदेश, निर्णय और मामले के विवरण शामिल हैं।
    • यह वेब पोर्टल सभी के लिये आँकड़ों तक खुली पहुँच सक्षम बनाता है।
    • इसके अलावा, एनजेडीजी एक निर्णय समर्थन प्रणाली के रूप में कार्य करती है, जो विभिन्न विशेषताओं जैसे कि वर्षवार, कोरम वार लंबित मामले और कानून की प्रत्येक शाखा जैसे सिविल, आपराधिक आदि में लंबित मामले के आधार पर मामले की देरी की निगरानी में न्यायालयों की सहायता करती है।
  • चुनौतियाँ:
    • डेटा प्रविष्टि में विसंगतियाँ, अनुपलब्ध जानकारी और त्रुटियाँ प्लेटफ़ॉर्म की विश्वसनीयता को प्रभावित कर सकती हैं।
    • भारत की विशाल भौगोलिक और ढाँचागत विविधता यह सुनिश्चित करने में चुनौ तियाँ पेश करती है कि सभी न्यायालय एनजेडीजी में प्रभावी ढंग से भाग ले सकें, विशेष रूप से दूरदराज के क्षेत्रों में स्थित न्यायालय जिनके पास एनजेडीजी में प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिये आवश्यक बुनियादी ढांचा और कनेक्टिविटी नहीं है।
    • न्यायालय के रिकॉर्ड और मामले के विवरण की गोपनीयता और सुरक्षा सुनिश्चित करना एक सतत चुनौती रही है।

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के लाभ

  • पारदर्शिता:
    • एनजेडीजी ने देश भर में मामलों की स्थिति और निपटान के बारे में मुक्त रूप से जानकारी साझा करके प्रणाली के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही में उल्लेखनीय वृद्धि की है।
  • सुव्यवस्थित तंत्र:
    • अब तक, यह न्यायिक नियोजन, निगरानी और दूरस्थ प्रशासन में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, जिला न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री को सहायता प्रदान करती थी।
    • नागरिक अब मामले की जानकारी, निर्णय और आदेशों को ऑनलाइन देख सकते हैं, जिससे भ्रष्टाचार और कदाचार की गुंजाइश कम हो जाती है।
  • समय प्रभावशीलता:
    • एनजेडीजी द्वारा समय पर उपलब्ध कराया गया डेटा अधिकारियों के लिये अमूल्य साबित हो रहा है क्योंकि इसी के आधार पर नीतियों को आकार दिया जाता है और न्यायिक प्रशासन से संबंधित निर्णय लिये जाते हैं।
    • एनजेडीजी के सबसे उल्लेखनीय प्रभावों में से एक मामलों के बैकलॉग में कमी आना है। केस रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण और केस की प्रगति की रियल टाइम आधार पर नज़र रखने से न्याय वितरण की गति में काफी तेजी आई है।
  • न्याय तक पहुंच:
    • एनजेडीजी ने विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले और वंचित समुदायों के लिये न्याय तक पहुंच प्रदान की है।
    • कानूनी जानकारी हासिल करने के लिये वादियों को अब लंबी दूरी तय करने या मध्यस्थों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है।
  • लंबित मामलों में कमी:
    • एनजेडीजी के सबसे उल्लेखनीय प्रभावों में से एक लंबित मामलों में कमी आना है।
    • केस रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण और केस की प्रगति की वास्तविक समय पर नज़र रखने से न्याय वितरण की गति में काफी तेजी आई है।

