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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

रोस्टर का महत्त्व

 26-Oct-2023

अंबालाल परिहार बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य। 

इस बात पर ज़ोर दिया गया कि न्यायाधीशों को ऐसे मामलों से बचना चाहिये जो न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा स्पष्ट रूप से उन्हें सौंपे नहीं गए हैं। 

उच्चतम न्यायालय 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

उच्चतम न्यायालय ने एक निर्देश जारी किया है, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया है, कि न्यायाधीशों को ऐसे मामलों को संभालने से बचना चाहिये, जो अंबालाल परिहार बनाम राजस्थान राज्य और अन्य के मामले में न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा स्पष्ट रूप से उन्हें सौंपे नहीं गए हैं। 

अंबालाल परिहार बनाम राजस्थान राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि  

  • क्रमांक संख्या दूसरे से चौथे प्रतिवादी के विरुद्ध लगभग छह प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ की गईं। 
    • कुछ अन्य प्रथम सूचनादाताओं द्वारा उन्हीं प्रतिवादियों के विरुद्ध दो अन्य प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं। 
  • अन्य प्रथम सूचनादाताओं के कहने पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये क्रमांक संख्या दूसरे से चौथे प्रतिवादियों द्वारा आपराधिक विविध याचिकाएँ दायर की गईं। 
    • यह याचिका राजस्थान उच्च न्यायालय (HC) के एकल न्यायाधीश के समक्ष आई, जिसमें कोई अंतरिम अनुतोष नहीं दिया गया। 
  • इसके बाद, क्रमांक संख्या दूसरे से लेकर चौथे तक के प्रतिवादियों ने सिविल पक्षकार पर एक रिट याचिका दायर करने के लिये एक असाधारण कदम उठाया, जिसमें आठ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को जोड़ने और उन्हें एक में समेकित करने के लिये परमादेश की रिट जारी करने और उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करने की प्रार्थना की गई थी।  
    • उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने निर्देश दिया कि सभी आठ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) के संबंध में क्रमांक दूसरे से लेकर चौथे प्रतिवादियों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये। 
  • वर्तमान प्रतिवादी ने उच्चतम न्यायालय में आवेदन करते समय (जिनके कहने पर कुछ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थीं) इस तथ्य पर भरोसा करते हुए प्रतिवादियों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे, कि राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अधिसूचित तत्कालीन प्रचलित रोस्टर पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये आवेदन दाखिल करके और फिर FIR को समेकित करके टाला गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ  

  • न्यायाधीश अभय एस. ओका और न्यायाधीश पंकज मित्तल की न्यायपीठ ने कहा कि इस प्रकार की रणनीति क्रमांक दूसरे से लेकर चौथे प्रतिवादियों द्वारा कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी ज़ोर देकर कहा कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्धारित रोस्टर का पालन करने में विफल रहने से इसका महत्त्व कम हो जायेगा। 
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को जोड़ने के लिये ऐसी नागरिक याचिका पर विचार नहीं करना चाहिये, जब ऐसे मामलों का क्षेत्राधिकार आपराधिक पक्षकार पर है। 

रोस्टर  

  • न्यायालय का रोस्टर मूल रूप से एक ऐसा शेड्यूल है, जो किसी विशेष दिन पर न्यायालय में होने वाले मामलों और कार्यवाही को सूचीबद्ध करता है। 
  • इसमें केस नंबर, केस का शीर्षक, कोर्ट रूम नंबर, न्यायाधीश का नाम, तारीख आदि शामिल हो सकते हैं। 
  • हैंडबुक ऑन प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर एंड ऑफिस प्रोसीजर अध्याय VI - रोस्टर के तहत रोस्टर के बारे में उल्लेख किया गया है। 

