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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

राज्य मानवता का सिद्धांत

 21-Sep-2023

डी. रूपा बनाम रोहिणी सिंधुरी

"राज्य मानवता के सिद्धांत में वे कार्य शामिल नहीं हैं, जो लोक सेवक द्वारा स्वयं के लाभ या खुशी के लिये किये जाते हैं।"

न्यायाधीश सचिन शंकर मगदुम

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायाधीश सचिन शंकर मगदुम की पीठ ने कहा कि राज्य मानवता के सिद्धांत में उन कार्यों को शामिल नहीं किया गया है जो लोक सेवक द्वारा स्वयं के लाभ या खुशी के लिये किये जाते हैं।

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने डी. रूपा बनाम रोहिणी सिंधुरी मामले में यह टिप्पणी दी।

पृष्ठभूमि-

  • प्रतिवादी (पिछले शिकायतकर्ता) आई. ए. एस. अधिकारी ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1870 (IPC) की धारा 500 के तहत मानहानि का एक निजी शिकायत दर्ज की।
  • याचिकाकर्त्ता ने फेसबुक पर शिकायतकर्त्ता की तस्वीरें साझा करने का दोषी होने का आरोप लगाया गया था और याचिकाकर्त्ता ने जानबूझकर एक निज़ी फेसबुक अकाउंट पर टिप्पणियाँ और आरोप लगाए थे।
    • उन्होंने मीडिया को एक बयान दिया है जिसमें न केवल उनके पेशेवर जीवन में शिकायतकर्त्ता के चरित्र और आचरण पर सवाल उठाया गया है, बल्कि आरोपों में उनके निज़ी जीवन से संबंधित घटनाओं और कार्यों को भी शामिल किया गया है।
  • याचिकाकर्त्ता ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 के तहत सुरक्षा का दावा किया।
  • हालाँकि, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने ऐसी सुरक्षा से साफ इनकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणी

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 के संचालन का दायरा केवल उन कार्यों तक ही सीमित है जो एक लोक सेवक द्वारा आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन में किये जाते हैं।

राज्य मानवता का सिद्धांत

  • इसमें सरकार के कार्यों में किसी लोक सेवक द्वारा किये गए सभी कार्य शामिल हैं।
    • इस सिद्धांत को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 के तहत देखा जा सकता है।
  • इस सिद्दांत की उत्पत्ति प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार और प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा के सिद्धांतों के रूप में देखी जा सकती है।
  • इस सिद्धांत को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों और अभिसमयों में भी देखा जा सकता है, जिसका भारत भी हस्ताक्षरकर्त्ता है, जैसे कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights (UDHR).
  • यह प्रशासन की अखंडता और सरकारी कार्यालयों के प्रभावी कामकाज को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    • हालाँकि, 'कठोर' कानून कहते हुए कई बार इसकी आलोचना की गई है
      • 'कठोर कानून' शब्द उन नियमों या विनियमों का एक समूह होता है, जो अपने कार्यान्वयन में अत्यधिक कठोर, गंभीर या सख्त होता है।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197

  • परिचय:
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 197 भारत में एक महत्त्वपूर्ण कानूनी प्रावधान है, जो लोक सेवकों को तुच्छ या कष्टप्रद आपराधिक कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करती है।
    • यह इस बात को सुनिश्चित करने के लिये एक आवश्यक सुरक्षा है कि लोक सेवक आपराधिक न्याय प्रणाली के माध्यम से उत्पीड़न के भय के बिना अपने कर्त्तव्यों का पालन कर सकें।
  • प्रयोज्यता:
    • धारा 197 के अनुसार, कोई भी न्यायालय किसी लोक सेवक द्वारा उसके आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन के दौरान किये गए कथित अपराध का संज्ञान नहीं ले सकते हैं, जब तक कि सरकार या उसे उसके कार्यालय से हटाने के लिये सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति न मिल जाए।
    • धारा 197 के तहत लोक सेवक को मिलने वाली यह सुरक्षा लोक सेवक के कर्त्तव्यों के आधिकारिक निर्वहन में किये गए या किये जाने वाले कृत्यों तक ही सीमित है।
    • इसमें आधिकारिक ड्यूटी के दौरान किये गए वैध और गैरकानूनी दोनों कार्य शामिल हैं, बशर्ते कि वे उनके आधिकारिक कार्यों से उचित रूप से जुड़े हों।
  • अपराध की प्रकृति:
    • धारा 197 संज्ञेय और असंज्ञेय दोनों प्रकार के अपराधों पर लागू होती है।

