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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 69

 22-Nov-2023

मोतुरु नलिनी कंठ बनाम गैनेडी कालीप्रसाद मामला:

"IEA की धारा 69 के तहत केवल एक यादृच्छिक साक्षी, जिसने अनुप्रमाणित करने वाले साक्षी को वसीयत में अपने हस्ताक्षर करते देखा है, की जाँच करना पर्याप्त नहीं है।"

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act- IEA) की धारा 69 के प्रयोजनों के लिये केवल एक यादृच्छिक साक्षी, जो यह दावा करता है कि उसने अनुप्रमाणक साक्षी को वसीयत में अपने हस्ताक्षर करते देखा है, की जाँच करना पर्याप्त नहीं है ।

  • उपरोक्त टिप्पणी मोतुरु नलिनी कंठ बनाम गेनेडी कालीप्रसाद के मामले में की गई थी।

मोतुरु नलिनी कंठ बनाम गेनेडी कालीप्रसाद मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में नलिनी कंठ (अपीलकर्त्ता) ने दावा किया कि उसे 70 वर्षीय महिला वेंकुबायम्मा ने गोद लिया था, जब वह 1 वर्ष से कम उम्र का था।
  • अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि उसने उसे 20 अप्रैल, 1982 के एक पंजीकृत दत्तक विलेख द्वारा गोद लिया गया था।
    • अपीलकर्त्ता का दावा है कि 3 मई, 1982 की एक पंजीकृत वसीयत के तहत, वेंकुबायम्मा ने अपनी सारी संपत्ति उसे दे दी थी।
  • अपीलकर्त्ता द्वारा यह भी दावा किया गया था कि वेंकुबयम्मा ने अपने पोते कालीप्रसाद के पक्ष में 26 मई, 1981 को निष्पादित अपनी पिछली वसीयत रद्द कर दी थी।
  • अपीलकर्त्ता ने वेंकुबायम्मा की संपत्तियों के संबंध में घोषणात्मक और परिणामी राहत प्राप्त करने के लिये मुकदमा दायर किया।
    • यह मुकदमा कालीप्रसाद द्वारा दर्ज कराया गया था।
  • विद्वत प्रधान अधीनस्थ न्यायाधीश, श्रीकाकुलम ने अपीलकर्त्ता के पक्ष में फैसला सुनाया।
    • हालाँकि अपील में आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के खिलाफ फैसला सुनाया और कालीप्रसाद द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक और अपील दायर की गई।
    • अपील को खारिज़ करते हुए उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश HC के फैसले की पुष्टि की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि IEA की धारा 69 के तहत वसीयत की वास्तविकता को सिद्ध करने के उद्देश्य से केवल एक यादृच्छिक गवाह, जो यह दावा करता है कि उसने अनुप्रमाणक साक्षी को वसीयत में हस्ताक्षर करते हुए देखा था, की जाँच करना पर्याप्त नहीं है।
  • वसीयत को अनुप्रमाणित करने वाले कम से कम एक गवाह से पूछताछ पर ज़ोर देने का मूल उद्देश्य और विकल्प पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा, अगर इस तरह की आवश्यकता को केवल एक यादृच्छिक गवाह से यह बयान लेने तक सीमित छोड़ दिया जाता है कि उसने अनुप्रमाणक साक्षी को वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा था।

IEA की धारा 69 क्या है?

  • परिचय:
    • यह अनुभाग किसी दस्तावेज़ की अनुप्रमाणिकता साबित करने से संबंधित है जहाँ कोई अनुप्रमाणक साक्षी नहीं मिलता है।
    • इसमें कहा गया है कि यदि ऐसा कोई अनुप्रमाणक साक्षी नहीं मिल पाता है, या दस्तावेज़ यूनाइटेड किंगडम में निष्पादित होने का दावा करता है, तो यह सिद्ध किया जाना चाहिये कि एक अनुप्रमाणक साक्षी का सत्यापन कम से कम उसकी लिखावट में हो और दस्तावेज़ निष्पादित करने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर उस व्यक्ति की लिखावट में हैं।
  • निर्णयज विधि:
    • एल.आर.एस. और अन्य बनाम एस.एम. रंजन बाला दासी एवं अन्य (2023) द्वारा आशुतोष सामंत (मृत) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहाँ साक्षी की मृत्यु हो गई या वह नहीं मिल सके, वहाँ वसीयत का प्रतिपादक असहाय नहीं है, क्योंकि इसमें साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 लागू होगी।

सांविधानिक विधि

हिंदू दत्तक ग्रहण एवं रखरखाव अधिनियम, 1956 की धारा 19

 22-Nov-2023

धन्ना साहू बनाम सीताबाई साहू

"अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम बहू HAMA अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत नहीं आती है।"

न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी और न्यायमूर्ति दीपक कुमार तिवारी।