अध्याय VI 

रोस्टर 

मुख्य न्यायाधीश के आदेश के तहत रजिस्ट्रार (जे-1) द्वारा रोस्टर तैयार किया जायेगा। इसमें किसी बेंच को काम सौंपने/आवंटन के संबंध में सामान्य या विशेष निर्देश हो सकते हैं और अनुपलब्धता के कारण किसी बेंच का काम किसी अन्य बेंच को आवंटित करना भी शामिल है।

आकस्मिकताओं को पूरा करने के लिये, मुख्य न्यायाधीश, समय-समय पर, रजिस्ट्रार (जे-1) को न्यायिक कार्य के पुन: आवंटन के लिये रोस्टर निर्देश या संशोधन तैयार करने का निर्देश दे सकते हैं।

रोस्टर निर्देश और संशोधन इस तरह से तैयार किये जाएँगे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई न्यायिक समय बर्बाद न हो।

जहाँ एक बेंच किसी मामले को किसी अन्य बेंच, विशेष बेंच, उचित बेंच या बड़ी बेंच के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश देती है, जैसा भी मामला हो, रजिस्ट्रार (जे-1) आदेश के लिये मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखेगा।

संबंधित निर्णयज विधि  

  • राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद (1997) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना है कि उच्च न्यायालय से संबंधित मामलों में, मुख्य न्यायाधीश के पास मामलों के असाइनमेंट को निर्धारित करने का अधिकार है। 
  • शांति भूषण बनाम भारत के उच्चतम न्यायालय के रजिस्ट्रार और अन्य (2018) मामले के माध्यम से, उच्चतम न्यायालय ने दोहराया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के मामलों के लिये मास्टर ऑफ रोस्टर हैं और उच्चतम न्यायालय के नियमों के अनुसार, उनके पास मामलों को अलग-अलग न्यायाधीशों या न्यायपीठों को आवंटित करने की शक्ति है।  

आपराधिक कानून

सीआरपीसी की धारा 125

 26-Oct-2023

संदीप कुमरावत बनाम श्रीमती अंतिमा कुमरावत 

"गुजारा भत्ते का दावा करने वाली एक निराश्रित पत्नी को केवल उसकी दलीलों में दोषों के आधार पर पीड़ित नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायाधीश प्रेम नारायण सिंह 

स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने संदीप कुमरावत बनाम श्रीमती अंतिमा कुमरावत के मामले में कहा कि गुजारा भत्ते का दावा करने वाली एक निराश्रित पत्नी को केवल उसकी दलीलों में दोषों के आधार पर पीड़ित नहीं किया जा सकता है। 

संदीप कुमरावत बनाम श्रीमती अंतिमा कुमरावत मामले की पृष्ठभूमि  

  • याचिकाकर्त्ता (पति) और प्रतिवादी (पत्नी) के बीच विवाह दिनांक 29 मई, 2014 को संपन्न हुआ और उनके विवाह बंधन से एक बेटे का जन्म हुआ। 
  • प्रतिवादी ने अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया और तब से वह अलग रहने लगी। 
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के तहत एक आवेदन दायर किया और प्रधान न्यायाधीश ने आवेदन की अनुमति दी और प्रतिवादी को 7000/- रुपये और बेटे को 3000/- रुपये का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। 
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 127 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसे कुटुंब न्यायालय ने खारिज़ कर दिया। 
  • इस आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19(4) के तहत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की है। 
  • उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज़ कर दी, और कुटुंब न्यायालय के आदेश की पुष्टि की गई। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

  • न्यायाधीश प्रेम नारायण सिंह की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि जो निराश्रित पत्नी अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, उसे केवल उसके दोषों के आधार पर प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार के गुजारा भत्ते के मामलों में अति तकनीकी रवैया नहीं अपनाया जा सकता। ऐसे में याचिकाकर्त्ता इस बहाने से बच्चे और पत्नी के भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकता कि उसने अपनी दलीलों और मामले की कार्यवाही में कुछ गलती की है। 
  • न्यायालय ने सुनीता कछवाहा और अन्य बनाम अनिल कछवाहा (2015) के मामले पर भरोसा किया।  
  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के तहत कार्यवाही है। सीआरपीसी की धारा 125 के तहत कार्यवाही में, न्यायालय के लिये यह सुनिश्चित करना आवश्यक नहीं है कि कौन दोषपूर्ण था और पति और पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद के सूक्ष्म विवरणों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। 

