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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

इकबालिया बयानों की स्वीकृति

 27-Oct-2023

के. बाबू बनाम केरल राज्य

अभियुक्तों द्वारा पुलिस के सामने दिये गए इकबालिया बयानों को स्वीकार करना, जिस पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 और धारा 26 के तहत प्रतिबंध है, मुकदमे में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

न्यायमूर्ति ए.के. जयशंकरन नांबियार और डॉ. जस्टिस कौसर एडप्पागथ

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने के. बाबू बनाम केरल राज्य के मामले में कहा कि अभियुक्तों द्वारा पुलिस के सामने दिये गए इकबालिया बयानों को स्वीकार करना, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 25 और धारा 26 के तहत वर्जित है, मुकदमे में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

के. बाबू बनाम केरल राज्य की पृष्ठभूमि

  • 5 दिसंबर 2006 को, आरोपी ने कुमारनुन्नी नायर और आनंदवल्ली अम्मा को मारने के आशय से उनके आवास में घुसपैठ की।
  • उन्हें मारने के बाद, उसने दो सोने की चूड़ियाँ, एक बंदूक और 550/- रुपये की नकदी चुरा ली।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302, 383, 449, 397, 392, 201 के तहत अपराध का दोषी पाया।
  • उक्त निष्कर्ष पर पहुँचने में, ट्रायल कोर्ट ने पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर भरोसा किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 449 के तहत अपराध के लिये 10 वर्ष का कठोर कारावास, भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 397 के तहत अपराध के लिये 10 वर्ष का कठोर कारावास और भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 201 के तहत दो वर्ष का कठोर कारावास की सजा देने का निदेश दिया।
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत अपराध के लिये उन्हें आजीवन कठोर कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें 10,000 रुपए का ज़ुर्माना देने का भी निदेश दिया गया।
  • इसके बाद ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिये केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • आरोपी को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया, और तद्नुसार उसके खिलाफ पारित दोषसिद्धि और सजा को उच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति डॉ. ए.के. जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पागाथ की खंडपीठ ने कहा कि आरोपियों द्वारा पुलिस के सामने दिये गए इकबालिया बयानों को स्वीकार करना, जिन पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के तहत प्रतिबंध है, मुकदमे में बाधा उत्पन्न कर सकता है और आरोपियों को बरी किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी नागरिक को आत्म-स्वीकारोक्ति और मनमाने ढंग से जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने से बचाने के लिये बनाए गए वैधानिक प्रावधान के उल्लंघन के अभियोजन हेतु आवश्यक रूप से गंभीर परिणाम होने चाहिये। संवैधानिक सुरक्षा उपायों के साथ राज्य द्वारा छेड़छाड़ करके भ्रमित नहीं किया जा सकता है, जो उन्हें बनाए रखने के लिये बाध्य है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 को सख्ती से समझा जाना चाहिये ताकि धारा 25 और 26 के प्रावधानों से प्रभावित होने वाले बयान, जो न्यायालय के फैसले को प्रभावित और पूर्वाग्रहित करने की प्रवृत्ति रखते हैं, उन्हें न्यायालय में मामले के रिकॉर्ड में स्थान न मिले।

शामिल कानूनी प्रावधान

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, धारा 25

  • यह धारा पुलिस अधिकारी से की गई संस्वीकृति को सादित न किये जाने से संबंधित है, यह कहती है कि किसी पुलिस ऑफिसर से की गई कोई भी संस्वीकृति किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध सादित नहीं की जायेगी।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 26

  • यह धारा पुलिस की अभिरक्षा में होते हुए अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति का उसके विरुद्ध सादित न किये जाने से संबंधित है, यह कहती है कि कोई भी संस्वीकृति जो किसी व्यक्ति ने उस समय की हो जब वह पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में हो, ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध सादित न की जायेगी जब तक, कि वह मजिस्ट्रेट की साक्षात् उपस्थिति में न की गई हो।
  • किशोर चंद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (1990) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 26 का उद्देश्य पुलिस अधिकारी द्वारा अधिकार के दुरुपयोग से बचना है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 302

  • यह धारा हत्या के लिये दंड से संबंधित है, यह कहती है कि जो भी कोई किसी व्यक्ति की हत्या करता है , तो उसे मृत्यु दंड या आजीवन कारावास और साथ ही आर्थिक दंड से दंडित किया जायेगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 383