आपराधिक कानून

चिकित्सा साक्ष्य के स्थान पर चश्मदीद के साक्ष्य को प्राथमिकता देना

 21-Sep-2023

रमेशजी अमरसिंह ठाकुर बनाम गुजरात राज्य

कानूनी कार्यवाही में चश्मदीद के साक्ष्य बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

रमेशजी अमरसिंह ठाकुर बनाम गुजरात राज्य के मामले में, उच्चतम न्यायालय (SC) द्वारा आपराधिक मामलों से संबंधित कानूनी कार्यवाही में प्रत्यक्षदर्शियों के साक्ष्य के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है।

पृष्ठभूमि-

  • यह मामला इस तथ्य से सामने आया है कि मृतक की हत्या चाकुओं के वार कर की गयी है।
  • मृतक के भाई द्वारा एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (F.I.R.) दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि अपराध अपीलकर्त्ता (अभियुक्त) और दो अन्य व्यक्तियों द्वारा किया गया था।
  • शव परीक्षण करने वाले सर्जन ने पाया कि मृत्यु सदमे और चाकू की चोट की वज़ह से रक्तस्राव के कारण हुई थी।
  • उन्होंने यह भी पहचाना कि मृतक के शरीर पर आठ चोटें आई थीं, जो उनकी राय में पोस्टमार्टम से पहले की थीं।
  • चिकित्सीय साक्ष्यों में यह भी कहा गया है कि बरामद किये गए चाकू से मौत नहीं हो सकती।
  • अभियोजन का मामला मुख्य रूप से मृतक के दूर के रिश्तेदार के साक्ष्य पर आधारित था, जिसे अभियोजन पक्ष ने प्रत्यक्ष प्रमाण/चश्मदीद के रूप में प्रस्तुत किया था।
  • जबकि अपीलकर्त्ता की ओर से तर्क दिया गया कि साक्ष्यों और स्वयं चश्मदीदों के बयानों में पर्याप्त विसंगतियाँ और विरोधाभास थे क्योंकि वह एक तटस्थ व्यक्ति नहीं थे।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया क्योंकि न्यायालय ने चाकू से वार करने के तरीके और हमले के हथियार की पहचान के संबंध में अभियोजन पक्ष की बात में विरोधाभास पाया।
  • इसके बाद, गुजरात उच्च न्यायालय (HC) में अपील करने पर, आरोपी को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 और 114 के तहत दोषी ठहराया गया।
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय में एक आपराधिक अपील दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्चतम न्यायालय ने दरबारा सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 2012) और अनवरुद्दीन बनाम शकूर (वर्ष 1990) मामले में दिये गए अपने पहले के फैसलों पर भरोसा किया, जिसमें चिकित्सा विशेषज्ञों की राय पर चश्मदीद के साक्ष्य के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया था। इस फैसले ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चश्मदीद गवाह का बयान, भले ही प्रत्येक विवरण में संपूर्ण न हो लेकिन घटनाओं के कालानुक्रमिक क्रम को स्थापित करने में अत्यधिक महत्त्व रखता है।
  • न्यायाधीश अनिरुद्ध बोस और न्यायाधीश बेला एम. त्रिवेदी ने गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध अपील पर सुनवाई करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के फैसले को पलट दिया।
    • खंडपीठ ने कहा “सिर्फ इसलिये कि प्रत्यक्षदर्शी/चश्मदीद द्वारा बताई गई चोटों से अधिक चोटें थीं, अभियोजन पक्ष के बयान को नकारा नहीं जा सकता। हमारी राय में अपीलकर्त्ता द्वारा बताई गई विसंगतियाँ मामूली हैं। मैं एक भीषण हत्या का एक चश्मदीद साक्ष्य के दौरान मृतक पर किये गए चाकू के वार का एक-एक करके वर्णन नहीं कर सकता जैसा कि पटकथा में होता है।''
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी बताया कि ट्रायल कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के गवाहों की समग्र गवाही को नज़रअंदाज करते हुए गवाहों के बयानों में अपेक्षाकृत कम विरोधाभासों पर अनुचित ज़ोर दिया था।