शामिल  कानूनी प्रावधान  

सीआरपीसी की धारा 125 

यह धारा पत्नी, संतान और माता-पिता के भरणपोषण के लिये आदेश से संबंधित है, यह कहती है कि 

​(1) यदि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति-​ 

​(क) अपनी पत्नी का, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या​ 

​(ख) अपनी धर्मज या अधर्मज अवयस्क संतान का चाहे विवाहित हो या न हो, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या​ 

​(ग) अपनी धर्मज या अधर्मज संतान का (जो विवाहित पुत्री नहीं है), जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है, ज​​हाँ​​ ऐसी संतान किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है, या​ 

​(घ) अपने पिता या माता का, जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ है,​ 

​भरणपोषण करने में उपेक्षा करता है या भरणपोषण करने से इंकार करता है तो प्रथम वर्ग ​​न्यायाधीश​​, ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित हो जाने पर, ऐसे व्यक्ति को यह निदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान, पिता या माता के भरणपोषण के लि​​ये​ ​मासिक दर पर, जिसे ​​न्यायाधीश ​​ठीक समझे, मासिक भत्ता दे और उस भत्ते का संदाय ऐसे व्यक्ति को करे जिसको संदाय करने का मजिस्ट्रेट समय-समय पर निदेश दे:​ 

​परंतु मजिस्ट्रेट खंड (ख) में निर्दिष्ट अवयस्क पुत्री के पिता को निदेश दे सकता है कि वह उस समय तक ऐसा भत्ता दे जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती है, यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है, कि ऐसी अवयस्क पुत्री के, यदि वह विवाहित हो, पति के पास पर्याप्त साधन नहीं है:​ 

​परंतु यह और कि मजिस्ट्रेट, इस उपधारा के अधीन भरणपोषण के लिये मासिक भत्ते के संबंध में कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, ऐसे व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी या ऐसी संतान, पिता या माता के अंतरिम भरणपोषण के लिये मासिक भत्ता और ऐसी कार्यवाही का व्यय दे जिसे मजिस्ट्रेट उचित समझे और ऐसे व्यक्ति को उसका संदाय करे जिसको संदाय करने का मजिस्ट्रेट समय-समय पर निदेश दे:​ 

​परंतु यह भी कि दूसरे परंतुक के अधीन अंतरिम भरणपोषण के लिये मासिक भत्ते और कार्यवाही के व्ययों का कोई आवेदन, यथासंभव, ऐसे व्यक्ति पर आवेदन की सूचना की तामील की तारीख से साठ दिन के भीतर निपटाया जायेगा।​ 

स्पष्टीकरण-​इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये -​ 

(क) अवयस्क" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है, जिसके बारे में भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 (1875 का 9) के उपबंधों के अधीन यह समझा जाता है कि उसने वयस्कता प्राप्त नहीं की है ; 

(ख) पत्नी" के अंतर्गत ऐसी स्त्री भी है जिसके पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह-विच्छेद कर लिया है और जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है। 

(2) भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये ऐसा कोई भत्ता और कार्यवाही के लिये व्यय, आदेश की तारीख से, या, यदि ऐसा आदेश दिया जाता है तो, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण और कार्यवाही के व्ययों के लिये आवेदन की तारीख से देय होंगे। 