  • यह धारा जबरन वसूली से संबंधित है। यह कहती है, जो भी कोई किसी व्यक्ति को या किसी अन्य व्यक्ति को कोई क्षति पहुँचाने के भय में साशय डालता है, और तद्द्वारा इस प्रकार भय में डाले गए व्यक्ति को, कोई संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति या हस्ताक्षरित / मुद्रांकित कोई चीज, जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, सौंपने के लिये बेईमानी से उत्प्रेरित करता है, वह “जबरन वसूली” करता है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 392

  • यह धारा लूट के लिये दंड से संबंधित है। यह कहती है कि, जो भी कोई लूट करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कठिन कारावास की सज़ा जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा। और यदि लूट राजमार्ग पर सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच की गयी हो, तो कारावास चौदह वर्ष तक का हो सकता है ।

भारतीय दंड संहिता की धारा 397

  • यह धारा मॄत्यु या घोर आघात कारित करने के प्रयत्न के साथ लूट या डकैती से संबंधित है। यह कहती है कि यदि लूट या डकैती करते समय अपराधी किसी घातक आयुध का उपयोग करके किसी व्यक्ति को घोर आघात पहुँचाएगा, या किसी व्यक्ति की मॄत्यु कारित करने या उसे घोर आघात पहुँचाने का प्रयत्न करेगा, तो उसे कम से कम सात वर्ष तक के लिये कठोर कारावास की सजा से दंडित किया जायेगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 449

  • यह धारा मृत्यु से दंडनीय अपराध को रोकने के लिये गृह-अतिचार से संबंधित है। यह कहती है भारतीय दंड संहिता की धारा 449 के अनुसार, जो कोई मृत्यु से दंडनीय कोई अपराध करने के लिये गृह-अतिचार करेगा, वह आजीवन कारावास से, या कठिन कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से अधिक नहीं होगी, दंडित किया जायेगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 201

यह धारा अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिये झूठी जानकारी देने से संबंधित है, यह कहती है कि -

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के अनुसार, जो भी कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किये जाने के किसी साक्ष्य का विलोप, इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दंड से प्रतिच्छादित करे या उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी जानकारी देगा, जिसके गलत होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;
  • यदि अपराध मृत्यु से दंडनीय हो - यदि वह अपराध जिसके किये जाने का उसे ज्ञान या विश्वास है, मृत्यु से दंडनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • यदि अपराध आजीवन कारावास से दंडनीय हो - या यदि वह अपराध आजीवन कारावास, या दस वर्ष तक के कारावास, से दंडनीय हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जायेगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • यदि अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय हो - और यदि वह अपराध दस वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय हो, तो उसे उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई अवधि के लिये जो उस अपराध के लिये उपबंधित कारावास की हो, से दंडित किया जायेगा या आर्थिक दंड से, या दोनों से, दंडित किया जायेगा।

सिविल कानून

पॉश के तहत विभागीय प्राधिकारी से अपील

 27-Oct-2023

मुकेश खंपरिया बनाम सचिव, गृह मंत्रालय, मध्यप्रदेश सरकार के माध्यम से  मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य विभाग।

आंतरिक शिकायत समिति द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने पर कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के तहत किसी विभागीय प्राधिकरण के पास आगे अपील करने का कोई अवसर नहीं है।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय

स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (HC) ने कहा है कि जब कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के तहत स्थापित आंतरिक शिकायत समिति (ICC) ने एक रिपोर्ट संकलित की है, तो मुकेश खंपरिया बनाम सचिव, गृह मंत्रालय, मध्यप्रदेश सरकार के माध्यम से मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य विभाग मामले में फिर से अपील करने का कोई अवसर नहीं है।

