Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

सिविल कानून

निष्पादन चरण की कार्यवाही

 25-Oct-2023

मुमताज यारुद्दौला वक्फ बनाम बादाम बालकृष्ण होटल प्रा. लिमिटेड एवं अन्य।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXI के साथ पठित धारा 47 की कठोरता के अधीन, निष्पादन न्यायालय डिक्री से आगे नहीं जा सकता।

उच्चतम न्यायालय

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने लंबी मुकदमेबाजी के बाद आखिरकार मुमताज यारुद्दौला वक्फ बनाम बादाम बालकृष्ण होटल प्रा. लिमिटेड एवं अन्य के मामले में प्रश्नगत संपत्ति (मुमताज यारुद दौला वक्फ) के मालिक को अनुतोष प्रदान किया, जिसके पक्ष में वर्ष 2002 में पूर्वव्यापी डिक्री दी जा चुकी थी। 

मुमताज यारुद्दौला वक्फ बनाम बादाम बालकृष्ण होटल प्रा. लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि

  • अपीलकर्त्ता ने, मुकदमाधीन संपत्ति का मालिक होने के नाते, प्रतिवादी संख्या 2 के पक्ष में एक पंजीकृत पट्टा विलेख निष्पादित किया। जिसे अब उनके पुत्र प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया है।
    • इस पट्टे की अवधि 33 वर्ष थी, और मुकदमाधीन परिसर को प्रतिवादी संख्या 1 और 2 की अनुमति के बिना उपकिराए पर दे दिया गया था।
  • समय के साथ पट्टे की समाप्ति के बाद, अपीलकर्त्ता ने एक कानूनी नोटिस जारी किया, जिसमें प्रतिवादी संख्या 2 के पास खाली कब्ज़ा सौंपने का निदेश दिया गया था।
    • प्रतिवादी द्वारा उत्तर का नोटिस भेजा गया था जिसके बाद अपीलकर्त्ता ने कहा कि पंजीकृत पट्टा मौखिक रूप से अगले 33 वर्षों के लिये बढ़ाया गया था।
  • प्रतिवादी द्वारा मूल पट्टा विलेख के तहत उपलब्ध मध्यस्थता खंड के अनुसार एक संदर्भ दायर किया गया था।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने वक्फ प्राधिकरण के समक्ष एक मुकदमा दायर किया, जिसमें किराए और हर्जाने के शेष के साथ बेदखली और कब्ज़े की वसूली के लिये डिक्री की मांग की गई और मुकदमा खारिज़ कर दिया गया।
  • पारित डिक्री से संतुष्ट नहीं होने पर, प्रतिवादी संख्या 1 और 2 ने उच्च न्यायालय (HC) के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
    • इसे भी यह कहते हुए खारिज़ कर दिया गया कि पट्टे की समाप्ति के बाद कब्ज़ा जारी रखने का कोई कानूनी आधार नहीं है।
  • प्रतिवादियों द्वारा अपनाई गई टाल-मटोल और विलंब करने की रणनीति उसके बाद भी जारी रही, इस हद तक कि अपीलकर्त्ता को निष्पादन याचिका दायर करनी पड़ी।
  • निष्पादन कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी सं. 2 ने मुकदमे की मेंटेनेबिलिटी की दलील नहीं दी।
  • हालाँकि, चार वर्ष बाद प्रतिवादियों द्वारा एक अतिरिक्त काउंटर दायर किया गया और दलील दी गई कि मुकदमे पर विचार नहीं किया जाना चाहिये था। इसे निष्पादन न्यायालय द्वारा खारिज़ कर दिया गया।
  • उच्चतम न्यायालय में एक पुनरीक्षण याचिका दायर की गई थी जिसमें उच्च न्यायालय के विगत आदेश को उलट दिया गया था।
  • इसलिये वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ  

  • न्यायाधीश एम. एम. सुंदरेश ने कहा कि जहाँ तक कानूनी सिद्धांतों का सवाल है, एक निष्पादन न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXI (आदेशों और आदेशों का निष्पादन) के साथ पठित धारा 47 की कठोरता के अधीन, डिक्री से आगे नहीं जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ और अन्य बनाम एन. मुरुगेसन और अन्य (2022) मामले, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि किसी भी पक्षकार को एक ही चीज़ को स्वीकार और अस्वीकार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और इस प्रकार अनुमोदन का अर्थ मौन या निष्क्रिय स्वीकृति होगा, पर भरोसा जताते हुए न्यायालय ने उच्च न्यायालय के विवादित आदेश को रद्द करते हुए और अपीलकर्त्ता/मुकदमा संपत्ति के मालिक के पक्ष में कार्यकारी न्यायालय द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए उत्तरदाताओं द्वारा अपनाई गई टालमटोल की रणनीति को खारिज़ कर दिया।