(3) यदि कोई व्यक्ति जिसे आदेश दिया गया हो, उस आदेश का अनुपालन करने में पर्याप्त कारण के बिना असफल रहता है तो उस आदेश के प्रत्येक भंग के लिये ऐसा कोई मजिस्ट्रेट देय रकम के ऐसी रीति से उद्गृहीत किये जाने के लिये वॉरंट जारी कर सकता है जैसी रीति जुर्माने उद्गृहीत करने के लिये उपबंधित है, और उस वॉरंट के निष्पादन के पश्चात् प्रत्येक मास के न चुकाए गए  यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये पूरे भत्ते और कार्यवाही के व्ययट या उसके किसी भाग के लिये ऐसे व्यक्ति को एक मास तक की अवधि के लिये, अथवा यदि वह उससे पूर्व चुका दिया जाता है तो चुका देने के समय तक के लिये, कारावास का दंडादेश दे सकता है : 

परंतु इस धारा के अधीन देय किसी रकम की वसूली के लिये कोई वॉरंट तब तक जारी नहीं किया जायेगा जब तक उस रकम को उद्गृहीत करने के लिये, उस तारीख से जिसको वह देय हुई एक वर्ष की अवधि के अंदर न्यायालय से आवेदन नहीं किया गया है : 

परंतु यह और कि यदि ऐसा व्यक्ति इस शर्त पर भरणपोषण करने की प्रस्थापना करता है कि उसकी पत्नी उसके साथ रहे और वह पति के साथ रहने से इंकार करती है तो ऐसा मजिस्ट्रेट उसके द्वारा कथित इंकार के किन्हीं आधारों पर विचार कर सकता है और ऐसी प्रस्थापना के किये जाने पर भी वह इस धारा के अधीन आदेश दे सकता है यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा आदेश देने के लिये न्यायसंगत आधार है। 

स्पष्टीकरण-​यदि पति ने अन्य स्त्री से विवाह कर लिया है या वह रखेल रखता है तो यह उसकी पत्नी द्वारा उसके साथ रहने से इंकार का न्यायसंगत आधार माना जायेगा।​ 

(4) कोई पत्नी अपने पति से इस आधार के अधीन यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये भत्ता और कार्यवाही के व्यय प्राप्त करने की हकदार न होगी, यदि वह जारता की दशा में रह रही है अथवा यदि वह पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है अथवा यदि वे पारस्परिक सम्मति से पृथक् रह रहे हैं। 

​(5) मजिस्ट्रेट यह साबित होने पर आदेश को रद्द कर सकता है कि कोई पत्नी, जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया है जारता की दशा में रह रही है अथवा पर्याप्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है अथवा वे पारस्परिक सम्मति से पृथक् रह रहे हैं।​ 

  • के.विमल बनाम के.वीरास्वामी (1991) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 एक सामाजिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये पेश की गई है। इस धारा का उद्देश्य पति से अलग होने के बाद पत्नी को आवश्यक आश्रय और भोजन प्रदान करके उसका कल्याण करना सुनिश्चित करना है। 

सीआरपीसी की धारा 127 

  • यह धारा 127 से संबंधित है जो भत्ते में परिवर्तन के बारे में कहती है कि - 

(1) धारा 125 के अधीन भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये मासिक भत्ता पाने वाले या, यथास्थिति, अपनी पत्नी, संतान, पिता या माता को भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये मासिक भत्ता देने के लिये उसी धारा के अधीन आदिष्ट किसी व्यक्ति की परिस्थितियों में तब्दीली साबित हो जाने पर मजिस्ट्रेट, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के लिये भत्ते में ऐसा परिवर्तन कर सकता है जो वह ठीक समझे। 

​(2) ज​​हाँ​​ मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि धारा 125 के अधीन दिया गया कोई आदेश किसी सक्षम सिविल न्यायालय के किसी विनिश्चय के परिणामस्वरूप रद्द या परिवर्तित किया जाना चाहि​​ये​​ व​​हाँ​​ वह, यथास्थिति, उस आदेश को तद्नुसार रद्द कर देगा या परिवर्तित कर देगा।​ 