मुकेश खंपरिया बनाम सचिव, गृह मंत्रालय, मध्यप्रदेश सरकार के माध्यम से मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य विभाग मामले की पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्त्ता (मुकेश खंपरिया) मध्यप्रदेश के ज़िला नरसिंहपुर के पुलिस स्टेशन गाडरवारा में स्टेशन हाउस ऑफिसर (SHO) के रूप में कार्यरत थे।
  • प्रतिवादी संख्या 7 उक्त पुलिस स्टेशन में सब इंस्पेक्टर के पद पर तैनात था।
  • याचिकाकर्त्ता प्रतिवादी संख्या 7 के काम और कर्त्तव्यों की देखरेख करने वाला एक अधिकारी था।
  • प्रतिवादी एक से अधिक अवसरों पर कर्त्तव्य की उपेक्षा के लिये ज़िम्मेदार थी, जिसके कारण उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने के कुछ आदेश पारित किये गए थे।
  • यह आरोप लगाया गया है कि बाद में प्रतिवादी ने एक तुच्छ शिकायत को प्राथमिकता देते हुए दावा किया कि याचिकाकर्त्ता ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न किया है।
  • शिकायत के अनुसार, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के प्रावधानों के अनुसार एक आंतरिक शिकायत समिति का गठन किया गया था।
  • पाँच सदस्यों वाली आंतरिक शिकायत समिति ने मामले की जाँच की, गवाहों के बयान दर्ज किये और एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें कहा गया कि याचिकाकर्त्ता के खिलाफ कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न करने के आरोप स्थापित नहीं हुए हैं।
  • इसके बाद प्रतिवादी संख्या 7 ने आंतरिक शिकायत समिति की उपरोक्त रिपोर्ट के खिलाफ विभागीय प्राधिकारी को एक आवेदन दिया, फिर इसमें यह माना गया कि 25 दिसंबर, 2017 की रिपोर्ट में याचिकाकर्त्ता के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप स्थापित नहीं किया जा सका।
  • इसके बाद, पुलिस मुख्यालय के निर्देशों के अनुसार, 25 जुलाई, 2018 को दूसरी जाँच रिपोर्ट संकलित की गई। इस रिपोर्ट में याचिकाकर्त्ता को अपने ऊपर लगे आरोपों के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया।
  • वर्तमान याचिका भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के तहत 25 जून, 2018 के आदेश के खिलाफ दायर की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल ने रिट याचिका को स्वीकार करते हुए और पुलिस मुख्यालय के विवादित निर्देश के साथ-साथ दूसरी जाँच रिपोर्ट को रद्द करते हुए कहा कि “वर्तमान मामले में, 25 जून, 2018 को निर्देश जारी करने के लिये शक्ति का कोई स्रोत दिखाने के अभाव में” 25 जुलाई, 2018 का उक्त आदेश और परिणामी जाँच रिपोर्ट न्यायिक जाँच को बरकरार नहीं रख सकती है।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 की धारा 18 में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि अपील केवल न्यायालय या न्यायाधिकरण में ही की जायेगी और विभागीय प्राधिकरण में अपील का कोई प्रावधान नहीं है।

कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 के प्रावधान

  • विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997) वह ऐतिहासिक मामला है जिसके कारण इस कानून को अधिनियमित किया गया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित दिशानिर्देश इस प्रकार हैं:
    • प्रत्येक महिला कर्मचारी को सुरक्षा की भावना प्रदान करना प्रत्येक नियोक्ता का कर्त्तव्य है।
    • सरकार को यौन उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिये सख्त कानून और नियम बनाने चाहिये।
    • ऐसी प्रकृति के किसी भी कृत्य के परिणामस्वरूप अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिये और गलत करने वाले के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी की जानी चाहिए।
    • पीड़ित द्वारा की गई शिकायतों के निवारण के लिये संगठन के पास एक सुव्यवस्थित शिकायत तंत्र होना चाहिये और उचित समय सीमा के अधीन होना चाहिये।
    • यह शिकायत तंत्र शिकायत समिति के रूप में होना चाहिये जिसकी अध्यक्षता एक महिला सदस्य द्वारा की जानी चाहिये और समिति में कम-से-कम 50% सदस्य महिलाएँ होनी चाहिये ताकि पीड़ितों को अपनी समस्याएँ बताते समय शर्म महसूस न हो।
    • इस शिकायत समिति में एक एनजीओ या अन्य निकाय के रूप में तीसरे पक्षकार की भागीदारी भी होनी चाहिये जो इस मुद्दे से परिचित हो।
    • इस समिति के कामकाज में पारदर्शिता की सख्त आवश्यकता है और इसके लिये सरकार को वार्षिक रिपोर्ट सौंपना अपेक्षित है।
    • कर्मचारियों की बैठक में यौन उत्पीड़न से संबंधित मुद्दे वर्जित नहीं होने चाहिये और उन पर सकारात्मक चर्चा होनी चाहिये।
    • संगठन का यह कर्त्तव्य है कि वह महिला कर्मचारियों को जारी किये गए नए दिशानिर्देशों और पारित कानून के बारे में नियमित रूप से सूचित करके उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करे।
    • नियोक्ता या प्रभारी व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह तीसरे पक्ष के कृत्य या चूक के कारण होने वाले यौन उत्पीड़न की पीड़िता को सहायता प्रदान करने के लिये आवश्यक और उचित कदम उठाए।
    • ये दिशानिदेश केवल सरकारी नियोक्ताओं तक ही सीमित नहीं हैं और निजी क्षेत्रों के नियोक्ताओं को भी इसका पालन करना चाहिये।
  • मेधा कोतवाल लेले और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2012) मामले ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवश्यक कदम उठाने के लिये नोटिस जारी करके, जैसा कि ऊपर बताया गया है, विशाखा के मामले में तैयार दिशानिदेशों के कार्यान्वयन में मदद की।
  • यौन उत्पीड़न को उक्त अधिनियम की धारा 2(n) द्वारा परिभाषित किया गया है और धारा 3(2) में ऐसी कुछ परिस्थितियों का उल्लेख है जो यौन उत्पीड़न का कारण बनती हैं।