डिक्री का निष्पादन

  • निष्पादन शब्द को सीपीसी के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन यह न्यायिक न्यायालय के फैसले या आदेश को प्रभावी करने का प्रतीक है।
  • सीपीसी धारा 36-74 और आदेश XXI के तहत निष्पादन से संबंधित है।
  • धारा 38 में उस न्यायालय का उल्लेख है जिसके द्वारा डिक्री निष्पादित की जा सकती है - किसी डिक्री को या तो उस न्यायालय द्वारा निष्पादित किया जा सकता है, जिसने इसे पारित किया है, या उस न्यायालय द्वारा जिसे इसे निष्पादन के लिये भेजा गया है।
  • सीपीसी की धारा 47 में उन प्रश्नों के बारे में बताया गया है, जिनका अवधारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय करेगा - (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच उत्पन्न होते है, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा न कि पृथक वाद द्वारा, अवधारित किए जाएँगे।

(3) जहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं है, वहाँ ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजनो के लिये अवधारित किया जाएगा।

स्पष्टीकरण 1- वह वादी जिसका वाद खारिज़ हो चुका हो और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज़ हो चुका है, इस धारा के प्रयोजन हेतु वाद का पक्षकार है। 

स्पष्टीकरण 2- (क) डिक्री के निष्पादन के लिये विक्रय में संपत्ति का क्रेता इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस वाद का पक्षकार समझा जाएगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है; और (ख) ऐसी संपत्ति  के क्रेता को या उसके प्रतिनिधियों को कब्ज़ा देने से संबंधित सभी प्रश्न, इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से सबंधित प्रश्न समझे जाएँगे।


सिविल कानून

गैर-कामकाजी पत्नी द्वारा भरण-पोषण का दावा

 25-Oct-2023

एक्स बनाम वाई

जहाँ पत्नी के पास स्नातक की डिग्री है, वहाँ यह नहीं माना जा सकता कि वह जानबूझकर केवल अंतरिम भरण-पोषण का दावा करने के आशय से काम नहीं कर रही है।

दिल्ली उच्च न्यायालय

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय (HC) ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि पत्नी के पास स्नातक की डिग्री होने से स्वचालित रूप से यह अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिये कि वह एक्स बनाम वाई मामले में केवल अंतरिम भरण-पोषण हासिल करने के लिये जानबूझकर रोज़गार से परहेज कर रही है।

एक्स बनाम वाई मामले की पृष्ठभूमि 

  • मुकदमे के पक्षकारों ने वर्ष 1999 में विवाह किया था, बाद में दोनों पक्षकारों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए और पति ने वर्ष 2013 में क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक के लिये याचिका दायर की।
  • पति वर्ष 2013 से अपनी पत्नी के बैंक खाते में प्रति माह 10,000 रुपये जमा कर रहा था।
  • कुटुंब न्यायालय ने मुकदमे की लागत के साथ पत्नी को प्रति माह 25000/- रुपये का भरण-पोषण देने का आदेश दिया। पति को अंतरिम भरण-पोषण के लिये प्रतिदिन 1,000 रुपए का ज़ुर्माना देने का भी आदेश दिया गया।
  • राशि कम होने के कारण, पत्नी ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 24 के तहत लंबित गुजारा भत्ता को बढ़ाकर 1,25,000/- रुपये प्रति माह करने की मांग की।
  • फिर पति ने इसके विरुद्ध एक अपील दायर की, जिसमें अंतरिम भरण-पोषण पर प्रतिदिन 1,000/- रुपए का ज़ुर्माना लगाने को चुनौती दी गई और साथ ही भरण-पोषण को 25000/- रुपए प्रति माह से घटाकर 15000/- रुपये प्रति माह करने की भी मांग की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ  

  • न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायाधीश नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने पत्नी को अंतरिम भरण-पोषण के विलंबित भुगतान पर प्रतिदिन 1,000 रुपये का ज़ुर्माना रद्द कर दिया।
  • पीठ ने टिप्पणी करते हुए आगे कहा कि बीएससी की डिग्री होने के बावजूद पत्नी काम नहीं कर रही है, जबकि पति वकालत करता है, ऐसे में भरण-पोषण राशि कम करने से इंकार कर दिया।

