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आपराधिक कानून
डिफॉल्ट जमानत का अधिकार
18-Sep-2023
संजय कुमार पुंडीर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार "ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।" न्यायमूर्ति अमित शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
संजय कुमार पुंडीर बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि "ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।"
पृष्ठभूमि
- इस मामले में, वर्ष 2021 में भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
- और सितंबर 2021 में आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।
- जाँच पूरी होने पर वर्ष 2021 में ही आरोप पत्र दाखिल किया गया।
- इसके बाद वर्ष 2022 में, दो पूरक आरोपपत्र दाखिल किये गए।
- सत्र न्यायालय के समक्ष, आरोपी ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की की धारा 167 के तहत डिफॉल्ट जमानत की मांग करते हुए, एक आवेदन दायर किया।
- सत्र न्यायालय ने आरोपी की अर्जी खारिज कर दी।
- इसके बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष डिफॉल्ट जमानत के लिये याचिका दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायमूर्ति अमित शर्मा ने कहा कि "ऐसी स्थिति में किसी अभियुक्त को वर्ष जमानत पर रिहा होने का अधिकार है, जिसमें अभियोजन वैधानिक अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है।"
- न्यायालय ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973 (CrPC) की धारा 167(2) के तहत, ऐसी स्थिति में किसी भी आरोपी को डिफॉल्ट जमानत पाने का अधिकार होगा, जिसमें निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जाता है।
- न्यायालय ने माना कि डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को जन्म देने वाली दूसरी परिस्थिति वह होगी जिसमें अभियोजन पक्ष अपराधों के लिये निर्धारित अवधि के भीतर प्रारंभिक या अपूर्ण आरोप पत्र दाखिल करता है और उस प्रक्रिया में आरोपी के वैधानिक जमानत के अधिकार को खत्म करता है।
कानूनी प्रावधान
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167
- यह धारा उस प्रक्रिया से संबंधित है जब कोई अन्वेषण चौबीस घंटे में पूरा नहीं किया जा सकता है। यह धारा कहती है कि –
(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिये आधार है कि अभियोग दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है, तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले में संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।
(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिये सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है :
परंतु-
(क) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार है।
(i) कुल मिलाकर नब्बे दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से कम की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय है;
(ii) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिये तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है:
(ख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन किसी अभियुक्त का पुलिस अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष पहली बार और तत्पश्चात् हर बार, जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता है किंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त के या तो व्यक्तिगत रूप से या इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेश किये जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा।
(ग) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है. पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत नहीं करेगा।
- यह धारा (167), रिमांड पर कानून बनाते समय जाँच पूरी होने में अत्यधिक देरी के दौरान आरोपी को हिरासत से सुरक्षा भी प्रदान करती है।
- यह धारा प्रावधान करती है कि, जहाँ जाँच 60 या 90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर पूरी नहीं होती है, जैसा भी मामला हो, उसके बाद आरोपी उक्त अवधि की समाप्ति पर डिफॉल्ट जमानत के अपने अधिकार का लाभ उठा सकता है।
