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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

गंभीर अपराधों में ज़मानत देने के कारण

 06-Dec-2023

झारखंड राज्य बनाम धनंजय गुप्ता @ धनंजय प्रसाद गुप्ता

“सिर्फ बेगुनाही का दावा करना या मुकदमे में भाग लेने के लिये सहमत होना गंभीर अपराधों में किसी अभियुक्त को ज़मानत देने का वैध कारण नहीं है।”

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और पीवी संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और पी.वी. संजय कुमार ने कहा है कि केवल बेगुनाही का दावा करना या मुकदमे में भाग लेने के लिये सहमत होना गंभीर अपराधों में किसी अभियुक्त को ज़मानत देने का वैध कारण नहीं है।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला झारखंड राज्य बनाम धनंजय गुप्ता उर्फ धनंजय प्रसाद गुप्ता मामले में दिया।

झारखंड राज्य बनाम धनंजय गुप्ता @धनंजय प्रसाद गुप्ता मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अभियुक्त के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code- IPC) के कई प्रावधानों के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) दर्ज की गई थी, जिसमें धारा–307 (हत्या के प्रयास के लिये सज़ा) और आयुध अधिनियम, 1959 की धारा–27 (हथियार का उपयोग करने के लिये सज़ा) शामिल थी।
  • हालाँकि, अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन 12 जनवरी, 2023 को उच्च न्यायालय ने उसे ज़मानत दे दी।
  • उन्होंने स्वयं को निर्दोष बताया और मुकदमे में भाग लेने के लिये सहमत होने का शपथ पत्र प्रस्तुत किया।
  • चूँकि अभियुक्त के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष कृत्य का आरोप नहीं लगाया गया था, इसलिये उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को ज़मानत पर रिहा करने का निर्देश दिया।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हत्या के प्रयास से जुड़े मामलों में, इस तथ्य की जाँच पूरी हो चुकी है, ज़मानत देने का कारण नहीं हो सकता।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • किसी भी दर पर, केवल निर्दोषता का दावा या मुकदमे में भाग लेने का वचन देना या किसी प्रत्यक्ष कृत्य के विशिष्ट आरोप की अनुपस्थिति का तर्क, ऐसी परिस्थितियों में, गंभीर प्रकृति के मामले में ज़मानत देने के कारणों के रूप में नहीं सौंपा जा सकता है।

आयुध अधिनियम, 1959 की धारा–27 क्या है?

  • हथियार आदि का प्रयोग करने के लिये दंड।
    (1) जो कोई भी धारा–5 के उल्लंघन में किसी भी हथियार या गोला-बारूद का उपयोग करता है, उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जो तीन वर्ष से कम नहीं होगा, लेकिन जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है तथा ज़ुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा।
    (2) जो कोई भी धारा–7 के उल्लंघन में किसी प्रतिबंधित हथियार या निषिद्ध गोला-बारूद का उपयोग करता है, उसे कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम नहीं होगी, लेकिन जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
    (3) जो कोई भी किसी प्रतिबंधित हथियार या निषिद्ध गोला-बारूद का उपयोग करता है या धारा–7 के उल्लंघन में कोई कार्य करता है और ऐसे उपयोग या कार्य के परिणामस्वरूप किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उसे आजीवन कारावास या मौत की सज़ा दी जाएगी और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
  • इस अधिनियम की धारा–5 'हथियारों और गोला-बारूद के निर्माण, बिक्री आदि के लिये लाइसेंस' से संबंधित है।
  • धारा–7 ‘प्रतिबंधित हथियारों या निषिद्ध गोला-बारूद के अधिग्रहण या कब्ज़े या निर्माण या बिक्री पर प्रतिबंध’ से संबंधित है।

आपराधिक कानून

CrPC की धारा–167

 06-Dec-2023

विष्णु सजनान बनाम केरल राज्य

“जब एक अभियुक्त को CrPC की धारा–167 के तहत डिफॉल्ट ज़मानत पर रिहा किया गया तो उस पर लगाई गई शर्तें COI के अनुच्छेद–21 का उल्लंघन हैं।”