मुकदमा लंबित रहने के दौरान जीवनयापन खर्च  

  • मुकदमा लंबित रहने के दौरान जीवनयापन खर्च में पत्नी और बच्चों को जीवन यापन खर्च और वित्तीय सहायता प्रदान करना शामिल होता है।
  • मुकदमा लंबित रहने के दौरान जीवनयापन खर्च की अवधारणा को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत देखा जा सकता है।

धारा 24 - वाद लंबित रहते भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय-जहाँ कि इस अधिनियम के अधीन होने वाली किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत हो कि, यथास्थिति, पति या पत्नी की ऐसी कोई स्वतंत्र आय नहीं है जो उसके संभाल और कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिये पर्याप्त हो वहाँ वह पति या पत्नी के आवदेन पर प्रत्यर्थी को यह आदेश दे सकेगा कि अर्जीदार को कार्यवाही में होने वाले व्यय तथा कार्यवाही के दौरान में प्रतिमास ऐसी राशि संदत्त करे जो अर्जीदार की अपनी आय तथा प्रत्यर्थी की आय को देखते हुए न्यायालय को युक्तियुक्त प्रतीत होती हो: 

परंतु कार्यवाही के व्ययों और कार्यवाही के दौरान ऐसी मासिक राशि के संदाय के लिये आवेदन को यथासंभव, यथास्थिति, पत्नी या पति पर सूचना की तामील की तारीख से, साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा।

क्रॉस अपील

क्रॉस अपील की अवधारणा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 41 नियम 22 के तहत प्रदान की गई है:

आदेश 41 – मूल डिक्री से अपील

नियम 22 - सुनवाई में प्रत्यर्थी डिक्री के विरुद्ध ऐसे आक्षेप कर सकेगा मानो उसने पृथक् अपील की हो--

कोई भी प्रत्यर्थी यद्यपि उसने डिक्री के किसी भाग के विरुद्ध अपील न की हो, न केवल डिक्री का समर्थन कर सकेगा बल्कि यह कथन भी कर सकेगा कि निचले न्यायालय में उसके विरुद्ध किसी विवादयक की बाबत निर्णय उसके पक्ष में होना चाहिये था और डिक्री के विरुद्ध कोई ऐसा प्रत्याक्षेप भी कर सकेगा जो वह अपील द्वारा कर सकता था परंतु यह तब जब कि उसने ऐसा आक्षेप अपील न्यायालय में उस तारीख से एक मास के भीतर जिसको उस पर या उसके प्लीडर पर अपील की सुनवाई के लिये नियत दिन की सूचना की तामील हुई थी या ऐसे अतिरिक्त समय के भीतर जिसे अनुज्ञात करना अपील न्यायालय ठीक समझे फाइल कर दिया हो ।

स्पष्टीकरण कोई प्रत्यर्थी जो निर्णय में उस न्यायालय के किसी ऐसे निष्कर्ष से जिस पर डिक्री आधारित है जिसके विरुद्ध अपील की गई है इस नियम के अधीन प्रत्याक्षेप जहाँ तक कि वह डिक्री उस निष्कर्ष पर आधारित है इस बात के होते हुए भी फाइल कर सकेगा कि न्यायालय के किसी अन्य निष्कर्ष पर जो उस वाद के विनिश्चय के लिये पर्याप्त है विनिश्चय के कारण वह डिक्री पूर्णतः या भागतः उस प्रत्यर्थी के पक्ष में है।


सिविल कानून

सीपीसी की धारा 19 के तहत दोषपूर्ण कृत्य

 25-Oct-2023

नसीमा बीवी बनाम अमीर शाहुल

"सीपीसी की धारा 19 के तहत किये गए दोषपूर्ण कृत्य और उसके प्रभाव दोनों शामिल हैं"।

न्यायाधीश बसंत बालाजी

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, नसीमा बीवी बनाम अमीर शाहुल के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 19 के तहत किया गया दोषपूर्ण कृत्य और उसके प्रभाव दोनों शामिल हैं।