चश्मदीद के साक्ष्य बनाम विशेषज्ञ की राय

  • चश्मदीद साक्ष्य: इसका अर्थ है किसी प्रत्यक्ष प्रमाण का साक्ष्य।
  • विशेषज्ञ : ऐसा व्यक्ति जिसने आवश्यक क्षेत्र में विशेष ज्ञान, कौशल या अनुभव प्राप्त कर लिया हो।

चिकित्सा विशेषज्ञ की राय

  • चिकित्सा विशेषज्ञ: चिकित्सा विशेषज्ञ का अर्थ है एक चिकित्सक, सर्जन, नर्स, बाल रोग विशेषज्ञ, सूक्ष्म जीवविज्ञानी या कोई अन्य कुशल व्यक्ति जिसे अपनी विशेषज्ञता का अपेक्षित ज्ञान हो।
  • ऐसे आपराधिक मामलों में जहाँ आरोपी और पीड़ित की चिकित्सा जाँच आवश्यक होती है, वहाँ चिकित्सकों की राय लेने की आवश्यकता होती है और यह महत्त्वपूर्ण है।
  • निम्नलिखित साबित करने के लिये ऐसी राय की आवश्यकता हो सकती है :
    • किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण।
    • रोग या चोट का स्वभाव और शरीर या मन पर प्रभाव।
    • वह तरीका या उपकरण जिसके द्वारा ऐसी चोटें पहुँचाई गईं।
    • किसी व्यक्ति की आयु।
    • व्यक्ति की शारीरिक स्थिति।

कानूनी प्रावधान

भारतीय दंड संहिता, 1860

उपरोक्त मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट (F.I.R.) भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और 114 से संबंधित है जिसका विवरण नीचे दिया गया है:

धारा 114 - अपराध किये जाते समय दुष्प्रेरक की उपस्थिति- भारतीय दंड संहिता की धारा 114 के अनुसार, जब कभी कोई व्यक्ति अनुपस्थित होने पर दुष्प्रेरक के नाते दंडनीय हो और वह दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप किये गये अपराध / कार्य के समय उपस्थित होने के लिये दंडनीय होता है, तो यह समझा जायेगा कि उसने ऐसा कार्य या अपराध किया है।

धारा 302 - हत्या के लिये दंड - जब भी कोई किसी व्यक्ति की हत्या करता है, तो उसे मृत्यु दंड या आजीवन कारावास और साथ ही आर्थिक दंड से दंडित किया जायेगा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 45 के अंतर्गत विशेषज्ञ के साक्ष्य का उल्लेख है।

धारा 45 - विशेषज्ञों की राय - जब न्यायालय को विदेशी विधि या विज्ञान या कला की किसी बात पर या हस्तलेख या अंगुली-चिह्नों की अनन्यता के बारे में राय बनानी हो तब उस बात पर ऐसी विदेशी विधि, विज्ञान या कला में या हस्तलेख या अंगुली-चिन्हों की अनन्यता विषयक प्रश्नों में, विशेष कुशल व्यक्तियों की रायें सुसंगत तथ्य है।

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम किसी विशेषज्ञ की राय को उचित महत्त्व देता है, हालाँकि एक सामान्य व्यक्ति की राय का कोई महत्त्व नहीं है।
  • विशेषज्ञ का साक्ष्य निर्णायक नहीं है और ऐसे साक्ष्य पर कितना भरोसा किया जाना चाहिये या इसे कितना महत्त्व दिया जाना चाहिये यह संबंधित न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है।

निर्णयज विधि

  • दयाल सिंह बनाम उत्तरांचल राज्य (वर्ष 2012): उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विशेषज्ञ की राय का प्राथमिक उद्देश्य न्यायालय को अंतिम फैसले तक पहुँचने में सहायता करना है, हालाँकि ऐसी राय न्यायालय के लिये बाध्यकारी नहीं है।
  • पृथ्वीराज जयंतीभाई वनोल बनाम दिनेश दयाभाई वाला (वर्ष 2014) मामले में न्यायामूर्ति नवीन सिन्हा और आर. सुभाष रेड्डी की उच्च न्यायालय की पीठ ने माना, कि चश्मदीद के साक्ष्य को सबसे उचित साक्ष्य माना जाता है जब तक कि इस पर संदेह करने के कोई कारण न हों।
  • हिमांशु मोहन राय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (वर्ष 2017): उच्चतम न्यायालय ने माना कि जहाँ चश्मदीद की गवाही यह बताती है कि आरोपी ने मृतक की गोली मारकर हत्या की, वह विश्वसनीय होगा, विशेषज्ञ की राय उसे बदनाम नहीं कर सकती।

सिविल कानून

अस्थायी निषेधाज्ञा

 21-Sep-2023

रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट प्रा. लिमिटेड बनाम अशोक कुमार/जॉन डो एवं अन्य

"कुछ वेबसाइटों के मालिकों/नियंत्रकों को निर्देशित किया जाता है कि वे किसी भी कंटेंट/सामग्री के अनधिकृत उपयोग से बचें, जिस पर वादी का कॉपीराइट है।"

न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायाधीश सी. हरि शंकर की पीठ ने कुछ वेबसाइटों के मालिकों/नियंत्रकों को किसी भी ऐसे कंटेंट की अनधिकृत प्रतिलिपि, प्रसारण और संप्रेषण से दूर रहने का निर्देश दिया, जिस पर वादी का कॉपीराइट है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड बनाम अशोक कुमार/जॉन डो एवं अन्य मामले में यह टिप्पणी दी

पृष्ठभूमि

  • अप्रैल, 2023 में न्यायालय ने प्रतिवादियों और उनकी ओर से कार्य करने वाले अन्य सभी लोगों को सिनेमैटोग्राफिक फिल्म जवान से संबंधित अन्य मालिकाना जानकारी सहित फिल्म के ऑडियो/वीडियो क्लिप, गाने, रिकॉर्डिंग की नकल करने, उसकी रिकॉर्डिंग करने, पुनरुत्पादन करने, रिकॉर्डिंग की अनुमति देने, संचारित करने, संचार करने या वितरण करने, नकल करने, प्रदर्शन या रिलीज के लिये उपलब्ध कराने या किसी भी तरीके से प्रदर्शित करने से रोक दिया।
  • हालाँकि, इस मामले में एक आवेदन पर सुनवाई हुई क्योंकि वादी ने दावा किया कि श्री रोहित शर्मा उपरोक्त गतिविधियों में लिप्त हैं।
  • वादी ने मेटा प्लेटफ़ॉर्म को मामले में एक पक्षकार बनाने की मांग की, जो व्हाट्सएप को नियंत्रित करता है।
  • वादी ने न्यायालय से उन विभिन्न चैट समूहों को बंद करने का अनुरोध किया, जिन पर श्री रोहित शर्मा द्वारा वादी की कॉपीराइट सामग्री को अवैध रूप से प्रसारित किया जा रहा है।
  • वादी ने यह आवेदन सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXXIX नियम 1 और 2 के तहत प्रस्तुत किया। श्री रोहित शर्मा और मेटा प्लेटफॉर्म्स को अप्रैल, 2023 के अंतरिम आदेश के विस्तार की मांग की गई।

भारत के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी

  • दिल्ली उच्च न्यायालय की पीठ ने प्रतिवादियों को एक हलफनामे पर आईपी एड्रेस, उपयोगकर्त्ता का नाम, पंजीकृत ईमेल आईडी, फोन नंबर और दोषी खातों के अन्य प्रासंगिक विवरण सहित मूल ग्राहक जानकारी का खुलासा करने का निर्देश दिया।
  • न्यायालय ने यह टिप्पणी सीपीसी के आदेश XXXIX नियम 3 के तहत एक पक्षीय अस्थायी निषेधाज्ञा के रूप में दी

अस्थायी निषेधाज्ञा

  • उद्देश्य:
    • अस्थायी निषेधाज्ञा का प्राथमिक उद्देश्य मुकदमेबाजी के दौरान अपूरणीय क्षति या अन्याय को रोकना है।
    • यह पक्षों के अधिकारों को संरक्षित करने और न्याय सुनिश्चित करने के बीच एक संतुलन के रूप में कार्य करता है।
  • प्रयोज्यता:
    • जब कोई वादी सिविल मुकदमा दायर करता है और मानता है कि प्रतिवादी के कार्यों से तत्काल और अपूरणीय क्षति हो सकती है, तो वह मौज़ूदा स्थिति को बनाए रखने के लिये अस्थायी निषेधाज्ञा की मांग कर सकता है जब तक कि न्यायालय मुख्य विवाद में कोई फैसला नहीं कर देता।
    • वे अंतर्वादी निषेधाज्ञा (interlocutory orders) होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मुख्य मुकदमे के लंबित रहने के दौरान जारी किये जाते हैं और मामला बढ़ने पर संशोधन या प्रतिग्रहण के अधीन होते हैं।
    • अस्थायी निषेधाज्ञा की अवधारणा मुख्य रूप से सीपीसी के नियम 1 और 2 के अंतर्गत आती है।
  • न्यायालय द्वारा नोटिस:
    • आम तौर पर, अस्थायी निषेधाज्ञा देने से पहले, न्यायालय को विपरीत पक्ष को नोटिस जारी करना चाहिये और उन्हें सुनने का अवसर प्रदान करना चाहिये।
      • हालाँकि, अत्यावश्यकता के मामलों में, आदेश XXXIX नियम 3 सीपीसी के तहत अस्थायी रूप से एकपक्षीय निषेधाज्ञा दी जा सकती है।
  • समय सीमा:
    • अस्थायी निषेधाज्ञा अनिश्चितकालीन नहीं होती है।
    • ये आमतौर पर एक निश्चित अवधि के लिये दी जाती हैं, और न्यायालय आवश्यकतानुसार उन्हें बढ़ा या संशोधित कर सकता है।
  • उल्लंघन:
    • सीपीसी के नियम 2A के तहत - दिये गए किसी भी निषेधाज्ञा की अवज्ञा के मामले में न्यायालय ऐसी अवज्ञा या उल्लंघन के दोषी व्यक्ति की संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे सकता है और ऐसे व्यक्ति को एक अवधि के लिये सिविल जेल में हिरासत में रखने का भी आदेश दे सकता है। उक्त अवधि तीन माह से अधिक नहीं हो सकती, जब तक कि इस बीच न्यायालय उसकी रिहाई का निर्देश न दे।

अस्थायी निषेधाज्ञा का लाभ उठाने के लिये आवश्यक बातें

  • वादी को अपने पक्ष में प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करना होगा।
  • वादी को यह प्रदर्शित करना होगा कि यदि निषेधाज्ञा नहीं दी गई तो उन्हें अपूरणीय चोट या क्षति होगी।
  • न्यायालय दोनों पक्षों पर विचार करेगा-
    • इसका अर्थ यह विचार करना है कि क्या निषेधाज्ञा देना अधिक उचित और सुविधाजनक है या इसे अस्वीकार करना है।
    • न्यायालय यह निर्धारण करते समय दोनों पक्षों के हितों और सार्वजनिक हित को ध्यान में रखता है।
  • वादी को यह प्रदर्शित करना होगा कि उसके पास कोई अन्य पर्याप्त उपाय उपलब्ध नहीं है। यदि मौद्रिक क्षति वादी को पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति कर सकती है, तो न्यायालय निषेधाज्ञा देने के लिये कम इच्छुक हो सकता है।