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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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व्यवहार विधि

ईपीएफ अधिनियम, 1952 के तहत कवरेज

 19-Oct-2023

मैसर्स माथोश्री माणिकबाई कोठारी कॉलेज ऑफ विजुअल आर्ट्स बनाम सहायक भविष्य निधि आयुक्त

"दो संस्थानों के बीच वित्तीय अखंडता के मामले में, उन्हें ईपीएफ अधिनियम के तहत कवरेज के उद्देश्य से जोड़ा जा सकता है।"

न्यायाधीश हिमा कोहली और राजेश बिंदल

स्रोत- उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने मैसर्स माथोश्री माणिकबाई कोठारी कॉलेज ऑफ विजुअल आर्ट्स बनाम सहायक भविष्य निधि आयुक्त के मामले में कर्मचारी भविष्य निधि प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1952 (ईपीएफ अधिनियम) के तहत कवरेज के उद्देश्य से विभिन्न संस्थानों को क्लब करने से संबंधित कानूनी स्थिति का समाधान किया है।

मैसर्स माथोसरी माणिकबाई कोठारी कॉलेज ऑफ विजुअल आर्ट्स बनाम सहायक भविष्य निधि आयुक्त मामले की पृष्ठभूमि

  • आइडियल फाइन आर्ट्स सोसाइटी दो संस्थान चलाती है, आइडियल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइन आर्ट्स और माथोश्री माणिकबाई कोठारी कॉलेज ऑफ विजुअल आर्ट्स।
  • दोनों संस्थान एक ही परिसर में चलाए जा रहे हैं और आइडियल इंस्टीट्यूट में 8 कर्मचारी कार्यरत थे, जबकि आर्ट्स कॉलेज में 18 कर्मचारी।
  • 1 जुलाई, 2003 की प्रवर्तन अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर, यह बताया गया कि दोनों संस्थानों में कुल 26 कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनका प्रबंधन एक ही सोसायटी द्वारा और एक ही परिसर में किया जाता है, इस प्रतिष्ठान को 1 मार्च, 1988 से प्रभावी ईपीएफ अधिनियम के प्रावधानों के तहत कवर किया जाएगा।
  • ईपीएफ अधिनियम की धारा 7-a के तहत एक आदेश पारित किया गया था, जिसमें ईपीएफ अधिनियम की विभिन्न योजनाओं के तहत अपीलकर्त्ता द्वारा किये जाने वाले योगदान की राशि का आकलन किया गया था।
  • उपरोक्त आदेश को अपीलकर्त्ता द्वारा ट्रिब्यूनल/अधिकरण के समक्ष वैधानिक अपील के माध्यम से चुनौती दी गई थी, जिसे बाद में खारिज कर दिया गया था।
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ के समक्ष ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की।
  • उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ ने ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश को बरकरार रखा और अपीलकर्त्ता की संस्था पर ईपीएफ अधिनियम लागू होने के प्रावधान को भी बरकरार रखा।
  • इस रिट अपील में, एकल न्यायाधीश के आदेश को कर्नाटक उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच द्वारा बरकरार रखा गया था।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायाधीश हिमा कोहली और न्यायाधीश राजेश बिंदल की खंडपीठ ने कहा कि, रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री और कानून की स्थापित स्थिति के अवलोकन से, यह सुरक्षित रूप से माना जा सकता है कि अपीलकर्त्ता की सोसायटी और आदर्श के बीच वित्तीय अखंडता है। सोसायटी द्वारा संस्थानों को पर्याप्त धनराशि प्रदान की गई है। इसके अलावा, दोनों संस्थान एक ही परिसर से कार्य कर रहे हैं।
  • इस पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि कवरेज के उद्देश्य से दोनों संस्थानों को आपस में जोड़ा जा सकता है।

शामिल कानूनी प्रावधान

परिचय:

  • यह एक सामाजिक सुरक्षा कानून है जो श्रमिकों की सेवानिवृत्ति पर या उनकी मृत्यु की स्थिति में श्रमिकों के आश्रितों के भविष्य को बेहतर बनाने के लिये बनाया गया है।
  • यह अधिनियम कारखानों और अन्य प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों के लिये भविष्य निधि, पेंशन निधि और जमा-लिंक्ड बीमा निधि की स्थापना का प्रावधान करता है।

अधिनियम की प्रयोज्यता

  • इस अधिनियम की धारा 1(3)(a) में कहा गया है कि यह अधिनियम ऐसे प्रत्येक प्रतिष्ठान पर लागू होता है जो अनुसूची I में निर्दिष्ट किसी भी उद्योग में स्थापित फैक्ट्री है और जिसमें बीस या अधिक लोग कार्यरत हैं।
  • इस अधिनियम की धारा 1(3)(b) में कहा गया है कि यह अधिनियम बीस या अधिक व्यक्तियों को रोज़गार देने वाले किसी भी अन्य प्रतिष्ठान या ऐसे प्रतिष्ठानों के एक वर्ग पर लागू होता है, जिसे केंद्र सरकार, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस संबंध में निर्दिष्ट कर सकती है।
  • बशर्ते कि केंद्र सरकार ऐसा करने के अपने आशय के बारे में कम-से-कम दो माह का नोटिस देने के बाद, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस अधिनियम के प्रावधानों को बीस से कम संख्या में व्यक्तियों को नियोजित करने वाले किसी भी प्रतिष्ठान पर लागू कर सकती है। ऐसा केवल अधिसूचना में निर्दिष्ट करके ही किया जाएगा।
  • ईपीएफ अधिनियम की धारा 7क. नियोजकों द्वारा शोध्य धन का अवधारण-(1) केंद्रीय भविष्य-निधि आयुक्त, कोई भी केंद्रीय भविष्य-निधि अपर आयुक्त, कोई भी भविष्य-निधि उपायुक्त, कोई भी प्रादेशिक भविष्य-निधि आयुक्त या कोई भी भविष्य-निधि सहायक आयुक्त,   आदेश द्वारा-

(क) किसी ऐसे मामले में जहाँ कोई विवाद किसी स्थापन को इस अधिनियम के लागू किये जाने के संबंध में उठता है, ऐसे विवाद का विनिश्चय कर सकेगा; और

(ख) यथास्थिति, इस अधिनियम, स्कीम या  [पेंशन] स्कीम या बीमा स्कीम के किसी उपबंध के अधीन किसी नियोजक द्वारा शोध्य रकम का अवधारण कर सकेगा,

और किसी भी पूर्वोक्त प्रयोजन के लिये ऐसी जाँच कर सकेगा, जो वह आवश्यक समझे।

(2) उपधारा (1) के अधीन जाँच करने वाले अधिकारी को, ऐसी जाँच के प्रयोजनों के लिये, वही शक्तियाँ होंगी, जो निम्नलिखित विषयों के बारे में, अर्थात्:-

(क) किसी व्यक्ति को हाजिर कराने या शपथ पर उसकी संपरीक्षा करने;

(ख) दस्तावेज़ों के प्रकटीकरण तथा पेश करने की अपेक्षा करने;

(ग) शपथपत्र पर साक्ष्य लेने;

(घ) साक्षियों की संपरीक्षा के लिये कमीशन निकालने के बारे में,

  • वाद का विचारण करना, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन आता है, और ऐसी कोई भी जाँच भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 193 और 228 के अंतर्गत और धारा 196 के प्रयोजनों के लिये न्यायिक कार्यवाही समझी जाएगी।

(3)  कोई आदेश उपधारा (1) के अधीन तब तक नहीं किया जाएगा जब तक कि  संबद्ध नियोजकट को अपना मामला अभ्यावेदित करने का युक्तियुक्त अवसर न दे दिया गया हो।