- दूसरे शब्दों में, जहाँ जाँच एजेंसी ने जाँच के 60 दिनों (मौत या 10 साल से कम की कैद की सज़ा वाले अपराधों के मामले में 90 दिन) की अवधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं किया है, तो आरोपी जमानत पर रिहा होने का हकदार हो जाता है।
- इस प्रकार, जहाँ निर्धारित अवधि के भीतर कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया गया है, ऐसी अवधि की समाप्ति पर आरोपी को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
- केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, विशेष अन्वेषण प्रकोष्ठ - I, नई दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992) मामले में, यह माना गया कि धारा 167(2) के तहत मजिस्ट्रेट आरोपी को ऐसी हिरासत में रखने का अधिकार दे सकता है, जैसा वह उचित समझे। लेकिन यह कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक नहीं होनी चाहिये ।
आरोप पत्र (Chargesheet)
- के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि, आरोप पत्र दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 173(2) के तहत पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट होती है।
- आरोप पत्र में पक्षों के नाम, जानकारी की प्रकृति और अपराधों का विवरण शामिल होना चाहिये ।
- सभी दस्तावेजों से परिपूर्ण आरोप पत्र, अभियोजन मामले और तय किये जाने वाले आरोपों का आधार बनता है।
- इसे 60-90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर दाखिल किया जाना चाहिये।
आपराधिक कानून
विसरा रिपोर्ट जहर का सबूत नहीं
18-Sep-2023
बुद्धदेब साहा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य किसी को केवल विसरा रिपोर्ट में जहर का पता न चलने पर इस बात के निर्णायक सबूत के तौर पर भरोसा नहीं करना चाहिये कि पीड़ित की मौत जहर से नहीं हुई है। उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय (SC) ने बुद्धदेब साहा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में, विसरा रिपोर्ट में नकारात्मक परिणाम के आलोक में भी, दहेज हत्या मामले में अपीलकर्ता की सज़ा को बरकरार रखा है।
पृष्ठभूमि
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) तुली शाह के संबंध में दर्ज किया गया था, जिसका विवाह अपीलकर्ता नंबर 1 (बुद्धदेब साहा) से हुआ था।
- शादी के समय तुली शाह के पति के परिवार को नकदी और सोने के गहने दिये गए थे, लेकिन शादी के तुरंत बाद अधिक दहेज की चाहत में उसे प्रताड़ित किया जाने लगा।
- 2011 में शादी के कुछ महीने बाद, मृतक (तुली शाह) ने अपनी ससुराल में अपने पति के लगातार उत्पीड़न से परेशान होने के कारण जहर खाकर आत्महत्या कर ली।
- जाँच पूरी होने पर, एक आरोप पत्र दायर किया गया और ट्रायल कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 304B, 498A के तहत दंडनीय अपराध के लिये आरोप तय किया।
- ट्रायल कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों पर गौर करते हुए निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष ने आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ उचित संदेह से परे अपना मामला सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया है और तदनुसार उन्हें दोषी ठहराया गया।
- उपरोक्त सज़ा के खिलाफ उच्च न्यायालय (HC) में अपील की गई थी, हालांकि ट्रायल कोर्ट के फैसले की पुष्टि की गई थी।
- इसलिये वर्तमान न्यायालय (SC) में इस आधार पर अपील की गई:
- यह बिना सबूत का मामला है क्योंकि अभियोजन पक्ष मौत का सटीक कारण स्थापित करने में सक्षम नहीं है।
- इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट मौत के सटीक कारण के बारे में कुछ नहीं कहती है और ऊतक विकृति रिपोर्ट (Histopathology Report) रिपोर्ट भी विसरा में जहर के किसी भी निशान के बारे में चुप है।
- हालांकि राज्य ने जवाब दिया कि, विधायिका ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113b के तहत 'सकेगा (Shall)' शब्द का इस्तेमाल किया है, इस शब्द के मद्देनज़र, न्यायालय के पास यह धारणा बनाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है कि यह दहेज हत्या का मामला है।