ई-न्याय को बढ़ावा देने के लिये अन्य पहल

  • उच्चतम न्यायालय का विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर (SUVAS):
    • तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने नवंबर 2019 में उच्चतम न्यायालय का विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर (SUVAS) लॉन्च किया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक कार्यवाही में क्षेत्रीय भाषा की भागीदारी को बढ़ावा देने और सुनिश्चित करने के लिये इस सॉफ्टवेयर को बनाया है।
    • यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा प्रशिक्षित एक मशीन सहायता प्राप्त अनुवाद उपकरण है।
  • न्यायालय की दक्षता में सहायता के लिये उच्चतम न्यायालय का पोर्टल (SUPACE) :
    • इसे विधि अनुसंधान में न्यायाधीशों की सहायता और समर्थन करने के लिये एआई आधारित पोर्टल के रूप में वर्ष 2021 में लॉन्च किया गया था।
  • ई-फाइलिंग पोर्टल:
    • ई-फाइलिंग प्रणाली कानूनी दस्तावेज़ों की इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग को सक्षम बनाती है।
    • इसका उपयोग न्यायालयों में मामले (सिविल और आपराधिक दोनों) दायर करने के लिये किया जा सकता है।
    • इस तंत्र में पुख्ता विकास सुनिश्चित करने के लिये अब तक ई-फाइलिंग पोर्टल के कई संस्करण बंद और पेश किये गये हैं।
  • FASTER डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म:
    • यह एक सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक संचार चैनल के माध्यम से संबंधित अधिकारियों को उच्चतम न्यायालय के अंतरिम आदेशों, स्थगन आदेशों, जमानत आदेशों आदि को संप्रेषित करने का एक डिजिटल मंच है।

सिविल कानून

तंग करने के लिये दायर आवेदन को अस्वीकृत किया जाएगा

 15-Sep-2023

वसंत नेचर क्योर हॉस्पिटल और प्रतिभा मैटरनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट और अन्य बनाम उकाजी रामजी - चूँकि मृत्यु हो गई- कानूनी उत्तराधिकारियों के माध्यम से और अन्य

उच्चतम न्यायालय ने समीक्षा की मांग के लिये कई विविध सिविल आवेदन भरने की प्रथा को लेकर फटकार लगाई है।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने वसंत नेचर क्योर हॉस्पिटल तथा प्रतिभा मैटरनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट और अन्य बनाम उकाजी रामजी - चूँकि मृत्यु हो गई- कानूनी उत्तराधिकारियों के माध्यम से और अन्य के मामले में दूसरी अपील में दिये गये फैसले की समीक्षा की मांग के लिये कई विविध सिविल आवेदन भरने की प्रथा को लेकर फटकार लगाई है।

पृष्ठभूमि

  • अपीलकर्ता 'वसंत नेचर केयर हॉस्पिटल' और 'प्रतिभा मैटरनिटी हॉस्पिटल ट्रस्ट' के नाम से एक प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र चलाते हैं।
  • प्रतिवादी, उकाजी रामजी (मृत्यु होने के कारण से अपने कानूनी प्रतिनिधियों के माध्यम से) को थेरेपी सेंटर द्वारा चौकीदार के रूप में नियुक्त किया गया था, उन्हें उक्त अस्पतालों की देखभाल करने का कार्य सौंपा गया था और उन्हें वहाँ एक कमरा आवंटित किया गया था।
  • अवैध गतिविधियों में लिप्त होने के कारण प्रतिवादी को उसकी ड्यूटी से मुक्त कर दिया गया था।
  • उकाजी ने अपीलकर्ता के खिलाफ एक नियमित सिविल मुकदमा दायर किया, जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि जिस परिसर को लेकर मुकदमा किया गया है वह उसके स्वामित्व का है और अपीलकर्ता को उस परिसर के कब्ज़े में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिये एक स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की गई थी।
  • उक्त मुकदमे को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था, पुनः उस फैसले से व्यथित होकर, उकाजी ने अपर सहायक न्यायाधीश, अहमदाबाद (ग्रामीण) के समक्ष एक नियमित सिविल अपील दायर की।
  • अपील की अनुमति दी गई और वाद संपत्ति पर एक अपरिसंहरणीय लाइसेंस (Irrevocable Licence) उसे प्रदान किया गया जो एक महीने का नोटिस देने के बाद ही समाप्त हो सकता है।
  • अपीलकर्ताओं ने अब गुजरात उच्च न्यायालय (HC) के समक्ष दूसरी अपील की, जिसे अनुमति प्रदान कर दी गई।
  • दूसरी अपील लंबित रहने के दौरान उकाजी की मृत्यु हो गई और उनके कानूनी प्रतिनिधियों (वर्तमान प्रतिवादी) ने उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की।
  • विशेष अनुमति याचिका (SLP) को यह दर्ज़ करते हुए खारिज कर दिया गया था कि वर्तमान प्रतिवादी (दिवंगत उकाजी के कानूनी उत्तराधिकारी) का उच्च न्यायालय के समक्ष समीक्षा आवेदन दायर करने का मंशा थी।
  • इसके 3 वर्ष बाद विविध सिविल आवेदन (एमसीए) - 2016 का एमसीए नंबर 01 दूसरी अपील की समीक्षा के लिये उच्च न्यायालय में दायर किया गया था, जिसे गैर-अभियोजन पक्ष के कारण खारिज कर दिया गया था।
  • चार अन्य एमसीए नंबर 2016 के एमसीए नंबर 02, 2017 के एमसीए नंबर 01, 2018 के एमसीए नंबर 01, 2019 के एमसीए नंबर 01 को एक के बाद एक दायर किया गया था और सभी को अभियोजन की कमी के आधार पर खारिज कर दिया गया था।
  • 2019 के एमसीए नंबर 03 को 2019 के एमसीए नंबर 01 की बहाली के लिये उच्च न्यायालय में दायर किया गया था, जिसे अनुमति दी गई थी।
  • इसलिये, वर्तमान मामला उच्चतम न्यायालय में है।

