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आपराधिक कानून

एनआईए की धारा 138 की मूल सामग्री की जाँच

 14-Nov-2023

नॉर्दर्न इंडिया पेंट कलर एंड वार्निश कंपनी एलएलपी बनाम सुशील चौधरी

"मजिस्ट्रेट को यह जाँचने की आवश्यकता है कि क्या परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत अपराध के मूल तत्व प्रथम दृष्टया बनाए गए हैं।"

न्यायमूर्ति अमित बंसल

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि मजिस्ट्रेट को केवल यह जाँचने की आवश्यकता है कि क्या परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NIA) की धारा 138 के तहत अपराध की मूल सामग्री शिकायतकर्त्ता द्वारा प्रथम दृष्टया बनाई गई है और  शिकायतकर्त्ता की ओर से समन-पूर्व साक्ष्य पेश किये गए।

  • उपरोक्त टिप्पणी नॉर्दर्न इंडिया पेंट कलर एंड वार्निश कंपनी एलएलपी बनाम सुशील चौधरी के मामले में की गई थी।

नॉर्दर्न इंडिया पेंट कलर एंड वार्निश कंपनी एलएलपी बनाम सुशील चौधरी मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • दोनों वर्तमान याचिकाएं समान मुद्दों को उठाती हैं और इसलिये दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा निपटान के लिये एक साथ उठाई जा रही हैं।
  • पहली याचिका याचिकाकर्त्ता/शिकायतकर्त्ता नॉर्दर्न इंडिया पेंट कलर एंड वार्निश कंपनी एलएलपी (शिकायतकर्त्ता) द्वारा दायर की गई है, जिसमें अपर सत्र न्यायाधीश (ASJ), तीस हजारी कोर्ट, दिल्ली द्वारा पारित 15 फरवरी, 2023 के आदेश को चुनौती दी गई है, जिसके तहत एनआईए की धारा 138 के तहत एक शिकायत मामले में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (MM), सेंट्रल, तीस हजारी कोर्ट, दिल्ली द्वारा 9 जनवरी, 2020 को समन आदेश पारित किया गया।
  • वर्तमान मामले को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 202 के तहत अनिवार्य जाँच करने के निर्देश के साथ ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया गया है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या याचिकाकर्त्ता द्वारा उसके कानूनी दायित्व के निर्वहन में चेक जारी करने सहित अपराध की सभी सामग्री धारा एनआईए की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध बनते हैं या नहीं।
  • दूसरी याचिका याचिकाकर्त्ता सुशील चौधरी द्वारा दायर की गई है, जिसमें मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित 27 जनवरी, 2020 के आदेश को रद्द करने की मांग की गई है, जिसके तहत शिकायतकर्त्ता द्वारा एनआईए की धारा 138 के तहत दायर मामले में आरोपी को तलब किया गया है। आधार यह है कि सीआरपीसी की धारा 202 के तहत अनिवार्य जाँच मजिस्ट्रेट द्वारा नहीं की गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति अमित बंसल ने कहा कि एनआईए की धारा 145 के साथ पठित सीआरपीसी की धारा 202 के प्रयोजन के लिये, समन जारी करने के चरण में, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को केवल यह जाँचने की आवश्यकता है कि धारा 138 के तहत अपराध की मूल सामग्री क्या है। एनआईए की रिपोर्ट प्रथम दृष्टया शिकायतकर्त्ता द्वारा बनाई गई है और शिकायतकर्त्ता की ओर से लिये गए पूर्व-समन साक्ष्य द्वारा समर्थित है।
  • न्यायालय ने एनआईए की धारा 138 के तहत एक शिकायत मामले में पारित समन आदेशों को बरकरार रखा, यह देखते हुए कि एनआईए की धारा 145 के साथ पठित सीआरपीसी की धारा 202 के तहत जाँच करते समय मजिस्ट्रेट द्वारा सबूतों पर गौर करने की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि सीआरपीसी की धारा 202 के तहत कार्यवाही के लिये आधार की पर्याप्तता की संतुष्टि के लिये ट्रायल कोर्ट द्वारा दस्तावेजों की जाँच की जा सकती है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

एन.आई.ए की धारा 138

  • यह धारा खाते में धनराशि की कमी आदि के लिये चेक के अनादरण से संबंधित है। यह कहती है कि-

खातों में अपर्याप्त निधियों, आदि के कारण चेक का अनावरण जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जायेगा कि उसने अपराध किया है और वह इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक हो सकेगा, या दोनों से, दंडनीय होगा :

परन्तु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक

(क) यह चेक उसके, लिखे जाने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के भीतर जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो:

(ख)  चेक के लेखीवाल को असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर उक्त धनराशि के संदाय की माँग लिखित सूचना द्वारा किया जाना चाहिए।

(ग) उक्त सूचना की प्राप्ति के पन्द्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक को संदाय करने में लेखीवाल को असमर्थ रहना। उक्त के ही समान जुगदेश सहगल बनाम समशेर सिंह के मामले में भी अनुसरण किया गया।

स्पष्टीकरण इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "ऋण या अन्य दायित्व" से विधितः प्रवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व अभिप्रेत है।

पराक्रम्य लिखत अधिनियम की धारा 145

  • यह धारा शपथपत्र पर साक्ष्य से संबंधित है। यह कहती है कि -
    (1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, परिवादी का साक्ष्य उसके द्वारा शपथपत्र पर दिया जा सकेगा और सभी न्यायसंगत अपवादों के अध्यधीन उक्त संहिता के अधीन किसी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य में पढ़ा जा सकेगा।
    (2) न्यायालय, यदि वह उचित समझे, अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर ऐसे किसी व्यक्ति को जो शपथपत्र पर साक्ष्य देता है, समन करेगा और उसमें अंतर्विष्ट तथ्यों के बारे में उसकी परीक्षा करेगा।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202

  • यह धारा आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करने से संबंधित है। यह कहती है कि-
    (1) यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिये वह प्राधिकृत है या जो धारा 192 के अधीन उसके हवाले किया गया है, ठीक समझता है और ऐसे मामले में जहाँ अभियुक्त ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है, जो उस क्षेत्र से परे है जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो स्वयं ही मामले की जाँच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किये जाने के लिये निदेश दे सकता है।

परंतु अन्वेषण के लिये ऐसा कोई निदेश वहाँ नहीं दिया जायेगा-

(क) जहाँ मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है; अथवा

(ख) जहाँ परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हों) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली जाती है।

(2) उपधारा (1) के अधीन किसी जाँच में यदि मजिस्ट्रेट, ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य ले सकता है:

परंतु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह परिवादी से अपने सब साक्षियों को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा।

(3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिये उसे वारंट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियाँ होंगी।


सिविल कानून

सीपीसी के आदेश 14 का नियम 5

 14-Nov-2023

टी. सविता और अन्य. वी. बी. पी. मुनिराजू और अन्य।

"ट्रायल कोर्ट सीपीसी के आदेश 14 के नियम 5 के तहत डिक्री पारित करने से पहले किसी भी समय एक अतिरिक्त मुद्दा तय कर सकता है"।

न्यायमूर्ति एस. जी. पंडित

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने टी. सविता और अन्य बनाम बी. पी. मुनिराजू और अन्य के मामले में माना है कि ट्रायल कोर्ट सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) के आदेश 14 के नियम 5 के प्रावधानों के तहत डिक्री पारित करने से पहले किसी भी समय एक अतिरिक्त मुद्दा तय कर सकता है।

टी. सविता और अन्य बनाम बी. पी. मुनिराजू और अन्य के मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ताओं (मूल मुकदमे में प्रतिवादी) के वकील ने कहा कि प्रतिवादियों (मूल मुकदमे में वादी) का मुकदमा विभाजन के साथ-साथ यह घोषित करने के लिये भी है कि बिक्री विलेख दिनांक 8 जुलाई, 2004, 9 सितंबर, 2005 और 12 अप्रैल, 2017 वाद अनुसूची संपत्ति पर वादी के वैध हिस्से और स्थायी निषेधाज्ञा के लिये भी बाध्यकारी नहीं हैं।
  • वकील ने यह भी कहा कि याचिकाकर्त्ताओं के साथ-साथ अन्य प्रतिवादियों ने अपना लिखित बयान दायर किया, जिसमें प्रतिवादियों ने विशेष रूप से तर्क दिया कि वादी द्वारा विभाजन का मुकदमा केवल उस संपत्ति के संबंध में है जो उनके द्वारा बेची गई है।
  • वकील ने प्रस्तुत किया कि आंशिक विभाजन के संबंध में अतिरिक्त मुद्दे तय करने की दलीलें हैं।
  • ट्रायल कोर्ट ने अतिरिक्त मुद्दा तय करने से इनकार करके गलती की।
  • इसलिये, ट्रायल कोर्ट को अतिरिक्त मुद्दे तय करने का निर्देश देने के लिये कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की गई है।
  • हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति एस. जी. पंडित की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि सीपीसी के आदेश 14 के नियम 5 के प्रावधानों के तहत, ट्रायल कोर्ट डिक्री पारित करने से पहले किसी भी समय, ऐसी शर्तों पर एक अतिरिक्त मुद्दा तैयार करता है, जो उसे उचित समझे, जो आवश्यक हो ताकि पक्षों के बीच विवाद के मामलों का निर्धारण किया जा सके।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि यदि कोई अतिरिक्त मुद्दा तैयार किया जाता है, तो वादी पक्ष पर कोई पूर्वाग्रह नहीं पड़ेगा और दूसरी ओर, यह पक्षों के बीच वास्तविक विवाद को तय करने में न्यायालय की सहायता करेगा।

सीपीसी के आदेश 14 का नियम 5 क्या है?

  • सीपीसी के आदेश 14 में मुद्दों के निपटारे और कानून के मुद्दों पर या सहमत मुद्दों पर मुकदमे के निर्धारण के संबंध में प्रावधान शामिल हैं।
  • सीपीसी के आदेश 14 का नियम 5 मुद्दों में संशोधन करने और उन्हें खत्म करने की शक्ति से संबंधित है। यह कहता है कि-
    (1) न्यायालय डिक्री पारित करने के पूर्व किसी भी समय ऐसे निबंधनों पर जो वह ठीक समझे, विवाद्यकों में संशोधन कर सकेगा या अतिरिक्त विवाद्यकों की विरचना कर सकेगा और सभी ऐसे संशोधन या अतिरिक्त विवाद्यक जो पक्षकारों के बीच विवादग्रस्त बातों के अवधारण के लिये आवश्यक हों, इस प्रकार संशोधित किये जाएँगे या विरचित किये जाएँगे।
  • नियम 5 के तहत शक्ति का प्रयोग पार्टियों के बीच विवाद के सभी मामलों के निर्धारण के लिये किया जा सकता है।
  • इसलिये, प्रथम दृष्टया अदालत के लिये यह अनिवार्य है कि वह पक्षों के बीच वास्तविक विवाद का निर्धारण करने के लिये मुद्दों को तय करे जो दलीलों के आधार पर उत्पन्न हो सकते हैं और यदि अदालत किसी आवश्यक मुद्दे को निपटाने से इनकार करती है, तो यह निश्चित रूप से कानून के तहत निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहता है।
    • इस प्रकार, अतिरिक्त मुद्दे, जो आवश्यक है, का निर्धारण न करने के परिणामस्वरूप संबंधित न्यायालय द्वारा क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में विफलता होती है और इस प्रकार यह पुनरीक्षण योग्य है।
    • हालाँकि, नियम 5 में निहित शक्ति, आदेश 14 के नियम 3 के प्रावधानों द्वारा नियंत्रित होती है, जो यह प्रावधान करती है कि वह सामग्री जिससे विवाद्यकों की विरचना की जा सकेगी न्यायालय निम्नलिखित सभी सामग्री से या उसमें से किसी से विवाद्यकों की विरचना कर सकेगा-
      (क) पक्षकारों द्वारा या उनकी ओर से उपस्थित किन्हीं व्यक्तियों द्वारा या ऐसे पक्षकारों के प्लीडरों द्वारा शपथ पर किये गए अभिकथन,
      (ख) अभिवचनों या बाद में परिदत परिप्रश्नों के उत्तरों में किये गए अभिकथन,
      (ग) दोनों पक्षकारों में से किसी के द्वारा पेश की गई दस्तावेजों की अन्तर्वस्तु, पक्ष, पक्षकारों द्वारा या उनकी ओर से उपस्थित किसी व्यक्ति द्वारा शपथ पर लगाए गए आरोप, या पक्षकारों की ओर से उपस्थित वकील द्वारा गवाहों की जाँच या दस्तावेजों के निरीक्षण पर लिये गए बयान।