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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

दाम्पत्य अधिकारों के संबंध में पति के लिये ज़मानत की शर्त

 08-Dec-2023

कुणाल चौधरी बनाम झारखंड राज्य

"IPC की धारा 498A के तहत आरोपी पति को अग्रिम ज़मानत देते समय यह शर्त नहीं लगाई जा सकती कि पति अपनी पत्नी को अपने घर ले जाएगा और उसका भरण-पोषण एवं सम्मान करेगा।"

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code- IPC) की धारा 498 A के तहत आरोपी पति को अग्रिम ज़मानत देते समय यह शर्त नही लगाई जा सकती कि पति अपनी पत्नी को अपने घर ले जाएगा तथा उसका भरण-पोषण और सम्मान करेगा।

कुणाल चौधरी बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • आरोपी पति (अपीलकर्त्ता) ने झारखंड उच्च न्यायालय, रांची खंडपीठ के समक्ष अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन किया था। न्यायालय ने पति को ज़मानत दे दी थी और एक अजीब शर्त लागू की थी कि पति को अपनी पत्नी को अपने घर ले जाना होगा और उसे गरिमा एवं सम्मान के साथ रखना होगा।
  • अपीलकर्त्ता ने आदेश में संशोधन की प्रार्थना करते हुए फिर से उच्च न्यायालय में अपील की।
  • आदेश में संशोधन के लिये दायर याचिका में पति ने दलील दी कि उसने एक मकान किराए पर लिया है और वह अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने के लिये तैयार है।
  • उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए उनकी याचिका खारिज़ कर दी कि अपीलकर्त्ता अपने घर में अपनी पत्नी के साथ फिर से जीवन शुरू नहीं करने पर दृढ़ है।
  • न्यायालय ने विवादित आदेश को रद्द करते हुए आरोपी को ज़मानत दे दी।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • उच्च न्यायालय द्वारा अग्रिम ज़मानत देते समय न तो ऐसी कोई शर्त लागू करनी चाहिये थी कि पति अपनी पत्नी को अपने घर ले जाएगा और उसका भरण-पोषण करेगा व उसका सम्मान करेगा, न ही यह अपीलकर्त्ता द्वारा दायर याचिका को खारिज़ करने का आधार हो सकता है।

'दाम्पत्य अधिकार' (Conjugal Rights) का क्या अर्थ है?

  • यदि एक पति या पत्नी किसी वैध कारण के बिना एक-दूसरे से दूर रहते हैं, तो "दाम्पत्य अधिकार" शब्द का उपयोग उनके खिलाफ किया जा सकता है। मुकदमा सफल होने की स्थिति में, युगल को साथ रहना होगा।
  • दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना की डिक्री उस पक्ष को, जो दूसरे पक्ष से समाज से दूर चला गया है, पुनर्स्थापन के लिये याचिका दायर करने वाले के साथ रहने के लिये मज़बूर करके नहीं की जा सकती है।

आपराधिक कानून

ज़मानत देते समय चार्जशीट

 08-Dec-2023

केशव प्रकाश गुप्ता बनाम राज्य एन.सी.टी. दिल्ली

"किसी आपराधिक मामले में चार्जशीट दाखिल करना किसी अभियुक्त को ज़मानत देने पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाने वाला एकमात्र मानदंड नहीं है क्योंकि इसमें तथ्यों और परिस्थितियों को शामिल किया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने कहा है कि किसी आपराधिक मामले में चार्जशीट दाखिल करना किसी अभियुक्त को ज़मानत देने पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाने वाला एकमात्र मानदंड नहीं है क्योंकि इसमें तथ्यों और परिस्थितियों को शामिल किया जाना चाहिये।

केशव प्रकाश गुप्ता बनाम राज्य एन.सी.टी. दिल्ली मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • सामूहिक बलात्कार के मामले में एक 19 वर्षीय लड़के को ज़मानत देने से इनकार करते हुए, मामले के तथ्यों, अपराधों और सज़ा की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धाराओं 323, 328, 343, 376D, 376(2)(n), 506, 509/l तथा 120B के तहत अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • शिकायतकर्त्ता ने आरोप लगाया कि उसे ज़बरदस्ती नशा दिया गया था और उसके हाथ बाँध दिये गए थे, जब अभियुक्त ने दो अन्य सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर धन के बदले उन्हें उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिये आमंत्रित किया था।
  • वकील ने कहा कि उसका मुवक्किल लगभग 19 वर्ष का एक युवक था, उसकी छवि साफ-सुथरी थी और FIR दर्ज करने में लगभग 31 महीने की अत्यधिक व अस्पष्ट देरी हुई थी।
  • अभियोजन पक्ष ने ज़मानत याचिका का विरोध किया।
  • ज़मानत याचिका को खारिज़ करते हुए, न्यायालय ने कहा कि हालाँकि मामले में चार्जशीट दायर की गई थी, शिकायतकर्त्ता ने पुलिस और मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने दोनों बयानों में विशेष रूप से न केवल अभियुक्त का नाम बताया था, बल्कि मामले में उसकी एक विशिष्ट भूमिका भी बताई थी।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • हालाँकि ज़मानत देते समय चार्जशीट दाखिल करना एक आवश्यक विचार है, तथापि यह विचार करने का एकमात्र मानदंड नहीं है क्योंकि इसमें तथ्यों और परिस्थितियों को शामिल किया जाना चाहिये।

चार्जशीट क्या है?