​(3) ज​​हाँ​​ धारा 125 के अधीन कोई आदेश ऐसी स्त्री के पक्ष में दिया गया है जिसके पति ने उससे विवाह- विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह-विच्छेद प्राप्त कर लिया है व​​हाँ​​ यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि-​ 

​(क) उस स्त्री ने ऐसे विवाह-विच्छेद की तारीख के पश्चात् पुनः विवाह कर लिया है, तो वह ऐसे आदेश को उसके पुनर्विवाह की तारीख से रद्द कर देगा;​ 

​(ख) उस स्त्री के पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है और उस स्त्री ने उक्त आदेश के पूर्व या पश्चात् वह पूरी धनराशि प्राप्त कर ली है जो पक्षकारों को लागू किसी रूढ़िजन्य या स्वीय विधि के अधीन ऐसे विवाह-विच्छेद पर देय थी तो वह ऐसे आदेश को,-​ 

​(i) उस दशा में जिसमें ऐसी धनराशि ऐसे आदेश से पूर्व दे दी गई थी उस आदेश के दिये जाने की तारीख से रद्द कर देगा;​ 

​(ii) किसी अन्य दशा में उस अवधि की, यदि कोई हो, जिसके लिये पति द्वारा उस स्त्री को वास्तव में भरणपोषण दिया गया है, समाप्ति की तारीख से रद्द कर देगा;​ 

​(ग) उस स्त्री ने अपने पति से विवाह-विच्छेद प्राप्त कर लिया है और उसने अपने विवाह-विच्छेद के पश्चात् अपने यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण के आधारों का स्वेच्छा से अभ्यर्पण कर दिया था, तो वह आदेश को उसकी तारीख से रद्द कर देगा।​ 

​(4) किसी भरणपोषण या दहेज की, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसे धारा 125 के अधीन  भरणपोषण और अंतरिम भरणपोषण या उनमें से किसी के लिये कोई मासिक भत्ता संदाय किये जाने का आदेश दिया गया है, वसूली के लिये डिक्री करने के समय सिविल न्यायालय उस राशि की भी गणना करेगा जो ऐसे आदेश के अनुसरण में, यथास्थिति, भरणपोषण या अंतरिम भरणपोषण या उनमें से किसी के लिये मासिक भत्ते के रूप में उस व्यक्ति को संदाय की जा चुकी है या उस व्यक्ति द्वारा वसूल की जा चुकी है।​ 

पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 

  • यह अधिनियम सुलह को बढ़ावा देने और विवाह और पारिवारिक मामलों से संबंधित विवादों के शीघ्र निपटान को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था। 
  • इस अधिनियम की धारा 19(4) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय, अपनी स्वयं की प्रेरणा से या अन्यथा, किसी भी कार्यवाही के रिकॉर्ड को मांग सकता है और उसकी जाँच कर सकता है जिसमें कुटुंब न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र में स्थित मामले में दंड प्रक्रिया, 1973 संहिता के अध्याय IX के तहत एक आदेश पारित किया है।  यह ऐसे आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य के बारे में स्वयं को संतुष्ट करने के उद्देश्य से, एक अंतरिम आदेश नहीं होने और ऐसी कार्यवाही की नियमितता के लिये किया जाता है। 

सिविल कानून

पत्नी के साथ गुलाम जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता

 26-Oct-2023

कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ 

एक पत्नी को गुलाम नहीं माना जाना चाहिये या उसे अपने पति द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन रहने के लिये मज़बूर नहीं किया जाना चाहिये। 

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (HC) ने कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ के मामले में माना है कि पत्नी को गुलाम नहीं माना जाना चाहिये, या उसे अपने पति द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन रहने के लिये मज़बूर नहीं किया जाना चाहिये। 