धारा 2 (ढ) “लैंगिक उत्पीड़न" के अंतर्गत निम्नलिखित कोई एक या अधिक अवांछनीय कार्य या व्यवहार चाहे प्रत्यक्ष रूप से या विवक्षित रूप से हैं, अर्थात् :

  • शारीरिक संपर्क और अग्रगमन; या
  • लैंगिक अनुकूलता की मांग या अनुरोध करना, या
  • लैंगिक अत्युक्त टिप्पणियाँ करना; या
  • अश्लील साहित्य दिखानाः या
  • लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछनीय शारीरिक, मौखिक या अमौखिक आचरण करना,

धारा 3. लैंगिक उत्पीड़न का निवारण (1) किसी भी महिला का किसी कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न नहीं किया जायेगा।

(2) अन्य परिस्थितियों में निम्नलिखित परिस्थितियाँ, यदि वे लैंगिक उत्पीड़न के किसी कार्य या आचरण के संबंध में होती हैं। या विद्यमान हैं या उससे संबद्ध हैं, लैंगिक उत्पीड़न की कोटि में आ सकेंगी।

  • उसके नियोजन में अधिमानी व्यवहार का विवक्षित या सुस्पष्ट वचन देना, या
  • उसके नियोजन में अहितकर व्यवहार की विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
  • उसके वर्तमान या भावी नियोजन की प्रास्थिति के बारे में विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
  • उसके कार्य में हस्तक्षेप करना या उसके लिये अभित्रासमय या संतापकारी या प्रतिकूल कार्य वातावरण सृजित करना, या
  • उसके स्वास्थ्य या सुरक्षा को प्रभावित करने की संभावना वाला अपमानजनक व्यवहार करना।

उक्त कानून की धारा 4 और 6 क्रमशः आंतरिक शिकायत समिति और स्थानीय शिकायत समिति के गठन का प्रावधान करती हैं।

धारा 18. अपील- (1) धारा 13 की उपधारा (2) के अधीन या धारा 13 की उपधारा (3) के खंड (i) या खंड (ii) या धारा 14 की उपधारा (1) या उपधारा (2) या धारा 17 के अधीन की गई सिफारिशों या ऐसी सिफारिशों को कार्यान्वित न किये जाने से व्यथित कोई व्यक्ति, उक्त व्यक्ति को लागू सेवा नियमों के उपबंधों के अनुसार न्यायालय या अधिकरण को अपील कर सकेगा या जहाँ ऐसे सेवा नियम विद्यमान नहीं हैं, वहाँ तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, व्यथित व्यक्ति ऐसी रीति से, जो विहित की जाये, अपील कर सकेगा।

(2) उपधारा (1) के अधीन अपील, सिफारिशों के नब्बे दिन की अवधि के भीतर की जायेगी।