स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी और न्यायमूर्ति दीपक कुमार तिवारी ने कहा कि एक विधवा महिला अपने ससुर से तब तक भरण-पोषण का दावा कर सकती है, जब तक वह अपनी कमाई या अन्य संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में समर्थ न हो, या जहाँ उसके पास अपनी कोई संपत्ति न हो, या वह अपने पति, पिता या माता की संपत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है।

  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने यह निर्णय धन्ना साहू बनाम सीताबाई साहू के मामले में दिया।

धन्ना साहू बनाम सीताबाई साहू मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • सीताबाई साहू अपीलकर्ता की बहू है। उसका विवाह अपीलकर्ता के बेटे वीरेंद्र साहू से हुआ था और उनके 2 बच्चे थे। वीरेंद्र साहू की 28 अगस्त, 2021 को हार्नेस में मृत्यु हो गई।
    • दोनों पक्षों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ और बच्चों को ससुर यानी अपीलकर्ता की अभिरक्षा में रखा गया।
  • अपीलकर्ता के पास समृद्ध साधन हैं। उनके पास 6 एकड़ ज़मीन है और वह पूर्व में डॉक्टरी के एक उपव्यवसाय (avocation of doctorship) में कार्यरत था, जबकि बहू अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ थी, उसने विभिन्न आधार बताते हुए भरण-पोषण का दावा किया।
  • ससुर ने भरण-पोषण के आवेदन का विरोध किया और कहा कि उसकी बहू के पास जीवनयापन के लिये पर्याप्त साधन हैं। न्यायालय के समक्ष यह दर्शाने के लिये कोई दस्तावेज़ पेश नहीं किया गया है कि वह अपने पति या पिता या माता की संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
  • विद्वत पारिवारिक न्यायालय ने अपने समक्ष रखी गई सामग्री का मूल्यांकन करने के बाद बहू को भरण-पोषण के रूप में 1500/- रुपए की राशि देने का निर्देश दिया।
  • अपीलकर्ता के विद्वत वकील का कहना था कि प्रतिवादी बहू ने बच्चों की अभिरक्षा के लिये इस मुकदमे से पहले आवेदन दायर किया है, जिसमें उसने कहा है कि उसके पास पर्याप्त संसधान उपलब्ध हैं और वह संपत्ति के अलावा अपने बच्चों का भरण-पोषण करने में सक्षम है।
    • इसलिये, उस कथन को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जो हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम, 1956 की धारा 19 के प्रावधान की आवश्यकता को समाप्त करता है।
  • प्रतिवादी का बयान बच्चों की अभिरक्षा की कार्यवाही में पारिवारिक न्यायालय के समक्ष दिया गया था और जहाँ उसने कहा है कि वह बच्चों को अपने पास रखना चाहती है, क्योंकि उसने यह भी कहा है कि वह एक निजी कंपनी में काम करती थी और पर्याप्त कमाई कर रही थी तथा उसके माता-पिता भी आर्थिक रूप से ठीक थे।
  • अपीलकर्ता ने कहा है कि प्रतिवादी ने पहले की कार्यवाही में बयान दिया था कि वह अपने पति या पिता या माता की संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम है और ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
    • उसने बयान देते हुए स्वीकार किया कि उसकी माता और पिता के पास पर्याप्त संपत्ति है। इसलिये, प्रतिवादी द्वारा दिया गया बयान ही इस आवश्यकता को समाप्त करता है जो 1956 के अधिनियम की धारा 19 के तहत अनिवार्य है।
  • पारिवारिक न्यायालय द्वारा पारित 8 फरवरी, 2023 के आक्षेपित निर्णय को बरकरार नहीं रखा जा सकता है और इसे रद्द कर दिया गया है।

न्यायालय की क्या टिप्पणी थी?

  • सीताबाई साहू ने कहा है कि उसने पहले की कार्यवाही में बयान दिया था कि वह अपने पति या पिता या माता की संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम है और कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं।
  • उसने बयान देकर स्वीकार किया कि उसकी माता और पिता के पास पर्याप्त संपत्ति है। प्रतिवादी द्वारा दिया गया बयान स्वयं उस आवश्यकता को समाप्त करता है जो 1956 के अधिनियम की धारा 19 के तहत अनिवार्य है।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय ने अपील की अनुमति दी और न्यायालय ने उसे गुजारा भत्ता मंज़ूर नहीं किया।

हिंदू दत्तक ग्रहण एवं रखरखाव अधिनियम, 1956 क्या है?

दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण से संबंधित कानून आमतौर पर विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों पर निर्भर करते हैं। भारत में हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम, 1956 हिंदुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिये ऐसे कानून को नियंत्रित करता है। इसमें मूल रूप से बच्चों के दत्तक ग्रहण, पत्नियों, बच्चों या वृद्ध माता-पिता आदि का भरण-पोषण आदि से संबंधित प्रावधान शामिल होते हैं।

  • धारा 19: विधवा बहू का भरण-पोषण:
    (1) एक हिंदू पत्नी, चाहे वह इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में विवाहित हो, अपने पति की मृत्यु के बाद अपने ससुर द्वारा भरण-पोषण पाने की हकदार होगी: बशर्ते और उस सीमा तक कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो या अपनी स्वयं की कमाई या अन्य संपत्ति से या, जहाँ उसकी अपनी कोई संपत्ति नहीं है, वह भरण-पोषण प्राप्त करने में असमर्थ है: (a) अपने पति या अपने पिता या माता की संपत्ति से, या (b) उसके बेटे या बेटी की संपत्ति से, यदि उसके पास कोई है।
    (2) उप-धारा (1) के तहत कोई भी बाध्यता लागू नहीं की जाएगी, यदि ससुर के पास उसके आधिपत्य में सहदायिक संपत्ति से ऐसा करने का साधन नहीं है, जिसमें से बहू ने कोई हिस्सा प्राप्त नहीं किया है, तो ऐसी कोई भी बाध्यता बहू के पुनर्विवाह पर समाप्त हो जाएगी।

पारिवारिक कानून

HMA के तहत भरण-पोषण प्रावधान लैंगिक रूप से तटस्थ है

 22-Nov-2023

चेतराम माली बनाम करिश्मा सैनी

"HMA की धारा 24 लैंगिक रूप से तटस्थ है।"

न्यायमूर्ति वी. कामेश्वर राव और न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चेतराम माली बनाम करिश्मा सैनी मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 24 में निहित प्रावधान लैंगिक रूप से तटस्थ हैं।

चेतराम माली बनाम करिश्मा सैनी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता (पति) का विवाह 19 नवंबर, 2018 को हिंदू रीति-रिवाजों एवं समारोहों के अनुसार प्रतिवादी से हुआ था।
  • पक्षों के बीच मतभेद के कारण प्रतिवादी (पत्नी) 7 जुलाई, 2020 को अपने माता-पिता के घर वापस लौट आई।
  • अपीलकर्त्ता ने फैमिली कोर्ट के समक्ष प्रतिवादी के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की, जिसमें HMA की धारा 24 के तहत आक्षेपित आदेश पारित किया गया, जिसमें अपीलकर्त्ता (पति) को मुकदमे के व्यय के साथ-साथ प्रतिवादी को भरण-पोषण के लिये प्रति माह ₹30,000/- का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता द्वारा फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
    • उच्च न्यायालय ने आदेश में संशोधन करते हुए अपील खारिज़ कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति वी. कामेश्वर राव और न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता की पीठ ने कहा कि HMA के तहत पति या पत्नी को कार्यवाही लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण और मुकदमेबाज़ी व्यय देने का प्रावधान लैंगिक रूप से तटस्थ है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि तुल्यता गणितीय परिशुद्धता के साथ नहीं होनी चाहिये, बल्कि इसका उद्देश्य पति/पत्नी को लंबित भरण-पोषण (मुकदमे के लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण प्रदान करना) और मुकदमेबाज़ी के व्ययों से राहत प्रदान करना है, जो भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं तथा कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान समर्थन देना एवं यह सुनिश्चित करना कि आय के स्रोत की कमी के कारण पक्ष को नुकसान न हो।

HMA की धारा 24 क्या है?

परिचय:

  • यह धारा मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट और कार्यवाही के व्ययों से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि:

जहाँ इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, के पास उसके समर्थन एवं कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिये आय पर्याप्त नहीं है, तो वह, पत्नी या पति का आवेदन, प्रतिवादी को याचिकाकर्त्ता को कार्यवाही के व्ययों का भुगतान करने का आदेश दे सकता है तथा कार्यवाही के दौरान मासिक रूप से याचिकाकर्त्ता की स्वयं की आय एवं प्रतिवादी की आय को ध्यान में रखते हुए यह न्यायालय को उचित लगना चाहिये।

बशर्ते कि कार्यवाही के व्ययों और कार्यवाही के दौरान ऐसी मासिक राशि के भुगतान के लिये आवेदन, जहाँ तक संभव हो, पत्नी या पति को नोटिस जारी करने की तिथि से साठ दिनों के भीतर, जैसा भी मामला हो, दिया जाना चाहिये।

निर्णयज विधि :

  • चित्रा लेखा बनाम रंजीत राय (1977) में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि HMA की धारा 24 का उद्देश्य कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान निर्धन पति या पत्नी को उनका भरण-पोषण करने के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करना है।
  • जसबीर कौर सहगल बनाम डिस्ट्रिक्ट जज (1997) मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि HMA की धारा 24 को निर्बंधित अर्थ (Restricted Meaning) नहीं दिया जा सकता है। आगे यह माना गया कि पत्नी के भरण-पोषण का दावा करने के अधिकार में उसका स्वयं का भरण-पोषण और उसके साथ रहने वाली उसकी अविवाहित बेटी का भरण-पोषण भी शामिल होगा।