न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हिकृष्णन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, विष्णु सजनान बनाम केरल राज्य के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना है कि जब एक अभियुक्त को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC) की धारा–167 के तहत डिफॉल्ट ज़मानत पर रिहा किया गया था, तो उस समय लागू की गई शर्तें भारत के संविधान (Constitution of India- COI) के अनुच्छेद–21 के तहत उसके मूल अधिकारों का उल्लंघन थीं।

विष्णु सजनान बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता को नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act), 1985 के तहत दंडनीय अपराधों के लिये अभियुक्त के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
  • याचिकाकर्त्ता ने ज़मानत के लिये सत्र न्यायालय (Sessions Court), एर्नाकुलम के समक्ष याचिका दायर की, क्योंकि यह जाँच साठ दिनों की वैधानिक अवधि के भीतर पूर्ण नहीं हुई थी।
  • सत्र न्यायालय ने याचिका मंज़ूर करते हुए ज़मानत की कुछ सख्त शर्तें लागू की।
  • ज़मानत शर्तों से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने ज़मानत शर्तों को रद्द करने के लिये केरल उच्च न्यायालय के समक्ष मामला दायर किया।
  • उच्च न्यायालय ने ज़मानत की सख्त शर्तों को खारिज़ कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हिकृष्णन ने कहा कि डिफॉल्ट ज़मानत में शर्तें लागू करते समय, न्यायालय केवल ऐसी शर्तें लागू कर सकता है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अभियुक्त मुकदमे के लिये संबंधित न्यायालय के सामने पेश होगा और जाँच में सहयोग भी करेगा।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि हिरासत में रखे गए अभियुक्त को CrPC की धारा–167(2) में उल्लिखित हिरासत की अवधि के बाद ज़मानत पर रिहा किया जाएगा, अगर वह ज़मानत के लिये तैयार है। कठिन शर्तें लागू करके इस वैधानिक अधिकार को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैधानिक ज़मानत देते समय लागू की गई ऐसी मनमानी शर्त COI के अनुच्छेद–21 के तहत मूल अधिकार का उल्लंघन है।
  • न्यायालय ने शेख नाज़नीन बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2023) के मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले पर विश्वास किया तथा माना कि जब याचिकाकर्त्ता को डिफॉल्ट ज़मानत के आधार पर रिहा किया गया था, तो उस पर सख्त शर्तें लागू नहीं की जा सकतीं।

CrPC की धारा–167 क्या है?

यह अनुभाग उस प्रक्रिया से संबंधित है जब जाँच चौबीस घंटे में पूर्ण नहीं की जा सकती। यह प्रकट करता है कि-

(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है व अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा–57 द्वारा नियत चौबीस घंटे की अवधि के अंदर पूर्ण नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिये आधार है कि अभियोग या जानकारी दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात विहित डायरी के मामले में संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा तथा साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।

 

(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसा वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिये, जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिये सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिये आदेश दे सकता है,

परंतु—

(a) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिये उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार है, किंतु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध,

(i) कुल मिलाकर नब्बे दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा, जहाँ अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अन्यून की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय है;

(ii) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत नहीं करेगा, जहाँ अन्वेषण किसी अन्य अपराध के संबंध में है.

और यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति ज़मानत देने के लिये तैयार है तथा दे देता है तो उसे ज़मानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन ज़मानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय–33 के प्रयोजनों के लिये उस अध्याय के उपबंधों के अधीन छोड़ा गया है।

(b) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन किसी अभियुक्त का पुलिस अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष पहली बार और तत्पश्चात हर बार, जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता है, किंतु मजिस्ट्रेट अभियुक्त के या तो व्यक्तिगत रूप से या इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क (Electronic Video Linkage) के माध्यम से पेश किये जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा।

(c) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत न करेगा।

स्पष्टीकरण-1: शंकाएँ दूर करने के लिये इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि पैराग्राफ (a) में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त हो जाने पर भी अभियुक्त-व्यक्ति तब तक अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाएगा जब तक कि वह ज़मानत नहीं दे देता है।

