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आपराधिक कानून

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B

 09-Nov-2023

कर्नाटक राज्य बनाम टी.नसीर

"भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत एक प्रमाणपत्र ट्रायल के किसी भी चरण में प्रस्तुत किया जा सकता है"।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और राजेश बिंदल

 स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कर्नाटक राज्य बनाम टी. नसीर के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य साबित करने के उद्देश्य से भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 65B के तहत प्रमाण पत्र ट्रायल के किसी भी चरण में प्रस्तुत किया जा सकता है।

कर्नाटक राज्य बनाम टी.नसीर मामले की पृष्ठभूमि:

  • 25 जुलाई 2008 को बेंगलुरु में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोट में एक महिला की जान चली गई जबकि कई लोग घायल हो गए।
  • अधिकतर पुलिस स्टेशनों में कई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ की गईं।
  • जाँच के दौरान आरोपियों की निशानदेही पर कुछ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे लैपटॉप, पेन ड्राइव, फ्लॉपी, सिम कार्ड, मोबाइल फोन, डिजिटल कैमरा आदि ज़ब्त किये गए।
  • इन उपकरणों को केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (CFSL) हैदराबाद भेजा गया, जिसने 2010 में जाँच के बाद एक रिपोर्ट तैयार की।
  • ट्रायल कोर्ट ने आदेश दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाण पत्र के अभाव में केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (CFSL) हैदराबाद KR रिपोर्ट साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य थी।
  • ट्रायल कोर्ट के आदेश को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • अपील की अनुमति देते समय, निचली अदालतों द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य साबित करने के लिये भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत एक प्रमाण पत्र ट्रायल के किसी भी चरण में प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि किसी आपराधिक मामले में निष्पक्ष सुनवाई का अभिप्राय यह नहीं है कि यह किसी एक पक्ष के लिये निष्पक्ष होना चाहिये । बल्कि उद्देश्य यह है कि कोई भी दोषी छूट न पाए और किसी निर्दोष को सजा न मिले।
  • आगे यह कहा गया कि इस अधिनियम की धारा 65B के तहत एक ऐसा प्रमाण पत्र, जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत करने की माँग की गई है, वह सबूत नहीं है जो अब बनाया गया है। इस स्तर पर अभियोजन पक्ष को अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की अनुमति देने से अभियुक्त पर कोई अपरिवर्तनीय पूर्वाग्रह नहीं होगा। अभियुक्त के पास अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों का खंडन करने का पूरा अवसर होगा।
  • न्यायालय ने अर्जुन पंडितराव खोतकर बनाम कैलाश कुशनराव गोरंट्याल (2020) के मामले का भी उल्लेख किया।
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि मुकदमा खत्म नहीं हुआ है तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाणपत्र किसी भी स्तर पर प्रस्तुत किया जा सकता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B क्या है?

के बारे में:

यह धारा इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की स्वीकार्यता से संबंधित है। यह कहती है कि-

65ख, इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की ग्राह्यता-

(1) इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी:- किसी इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में अंतर्विष्ट किसी सूचना को भी, जो कम्प्यूटर द्वारा उत्पादित और किसी कागज पर मुद्रित, प्रकाशीय या चुंबकीय मीडिया में भंडारित, अभिलिखित या जकल की गई हो (जिसे इनमें इसके पश्चात् कम्प्यूटर निर्गम कहा गया है), तब एक दस्तावेज़ समझा जायेगा, यदि प्रश्नगत सूचना और कम्प्यूटर के संबंध में, इस धारा में अल्लिखित शर्तें पूरी कर दी जाती हैं और वह मूल की किसी अंतर्वस्तु या उसमें कथित किसी तथ्य के साक्ष्य के रूप में, जिसका प्रत्यक्ष साक्ष्य ग्राह्य होता, अतिरिक्त सबूत या मूल को पेश किये बिना ही किन्हीं कार्यवाहियों में ग्राह्य होगा।