- राज्य ने यह भी कहा कि, पोस्टमार्टम के दौरान एकत्र किये गए विसरा के नमूने को फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला में भेजने में काफी देरी हुई और संभवतः इसी देरी के कारण, हिस्टोपैथोलॉजी रिपोर्ट विसरा में जहर की उपस्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं दे पाई है।
विसरा रिपोर्ट
- यह एक मेडिकल जाँच रिपोर्ट होती है जिसमें आम तौर पर मृत व्यक्ति के शारीरिक तरल पदार्थ और ऊतकों का विश्लेषण करना शामिल होता है।
- यह परीक्षण मृत्यु का कारण निर्धारित करने या मृत व्यक्ति के शरीर में किसी भी पदार्थ, जैसे ड्रग्स या जहर, की उपस्थिति का पता लगाने के लिये उपयोग किया जाता है।
ऊतक विकृति रिपोर्ट (Histopathology Report)
ऊतक विकृति रिपोर्ट में ऊतकों की एक विस्तृत जाँच की जाती है और विश्लेषण दिया जाता है, जो आमतौर पर बायोप्सी या सर्जिकल नमूने से प्राप्त की जाती है, इसका उपयोग मुख्य रूप से चिकित्सा स्थितियों का निदान करने, बीमारियों की सीमा का आकलन करने और उपचार निर्णयों का मार्गदर्शन करने के लिये किया जाता है।
- इसका उपयोग मृत व्यक्तियों के ऊतकों की जाँच करने के लिये भी किया जा सकता है ताकि मृत्यु का कारण निर्धारित किया जा सके या जहर या आघात जैसे किसी भी अपकृत्य के किसी भी लक्षण का पता लगाया जा सके।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- उच्चतम न्यायालय ने आईपी इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फॉरेंसिक मेडिसिन एंड टॉक्सिकोलॉजिकल साइंसेज में प्रकाशित "Negative viscera report and its medico-legal aspects" शीर्षक से प्रकाशित एक शोध पत्र पर विचार किया, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि विसरा रिपोर्ट निम्नलिखित तीन प्रमुख कारणों से नकारात्मक आ सकती है-
- विसरा जाँच करने प्रक्रिया कैसे संचालित की जाती है।
- नमूना कैसे एकत्रित किया जाता है।
- प्रयोगशाला नमूनों की जाँच कैसे करती है।
- इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय ने महाबीर मंडल बनाम बिहार राज्य, (1972) मामले का भी संज्ञान लिया, जिसमें यह माना गया कि अकेले विसरा रिपोर्ट में जहर का पता न चलने को इस तथ्य का निर्णायक सबूत नहीं माना जाना चाहिये कि पीड़ित जहर से नहीं मरा है।
- वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा है कि हमें केवल विसरा रिपोर्ट में जहर का पता न चलने पर इस बात के निर्णायक सबूत के रूप में भरोसा नहीं करना चाहिये कि पीड़ित की मौत जहर से नहीं हुई है।
कानूनी प्रावधान
दहेज हत्या
दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 की धारा 2 द्वारा ‘दहेज’ शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया गया है :
धारा 2,“दहेज” की परिभाषा-इस अधिनियम में दहेज से तात्पर्य है -
(क) विवाह के एक पक्ष द्वारा विवाह के दूसरे पक्ष को, या
(ख) विवाह के किसी भी पक्ष के माता-पिता या अन्य व्यक्ति द्वारा विवाह के किसी भी पक्ष या किसी अन्य व्यक्ति को विवाह करने के सम्बन्ध में विवाह के समय या उससे पूर्व या पश्चात किसी समय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में दी जाने वाली या दी जाने के लिये प्रतिज्ञा की गयी किसी सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति से है किन्तु इसमें उन व्यक्तियों की दशा में मैहर नहीं होगा, जिन पर मुस्लिम स्वीय विधि (शरियत) लागू होती है।
- स्पष्टीकरण II - अभिव्यक्ति "मूल्यवान प्रतिभूति" का वही अर्थ है जो भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 30 में है।
- दहेज हत्या को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304b द्वारा इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
धारा 304B - दहेज हत्या –
(।) जहां किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था वहां ऐसी मृत्यु को “दहेज मृत्यु” कहा जाएगा और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जाएगा।
स्पष्टीकरण--इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये “दहेज” का वही अर्थ है जो दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1964 (964 का 28) की धारा 2 में है।