(3क) जहाँ नियोजक, कर्मचारी या कोई अन्य व्यक्ति जिसकी उपधारा (1) के अधीन जाँच में उपस्थित होने की अपेक्षा की जाती है, कोई विधिमान्य कारण बताए बिना, ऐसी जाँच में उपस्थित होने में असफल रहता है या कोई दस्तावेज़ पेश करने में या कोई रिपोर्ट या विवरणी फाइल करने में, जब ऐसा करने की उनसे अपेक्षा की जाए, असफल रहता है, वहाँ जाँच करने वाला अधिकारी ऐसी जाँच के दौरान पेश किये गए साक्ष्य और अभिलेख में उपलब्ध अन्य दस्तावेज़ों के आधार पर, यथास्थिति, अधिनियम के लागू होने के बारे में विनिश्चय कर सकेगा या किसी नियोजक द्वारा शोध्य रकम का अवधारण कर सकेगा।

(4) जहाँ उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश किसी नियोजक के विरुद्ध एकपक्षीय रूप से पारित किया जाता है, वहाँ वह, ऐसे आदेश की संसूचना की तारीख से तीन माह के भीतर उसी अधिकारी को ऐसे आदेश को अपास्त करने के लिये आवेदन कर सकेगा और यदि वह अधिकारी उसका समाधान कर देता है कि कारण बताओ सूचना की सम्यक् रूप से तामील नहीं की गई थी या यह कि वह उस समय जब जाँच की गई थी उपस्थित होने से किसी पर्याप्त कारण से निवारित हुआ था, तो वह अधिकारी अपने पूर्वतर आदेश को अपास्त्र करने वाला आदेश कर सकेगा और जाँच की कार्यवाही के लिये कोई तारीख नियत करेगा :

  • परंतु कोई ऐसा आदेश केवल इस आधार पर अपास्त नहीं किया जाएगा कि कारण बताओ सूचना की तामील में कोई अनियमितता हुई है, यदि अधिकारी का यह समाधान हो जाता है कि नियोजक को सुनवाई की तारीख की सूचना थी और अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने के लिये पर्याप्त समय था।
  • स्पष्टीकरण- जहाँ कोई अपील एक पक्षीय रूप से पारित आदेश के विरुद्ध इस अधिनियम के अधीन की गई है और ऐसी अपील का निपटारा इस आधार से अन्यथा कि अपीलार्थी ने अपील वापस ले ली है, किसी आधार पर किया गया है वहाँ इस धारा के अधीन उस एक पक्षीय आदेश को अपास्त करने के लिये कोई आवेदन नहीं किया जाएगा।

(5) इस धारा के अधीन पारित कोई आदेश, उपधारा (4) के अधीन किसी आवेदन पर तब तक अपास्त नहीं किया जाएगा जब तक कि उसकी सूचना की तामील विरोधी पक्ष पर न कर दी गई हो।

ईपीएफ अधिनियम के कवरेज के संबंध में प्रमुख निर्णयज विधि

  • एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी बनाम कर्मकार (1960) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि कवरेज के उद्देश्य से दो प्रतिष्ठानों को एकत्रित (क्लब) करने से संबंधित मुद्दे को निर्धारित करने के लिये सभी मामलों के लिये ईपीएफ अधिनियम के तहत किसी एक परीक्षण को पूर्ण और अपरिवर्तनीय बनाना असंभव है।
  • नूर निवास नर्सरी पब्लिक स्कूल बनाम क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त और अन्य (2001) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि ईपीएफ अधिनियम के तहत दो प्रतिष्ठानों को एकत्रित (क्लब) करने और कवरेज के उद्देश्य से कोई स्ट्रेट जैकेट फॉर्मूला या परीक्षण निर्धारित नहीं किया जा सकता है।

व्यवहार विधि

परक्राम्य लिखत अधिनियम की कार्यवाही का त्वरित विचारण

 19-Oct-2023

रामधारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य

अनावश्यक तकनीकी जटिलताओं से बचते हुए, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) द्वारा शासित कार्यवाही को शीघ्र हल किया जाना चाहिये।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय (तटस्थ उद्धरण संख्या - 2023: AHC:198523)

चर्चा में क्यों?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय (HC) ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि रामधारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य के मामले में अनावश्यक तकनीकी जटिलताओं से बचते हुए, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) द्वारा शासित कार्यवाही को शीघ्र हल किया जाना चाहिये।

