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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी

 05-Oct-2023

राजेश टोटागंती बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

"बिक्री विलेख के प्रमाणित गवाह को धोखाधड़ी के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता है यदि वह केवल गवाह को प्रमाणित कर रहा हो।"

न्यायाधीश एम. नागप्रसन्ना

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायाधीश एम नागप्रसन्ना ने कहा कि बिक्री विलेख के प्रमाणित गवाह को भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, यदि वह केवल साक्ष्य को प्रमाणित कर रहा हो।

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी राजेश टोटागंती बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में दी।

राजेश टोटागंती बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि

  • प्रतिवादी संख्या 2 ने याचिकाकर्त्ता सहित तीन आरोपियों के खिलाफ धोखाधड़ी और कई संबंधित अपराधों के लिये एक निजी शिकायत दर्ज की।
  • याचिकाकर्त्ता ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया क्योंकि उसके खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता का उल्लेख एक अन्य अभियुक्त के मित्र और विचाराधीन विक्रय विलेख के प्रमाणित गवाह के रूप में किया गया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि विक्रय विलेख को देखने से यह संकेत मिलता है कि याचिकाकर्त्ता विक्रय विलेख का प्रमाणित साक्षी है।
    • एक प्रमाणित साक्षी और आरोपी संख्या 1 के मित्र के रूप में कार्य करने वाले याचिकाकर्त्ता के इस आरोप को छोड़कर, याचिकाकर्त्ता के खिलाफ कोई अन्य आरोप नहीं है जो धोखाधड़ी के किसी भी तत्व को दर्शाएगा।

भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी

  • परिचय:
    • आईपीसी की धारा 420 धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति का अधिग्रहण करने से संबंधित है।
    • यह धोखाधड़ी का एक अधिक गंभीर रूप है, जिसे बेईमानी की नियति से संपत्ति का अधिग्रहण करने के साथ जोड़ा जाता है।
    • यह लैंगिक रूप से तटस्थ प्रावधान है।
  • प्रयोज्यता:
    • यह धारा तब लागू होती है जब कोई व्यक्ति दूसरे को धोखा देता है, जिससे उसे संपत्ति वितरित करनी पड़ती है या उस धोखे के आधार पर मूल्यवान प्रतिभूतियों में परिवर्तन करना पड़ता है।
  • सज़ा:
    • इस अपराध के लिये न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा अधिक गंभीर है और इसे सात वर्ष तक की कैद तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगा सकता है।
  • आवश्यक बातें:
    • भ्रामक आशय:
      • आरोपी का किसी को धोखा देने में बेईमानी का आशय रहा होगा।
      • जो मनःस्थिति का तत्व, या दोषी मन, कार्य के पीछे आपराधिक आशय को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण है।
    • अनुचित प्रतिनिधित्व:
      • अपराधी ने अनुचित प्रस्तुतिकरण या बयान दिये होंगे, जिससे पीड़ित को उस बात पर विश्वास हो गया जो सत्य थी।
      • इसमें झूठे वादे, भ्रामक जानकारी या किसी भी प्रकार की गलतबयानी शामिल है।
  • उत्प्रेरण:
    • अनुचित प्रस्तुतिकरण ने पीड़ित को संपत्ति देने के लिये प्रेरित किया होगा, चाहे वह पैसा हो, सामान हो या कोई अन्य मूल्यवान संपत्ति हो।
    • उत्प्रेरण का कार्य भ्रामक आशय से पीड़ित को हुए वास्तविक नुकसान से जोड़ने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
  • संपत्ति का परिदान:
    • पीड़ित ने धोखे से अपनी संपत्ति वितरित कर दी होगी।
    • संपत्ति परिदान का कार्य धारा 420 के तहत अपराध के दायरे में आता है।

व्यवहार विधि

माफी में विलंब

 05-Oct-2023

मल्लिका बनाम श्री मुथरम्मन मंदिर ट्रस्ट, नेदुमंगड

परिसीमा अवधि समाप्त होने के बाद कानूनी सलाह लेना अपील दायर करने की समय सीमा बढ़ाने का वैध कारण नहीं माना जा सकता है।

केरल उच्च न्यायालय

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

केरल उच्च न्यायालय (HC) ने किराया नियंत्रण पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए पुष्टि की कि परिसीमा अवधि की समाप्ति के बाद कानूनी सलाह लेने को मल्लिका बनाम श्री मुथरमन मंदिर ट्रस्ट, नेदुमंगड के मामले में अपील दायर करने की समय सीमा बढ़ाने को वैध कारण नहीं माना जा सकता है।

मल्लिका बनाम श्री मुथरम्मन मंदिर ट्रस्ट, नेदुमंगड मामले की पृष्ठभूमि

  • पहली किराया नियंत्रण याचिका में याचिकाकर्त्ता (मल्लिका) एक किरायेदार थी और उसने बेदखली याचिका में मकान मालिक के स्वामित्व को चुनौती दी थी।
    • सद्भावना के अभाव के कारण न्यायालय द्वारा याचिका का निपटारा कर दिया गया।
    • याचिकाकर्त्ता समय पर अपील दायर करने में विफल रहा, जिसने बाद में कानूनी सलाह प्राप्त करने के बाद ही अपील दायर की।
  • इसके बाद, मकान मालिक ने याचिकाकर्त्ता को बेदखल करने के लिये किराया नियंत्रण न्यायालय में एक और कार्यवाही शुरू की जिसमें याचिकाकर्त्ता ने पुनः मकान मालिक के स्वामित्व को चुनौती दी।
    • इसे न्यायिक निर्णय द्वारा वर्जित मानकर ख़ारिज कर दिया गया।
    • याचिकाकर्त्ता ने उक्त आदेश को अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष चुनौती दी और उसे खारिज कर दिया गया।
    • याचिकाकर्त्ता ने आगे उपर्युक्त आदेश के खिलाफ अपील दायर की।
  • उक्त अपील दायर करने में 1160 दिनों की देरी हुई थी और इसलिये याचिकाकर्त्ता ने माफी में विलंब के लिये एक आवेदन प्रस्तुत किया है।
  • विलंब माफी करने के आवेदन के समर्थन में दायर हलफनामे में याचिकाकर्त्ता द्वारा बताया गया एकमात्र कारण यह था कि उसकी ओर से वकील ने उसे ऐसे समय में आदेश के खिलाफ अपील करने की सलाह दी थी।
  • अपीलीय प्राधिकारी ने विलंब माफी करने से इनकार कर दिया।
  • याचिकाकर्त्ता ने इस प्रकार उच्च न्यायालय के समक्ष यह याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायाधीश पी.बी. सुरेश कुमार और न्यायाधीश पी.जी. अजितकुमार ने कहा कि यदि किसी पक्षकार द्वारा प्राप्त कानूनी सलाह के आधार पर विलंब माफी दे दिया जाता है, तो इससे परिसीमा अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
  • न्यायालय ने यह भी कहा, "परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के संदर्भ में कार्यवाही शुरू करने में विलंब माफी करने पर कानूनी सलाह को एक कारण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, किसी भी पर्याप्त कारण के रूप में तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि यदि बाद की कानूनी सलाह को एक कारण के रूप में स्वीकार किया जाता है तो कार्यवाही शुरू करने में विलंब माफी करने का कारण, परिसीमा अधिनियम के उद्देश्य को ही विफल हो जाएगा, अर्थात, प्रत्येक उपाय केवल विधायिका द्वारा निर्धारित अवधि की समाप्ति तक ही रहना चाहिये जो कि सार्वजनिक नीति पर स्थापित एक सिद्धांत है। ”

परिसीमा अधिनियम, 1963 में शामिल कानूनी प्रावधान

  • यह अधिनियम निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है:
    • इंटरेस्ट रिपब्लिके यूट सिट फिनिस लिटियम - जनता के हित में, मुकदमेबाजी समाप्त होनी चाहिये।
    • विजिलेंटिबस नॉन डोरमेंटिबस जुरा सबवेनिनेट - न्यायालय उन लोगों की रक्षा करता है, जो अपने अधिकारों के प्रति सतर्क हैं।
  • अधिनियम की धारा 5 के तहत विलंब माफी की अवधारणा का उल्लेख किया गया है।

धारा 5 - विहित काल का कतिपय दशाओं में विस्तारण-कोई भी अपील या कोई भी आवेदन, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश 21 के उपबंधों में से किसी के अधीन के आवेदन से भिन्न हो, विहित काल के पश्चात् ग्रहण किया जा सकेगा यदि अपीलार्थी या आवेदक, न्यायालय का यह समाधान कर दे कि उसके पास ऐसे काल के भीतर अपील या आवेदन न करने के लिये पर्याप्त हेतुक था।

स्पष्टीकरण-यह तथ्य कि अपीलार्थी या आवेदक विहित काल का अभिनिश्चय या संगणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय के कारण भुलावे में पड़ गया था, इस धारा के अर्थ के भीतर पर्याप्त हेतुक हो सकेगा।

  • यदि न्यायालय संतुष्ट है कि पर्याप्त कारण मौज़ूद है तो वह माफी में विलंब कर सकता है।
  • हाल ही में साबरमती गैस लिमिटेड बनाम शाह अलॉयज लिमिटेड (वर्ष 2023) में उच्चतम न्यायालय (SC) ने पर्याप्त कारण को ऐसे कारण के रूप में परिभाषित किया जिसके लिये किसी पक्षकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
  • इसमें पर्याप्त कारण में शामिल हो सकते हैं:
    • बीमारी: यह केवल एक पर्याप्त कारण हो सकता है, जहाँ व्यक्ति किसी भी कर्त्तव्य करने में पूरी तरह से अक्षम होता है।
      • उदाहरण के लिये - एक दुर्घटना जिसमें कोई व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया हो, उसे पर्याप्त कारण माना जाएगा जबकि सामान्य फ्लू के कारण होने वाली बीमारी को पर्याप्त कारण नहीं माना जा सकता है।
      • प्राकृतिक आपदाएँ: यदि बाढ़, भूकंप, या अन्य प्राकृतिक आपदा ने किसी को वैधानिक सीमा अवधि के भीतर अपना मामला दायर करने से रोका है, तो इसे पर्याप्त कारण माना जा सकता है।
      • वकील की गलती: सलाह स्वयं पर्याप्त कारण के दायरे में नहीं आती है, लेकिन मोहनलाल बनाम तेजसिंह ठाकुर (वर्ष 1958) मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि जहाँ सलाह सद्भावना के आधार पर दी जाती है और वहाँ वकील की ओर से कोई लापरवाही या उचित कौशल की कमी नहीं होती है, इसे पर्याप्त कारण माना जा सकता है।
      • तथ्य की गलती: बीरबल बनाम हीरालाल (वर्ष 1953) में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि पक्षकार या उसके अभिकर्त्ता की ओर से तथ्य की वास्तविक गलती को पर्याप्त कारण माना जाएगा।
      • कानून की गलती: इसे आमतौर पर पर्याप्त कारण नहीं माना जाता है, लेकिन परस्पर विरोधी निर्णयों के अस्तित्व के कारण अपील दायर करने वाले पक्ष के लिये भ्रम उत्पन्न हो गया है, जिसे माफी में विलंब करने के लिये विस्तारण मांगने का एक वैध कारण माना जा सकता है।
      • कानूनी नोटिस न मिलना: यदि व्यक्ति को सीमा अवधि समाप्त होने के बाद तक मामले से संबंधित कानूनी नोटिस या महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ नहीं मिले हैं, तो इसे पर्याप्त कारण माना जा सकता है।

व्यवहार विधि

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 9(1) के तहत अंतरिम संरक्षण

 05-Oct-2023

AMR JV बनाम उड़ीसा स्टील एक्सप्रेसवे प्राइवेट लिमिटेड

"ऐसा पक्ष जो न्यायालय के तत्काल हस्तक्षेप की मांग करता है, उसे क़ानून की किसी भी बेड़ी से नहीं बांधा जा सकता है।"

न्यायाधीश मौसमी भट्टाचार्य

स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय (एपी/863/2022)

चर्चा में क्यों?

न्यायाधीश मौसमी भट्टाचार्य ने कहा कि जो पक्ष न्यायालय के तत्काल हस्तक्षेप की मांग करता है, उसे क़ानून की किसी भी बेड़ी से नहीं बांधा जा सकता है।

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी एएमआर जेवी बनाम उड़ीसा स्टील एक्सप्रेसवे प्राइवेट लिमिटेड के मामले में दी।

एएमआर जेवी बनाम उड़ीसा स्टील एक्सप्रेसवे प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्त्ता का आवेदन मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration & Conciliation Act, 1996 (A&C) की धारा 9(1) के तहत अंतरिम संरक्षण और मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये प्रस्तुत किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी के साथ एक अनुबंध किया गया था, जिसमें उन्होंने अपना दायित्व निभाया, हालाँकि प्रतिवादी ने अनुबंध की शर्तों का मौलिक उल्लंघन किया।
  • और प्रतिवादी के कृत्य के कारण याचिकाकर्त्ता को नुकसान का सामना करना पड़ा।
  • इसमें पहले से ही एक मध्यस्थता कार्यवाही चल रही थी जिसमें प्रतिवादी को लगभग 322 करोड़ रुपये का पंचाट दिया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादियों के खिलाफ शेष राशि के दावे के लिये यह आवेदन प्रस्तुत किया, जिसकी राशि लगभग 76 करोड़ रुपये थी और इसलिये प्रतिवादी पर उस राशि को वापस लेने के लिये अंतरिम रोक लगाने की प्रार्थना की, जो उसे पूर्व मध्यस्थ कार्यवाही में की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा, कि यदि न्यायालय याचिकाकर्त्ता के लिये जानबूझकर विलंब करता है, तो प्रतिवादी निर्वासित हो सकता है और संरक्षित करने के आशय से जा सकता है।
  • यह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 9(1) के तहत समय पर, प्रभावी और केंद्रित अंतरिम अनुतोष के संपूर्ण उद्देश्य के प्रति प्रतिषेधित होगा।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 9(1) के तहत अंतरिम संरक्षण

  • परिचय:
    • धारा 9 न्यायालय को मध्यस्थ कार्यवाही के दौरान या मध्यस्थ पंचाट प्रस्तुत करने के बाद किसी भी समय इसे लागू करने से पहले अंतरिम अनुतोष देने का अधिकार प्रदान करता है।
  • उद्देश्य:
    • यह सुनिश्चित करना है कि मध्यस्थता प्रक्रिया की प्रभावशीलता कम न हो, और मध्यस्थता का उद्देश्य विफल न हो।
    • धारा 9 के तहत, एक पक्ष अपने अधिकारों या संपत्तियों की सुरक्षा के लिये निषेधाज्ञा, संपत्ति के संरक्षण, या किसी अन्य आवश्यक आदेश जैसे अंतरिम उपायों की मांग के लिये न्यायालय से संपर्क कर सकता है।
    • न्यायालय के पास विवाद की तात्कालिकता और प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ऐसे अंतरिम उपाय करने का अधिकार है।
    • यह प्रावधान न केवल मध्यस्थता प्रक्रिया की प्रभावकारिता को बढ़ाता है बल्कि उन पक्षों के लिये एक सुरक्षा कवच भी प्रदान करता है, जिन्हें तत्काल अनुतोष नहीं मिलने पर अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ सकता है।
  • परिसीमन:
    • जहाँ मध्यस्थता कार्यवाही शुरू होने से पहले एक न्यायालय सुरक्षा के किसी अंतरिम उपाय के लिये एक आदेश पारित करता है तो मध्यस्थता कार्यवाही ऐसे आदेश की तारीख से नब्बे दिनों की अवधि के भीतर या न्यायालय द्वारा निर्धारित अतिरिक्त समय के भीतर शुरू की जाएगी।

इस मामले में शामिल कानूनी प्रावधान

न्यायालय द्वारा अंतरिम उपाय, यदि-कोई पक्षकार, माध्यस्थम् कार्यवाहियों के पूर्व या उनके दौरान या माध्यस्थम् पंचाट किये जाने के पश्चात् किसी समय किंतु इससे पूर्व कि वह धारा 36 के अनुसार प्रवृत्त किया जाता है, तब किसी न्यायालय को-

(i) माध्यस्थम् कार्यवाहियों के प्रयोजनों के लिये किसी अप्राप्तवय या विकृतचित्त व्यक्ति के लिये संरक्षक की नियुक्ति के लिये; या

(ii) निम्नलिखित विषयों में से किसी के संबंध में संरक्षण के किसी अंतरिम अध्युपाय के लिये, अर्थात्:-

(क) किसी माल का, जो माध्यस्थम् करार की विषय-वस्तु है, परिरक्षण, अंतरिम अभिरक्षा या विक्रय;

(ख) माध्यस्थम् में विवादग्रस्त रकम सुरक्षित करने;

(ग) किसी संपत्ति या वस्तु का, जो माध्यस्थम् में विषय-वस्तु या विवाद है या जिसके बारे में कोई प्रश्न उसमें उद्भूत हो सकता है, निरोध, परिरक्षण या निरीक्षण और पूर्वोक्त प्रयोजनों में से किसी के लिये किसी पक्षकार के कब्ज़े में किसी भूमि पर या भवन में किसी व्यक्ति को प्रवेश करने देने के लिये प्राधिकृत करने, या कोई ऐसा नमूना लेने हेतु या कोई ऐसा संप्रेक्षण या प्रयोग कराए जाने के लिये जो पूर्ण जानकारी या साक्ष्य प्राप्त करने के प्रयोजन के लिये आवश्यक या समीचीन हो, प्राधिकृत करने;

(घ) अंतरिम व्यादेश या किसी प्रापक की नियुक्ति करने;

(ङ) संरक्षण का ऐसा अन्य अंतरिम उपाय करने के लिये जो न्यायालय को न्यायोचित और सुविधाजनक प्रतीत हो, आवेदन कर सकेगा,

और न्यायालय को आदेश करने की वही शक्तियाँ होंगी, जो अपने समक्ष किसी कार्यवाही के प्रयोजन के लिये और उसके संबंध में उसे हैं ।