न्यायालय की टिप्पणी

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की उच्चतम न्यायालय की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले की वैधता और कानूनी पक्ष को चुनौती देने वाली अपील पर फैसला करते हुए, यह कहा गया कि उच्च न्यायालय ने ऐसे कष्टप्रद आवेदनों को अनुमति देने में घोर त्रुटि की है और वह भी बिना कोई कारण बताए।

कानूनी प्रावधान

निर्णय विधि

हाल ही में एस.सी रामिशेट्टी वेंकटन्ना बनाम नस्याम जमाल साहेब ने कहा कि यदि कोई वादपत्र कष्टकारी, भ्रामक कार्रवाई का कारण है तो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 (a) और (d) के तहत खारिज कर दिया जाना चाहिये।

  • आदेश VII नियम 11

वादपत्र की अस्वीकृति - वादपत्र का नामंजूर किया जाना वादपत्र निम्नलिखित दशाओं में नामंजूर कर दिया जायेगा-

(क) जहाँ वह वाद-हेतुक प्रकट नहीं करता है;

(ख) जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन कम किया गया है और वादी मूल्यांकन को ठीक करने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है,

(ग) जहाँ दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन ठीक है किन्तु वादपत्र अपर्याप्त स्टाम्प-पत्र पर लिखा गया है और वादी अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर, जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है;

(घ) जहाँ वादपत्र में के कथन से यह प्रतीत होता है कि वाद किसी विधि द्वारा वर्जित है:

(ड.) जहाँ यह दो प्रतियों में फाइल नहीं किया जाता है।

(च) जहाँ वादी नियम 9 के उपबंधों का अनुपालन करने में असफल रहता है:

परन्तु मूल्यांकन की शुद्धि के लिये या अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा नियत समय तब तक नहीं बढ़ाया जायेगा जब तक कि न्यायालय का अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से यह समाधान नहीं हो जाता है कि वादी किसी असाधारण कारण से, न्यायालय द्वारा नियत समय के भीतर, यथास्थिति, मूल्यांकन की शद्धि करने या अपेक्षित स्टाम्प-पत्र के देने से रोक दिया गया था और ऐसे समय के बढ़ाने से इंकार किये जाने से वादी के प्रति गंभीर अन्याय होगा ।

  • इसके अलावा, आदेश VI नियम 16 न्यायालयों को कष्टकारी दलीलों को खारिज करने की शक्ति प्रदान करता है :
    • आदेश VI नियम 16

अभिवचन का काट दिया जाना - न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में आदेश दे सकेगा कि किसी भी अभिवचन में की कोई भी ऐसी बात काट दी जाए या संशोधित कर दी जाए.-

(क) जो अनावश्यक, कलंकात्मक, तुच्छ या तंग करने वाली है, अथवा

(ख) जो वाद के ऋजु विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली या उसमें उलझन डालने वाली या विलंब करने वाली है, अथवा

(ग) जो अन्यथा न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।