(2) कम्प्यूटर निर्गम की बचत बाबत उपधारा:-

(1) में वर्णित शर्तें निम्नलिखित होंगी, अर्थात- (क) सूचना के युक्त कम्प्यूटर निर्गम, कम्प्यूटर द्वारा उस अवधि के दौरान उत्पादित किया गया था जिसमें उस व्यक्ति द्वारा, जिसका कम्प्यूटर के उपयोग पर विधिपूर्ण नियंत्रण था, उस अवधि में नियमित रूप से किये गए किसी क्रियाकलाप के प्रयोजन के लिये, सूचना भंडारित करने या प्रसंस्करण करने के लिये नियमित रूप से कम्प्यूटर का उपयोग किया गया था; (ख) उक्त अवधि के दौरान, इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में अन्तर्विष्ट किस्म की सूचना या उस किस्म की जिससे इस प्रकार अन्तर्विष्ट सूचना व्युत्पन्न प्राप्त की जाती है, उक्त क्रियाकलापों के सामान्य अनुक्रम में कम्प्यूटर में नियमित रूप से भरी गई थी; (ग) उक्त अवधि के महत्त्वपूर्ण भाग में आद्योपांत, कम्प्यूटर समूचित रूप से कार्य कर रहा था अथवा, यदि नहीं तो, उस अवधि के उस भाग की बाबत, जिसमें कम्प्यूटर समूचित रूप से कार्य नहीं कर रहा था या वह उस अवधि में प्रचालन में नहीं था, ऐसी अवधि नहीं थी जिसमें इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख या उसकी अंतर्वस्तु की शुद्धता प्रभावित होती हो; और(घ) इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में अन्तर्विष्ट सूचना ऐसी सूचना से पुनः उत्पादित या व्युत्पन्न की जाती है, जिसे उक्त क्रियाकलापों से सामान्य अनुक्रम में कम्प्यूटर में भरा गया था।

(3) जहाँ किसी अवधि में:- उपधारा (2) के खण्ड (क) में यथा उल्लिखित, उस अवधि के दौरान नियमित रूप से किये गए किन्हीं क्रियाकलापों के प्रयोजनों के लिये सूचना के भंडारण या प्रसंस्करण का कार्य कम्प्यूटरों द्वारा नियमित रूप से निष्पादित किया गया था, चाहे वह-(क) उस अवधि में कम्प्यूटरों के प्रचालन के संयाजन द्वारा, या(ख) उस अवधि में उत्तरोत्तर प्रचालित विभिन्न कम्प्यूटरों द्वारा, या (ग) उस अवधि में उत्तरोत्तर प्रचलित कम्प्यूटरों के विभिन्न संयोजनों द्वारा, या (घ) उस अवधि में उत्तरोत्तर प्रचालन को अंतर्वलित करते हुए किसी अन्य रीति में हो, चाहे वह एक या अधिक कम्प्यूटरों और एक या अधिक कम्प्यूटरों के संयोजनों द्वारा किसी भी क्रम में हो, डस अवधि के दौरान उस प्रयोजन के लिये उपयोग किये सभी कम्प्यूटर इस धारा के प्रयोजनों के लिये एकल कम्प्यूटर के रूप में माने जाएँगे और इस धारा में कम्प्यूटर के प्रति निर्देश का तदनुसार अर्थ लगाया जायेगा।

(4) किन्हीं कार्यवाहियों में:- जहाँ इस धारा के आधार पर साक्ष्य में विवरण दिया जाना वांछित है, निम्नलिखित बातों में से किसी बात को पूरा करते हुए प्रमाण पत्र, अर्थात-(क) विवरण से युक्त इन अभिलेख की पहचान करना और उस रीति का वर्णन करना जिससे इसका उत्पादन किया गया था; (ख) उस इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख के उत्पादन में अन्तर्वलित किसी युक्ति को ऐसी विशिष्टियां देना, जो यह दर्शित करने के प्रयाजन के लिये समुचित हों कि इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख का कम्प्यूटर द्वारा उत्पादन किया गया था; (ग) ऐसे विषयों में से किसी पर कार्रवाई करना, जिससे उपधारा (2) में उल्लिखित शर्तें संबंधित है, और किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किये जाने के लिये तात्पर्यित होना, जो सुसंगत युक्ति के प्रचालन या सुसंगत क्रियाकलाप के प्रबंध के (जो भी समुचित हों) संबंध में उत्तरदायी पदीय हैसियत में हो, प्रमाणपत्र में कथित किसी विषय का साक्ष्य होगा; और इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये किसी ऐसे विषय के लिये यह कथन पर्याप्त होगा कि यह काम करने वाले व्यक्ति के सर्वोत्तम ज्ञान और विश्वास आधार पर कहा गया है।
(5) इस धाारा के प्रयोजनों के लिये:-(क) सूचना किसी कम्प्यूटर को प्रदाय की गई समझी जायेगी यदि यह किसी समूचित रूप में प्रदाय की गई है, चाहे इस प्रकार किया गया प्रदाय सीधे (मानव मध्यक्षेप सहित या रहित) या किसी समुचित उपस्कर के माध्यम द्वारा किया गया हो; (ख) चाहे किस पदधारी द्वारा किये गए क्रियाकलापों के अनुक्रम में सूचना इसके भंडारित या प्रसंस्कृत किये जाने की दृष्टि से उक्त क्रियाकलापों के अनुक्रम से अन्यथा प्रचालित कम्प्यूटर द्वारा उक्त क्रियाकलापों के प्रयोजनों के लिये प्रदाय की जाती है, वह सूचना, यदि सम्यक् रूप से उस कम्प्यूटर को प्रदाय की जाती है तो, उन क्रियाकलापों के अनुक्रम में प्रदाय की गई समझी जायेगी; (ग) कम्प्यूटर उत्पाद को कम्प्यूटर द्वारा उत्पादित समझा जायेगा, चाहे यह इसके सीधे उत्पादित हो (मानव मध्यक्षेप सहित या रहित) या किसी समुचित उपस्कर के माध्यम से हो।

स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिये, अनरूप सूचना से व्युत्पन्न की गई सूचना के प्रति कोई निर्देश, परिकलन, तुलना या किसी अन्य प्रक्रिया द्वारा उससे व्युत्पन्न के प्रति निर्देश होगा।

निर्णयज विधि :

  • कर्नाटक राज्य बनाम एम.आर. हिरेमठ (2019) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाणपत्र प्रस्तुत न करना एक सुधार योग्य दोष है।
  • अनवर पी. वी. बनाम पी. के. बशीर (2014) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जाता है तो अधिनियम की धारा 65B के तहत प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है।

सिविल कानून

सरोगेसी और मातृत्त्व अवकाश

 09-Nov-2023

टिप्पणी

जैविक माँ और सरोगेसी से बच्चा पैदा करने वाली माँ के बीच कोई अंतर नहीं है।

राजस्थान उच्च न्यायालय

 स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा है कि जब मातृत्त्व अवकाश देने की बात आती है, तो जैविक माँ और सरोगेसी के माध्यम से बच्चा पैदा करने वाली माँ के बीच कोई अंतर नहीं होता है।

इस मामले की पृष्ठभूमि:

  • याचिकाकर्त्ता, जिसने सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से जुड़वाँ बच्चे पैदा किये थे, ने 180 दिनों के मातृत्त्व अवकाश के लिये आवेदन किया था।
  • उनके आवेदन को राज्य अधिकारियों ने यह कहते हुए खारिज़ कर दिया कि राजस्थान सेवा नियम, 1951 में कोई संबंधित प्रावधान नहीं है।
  • वर्तमान याचिका राजस्थान सरकार के उक्त आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी।
  • राज्य का तर्क था कि राजस्थान सेवा नियम, 1951 के नियम 103 में सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से बच्चे को जन्म देने वाली माँ (कमीशनिंग माँ) को मातृत्त्व अवकाश के प्रावधान की कल्पना नहीं की गई है।
  • राज्य के तर्क की जाँच के बाद, न्यायालय ने आम उपयोग में 'मातृत्त्व अवकाश' की विविध परिभाषाओं के साथ-साथ मातृत्त्व लाभ अधिनियम, 1961 में उल्लिखित 'मातृत्त्व लाभ' और 'बच्चे' की व्याख्याओं पर भरोसा किया।
  • सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी [Assisted Reproductive Technology- ART] (विनियमन) अधिनियम, 2021 के प्रावधानों की समीक्षा करने पर, राजस्थान उच्च न्यायालय (HC) ने पाया कि एक कमीशनिं माँ को बच्चे की जैविक माँ के रूप में मान्यता दी जाती है और बच्चे पर पूर्ण अधिकार बरकरार रखती है।
  • कमीशनिंग माँ वह महिला होती है जो सरोगेट माँ के किराए के गर्भ से बच्चा प्राप्त करना चाहती है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि सरकार ने पहले ही सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के माध्यम से बांझ दंपत्तियों के लिये अपना बच्चा पैदा करने के विकल्प के रूप में सरोगेसी को मान्यता दे दी है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने निम्नलिखित मामलों पर ध्यान दिया:
    • देवश्री बांधे बनाम छत्तीसगढ़ स्टेट पावर होल्डिंग कंपनी लिमिटेड एवं अन्य (2017), छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
    • रमा पांडे बनाम भारत संघ एवं अन्य (2015), दिल्ली उच्च न्यायालय
    • डॉ. श्रीमती हेमा विजय मेनन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2015), बॉम्बे उच्च न्यायालय
  • तीनों मामलों में, विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा यह माना गया है कि ऐसी महिला कर्मचारी जो कमीशनिंग माँ है, वह दत्तक ग्रहण करने वाल माँ की तरह ही लागू नियमों और विनियमों के तहत मातृत्त्व अवकाश की हकदार होगी।
  • न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने विचार व्यक्त किया है कि सरोगेसी के माध्यम से पैदा हुए शिशुओं को दूसरों की देखभाल में नहीं छोड़ा जाना चाहिये ।
  • इसके बजाय, ऐसे बच्चों को जीवन के शुरुआती चरणों में माँ के प्यार, देखभाल, सुरक्षा और ध्यान की आवश्यकता होती है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में मातृत्त्व का अधिकार और प्रत्येक बच्चे के पूर्ण विकास का अधिकार भी शामिल है और इसलिये राज्य प्राधिकरण के आदेश को रद्द कर दिया गया।

इस मामले में शामिल कानूनी प्रावधान :

मातृत्त्व लाभ अधिनियम, 1961

  • यह एक भारतीय कानून है जिसका उद्देश्य प्रसव से पहले और बाद में एक निश्चित अवधि के लिये कुछ प्रतिष्ठानों में महिलाओं के रोजगार को विनियमित करना है। कुछ प्रमुख बिंदु ये हैं:
  • प्रयोज्यता: यह अधिनियम कारखानों, खदानों, बागानों, दुकानों और अन्य संस्थाओं सहित दस या अधिक लोगों को रोजगार देने वाले सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होता है।
  • अवधि: एक महिला 26 सप्ताह के मातृत्त्व अवकाश की हकदार है, जिसमें चिकित्सीय जटिलताओं या अन्य निर्दिष्ट परिस्थितियों के मामले में इसे अतिरिक्त 4 सप्ताह तक बढ़ाने का प्रावधान है।
  • छुट्टी के दौरान भुगतान: नियोक्ता को मातृत्त्व अवकाश पर गई महिला को उसकी छुट्टी की अवधि के लिये औसत दैनिक वेतन की दर से भुगतान करना आवश्यक है।
  • मेडिकल बोनस: नियोक्ताओं को उन महिलाओं को मेडिकल बोनस प्रदान करना भी होता है जो पूर्ण मातृत्त्व अवकाश का लाभ नहीं उठाती हैं, जब तक कि उन्होंने अपनी गर्भावस्था से पहले एक निश्चित अवधि के लिये काम किया हो।
  • बर्खास्तगी पर रोक: मातृत्त्व अवकाश अवधि के दौरान, नियोक्ताओं के लिये किसी महिला को बर्खास्त करना या छुट्टी देना या बर्खास्तगी का नोटिस देना गैरकानूनी है।
  • क्रेच सुविधाएँ: 50 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को क्रेच सुविधाएँ प्रदान करना और महिलाओं को काम के घंटों के दौरान क्रेच में जाने की अनुमति देना आवश्यक है।

सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी (विनियम) अधिनियम, 2021

  • इस अधिनियम का उद्देश्य सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी क्लीनिकों और सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी बैंकों का विनियमन और पर्यवेक्षण करना, प्रजनन स्वास्थ्य के मुद्दों को संबोधित करने के लिये सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी सेवाओं के दुरुपयोग, सुरक्षित और नैतिक अभ्यास को रोकना है, जहाँ बनने के लिये सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। इसका इस्तेमाल माता-पिता या बांझपन, बीमारी या सामाजिक या चिकित्सा संबंधी चिंताओं के कारण आगे उपयोग के लिये युग्मक, भ्रूण, भ्रूण के ऊतकों को फ्रीज करने के लिये और अनुसंधान और विकास के विनियमन और पर्यवेक्षण के लिये और उससे जुड़े या उसके संसक्त मामलों के लिये किया जाता है।
  • अधिनियम परिभाषित करता है:
    • धारा 2(J) के तहत बांझपन, असुरक्षित सहवास के एक वर्ष के बाद गर्भधारण करने में असमर्थता या किसी युग्म को गर्भधारण करने से रोकने वाली अन्य सिद्ध चिकित्सा स्थिति के रूप में।
    • धारा 2(E) के तहत एक बांझ विवाहित जोड़े के रूप में कमीशनिंग जोड़े जो उक्त क्लिनिक या बैंक से अधिकृत सेवाओं को प्राप्त करने के लिये एक सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी क्लिनिक या सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी बैंक से संपर्क करते हैं।

दंड विधि

CrPC की धारा 156(3) के तहत प्रारंभिक जाँच

 09-Nov-2023

खालिद खान और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य

"कोई मजिस्ट्रेट उन मामलों में CrPC की धारा 156(3) के तहत प्रारंभिक जाँच का आदेश दे सकता है जहाँ उसे लगता है कि कोई संज्ञेय अपराध नहीं बनता है।"

न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता

स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, खालिद खान और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC ) की धारा 156 (3) के प्रावधानों के तहत एक न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास विवेकाधिकार है कि वह ऐसे मामलों में जहाँ कोई संज्ञेय अपराध नहीं बनता है, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ करने का आदेश देने से पहले प्रारंभिक जाँच का निर्देश दे।

खालिद खान और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि:

  • इस मामले में सत्येन्द्र पाल नाम के व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी।
  • हालाँकि शिकायत में आरोपियों के नाम बताए गए थे, लेकिन पुलिस ने जाँच के बाद उक्त मृतक सत्येन्द्र पाल के बेटे मोनू पाल को अपने पिता सत्येन्द्र पाल की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।
  • दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अपराध दर्ज़ करने के लिये CrPC की धारा 156(3) के तहत एक आवेदन दायर किया गया था।
  • इसके बाद मजिस्ट्रेट ने प्रारंभिक जाँच सब डिविजनल मजिस्ट्रेट से कराने का निर्देश दिया।
  • मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द करने के उद्देश्य से, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया है।
  • आवेदन को खारिज़ करते हुए, उच्च न्यायालय ने माना कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश में कोई अवैधता नहीं है और तत्काल आवेदन योग्यता से रहित है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ :

  • न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता ने कहा कि एक न्यायिक मजिस्ट्रेट, CrPC की धारा 156(3) के तहत दायर किसी आवेदन पर विचार करते समय, उन मामलों में एफआईआर दर्ज़ करने का आदेश देने से पहले प्रारंभिक जाँच का निर्देश देने का विवेक रखता है, जहाँ उसे लगता है कि कोई संज्ञेय अपराध नहीं है।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि प्रारंभिक जाँच का दायरा प्राप्त जानकारी की सत्यता या अन्यथा को सत्यापित करना नहीं है, बल्कि केवल यह सुनिश्चित करना है कि क्या जानकारी किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि जब CrPC की धारा 156(3) के तहत आवेदन किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा करता है, तो संबंधित मजिस्ट्रेट को एफआईआर दर्ज़ करने का निर्देश देना चाहिये ।

CrPC की धारा 156(3) क्या है?

  • के बारे में:
    • CrPC की धारा 156(3) में कहा गया है कि एक मजिस्ट्रेट जिसे संहिता की धारा 190 के तहत संज्ञान लेने का अधिकार है, वह संज्ञेय अपराध के लिये जाँच का आदेश दे सकता है।
    • CrPC की धारा 156(3) के तहत एक आवेदन संज्ञेय अपराध का खुलासा करता है, तो यह संबंधित मजिस्ट्रेट का कर्त्तव्य है कि वह एफआईआर दर्ज़ करने का निर्देश दे, जिसकी जाँच कानून के अनुसार जाँच एजेंसी द्वारा की जानी है।
    • यदि प्राप्त जानकारी स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा नहीं करती है, लेकिन जाँच की आवश्यकता का संकेत देती है, तो यह सुनिश्चित करने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं।
    • कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेने से पहले CrPC की धारा 156(3) के तहत जाँच का आदेश दे सकता है।
  • निर्णयज विधि:
    • हरप्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि CrPC की धारा 156(3) के तहत आवेदन किया गया है और संज्ञेय अपराध के घटित होने का खुलासा होता है और CrPC की धारा 156(3) के चरण में, जो कि संज्ञेय चरण है, एक बार एक आवेदन के माध्यम से संज्ञेय अपराध का खुलासा हो जाता है, तो यह संबंधित न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह अपराध के पंजीकरण और जाँच का आदेश दे। क्योंकि अपराध का पता लगाना और अपराध की रोकथाम करना पुलिस का सबसे सबसे बड़ा कर्त्तव्य है, न कि न्यायालय का।
    • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले (2014) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि प्राप्त जानकारी संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं करती है, लेकिन जाँच की आवश्यकता को इंगित करती है, तो प्रारंभिक जाँच केवल यह सुनिश्चित करने के लिये की जा सकती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं।
    • प्रियंका श्रीवास्तव और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2015) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस देश में एक ऐसा चरण आ गया है जहाँ धारा 156(3) दंड प्रक्रिया संहिता के आवेदनों को आवेदक द्वारा विधिवत शपथ पत्र द्वारा समर्थित किया जाना है, जो मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र का आह्वान चाहता है।