(2) जो कोई दहेज हत्या कारित करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113-b - दहेज हत्या के बारे में उपधारणा- जब प्रश्न यह है कि व्यक्ति ने किसी स्त्री की दहेज हत्या की है और यह दर्शित किया जाता है कि मृत्यु के कुछ पूर्व ऐसे व्यक्ति ने दहेज की किसी मांग के लिये या उसके संबंध में उस स्त्री के साथ क्रूरता की थी या उसको तंग किया था तो न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने दहेज हत्या कारित की थी।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये “दहेज मृत्यु” का वही अर्थ है, जो भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 304ख में हैं।
निर्णयज विधि
सतबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2021) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने दहेज हत्या के मामले में व्याख्या इस प्रकार की:
- दुल्हन को जलाने और दहेज की मांग की सामाजिक बुराई को रोकने के विधायी इरादे को ध्यान में रखते हुए भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304b की व्याख्या की जानी चाहिये ।
- अभियोजन पक्ष को पहले भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304b के तहत अपराध स्थापित करने के लिये आवश्यक सामग्रियों के अस्तित्व को स्थापित करना होगा। एक बार जब ये सामग्रियां संतुष्ट हो जाती हैं या जुटा ली जाती हैं, तो धारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) की 113B के तहत प्रदान की गई कार्य-कारण की खंडन योग्य धारणा आरोपी के खिलाफ काम करती है।
- वाक्यांश " soon before" भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304b में प्रदर्शित होता है, इसका अर्थ 'तुरंत पहले' नहीं लगाया जा सकता। अभियोजन पक्ष को दहेज हत्या और पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा दहेज की मांग के लिये क्रूरता या उत्पीड़न के बीच "निकटतम और जीवंत संबंध" स्थापित करना चाहिये ।
सिविल कानून
प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) की गणेश मूर्तियों की बिक्री पर रोक
18-Sep-2023
ज़िला कलेक्टर, तिरुनेलवेली बनाम प्रकाश प्लास्टर ऑफ पेरिस या प्लास्टिक से बनी मूर्तियों के निर्माण, बिक्री या विसर्जन को रोकने पर किसी के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। मद्रास उच्च न्यायालय |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय, मदुरै खंडपीठ
चर्चा में क्यों?
मद्रास उच्च न्यायालय (HC) की खंडपीठ ने ज़िला कलेक्टर, तिरुनेलवेली बनाम प्रकाश के मामले में प्लास्टर ऑफ पेरिस (PoP) सामग्री से निर्मित गणेश मूर्तियों की बिक्री की अनुमति देने वाले उस आदेश पर रोक लगा दी है, जोकि मद्रास उच्च न्यायालय (HC) के एकल न्यायाधीश की पीठ ने दिया था।
पृष्ठभूमि
- प्रतिवादी (प्रकाश) द्वारा एक रिट याचिका दायर की गई थी जिसमें परमादेश की रिट जारी करने का अनुरोध किया गया था। इसमें प्रतिवादी प्रकाश ने मद्रास उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष दायर याचिका में तिरुनेलवेली ज़िले के ज़िला कलेक्टर को यह निर्देश देने की मांग की थी कि वे भारत के संविधान, 1950 (Constitution of India) के अनुच्छेद 19(1) (G) के तहत दिये गए उनके पेशे/व्यवसाय के अधिकार में हस्तक्षेप न करें जिसके तहत वह भगवान विनायक की मूर्तियाँ बेचता है।
- रिट याचिकाकर्त्ता ने कहा कि उसने अपने परिवार के साथ पलायन किया और तिरुनेलवेली शहर में बस गए जहाँ वे मिट्टी, धोने योग्य रंग पाउडर आदि का उपयोग करके गहने एवं वस्तुएँ बनाते हैं।
- मद्रास उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने यह कहते हुए याचिका स्वीकार कर ली कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board (CPCB) द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिये दिनांक 12 मई, 2020 को जारी किये गए संशोधित दिशा-निर्देश लागू होने के बावजूद रिट याचिकाकर्त्ता को प्लास्टर ऑफ पेरिस का उपयोग करके मूर्तियों के निर्माण या बिक्री से नहीं रोका जा सकता है।
- न्यायाधीश ने यह भी कहा कि कि विसर्जन पर रोक उचित प्रतिबंध है, लेकिन ऐसी मूर्तियों की बिक्री को रोकना याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
- तिरुनेलवेली ज़िले के ज़िला कलेक्टर ने डिवीजन बेंच के समक्ष वर्तमान अपील दायर की है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- मद्रास उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दिशा-निर्देशों के प्रासंगिक खंड पर ध्यान दिया - "बिना किसी विषैले, अकार्बनिक कच्चे माल (जैसे पारंपरिक मिट्टी और दोमट मिट्टी के साथ-साथ प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP), प्लास्टिक और थर्माकोल (पॉलीस्टाइनिन) से मुक्त केवल प्राकृतिक, जैव-निम्नीकरणीय, पर्यावरण अनुकूल कच्चे माल से बनी मूर्तियों को ही प्रोत्साहित, प्रचारित और मंजूर किया जाना चाहिये एवं प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) से बनी मूर्तियों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिये ।"
- उच्च न्यायालय ने एकल न्यायाधीश के आदेश पर रोक लगाते हुए कहा कि संशोधित दिशा-निर्देशों के पालन में प्लास्टर ऑफ पेरिस या प्लास्टिक आदि से बनी मूर्तियों के निर्माण, बिक्री या विसर्जन को रोकने के लिये किसी के भी खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।
पेशे का अधिकार
- संविधान का अनुच्छेद 19(1)(G) सभी नागरिकों को कोई भी पेशा, व्यवसाय, या व्यापार करने का अधिकार सुनिश्चित करता है, जिसे अनुच्छेद 19(6) के तहत उनके करने पर उचित प्रतिबंध लगाने के सरकार के अधिकार द्वारा सीमित किया जा सकता है।
- निम्नलिखित आधारों पर प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं:
- आम जनता का हित: राज्य ऐसे प्रतिबंध लगा सकता है, जो जनता के हित पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
- कोई व्यावसायिक या तकनीकी योग्यता निर्धारित करना: जहाँ किसी पेशे को करने के लिये पेशेवर या तकनीकी योग्यता आवश्यक है, ऐसी योग्यता अनिवार्य की जा सकती है। उदाहरण के लिये भारत में वकालत करने के लिये अखिल भारतीय बार परीक्षा उत्तीर्ण करना आवश्यक है।
- राज्य का एकाधिकार: प्रथम संवैधानिक संशोधन, 1951 द्वारा जोड़ा गया यह अधिकार राज्य को किसी भी व्यापार, व्यवसाय या उद्योग के लिये, आंशिक रूप या पूरी तरह से राज्य एकाधिकार स्थापित करने के लिये कानून बनाने की अनुमति देता है।
निर्णयज विधि
- एक्सेल वियर बनाम भारत संघ (1978) मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25-O, जो नियोक्ताओं को अपने औद्योगिक उपक्रमों को बंद करने से पहले सरकारी अनुमति प्राप्त करने के लिये अनिवार्य करती है, को असंवैधानिक और शून्य माना गया क्योंकि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(G) का उल्लंघन करता है, जो व्यापार, व्यवसाय या पेशा जारी रखने के अधिकार की गारंटी देता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board (CPCB)
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एक वैधानिक संगठन है जिसकी स्थापना 1974 में जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के तहत की गई थी, और बाद में इसका विस्तार वायु प्रदूषण को कवर करने के लिये वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत भी किया गया।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का प्राथमिक उद्देश्य देश में जल और वायु प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने और कम करने के उपायों को बढ़ावा देना और लागू करना है।
- प्रमुख कार्य एवं ज़िम्मेदारियाँ:
- मानक निर्धारित करना: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हवा और पानी में विभिन्न प्रदूषकों के लिये पर्यावरणीय मानक स्थापित करने और बनाये रखने के लिये ज़िम्मेदार है। ये मानक उद्योगों एवं अन्य स्रोतों से उत्सर्जन और निर्वहन को विनियमित करने में मदद करते हैं।
- देखरेख और निगरानी: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड देश भर में हवा और पानी की गुणवत्ता की निगरानी करता है, डेटा एकत्र करता है, और प्रदूषण की सीमा और पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव का आकलन करने के लिये अध्ययन करता है।
- नियामक अनुपालन: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह सुनिश्चित करने के लिये राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और प्रदूषण नियंत्रण समितियों के साथ कार्य करता है कि उद्योग और अन्य संस्थाएँ पर्यावरणीय नियमों और मानकों का अनुपालन करें।
- सार्वजनिक जागरूकता: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर्यावरण संरक्षण और ज़िम्मेदार व्यवहार को बढ़ावा देने के लिये सार्वजनिक जागरूकता अभियान और शैक्षिक कार्यक्रमों का संचालन करता रहता है।