नसीमा बीवी बनाम अमीर शाहुल मामले की पृष्ठभूमि

  • वादी मृतक निसामोल की माँ है, जिनकी मृत्यु 2 जून, 2001 को नई दिल्ली में प्रतिवादी 1 और 2 के आवास पर हुई थी।
  • मृतक निसामोल परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य था।
  • प्रतिवादी 2000 में दाई के रूप में कार्य करने के लिये निसामोल को दिल्ली ले गए।
  • वर्ष 2001 में, प्रतिवादी ने वादी को सूचित किया कि निसामोल की मृत्यु रक्त कैंसर के कारण हुई थी।
  • वादी ने अपनी बेटी की मृत्यु के मुआवज़े के लिये मुकदमा दायर किया।
  • उप-न्यायालय, नेदुमंगड में, प्रतिवादियों से ब्याज सहित 3,00,000 रुपये के मुआवज़े के लिये सीपीसी की धारा 19 के तहत एक मुकदमा दायर किया गया।
  • उप-न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि न्यायालय के पास मुकदमे पर विचार करने का कोई क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार नहीं है और इसलिये वादपत्र वापस कर दिया गया।
  • इस आदेश से व्यथित होकर, केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई है।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि उप-न्यायालय के पास मुकदमे की सुनवाई का क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायाधीश बसंत बालाजी ने कहा कि सीपीसी की धारा 19 के तहत किये गए दोषपूर्ण कृत्य की व्यापक व्याख्या के अनुसार, केरल में किसी उप-न्यायालय के पास दिल्ली में की गई दोषपूर्णता के मुआवज़े के लिये मुकदमा चलाने का क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार है, केरल क्षेत्राधिकार में दोषपूर्ण प्रभाव को स्थापित करना उचित है, जहाँ वादी रहता था।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि दोषपूर्ण कृत्य के लिये मुआवज़े के मुकदमे में, केवल चोट या बिना किसी और चीज के दोषपूर्ण कृत्य के मुआवज़े के दावे को कायम रखने के लिये पर्याप्त नहीं होगा। किये गए दोषपूर्ण कृत्य की व्याख्या संकीर्ण अर्थ में नहीं की जा सकती बल्कि व्यापक आयाम में समझी जानी चाहिये।
  • न्यायालय ने सीपीसी की धारा 19 में आने वाले दोषपूर्ण शब्द के अर्थ की व्याख्या करने के उद्देश्य से अय्यप्पन पिल्लई बनाम केरल राज्य और अन्य (2009) मामले पर भी भरोसा किया।
  • इस मामले में, केरल उच्च न्यायालय ने माना कि जो दोषपूर्ण कृत्य है उसमें कार्य का प्रभाव और परिणामी क्षति शामिल है। यदि कार्य से कोई परिणाम या क्षति नहीं होती है, तो ऐसा कार्य कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता है। अत: सीपीसी की धारा 19 में मौज़ूद वाक्यांश दोषपूर्ण कृत्य के प्रभाव युक्त समझा जाना चाहिये।

सीपीसी की धारा 19  

  • सीपीसी की धारा 19 व्यक्ति या जंगम संपत्ति के साथ हुए दोषपूर्णता के मुआवज़े के मुकदमों से संबंधित है। यह कहती है कि –
    • जहाँ कोई मुकदमा किसी व्यक्ति या जंगम संपत्ति के साथ हुए दोषपूर्ण मुआवज़े के लिये होता है, यदि दोषपूर्णता एक न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमा के भीतर की गई हो और प्रतिवादी उस सीमा के भीतर निवास करता हो, या व्यवसाय करता हो, या व्यक्तिगत रूप से लाभ के लिये काम करता हो। किसी अहरान्य न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के मामले में, वादी के विकल्प पर उक्त न्यायालयों में से किसी में भी मुकदमा संस्थित किया जा सकता है।

दृष्टांत

(क) दिल्ली में रहने वाला A, कलकत्ता में B को हरा देता है। B कलकत्ता या दिल्ली में A  पर मुकदमा कर सकता है।

(ख) A, दिल्ली में रहता है, कलकत्ता में B के मानहानिकारक बयान प्रकाशित करता है। B  या तो कलकत्ता में या दिल्ली में A पर मुकदमा कर सकता है।

  • धारा 19 केवल व्यक्ति या जंगम संपत्ति पर कार्रवाई योग्य दोषपूर्ण कृत्य पर लागू होती है।
  • इस धारा का सिद्धांत वहाँ लागू नहीं होता जहाँ मुकदमा सरकार के विरुद्ध हो।