कल्याणी बाई बनाम तेजनाथ मामले की पृष्ठभूमि  

  • दोनों पक्षकारों का विवाह वर्ष 2008 में हुआ और इस दंपत्ति को वर्ष 2009 में एक बच्ची हुई। 
  • गौना करने के बाद दंपत्ति लगभग 6 माह तक ग्राम बरदुली स्थित वैवाहिक घर में रहे। 
  • पति का आरोप है कि शुरू में पत्नी को यह विवाह पसंद नहीं आया क्योंकि यह विवाह ग्रामीण इलाके में हुआ था, इसके बाद वह बी. एड. की पढ़ाई पूरी करने के लिये रायपुर चली गई। 
  • कोर्स पूरा होने के बाद, जब पति उसे वापस लेने के लिये गया तो पत्नी ने अपने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया और कहा कि वह अपने मायके में रहेगी। 
  • इसके बाद पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत क्रूरता और परित्याग के आधार पर तलाक की मांग की और कुटुंब न्यायालय ने इसकी अनुमति दे दी। 
  • अपील में पत्नी ने तर्क दिया कि वह सदैव पति के साथ रहने को तैयार थी, लेकिन वह उसे कभी भी अपने साथ नहीं रखना चाहता था और वही चाहता था कि वह ग्राम बरदुली में अलग से रहे। 
  • उसने यह भी कहा कि वह शुरू से ही पति के गाँव में रहने की मांग का विरोध करती थी। 
  • पति ने कहा कि उसकी पत्नी को झूठे आरोप लगाने की आदत है और उसने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-a के तहत अपराध के लिये उसके खिलाफ पुलिस शिकायत भी की थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ  

  • न्यायाधीश गौतम भादुड़ी और दीपक कुमार तिवारी ने माना कि यह पति ही था जो इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि उसकी पत्नी को पति के गाँव में रहना चाहिये और उसने साथ रहने की उसकी मांग को उचित महत्त्व नहीं दिया। 
  • वैवाहिक घर के भीतर पत्नी की स्वायत्तता और गरिमा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए, उच्च न्यायालय ने पति द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ की गई परित्याग और क्रूरता की दलील को खारिज़ कर दिया। 

परित्याग  

  • परित्याग से तात्पर्य किसी उचित कारण के बिना जीवनसाथी की कंपनी से हटने या वैवाहिक दायित्वों से पीछे हटने के कार्य से है। इसके लिये निम्नलिखित पूर्वावश्यकताएँ हैं: 
    • एक पति या पत्नी के दूसरे से अलग होने का तथ्य। 
    • एनिमस डेसेरेंडी, यानी, अभित्यजन का आशय का अर्थ स्थायी रूप से छोड़ने के आशय से है। 
    • परित्यक्त जीवनसाथी परित्याग के लिये सहमत नहीं होना चाहिये। 
    • परित्याग उचित कारण के बिना होना चाहिये। 
    • कम-से-कम दो वर्ष तक यही स्थिति बनी रही हो। 
    • परित्याग का प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 13 (1) (i-b) के तहत प्रदान किया गया है। 
      • विवाह-विच्छेद-(1) कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारंभ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात्, पति अथवा पत्नी द्वारा उपस्थापित अर्जी पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि- 

(I) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अपने पति या अपनी पत्नी से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छया मैथुन किया है; या  

(क) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का व्यवहार किया है; या 

(ख) दूसरे पक्षकार ने अर्जी के पेश किये जाने के अव्यवहित पूर्व कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर कालावधि पर अर्जीदार के अभित्यक्त रखा है; या 

(ib) ने याचिका की प्रस्तुति से तुरंत पहले कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर अवधि के लिये याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया है। 

  • बिपिन चंद्रा बनाम प्रभावती (1957) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जहाँ पत्नी बिना किसी कारण के वैवाहिक घर छोड़ देती है, उसे परित्यक्त नहीं माना जायेगा, यदि उसने बाद में लौटने की इच्छा जताई हो, लेकिन उसे ऐसा करने से पति द्वारा जबरन रोक दिया गया हो।