राम धारी पाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य मामले की पृष्ठभूमि

  • वर्तमान आवेदन परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) की धारा 138 के तहत शिकायत मामले की सुनवाई समाप्त करने के लिये अपर सिविल न्यायाधीश/न्यायिक मजिस्ट्रेट, जनपद जौनपुर को निर्धारित अवधि के भीतर ट्रायल खत्म करने का निर्देश देने के लिये दायर किया गया है।
  • आवेदक के वकील का तर्क यह है कि यद्यपि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act) के तहत यह शिकायत वर्ष 2022 में दायर की गई थी, लेकिन मुकदमा अभी तक समाप्त नहीं हो सका है।
  • यह आगे प्रस्तुत किया गया कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 143(2) के अनुसार, अपराध के लिये मुकदमा दिन-प्रतिदिन के आधार पर आयोजित किया जाना चाहिये और धारा 143(3) के तहत यह प्रावधान है कि शिकायत दर्ज करने की तारीख से छह माह के भीतर मुकदमा समाप्त किया जाना चाहिये।
  • इंडियन बैंक एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2014) मामले पर भरोसा किया गया था, जिसमें उच्चतम न्यायालय (SC) ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत मामलों के शीघ्र निपटान के लिये निर्देश जारी किया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • उच्च न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत मामलों की शीघ्र सुनवाई के मामले (2021) में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निम्नलिखित दिशानिर्देशों पर ध्यान दिया:

1) उच्च न्यायालयों से अनुरोध है, कि इस अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों की सुनवाई को संक्षिप्त सुनवाई से समन सुनवाई में बदलने से पहले कारण दर्ज करने के लिये मजिस्ट्रेटों को प्रैक्टिस संबंधी निर्देश जारी करें।

2) आरोपी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिये पर्याप्त आधार पर पहुँचने के लिये अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत प्राप्त होने पर जाँच की जाएगी, जब ऐसा आरोपी न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर रहता है।

3) संहिता की धारा 202 के तहत जाँच के संचालन के लिये, शिकायतकर्त्ता की ओर से गवाहों के साक्ष्य को शपथ पत्र पर लेने की अनुमति दी जाएगी। उपयुक्त मामलों में, मजिस्ट्रेट गवाहों की जाँच पर ज़ोर दिये बिना जाँच को दस्तावेजों की जाँच तक सीमित कर सकता है।

4) हम अनुशंसा करते हैं कि संहिता की धारा 219 में प्रतिबंध के बावजूद, 12 माह की अवधि के भीतर किये गए अधिनियम की धारा 138 के तहत एक व्यक्ति के खिलाफ कई अपराधों के लिये एक मुकदमे के प्रावधान के लिये अधिनियम में उपयुक्त संशोधन किये जाएँ।

5) उच्च न्यायालयों से अनुरोध है कि वे धारा 138 के तहत एक शिकायत में समन की तामील को संव्यवहार का हिस्सा मानने के लिये ट्रायल कोर्ट को निर्देश जारी करें, जो कि चेक के अनादरण से संबंधित एक ही न्यायालय के समक्ष दायर सभी शिकायतों के संबंध में दिये गए निर्देश माने जाए।

6) अदालत प्रसाद (सुप्रा) और सुब्रमण्यम सेथुरमन (सुप्रा) में इस न्यायालय के निर्णयों ने कानून की सही व्याख्या की है और हम दोहराते हैं कि समन के मुद्दे की समीक्षा करने या वापस लेने की ट्रायल कोर्ट की कोई अंतर्निहित शक्ति नहीं है। इससे संहिता की धारा 322 के तहत ट्रायल कोर्ट की प्रक्रिया जारी करने के आदेश पर दोबारा विचार करने की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, यदि यह न्यायालय के ध्यान में लाया जाता है कि उसके पास शिकायत की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं है।