स्पष्टीकरण-2: यदि प्रश्न यह उठता है कि “क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था”, जैसा कि पैराग्राफ (b) के अधीन अपेक्षित है, तो अभियुक्त व्यक्ति की पेशी को, यथास्थिति, निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके हस्ताक्षर से या मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त व्यक्ति की इलैक्ट्रानिक दृश्य संपर्क के माध्यम से पेशी के बारे में, प्रमाणित आदेश द्वारा सिद्ध किया जा सकता है।

परंतु यह और कि अठारह वर्ष से कम आयु की स्त्री की स्थिति में, किसी प्रतिप्रेषण गृह या मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था की अभिरक्षा में निरोध किये जाने को प्राधिकृत किया जाएगा।

(2A) उपधारा (1) या उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी, लिस थाने का भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो, जहाँ न्यायिक मजिस्ट्रेट न मिल सकता हो, वहाँ कार्यपालक मजिस्ट्रेट को जिसको न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान की गई हैं, इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा और तब ऐसा कार्यपालक मजिस्ट्रेट लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से किसी अभियुक्त-व्यक्ति का ऐसी अभिरक्षा में निरोध, जैसा वह ठीक समझे, ऐसी अवधि के लिये प्राधिकृत कर सकता है जो कुल मिलाकर सात दिन से अधिक नहीं हो और ऐसे प्राधिकृत निरोध की अवधि की समाप्ति पर उसे ज़मानत पर छोड़ दिया जाएगा, किंतु उस दशा में नहीं जिसमें अभियुक्त व्यक्ति के आगे और निरोध के लिये आदेश ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है जो ऐसा आदेश करने के लिये सक्षम है और जहाँ ऐसे आगे और निरोध के लिये आदेश किया जाता है वहाँ वह अवधि, जिसके दौरान अभियुक्त-व्यक्ति इस उपधारा के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट के आदेशों के अधीन अभिरक्षा में निरुद्ध किया गया था, उपधारा (2) के परंतुक के पैराग्राफ (a) में विनिर्दिष्ट अवधि की संगणना करने में हिसाब में ली जाएगी:

परंतु उक्त अवधि की समाप्ति के पूर्व कार्यपालक मजिस्ट्रेट, मामले के अभिलेख, मामले से संबंधित डायरी की प्रविष्टियों के सहित जो, यथास्थिति, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले अधिकारी द्वारा उसे भेजी गई थी, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा।]

(3) इस धारा के अधीन पुलिस अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत करने वाला मजिस्ट्रेट ऐसा करने के अपने कारण अभिलिखित करेगा।

(4) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से भिन्न कोई मजिस्ट्रेट जो ऐसा आदेश दे अपने आदेश की एक प्रतिलिपि आदेश देने के अपने कारणों के सहित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

(5) यदि समन मामले के रूप में मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में अन्वेषण, अभियुक्त के गिरफ्तार किये जाने की तिथि से छह मास की अवधि के भीतर समाप्त नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट अपराध में आगे और अन्वेषण को रोकने के लिये आदेश करेगा जब तक अन्वेषण करने वाला अधिकारी मजिस्ट्रेट का समाधान नहीं कर देता है कि विशेष कारणों से और न्याय के हित में छह मास की अवधि के आगे अन्वेषण जारी रखना आवश्यक है।

(6) जहाँ उपधारा–5 के अधीन किसी अपराध का आगे और अन्वेषण रोकने के लिये आदेश दिया गया है वहाँ यदि सत्र न्यायाधीश का उसे आवेदन दिये जाने पर या अन्यथा, समाधान हो जाता है कि उस अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाना चाहिये तो वह उपधारा–5 के अधीन किये गए आदेश को रद्द कर सकता है और यह निदेश दे सकता है कि ज़मानत व अन्य मामलों के बारे में ऐसे निदेशों के अधीन रहते हुए जो वह विनिर्दिष्ट करे, अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाए।