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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

चुनावी बॉण्ड मामला

 11-Oct-2023

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और अन्य बनाम भारत संघ

भारत के मुख्य न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने प्रारंभिक मुद्दों की सुनवाई की और कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई 31 अक्टूबर, 2023 को की जाएगी।

उच्चतम न्यायलाय

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायलाय (SC) एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और अन्य बनाम भारत संघ के मामले में चुनावी बॉण्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 31 अक्टूबर, 2023 को सुनवाई करेगा।

चुनावी बॉण्ड मामले की पृष्ठभूमि:

  • कोई भी इच्छुक दानदाता भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का उपयोग करके और केवाईसी (अपने ग्राहक को जानें) आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RPA) की धारा 29C में किये गए संशोधन के बाद निर्दिष्ट बैंकों और शाखाओं में चुनावी बॉण्ड खरीद सकता है।
  • चुनावी बॉण्ड विभिन्न मूल्यवर्ग में उपलब्ध हैं, जिससे खरीदार उन्हें 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये या 1 करोड़ रुपये के गुणकों में किसी भी राशि पर खरीद सकते हैं। विशेष रूप से बॉण्ड में दाता का नाम नहीं होता है, जिससे योगदानकर्त्ता की गुमनामी सुनिश्चित होती है।
  • बॉण्ड की वैधता 15 दिनों की रहती है जिसके अंदर भुगतानकर्ता को इसे भुनाना होता है।
  • बॉण्ड के अंकित मूल्य को किसी पात्र राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक योगदान के रूप में माना जाएगा और इसे आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13A के तहत आयकर से छूट का दावा करने के उद्देश्य से ध्यान में रखा जाएगा।
  • इसके बाद वित्त अधिनियम, 2017 आया, इसने गुमनाम चुनावी बॉण्ड के प्रावधान को आगे प्रस्तुत किया।
    • वित्त अधिनियम, 2017 ने आयकर अधिनियम, 1961, आरपीए सहित कुछ कानूनों में संशोधन पेश किया।
  • वर्तमान याचिका राजनीतिक दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज एवं एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) द्वारा दायर की गई है, जिसमें इस योजना को "एक अस्पष्ट और अनियंत्रित फंडिंग प्रणाली के रूप में संदर्भित कर चुनौती दी गई है।
  • न्यायालय निम्नलिखित आधारों पर याचिका पर सुनवाई करने के लिये सहमत हुआ:
    • क्या गुमनाम चुनावी बॉण्ड नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन हैं?
    • क्या ऐसी योजना अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है?
  • उच्चतम न्यायलाय इस मामले की सुनवाई 31 अक्टूबर 2023 को करेगा।

चुनावी बॉण्ड:

  • चुनावी बॉण्ड भारत में राजनीतिक चंदा देने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला एक वित्तीय साधन है।
  • इन्हें राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और जवाबदेहिता लाने के सरकार के प्रयासों के तहत वर्ष 2017 में प्रस्तुत किया गया था।
  • चुनावी बॉण्ड का प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक दान के लिये नकदी के उपयोग को खत्म करना और यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक दलों की फंडिंग अधिक पारदर्शी और वैध हो।

चुनावी बॉण्ड की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

  • जारीकर्ता: चुनावी बॉण्ड भारत में अधिकृत बैंकों द्वारा जारी किये जाते हैं। भारतीय स्टेट बैंक (SBI), ये बॉण्ड जारी करने वाला एकमात्र अधिकृत बैंक है।
  • मूल्यवर्ग: चुनावी बॉण्ड कई मूल्यवर्ग में उपलब्ध हैं, आमतौर पर न्यूनतम ₹1,000 से लेकर ₹1 करोड़ तक के मूल्यवर्ग तक।
  • क्रेता: कोई भी व्यक्ति या संस्था, चाहे वह भारतीय नागरिक हो या कॉर्पोरेट इकाई, नामित बैंक से चुनावी बॉण्ड खरीद सकता है।
  • गुमनामी: चुनावी बॉण्ड की प्रमुख विशेषताओं में से एक यह है कि वे वाहक साधन हैं। इसका अर्थ यह है कि बॉण्ड पर दानकर्ता की पहचान का उल्लेख नहीं किया गया है, जिससे गुमनामी सुनिश्चित हो सके।
  • उपयोग: चुनावी बॉण्ड केवल उन राजनीतिक दलों द्वारा भुनाया जा सकता है जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत पंजीकृत हैं।
  • पारदर्शिता: सरकार ने तर्क दिया कि चुनावी बॉण्ड से पारदर्शिता में वृद्धि होगी क्योंकि दाता की जानकारी बैंक को पता होती है, भले ही इसे लोगों के सामने प्रकट न किया गया हो।

चुनावी बॉण्ड का नमूना:

संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 14, 19, 21 का भारत के संविधान के तहत महत्वपूर्ण स्थान है।
  • इसके अलावा, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के मामले में उच्चतम न्यायलाय ने माना कि किसी व्यक्ति को 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' से वंचित करने वाला कानून न केवल अनुच्छेद 21 बल्कि अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 की कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता है।

  • अनुच्छेद 14 - विधि के समक्ष समता — राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद 19 - वाक्‌-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण
    (1) सभी नागरिकों को--
    (a) वाक्‌-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का,
    (b) शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
    (c) संगम या संघ बनाने का,
    (d) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
    (e) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का, और
    (f) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा।
  • उपर्युक्त अधिकार अनुच्छेद 19(2) - (6) के तहत उल्लिखित उचित प्रतिबंधों के अधीन उपलब्ध हैं।
  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण - किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

व्यापारिक सन्नियम

कर रियायत के लिये दावा साबित करने का बोझ

 11-Oct-2023

मैसर्स अमृत स्टील्स बनाम आयुक्त वाणिज्यिक कर

"मूल कार्यवाही में, रियायत के दावे को संदेह से परे पूरा करने का दायित्व डीलर पर है।"

न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल

स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल ने कहा कि कर रियायत के दावे को साबित करने का दायित्व मूल कार्यवाही में निर्धारिती पर है और पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही में विभाग पर है।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी मैसर्स अमृत स्टील्स बनाम आयुक्त, वाणिज्यिक कर के मामले में दी।

मैसर्स अमृत स्टील्स बनाम आयुक्त, वाणिज्यिक कर मामले की पृष्ठभूमि:

  • संशोधनवादी ने मेसर्स यश ट्रेडर्स, राजस्थान को केंद्रीय बिक्री की और रियायती दर का दावा किया।
  • ऐसा बताया जा रहा है कि उक्त दावे को 2,11,47,201/- रुपये के 23 चालानों द्वारा कवर किया गया था।
  • मूल्यांकन प्राधिकारी ने मूल्यांकन आदेश तैयार करते समय एक सत्यापन की मांग की, जिसके लिये एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई कि सामान खरीदने वाले डीलर ने केवल एक लेनदेन का खुलासा किया जो 2,75,094/ रूपये की राशि का लेनदेन बिल संख्या 45 के तहत किया गया था।
  • उक्त जानकारी प्राप्त होने पर, मूल्यांकन प्राधिकारी ने मूल्यांकन आदेश पारित करते हुए उक्त पार्टी को की गई एक बिक्री को स्वीकार कर लिया और रियायत दी लेकिन अन्य 22 बिक्री पर कर की उच्च दर लगा दी।
  • उक्त आदेश से व्यथित होकर, आवेदक ने ट्रिब्यूनल में अपील की, जिसे खारिज़ कर दिया गया है।
  • इसलिये उच्च न्यायालय के समक्ष एक संशोधन को प्राथमिकता दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि "जब पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही शुरू की जा रही है, तो इसका बोझ राजस्व पर स्थानांतरित कर दिया जाता है, लेकिन मूल कार्यवाही में किये गए दावे को संदेह से परे पूरा करने की ज़िम्मेदारी डीलर पर होती है"।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि “जब डीलर कर की रियायती दर का दावा कर रहा है तो यह ज़िम्मेदारी डीलर पर है कि वह अपने मामले को संदेह से परे साबित करे। संशोधनवादी द्वारा उक्त दायित्व का निर्वहन नहीं किया गया है।”

टैक्स पर रियायत:

  • कर रियायत आमतौर पर किसी व्यक्ति या व्यावसायिक इकाई द्वारा भुगतान की जाने वाली करों की राशि में सरकार द्वारा दी गई कटौती, भत्ता या छूट को संदर्भित करती है।
  • ये रियायतें अक्सर विशिष्ट नीतिगत उद्देश्यों को प्राप्त करने, आर्थिक गतिविधि को प्रोत्साहित करने, या कुछ समूहों या उद्योगों को राहत प्रदान करने के लिये लागू की जाती हैं।
  • साबित करने का भार (BOP):
    • कर रियायत के लिये दावा साबित करने का भार आमतौर पर करदाता पर होता है।
    • जब कोई करदाता कर लाभ या रियायत के लिये दावा करता है तो उस दावे का समर्थन करने के लिये पर्याप्त सबूत और दस्तावेज़ प्रदान करना उनकी ज़िम्मेदारी है।
    • यह सिद्धांत सामान्य कानूनी सिद्धांत के अनुरूप है कि दावा करने वाले व्यक्ति पर इसे साबित करने का भार है।
  • BOP का स्थानांतरण:
    • यह साबित करने का भार कि कर रियायत का दावा गलत है, पुनर्मूल्यांकन कार्यवाही में राजस्व विभाग पर केवल तभी होता है जब निर्धारिती या करदाता, मूल कार्यवाही में अपना दावा साबित करता है।

इससे संबंधित ऐतिहासिक मामले:

  • मैसर्स आई.टी.सी. लिमिटेड बनाम केंद्रीय उत्पाद शुल्क आयुक्त, नई दिल्ली और अन्य (2004):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि "मूल्यांकन प्राधिकारी विषयवस्तु की वास्तविकता का पता लगाने के लिये प्रमाण पत्र की जाँच करने में सक्षम है और वह खुद को संतुष्ट करने के लिये प्रमाण पत्र की विषयवस्तु के बारे में पूछताछ करने में सक्षम है कि खरीदा गया सामान सत्यापन योग्य है और एक बार सत्यापन में घोषणा सही नहीं पाई गई तो लाभ नहीं दिया जा सकता है।
  • स्टार पेपर मिल्स लिमिटेड बनाम बिक्री कर आयुक्त (1991):
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐसे मामले पर गौर किया जहाँ रियायत के दावे को साबित करने की ज़िम्मेदारी राजस्व विभाग को सौंपी जा सकती है।

कर रियायत का दावा करते समय करदाता क्या सावधानियां अपना सकता है?

  • उचित रिकॉर्ड बनाए रखना:
    • करदाताओं को अपने वित्तीय लेन-देन, आय और व्यय का सटीक और पूर्ण रिकॉर्ड रखना चाहिये।
    • यह दस्तावेज़ कर अधिकारियों द्वारा मूल्यांकन के दौरान किये गए किसी भी दावे का समर्थन करने के लिये आधार के रूप में काम करेगा।
  • दस्तावेज़ प्रस्तुत करना:
    • कर रिटर्न दाखिल करते समय या कर अधिकारियों के प्रश्नों का उत्तर देते समय, करदाताओं को रसीदें, चालान, बैंक विवरण और अन्य प्रासंगिक रिकॉर्ड जैसे सहायक दस्तावेज़ जमा करने की आवश्यकता हो सकती है।
  • कर कानूनों का पालन:
    • करदाताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके दावे कर कानूनों के प्रावधानों के अनुसार हैं।
    • कानूनी आवश्यकताओं से किसी भी विचलन के परिणामस्वरूप दावा अस्वीकार किया जा सकता है।
  • कर अधिकारियों के साथ सहयोग:
    • करदाताओं को ऑडिट या मूल्यांकन के दौरान कर अधिकारियों के साथ सहयोग करना चाहिये।
    • समय पर और सटीक जानकारी प्रदान करने से प्रक्रिया में तेजी लाने और दावा की गई रियायतों की वैधता प्रदर्शित करने में मदद मिल सकती है।

व्यापारिक सन्नियम

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के तहत कंपनी द्वारा अपराध

 11-Oct-2023

सिबी थॉमस बनाम सोमानी सेरामिक्स लिमिटेड

"मूल कार्यवाही में रियायत के दावे को संदेह से परे पूरा करने का दायित्व डीलर पर है।"

न्यायमूर्ति  सी. टी. रविकुमार, न्यायमूर्ति पी. वी. संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायलाय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार और पी. वी. संजय कुमार ने संबंधित कंपनी द्वारा चेक अनादरण के मामले में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 141 के तहत कंपनी के अधिदर्शक की देयता पर बल दिया।

  • उच्चतम न्यायलाय ने यह टिप्पणी सिबी थॉमस बनाम सोमानी सेरामिक्स लिमिटेड के मामले में दी।

सिबी थॉमस बनाम सोमानी सेरामिक्स लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि:

  • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत एक साझेदारी फर्म के भागीदार को चेक अनादरण के लिये केवल इसलिये उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि वह उस फर्म का भागीदार था।
  • उन्होंने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष अपने खिलाफ पराक्रम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत को रद्द करने की प्रार्थना की और तर्क दिया कि वह सीधे तौर पर कंपनी के संचालन में शामिल नहीं थे, हालांकि उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी।
  • इसलिये उन्होंने अपने खिलाफ शिकायत को रद्द करने के लिये उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • उच्चतम न्यायलाय ने कहा कि “केवल वही व्यक्ति, जो अपराध किये जाने के समय कंपनी का प्रभारी था और कंपनी के कारोबार के संचालन के लिये ज़िम्मेदार था या साथ ही कंपनी को अकेले ही ज़िम्मेदार माना जाएगा।” अपराध का दोषी होने पर उसके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी और दंडित किया जाएगा।''
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि शिकायत में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अपीलकर्ता प्रासंगिक समय पर कंपनी के व्यवसाय के संचालन का प्रभारी था जब अपराध किया गया था।
  • उपरोक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि प्रतिवादी द्वारा दायर शिकायत में दिये गए कथन पराक्रम्य लिखत अधिनियम की धारा 141(1) के तहत अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
  • इसलिये उच्चतम न्यायालय ने अपील की अनुमति दी।

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141:

  • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 परोक्ष दायित्व के सिद्धांत को स्थापित करती है।
  • परोक्ष दायित्व एक कानूनी अवधारणा है जो एक पक्ष को दूसरे के कृत्यों के लिये ज़िम्मेदार ठहराती है।
  • इस धारा के अनुसार, यदि परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया जाता है, तो प्रत्येक व्यक्ति (जो अपराध के समय, कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिये प्रभारी और ज़िम्मेदार था) साथ ही साथ कंपनी को ही अपराध का दोषी माना जाएगा।
  • यह प्रावधान बताता है कि कंपनी से जुड़े व्यक्तियों को कंपनी के कार्यों के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
  • दायरा:
    • धारा 141 परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत विभिन्न अपराधों पर लागू होती है, जैसे चेक का अनादरण।
    • यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि व्यक्तियों का दायित्व तभी उत्पन्न होता है जब अपराध किसी कंपनी द्वारा किया जाता है।
    • यह धारा उन व्यक्तियों पर लागू नहीं होती जो अपनी व्यक्तिगत क्षमता में अपराध करते हैं।
  • दायित्व स्थापना:
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के तहत दायित्व स्थापित करने के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि व्यक्ति, कंपनी के व्यवसाय के संचालन में सक्रिय रूप से शामिल था और अपराध करने में उसकी भूमिका थी।
    • केवल पदनाम या नाममात्र का प्रमुख होना पर्याप्त नहीं हो सकता है।
    • अभियोजन पक्ष को व्यक्ति की भूमिका और अपराध के घटित होने के बीच सीधा संबंध प्रदर्शित करना चाहिये।
    • अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि अपराध सहमति या मिलीभगत से या व्यक्ति की उपेक्षा के कारण किया गया है।
  • बचाव:
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के तहत कहा गया है कि यदि अभियुक्त यह साबित कर सकते हैं कि अपराध उनकी जानकारी के बिना किया गया था या उन्होंने ऐसे अपराध को रोकने के लिये उचित परिश्रम किया था, तो वे दायित्व से बच सकते हैं।
  • हालाँकि, इन बचावों को स्थापित करने के लिये सबूत का भार अभियुक्त पर है।

इससे संबंधित ऐतिहासिक मामले:

  • अनीता मल्होत्रा बनाम परिधान निर्यात संवर्धन परिषद एवं अन्य (2012):
    • उच्चतम न्यायलाय ने कहा कि "शिकायत में विशेष रूप से बताया जाना चाहिये कि निदेशक अपने व्यवसाय के संचालन के लिये कैसे और किस तरह से आरोपी कंपनी का प्रभारी था या उसके प्रति ज़िम्मेदार था"।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि केवल यह कहना कि वह कंपनी का प्रभारी था और उसके व्यवसाय के संचालन के लिये ज़िम्मेदार था, पर्याप्त नहीं है।

अशोक शेखरमणि बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2023):

  • उच्चतम न्यायलाय ने कहा कि "केवल इसलिये कि कोई व्यक्ति कंपनी के मामलों का प्रबंधन कर रहा है, वह कंपनी के व्यवसाय के संचालन का प्रभारी या कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिये ज़िम्मेदार व्यक्ति नहीं बन जाएगा।"

इस मामले में शामिल कानूनी प्रावधान:

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141: कंपनियों द्वारा अपराध –

(1) यदि धारा 138 के अधीन अपराध करने वाला व्यक्ति कोई कंपनी है तो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो उस अपराध के किये जाने के समय उस कंपनी के कारोबार के संचालन के लिये उस कंपनी का भारसाधक और उसके प्रति उत्तरदायी था और साथ ही वह कंपनी भी ऐसे अपराध के लिये दोषी समझे जाएंगे और तदनुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और दंडित किये जाने के भागी होंगे।

परंतु इस उपधारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को दंड का भागी नहीं बनाएगी यदि वह यह साबित कर देता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था अथवा उसने ऐसे अपराध के निवारण के लिये सम्यक् तत्परता बरती थी,

परंतु यह और कि जहाँ किसी व्यक्ति को, यथास्थिति, केंद्र सरकार या राज्य सरकार या केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकार के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन किसी वित्त निगम में कोई पद धारण करने वा नियोजन में रहने के कारण किसी कंपनी के निदेशक के रूप में नामनिर्दिष्ट किया जाता है, वहाँ वह इस अध्याय के अधीन अभियोजन का भागी नहीं होगा।

(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया गया है और यह साबित हो जाता है कि वह अपराध कंपनी के किसी निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति या मौनानुकूलता से किया गया है या उस अपराध का किया जाना उसकी किसी उपेक्षा के कारण माना जा सकता है वहाँ ऐसा निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी भी उस अपराध का दोषी समझा जाएगा और तदनुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और दंडित किये जाने का भागी होगा।

स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिये,

(क) "कंपनी" से कोई निगमित निकाय अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत फर्म या व्यक्तियों का अन्य समूह शामिल है, और

(ख) किसी फर्म के संबंध में, "निदेशक" से उस फर्म का कोई भागीदार अभिप्रेत है।