7) संहिता की धारा 258 अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों पर लागू नहीं होती है और मीटर और उपकरण (सुप्रा) में इसके विपरीत निष्कर्ष उचित विधि का निर्माण नहीं करते हैं। इस पहलू से निर्णायक रूप से निपटने के लिये, धारा 138 के तहत शिकायतों के संबंध में ट्रायल कोर्ट को पुनर्विचार/वापसी करने का अधिकार देने वाले अधिनियम में संशोधन पर इस न्यायालय के दिनांक 10.03.2021 के आदेश द्वारा गठित समिति द्वारा विचार किया जाएगा।

8) अन्य सभी बिंदु, जो न्यायालय मित्र द्वारा अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट और लिखित प्रस्तुतिकरण में उठाए गए हैं और जिन पर यहाँ विचार नहीं किया गया है, उपरोक्त समिति द्वारा विचार-विमर्श का विषय होगा। इस अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायतों के शीघ्र निपटान से संबंधित किसी अन्य मुद्दे पर भी समिति द्वारा विचार किया जाएगा।

  • उच्चतम न्यायालय के उपर्युक्त निदेशों को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय ने अपर सिविल जज/न्यायिक मजिस्ट्रेट, जौनपुर को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 143(2) और 143(3) के वैधानिक प्रावधान के अनुसार शिकायत मामले की सुनवाई शीघ्रता से अधिमानतः छह माह के भीतर समाप्त करने का निर्देश दिया।

शामिल कानूनी प्रावधान शामिल

परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI act)

बातों में अपर्याप्त निश्चियों आदि के कारण चेक का अनावरण जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है और वह, इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से, जिसकी अवधि [दो वर्ष तक की हो सकेगी या ज़ुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक हो सकेगा, या दोनों से, दंडनीय होगा।

परंतु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक-

(क) वह चेक जिसके लिखे जाने की तारीख से छह माह की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के भीतर जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो.

(ख) चेक का पाने वाला या धारक, सम्यक् अनुक्रम में चेक के लेखीवाल को, असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर, लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के संदाय के लिये मांग नहीं करता है; और

(ग) ऐसे चेक का लेखीवाल, चेक के पाने वाले को या धारक को उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय सम्यक् अनुक्रम में करने में सफल रहता है।

स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "ऋण या अन्य दायित्व" से विधितः प्रवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व अभिप्रेत है।

धारा 143 - न्यायालय के मामलों का संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति (1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, इस अध्याय के अधीन सभी अपराधों का विचारण प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा और उक्त संहिता की धारा 262 से धारा 265 के उपबंध (दोनों धाराओं को सम्मिलित करते हुए), जहाँ तक हो सके, ऐसे विचारणों को लागू होंगे;

परंतु इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण में किसी दोषसिद्धि की दशा में मजिस्ट्रेट के लिये ऐसे कारावास का, जिसकी अवधि एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और ऐसे ज़ुर्माने का जिसकी रकम पाँच हजार रुपए से अधिक नहीं होगी, दंडादेश पारित करना विधिपूर्ण होगा;

परंतु यह और कि इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण के प्रारंभ पर या उसके दौरान जब मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि मामले की प्रकृति ऐसी है कि एक वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दंडादेश पारित किया जा सकता है या यह कि किसी अन्य कारण से मामले का संक्षिप्त रूप में विचारण किया जाना अवांछनीय है तो मजिस्ट्रेट पक्षकारों को सुनने के पश्चात्, उस आशय का आदेश अभिलिखित करेगा और तत्पश्चात् ऐसे किसी साक्षी को वापस बुलाएगा जिसका परीक्षण किया जा चुका है और उक्त संहिता में उपबंधित रीति से मामले को सुनने वा पुनः सुनने के लिये अग्रसर होगा।

(2) इस धारा के अधीन किसी मामले का विचारण, यथासाध्य, अविरोध न्याय के हित में उसके समापन तक दिन प्रतिदिन जारी रखा जाएगा। जब तक कि न्यायालय लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से विचारण का अगले दिन से परे के लिये स्थगित किया जाना आवश्यक नहीं समझता है।

