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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

हत्या के जुर्म में ट्रायल

 06-Nov-2023

परशुराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य

अभियुक्तों को लगी चोटों के स्पष्टीकरण के अभाव से पता चलता है कि अभियोजन पक्ष ने घटना की वास्तविक प्रकृति को छिपाया होगा।

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय (SC) ने हाल ही में कहा है कि आरोपियों को लगी चोटों के लिये स्पष्टीकरण की अनुपस्थिति से पता चलता है कि अभियोजन पक्ष ने परशुराम बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में घटना की वास्तविक प्रकृति को छिपाया होगा।

परशुराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • आरोपी व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया गया, और जाँच पूरी होने के बाद न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के न्यायालय में आरोप पत्र दायर किया गया।
  • चूँकि मामला विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय था, इसलिये मामला प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश के न्यायालय को सौंप दिया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट के समक्ष कुल नौ आरोपी व्यक्तियों से पूछताछ की गई।
    • उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि उन्हें झूठा फँसाया गया है।
  • अभियोजन पक्ष ने इक्कीस गवाहों से पूछताछ की और बचाव पक्ष ने दो गवाहों से पूछताछ की।
  • 9 में से सात आरोपियों को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 149 के साथ पठित धारा 302, 326, 324, 323, 147 के तहत आरोपों के लिये दोषी ठहराया गया और शेष दो आरोपियों को आरोपों से बरी कर दिया गया।
    • अभियुक्तों को दी गई सभी सज़ाएँ एक साथ चलनी थीं।
  • इसके बाद उच्च न्यायालय (HC) में अपील की गई, दोनों आपराधिक अपीलें खारिज़ कर दी गईं और ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज़ किये गए फैसले और सजा के आदेश की पुष्टि की गई।
    • इस प्रकार, वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी।
  • अपीलकर्त्ता की ओर से उपस्थित वकील ने कहा कि अभियोजन पक्ष इस मामले में अपीलकर्त्ताओं को कोई विशिष्ट भूमिका बताने में विफल रहा है।
  • यह प्रस्तुत किया गया था कि कई आरोपी व्यक्तियों को चोटें लगी थीं जिनके बारे में अभियोजन पक्ष द्वारा बिल्कुल भी स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
  • नंद लाल और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023) मामले पर भरोसा किया गया था, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने राय दी थी कि चोटों का स्पष्टीकरण न देना अभियोजन मामले के लिये घातक है और अपीलकर्त्ता ऐसी चोटों का स्पष्टीकरण न होने के कारण कानूनी आधार पर बरी होने के हकदार हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति बी.आर.गवई, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि "अभियुक्तों की चोटों के बारे में स्पष्टीकरण न देने से यह संदेह पैदा होगा कि क्या अभियोजन पक्ष ने घटना की वास्तविक उत्पत्ति को रिकॉर्ड में लाया है या नहीं।”
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि गैर-कानूनी समूह का इरादा मृतक की मौत का कारण था।
    • इसलिये, न्यायालय ने दोषसिद्धि को आईपीसी की धारा 302 से बदलकर धारा 304 के भाग II में बदल दिया।

आईपीसी के कानूनी प्रावधान:

  • धारा 300- हत्या
    • भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के अनुसार, इसके पश्चात अपवादित मामलों को छोड़कर आपराधिक गैर इरादतन मानव वध हत्या है, यदि ऐसा कार्य, जिसके द्वारा मृत्यु कारित की गई हो, या मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो, अथवा
    • यदि कोई कार्य ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से किया गया हो जिससे उस व्यक्ति की, जिसको क्षति पहुँचाई गई है, मृत्यु होना सम्भाव्य हो, अथवा
    • यदि वह कार्य किसी व्यक्ति को शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से किया गया हो और वह आशयित शारीरिक क्षति, प्रकॄति के मामूली अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अथवा
    • यदि कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो कि कार्य इतना आसन्न संकट है कि मृत्यु कारित होने की पूरी संभावना है या ऐसी शारीरिक क्षति कारित होगी जिससे मृत्यु होना संभाव्य है और वह मृत्यु कारित करने या पूर्वकथित रूप की क्षति पहुँचाने का जोखिम उठाने के लिये बिना किसी क्षमायाचना के ऐसा कार्य करे ।
  • धारा 302 – हत्या के लिये दंड - जो भी कोई किसी व्यक्ति की हत्या करता है, तो उसे मृत्यु दंड या आजीवन कारावास और साथ ही आर्थिक दंड से दंडित किया जायेगा।
  • धारा 299 - आपराधिक मानव वध - भारतीय दंड संहिता की धारा 299 के अनुसार, जो भी कोई मृत्यु कारित करने के आशय से, या ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से जिससे मृत्यु होना सम्भाव्य हो, या यह जानते हुए कि यह सम्भाव्य है कि ऐसे कार्य से मृत्यु होगी, कोई कार्य करके मृत्यु कारित करता है, वह गैर इरादतन हत्या / आपराधिक मानव वध का अपराध करता है ।
  • धारा 304 - हत्या की श्रेणी में न आने वाली गैर इरादतन हत्या के लिये दण्ड - जो कोई व्यक्ति गैर इरादतन हत्या (जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता) करता है अथवा ऐसा कोई कार्य करता है जो मृत्यु का कारण हो, जिसे मृत्यु देने के इरादे से किया गया हो, या ऐसी शारीरिक चोट जो संभवतः मृत्यु का कारण हो पहुँचाने के लिये किया गया हो, तो उसे आजीवन कारावास की सजा दी जायेगी, या उस व्यक्ति को किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा होगी जिसे 10 साल तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा,

या ज्ञान पूर्वक ऐसा कोई कार्य करता है जो संभवतः मृत्यु का कारण हो, लेकिन जिसे मृत्यु देने के इरादे, या ऐसी शारीरिक चोट जो संभवतः मृत्यु का कारण हो पहुचाने के लिये से न किया गया हो, तो उसे आजीवन कारावास की सजा दी जायेगी, या उस व्यक्ति को किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा होगी जिसे 10 साल तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।


आपराधिक कानून

आईपीसी की धारा 149

 06-Nov-2023

परशुराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य

"यह आवश्यक नहीं है कि गैरकानूनी सभा का गठन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आईपीसी की धारा 149 की सहायता से दोषी ठहराने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये "।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, बी. वी. नागरत्ना और प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने परशुराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि गैरकानूनी सभा का गठन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 149 की सहायता से दोषी ठहराने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये ।

परशुराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • अभियोजन पक्ष का मामला है कि अपीलकर्त्ता जालिम सिंह ने गांव के रास्ते पर एक शेड का निर्माण किया था जिसका उपयोग मवेशियों द्वारा किया जाता है।
    • चूँकि उक्त शेड को शिकायतकर्त्ता पक्ष की एक भैंस ने क्षतिग्रस्त कर दिया था, अपीलकर्त्ता जालिम सिंह ने उस भैंस को लाठी से पीटा था और उस भैंस को भगा दिया था।
    • इसके बाद, हथियारबंद व्यक्तियों के एक समूह के बीच हिंसक विवाद हुआ।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को दोषी ठहराया और आईपीसी की धारा 149 के साथ पठित धारा 302 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
    • इसके बाद मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।
    • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देशों के साथ अपील का निपटारा किया।
    • आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषसिद्धि को आईपीसी की धारा 304 के भाग-2 में बदल दिया गया।
    • अपीलकर्त्ताओं को 7 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति बी.आर.गवई, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 149 को लागू करने के लिये, यह प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं है कि किसी व्यक्ति ने एक गैरकानूनी सभा का सदस्य होने के लिये अवैध प्रत्यक्ष कार्य किया है या वह अवैध चूक का दोषी है। धारा 149 द्वारा निर्धारित सज़ा, एक अर्थ में, परोक्ष है, और यह अनिवार्य नहीं है कि गैरकानूनी सभा के प्रत्येक सदस्य ने व्यक्तिगत रूप से अपराध किया है।
  • न्यायालय ने मसल्टी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1964) के मामले का हवाला दिया।
  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह आवश्यक नहीं है कि गैरकानूनी सभा का गठन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आईपीसी की धारा 149 की सहायता से दोषी ठहराने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये। अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना होगा कि किसी व्यक्ति को गैरकानूनी सभा का सदस्य होना चाहिये ।

आईपीसी की धारा 149:

  • के बारे में:
  • यह धारा गैरकानूनी सभा के सदस्यों द्वारा किये गए अपराध से संबंधित है।
    • भारतीय दंड संहिता की धारा 149 के अनुसार, यदि विधिविरुद्ध जनसमूह के किसी सदस्य द्वारा उस जनसमूह के समान लक्ष्य का अभियोजन करने में कोई अपराध किया जाता है, या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जनसमूह के सदस्य सम्भाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उस जनसमूह का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।
    • आईपीसी की धारा 141 विधिविरूद्ध जनसमूह के बारे में वर्णन करती है।

आवश्यक विशेषतायें:

  • आईपीसी की धारा 149 के तहत व्यक्ति को दोषी ठहराने की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
    • विधिविरूद्ध जनसमूह का होना।
    • विधिविरूद्ध जनसमूह के किसी भी सदस्य द्वारा अपराध किया जाना।
    • किया गया अपराध जनसमूह के सामान्य उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये होना चाहिये ।

निर्णयज विधि:

  • विन्नूभाई रणछोड़भाई पटेल बनाम राजीवभाई दुदाभाई पटेल (2018) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि आईपीसी की धारा 149 एक अलग अपराध नहीं है, बल्कि यह एक गैरकानूनी सभा में अपराध करने के लिये समान उद्देश्य रखने वाले सभी सदस्यों के लिये परोक्ष दायित्व बनाता है।
  • यूनिस बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2002) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि भले ही किसी भी आरोपी द्वारा कोई प्रत्यक्ष कृत्य नहीं किया गया है, फिर भी अपराध घटित होने के स्थान पर आरोपी उपस्थित होने के आधार पर आईपीसी की धारा 149 के तहत उत्तरदायी होगा।

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 438

 06-Nov-2023

अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य

"ऐसा आरोपी जो एक मामले में हिरासत में है, वह CrPC की धारा 438 के तहत दूसरे मामले में अग्रिम जमानत मांग सकता है।"

न्यायमूर्ति एन. जे. जमादार

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि ऐसा आरोपी जो एक मामले में हिरासत में है, वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438 के प्रावधानों के तहत दूसरे मामले में अग्रिम जमानत मांग सकता है।

अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य की पृष्ठभूमि:

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत दंडनीय अपराधों के लिये पिंपरी पुलिस स्टेशन में दर्ज़ एक मामले के संबंध में बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष गिरफ्तारी पूर्व जमानत के लिये एक आवेदन दायर किया गया।
  • आवेदक वर्ष 2021 से पहले से ही हिरासत में है।
  • प्राथमिकी दर्ज़ करवाने वाले ने इस आधार पर गिरफ्तारी पूर्व जमानत के लिये आवेदन की वैधता पर आपत्ति जताई कि, जो व्यक्ति पहले से ही हिरासत में है, वह ऐसे अन्य अपराधों के संबंध में गिरफ्तारी पूर्व जमानत की राहत पाने का हकदार नहीं है जिसमें उसके खिलाफ मामला दर्ज़ किया गया है।
  • उच्च न्यायालय ने आवेदन की वैधता पर आपत्ति को अस्वीकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति एन. जे. जमादार ने कहा कि तथ्य यह है कि आवेदक जो पहले से ही एक मामले में हिरासत में है, उसे दूसरे मामले के संबंध में गिरफ्तारी पूर्व जमानत मांगने से नहीं रोकता है जिसमें उसे गिरफ्तारी की आशंका है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि CrPC की धारा 438 बहुत स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कहती है कि एक अपराध के लिये गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को दूसरे अपराध में अग्रिम जमानत मांगने से रोक दिया गया था।

CrPC की धारा 438 क्या है?

  • CrPC की धारा 438 — गिरफ्तारी की आशंका करने वाले व्यक्ति की जमानत मंजूर करने के लिये निर्देश —

(1) जहाँ किसी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह इस धारा के तहत निर्देश के लिये उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है और ऐसी स्थिति में गिरफ्तार कर लिया जाये तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जायेगा; और वह न्यायालय, अन्य बातों के अलावा, निम्नलिखित कारकों पर विचार करने के बाद, अर्थात्:---

(i) आरोप की प्रकृति और गंभीरता;

(ii) आवेदक के पूर्ववृत्त में यह तथ्य शामिल है कि क्या वह पहले किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर कारावास की सजा काट चुका है;

(iii) आवेदक के न्याय से भागने की संभावना; और

(iv) जहाँ आवेदक को गिरफ्तार करके घायल करने या अपमानित करने के उद्देश्य से आरोप लगाया गया है; या तो आवेदन को तुरंत खारिज़ करें या अग्रिम जमानत देने के लिये अंतरिम आदेश जारी करें।

बशर्ते कि, जहाँ उच्च न्यायालय या, जैसा भी मामला हो, सत्र न्यायालय ने इस उप-धारा के तहत कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं किया है या अग्रिम जमानत देने के लिये आवेदन खारिज़ कर दिया है, यह इस तरह के आवेदन में लगाए गए आरोप के आधार पर आवेदक को बिना वारंट के गिरफ्तार करने के लिये पुलिस स्टेशन के भारसाधक प्रभारी के लिये खुला रहेगा।

(1A) जहाँ न्यायालय उप-धारा (1) के तहत एक अंतरिम आदेश देता है, वह तुरंत सात दिनों से कम का नोटिस नहीं देगा, साथ ही ऐसे आदेश की एक प्रति लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को दी जायेगी। इसमें लोक अभियोजक को सुनवाई का उचित अवसर देने की दृष्टि से जब आवेदन पर न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से सुनवाई की जायेगी।

(1B) आवेदन की अंतिम सुनवाई और न्यायालय द्वारा अंतिम आदेश पारित करने के समय अग्रिम जमानत चाहने वाले आवेदक की उपस्थिति अनिवार्य होगी, यदि लोक अभियोजक द्वारा किये गए आवेदन पर न्यायालय ऐसी उपस्थिति को न्याय के हित में आवश्यक मानता है।

(2) जब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय उपधारा (1) के अधीन निदेश देता है तब वह उस विशिष्ट मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उन निदेशों में ऐसी शर्ते, जो वह ठीक समझे, सम्मिलित कर सकता है जिनके अन्तर्गत निम्नलिखित भी हैं--

(i) यह शर्त कि वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे जाने वाले परिप्रश्नों का उत्तर देने के लिये जैसे और जब अपेक्षित हो, उपलब्ध होगा;

(ii) यह शर्त कि वह व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को न्यायालय या किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्यों को प्रकट न करने के लिये मनाने के वास्ते प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन नहीं देगा;

(iii) यह शर्त कि वह व्यक्ति न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना भारत नहीं छोड़ेगा;

(iv) ऐसी अन्य शर्ते जो धारा 437 की उपधारा (3) के अधीन ऐसे अधिरोपित की जा सकती हैं, मानो उस धारा के अधीन जमानत मंजूर की गई है।

(3) यदि तत्पश्चात् ऐसे व्यक्ति को ऐसे अभियोग पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा वारण्ट के बिना गिरफ्तार किया जाता है और वह या तो गिरफ्तारी के समय या जब वह ऐसे अधिकारी की अभिरक्षा में है तब किसी समय जमानत देने के लिये तैयार है, तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जायेगा तथा यदि ऐसे अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट यह विनिश्चय करता है कि उस व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम बार ही वारण्ट जारी किया जाना चाहिये , तो वह उपधारा (1) के अधीन न्यायालय के निदेश के अनुरूप जमानत वारण्ट जारी करेगा।

(4) इस धारा की कोई बात, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उपधारा (3) या धारा 376कख या धारा 376घक और धारा 376घख के अधीन किसी अपराध के किये जाने के अभियोग में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अन्तर्वलित करने वाले किसी मामले पर लागू नहीं होगी ।

स्थितियाँ:

  • यह धारा केवल गिरफ्तारी की आशंका होने पर ही लागू की जाती है।
  • इसमें गिरफ्तारी पूर्व जमानत मांगने की परिकल्पना यह है कि आवेदक के पास यह विश्वास करने का कारण होना चाहिये कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है।

CrPC की धारा 438 का महत्त्व:

  • इस संहिता में धारा 438 को लागू करने का कारण एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण आधार की संसदीय स्वीकृति थी।
  • CrPC की धारा 438 प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित एक प्रक्रियात्मक प्रावधान है, जो निर्दोषता की धारणा के लाभ का हकदार है।

निर्णयज विधि:

  • बद्रेश बिपिनबाई सेठ बनाम गुजरात राज्य (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 438 की भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के प्रकाश में उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिये, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करती है।
  • सुशीला अग्रवाल बनाम दिल्ली एनसीटी राज्य (2020) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अग्रिम जमानत समयबद्ध नहीं होनी चाहिये।