(3) इस धारा के अधीन प्रत्येक विचारण यथासंभव शीघ्रता से संचालित किया जाएगा और विचारण को परिवाद फाइल करने की तारीख से छह माह के भीतर समाप्त करने का प्रयास किया जाएगा।


व्यवहार विधि

माध्यस्थम् का स्थान

 19-Oct-2023

इंस्टाकार्ट सर्विसेज बनाम मेगास्टोन लॉजिपार्क्स प्राइवेट लिमिटेड

जब कोई विरोधाभासी अनन्य क्षेत्राधिकार खंड होता है तो माध्यस्थम् का स्थान ‘वेन्यु’ होता है न कि माध्यस्थम् का स्थान ‘सीट’।

गुजरात उच्च न्यायालय

स्रोत: गुजरात उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

इंस्टाकार्ट सर्विसेज बनाम मेगास्टोन लॉजिपार्क्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने माना है कि एक विरोधाभासी विशेष क्षेत्राधिकार खंड की उपस्थिति में, माध्यस्थम् का स्थान माध्यस्थम् की सीट के बजाय वेन्यु को माना जाता है।

माध्यस्थम् कार्यवाही में "सीट" और "वेन्यू" शामिल होते हैं। वेन्यू से तात्पर्य उस स्थान से है जहाँ भौतिक स्थान पर माध्यस्थम् आयोजित की जाती है, जबकि सीट इस बात से संबंधित है कि क्या क्षेत्राधिकार के कानून लागू होते हैं।

इंस्टाकार्ट सर्विसेज बनाम मेगास्टोन लॉजिपार्क्स प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि

  • पक्षकारों ने एक पट्टा समझौता किया; इस समझौते के खंड संख्या 25 में माध्यस्थम् के माध्यम से विवाद के समाधान का प्रावधान है।
  • पक्षकारों ने बाद में पट्टे के लिये इच्छित परिसर के संबंध में एक रखरखाव और सुविधा (एम एंड ई) समझौता स्थापित किया, जैसा कि पट्टा समझौते में उल्लिखित है।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि पट्टा समझौते का खंड 25 (ii) इंगित करता है कि दोनों पक्षकार इस बात पर सहमत हुए थे कि माध्यस्थम् की कार्यवाही बंगलोर, कर्नाटक में आयोजित की जाएगी।
    • उच्चतम न्यायालय (SC) के फैसले पर भरोसा करते हुए बीजीएस एसजीएस कोमा जेवी बनाम एनपीएचसी (2020), मेसर्स देवयानी इंटरनेशनल लिमिटेड बनाम सिद्धिविनायक बिल्डर्स एंड डेवलपर्स (2017) मामले में याचिकाकर्त्ता ने आगे तर्क दिया:
    • माध्यस्थम् की सीट पर सहमति होने के बाद, (माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996) अधिनियम, 1996 की धारा 11 के तहत याचिका पर विचार करने का क्षेत्राधिकार केवल कर्नाटक उच्च न्यायालय के पास है।
    • प्रतिवादी की ओर से तर्क दिया गया कि गुजरात स्थित परिसर को पट्टे पर देने के लिये पट्टा विलेख निष्पादित किया गया था।
    • तात्कालिक याचिका, दो मुद्दों पर अधिनियम, 1996 की धारा 11(6) के तहत माध्यस्थम् की नियुक्ति की मांग करती है:
      • रखरखाव एवं सुविधा समझौते से उत्पन्न विवाद पर मध्यस्थ की नियुक्ति के संबंध में।
      • अधिनियम, 1996 की धारा 11 के तहत याचिका पर विचार करने के लिये न्यायालय (HC) के क्षेत्राधिकार के संबंध में।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने कहा कि दोनों समझौतों को पक्षकारों द्वारा एक ही संव्यवहार के हिस्से के रूप में निष्पादित किया गया था। इसमें आगे कहा गया है कि उनकी समाप्ति तिथि एक ही है, और पट्टा समझौते का निष्पादन एम एंड ई समझौते की पूर्ति पर निर्भर करता है।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि जब दो समझौतों की समाप्ति तिथि समान होती है और उनका निष्पादन एक-दूसरे पर निर्भर करता है, तो एक समझौते में माध्यस्थम् खंड का उपयोग दूसरे के लिये भी किया जा सकता है।
  • आगे यह कहा गया कि पट्टा समझौते के खंड 25 में प्रावधान है कि समझौते से उत्पन्न होने वाले सभी मामलों में अहमदाबाद के न्यायालय के पास विशेष क्षेत्राधिकार होगा।
  • अंततः यह माना गया कि माध्यस्थम् की घोषणा बंगलोर में आयोजित की जाएगी, जो केवल माध्यस्थम् के स्थान को इंगित करती है न कि माध्यस्थम् की सीट को।

माध्यस्थम्

  • माध्यस्थम् पारंपरिक न्यायालय प्रणाली के बाहर विवादों को हल करने की एक विधि है यानी, यह वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के अनुसार वैकल्पिक विवाद समाधान के तरीकों में से एक है:

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 न्यायालय के बाहर विवादों के निपटारे का भी प्रावधान करती है–

  • न्यायालय के बाहर विवादों का निपटारा (1) जहाँ न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि किसी समझौते के ऐसे तत्त्व विद्यमान हैं, जो पक्षकारों को स्वीकार्य हो सकते हैं वहाँ न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका- टिप्पणी के लिये देगा और पक्षकारों की टीका-टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात् न्यायालय संभव समझौते के निबंधन पुनः बना सकेगा और उन्हें

(क) माध्यस्थम्.
(ख) सुलह,
(ग) न्यायिक समझौते जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी है : या
(घ) बीच-बचाव के लिये निर्दिष्ट करेगा।

(2) जहाँ कोई विवाद—

(क) माध्यस्थम् या सुलह के लिये निर्दिष्ट किया गया है वहाँ माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (1996 का 26) के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिये कार्यवाहियाँ उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिये निर्दिष्ट की गई थीं

(ख) लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा, जबकि न्यायालय उसे विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (1987 का 39) की धारा 20 की उपधारा (1) के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालत को इस प्रकार निर्दिष्ट किये गए विवाद के संबंध में लागू होंगे:

(ग) न्यायिक समझौते के लिये निर्दिष्ट करेगा, वहाँ न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति को लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (1987 का 39) के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था:

  • इसमें विवाद में शामिल पक्ष न्यायालय में जाने के बजाय अपने मामले को एक या अधिक तटस्थ तृतीय पक्षकारों, जिन्हें मध्यस्थ के रूप में जाना जाता है, को सौंपने के लिये सहमत होते हैं।
  • ये मध्यस्थ तर्क सुनते हैं और दोनों पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य लेते हैं और फिर विवाद को निपटाने के लिये एक बाध्यकारी निर्णय लेते हैं, जिसे प्रायः माध्यस्थम् पंचाट के रूप में जाना जाता है।

शामिल कानूनी प्रावधान

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996

धारा 11(6): मध्यस्थों की नियुक्ति -  जहाँ पक्षकारों द्वारा करार पाई गई किसी नियुक्ति की प्रक्रिया के अधीन –

(क) कोई पक्षकार उस प्रक्रिया के अधीन अपेक्षित रूप में कार्य करने में असफल रहता है, या

(ख) पक्षकार अथवा दो नियुक्त मध्यस्थ, उस प्रक्रिया के अधीन उनसे अपेक्षित किसी करार पर पहुँचने में असफल रहते हैं, या

(ग) कोई व्यक्ति, जिसके अंतर्गत कोई संस्था है, उस प्रक्रिया के अधीन उसे सौंपे गए किसी कृत्य का निष्पादन करने में असफल रहता है,

वहाँ कोई पक्षकार मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा पदाभिहित किसी व्यक्ति या संस्था से, जब तक कि नियुक्ति प्रक्रिया के किसी करार में नियुक्ति सुनिश्चित कराने के अन्य साधनों के लिये उपबंध न किया गया हो, आवश्यक उपाय करने के लिये अनुरोध कर सकता है।