  • परिचय:
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 173 के तहत परिभाषित एक चार्जशीट, किसी मामले की जाँच पूरी करने के बाद एक पुलिस अधिकारी या जाँच एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट होती है।
      • के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ और अन्य (1991) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि चार्जशीट CrPC की धारा 173(2) के तहत पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट है।
    • अभियुक्त के खिलाफ 60-90 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर चार्जशीट दायर की जानी चाहिये, अन्यथा गिरफ्तारी अवैध है, और आरोपी ज़मानत का हकदार है।
  • चार्जशीट में शामिल होने चाहिये:
    • नामों का विवरण, सूचना की प्रकृति और अपराधों का विवरण। क्या अभियुक्त गिरफ्तार है, हिरासत में है, या रिहा कर दिया गया है, क्या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई की गई है, ये सभी महत्त्वपूर्ण सवाल हैं जिनका जवाब चार्जशीट में दिया जाना चाहिये।
  • चार्जशीट दाखिल करने के बाद की प्रक्रिया:
    • चार्जशीट तैयार करने के बाद, पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी इसे एक मजिस्ट्रेट के पास भेजता है, जिसे इसमें उल्लिखित अपराधों पर ध्यान देने का अधिकार है ताकि आरोप तय किये जा सकें।

पारिवारिक कानून

हिंदू अविभाजित परिवार का कर्ता

 08-Dec-2023

मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा एवं अन्य।

"हिंदू कानून किसी महिला के हिंदू अविभाजित परिवार के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित नहीं करता है।"

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा और अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि हिंदू विधि किसी महिला के हिंदू अविभाजित परिवार (Hindu Undivided Family- HUF) के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित नहीं करती है।

मनु गुप्ता बनाम सुजाता शर्मा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता व प्रतिवादी, हिंदू होने के नाते और मिताक्षरा कानून द्वारा शासित, स्वर्गीय श्री.आर. गुप्ता के वंशज हैं, जिन्होंने HUF का गठन किया था।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील, अपीलकर्त्ता/मनु गुप्ता द्वारा एकल न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ दायर की गई है, जिसके तहत प्रतिवादी/सुजाता शर्मा को स्वर्गीय श्री डी.आर.गुप्ता एंड संस, HUF के कर्त्ता के रूप में घोषित करने के लिये घोषणा पत्र की अनुमति दी गई है, चूँकि वह सबसे बड़ी महिला सहदायिक थी।
  • अपील को खारिज़ करते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा कि कानून में HUF की सबसे बड़ी महिला सहदायिक को उसका कर्त्ता बनने से रोकने वाला कोई प्रतिबंध नहीं है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि न तो विधायिका और न ही पारंपरिक हिंदू कानून, किसी भी तरह से एक महिला के HUF के कर्त्ता होने के अधिकार को सीमित करता है।

पीठ ने फैसला सुनाया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) की धारा 6 की भाषा यह स्पष्ट करती है कि हालाँकि प्रस्तावना में संदर्भ विरासत का हो सकता है, लेकिन समान अधिकार प्रदान करने में अन्य सभी अधिकार शामिल होंगे जो एक सहदायिक के पास हैं, इसमें एक महिला का कर्त्ता होने का अधिकार शामिल है।

न्यायालय ने कहा कि सहदायिक में सदस्यों के अधिकार तब भी अप्रभावित रहते हैं, जब एक महिला सहदायिक उसकी कर्त्ता के रूप में कार्य करती है। इसमें कहा गया है कि सहदायिकों को उन्हीं अधिकारों और हितों का आनंद मिलता रहेगा जो अन्यथा उनके पास हैं तथा सहदायिक के रूप में उनके अधिकार किसी भी तरह से बाधित नहीं होते हैं।

इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

कर्त्ता:

  • कर्त्ता परिवार का मुखिया होता है जिसे परिवार और उसके अनुरूप धन का प्रबंधन करने के लिये कई प्रणालियों के साथ नियुक्त किया जाता है।
  • वह एक प्रबंधक के समकक्ष है जो परिवार के संपत्ति संबंधी मामलों को संभालने का प्रभारी है।
  • कर्त्ता की अवधारणा को हमेशा पुरुष प्रधान अवधारणा के रूप में देखा गया क्योंकि प्राचीन समाज पुरुष प्रधान था। इसके परिणामस्वरूप HUF परिवारों में केवल पुरुष ही कर्त्ता के रूप में सफल हुए और यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता के बाद के युग में भी जारी रही।
  • हालाँकि वर्ष 2005 में HSA की धारा 6 में संशोधन के साथ, महिलाओं को सहदायिक के रूप में अनुमति दी गई है जो उन्हें परिवार की कर्त्ता बनने के लिये भी योग्य बनाती है, बशर्ते कि वे सबसे वरिष्ठ सदस्य हों।

HSA की धारा 6

 यह धारा सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -

(1) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से ही मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिंदू कुटुम्ब में किसी सहदायिक की पुत्री, -

(a) जन्म से ही अपने स्वयं के अधिकार से उसी रीति से सहदायिक बन जाएगी जैसे पुत्र होता है;

(b) सहदायिकी संपत्ति में उसे वही अधिकार प्राप्त होंगे जो उसे तब प्राप्त हुए होते जब वह पुत्र होती;

(c) उक्त सहदायिकी संपत्ति के संबंध में पुत्र के समान ही दायित्वों के अधीन होगी, और हिंदू मिताक्षरा सहदायिक के प्रति किसी निर्देश से यह समझा जाएगा कि उसमें सहदायिक की पुत्री के प्रति कोई निर्देश सम्मलित है :

परंतु इस उपधारा की कोई बात किसी व्ययन या अन्यसंक्रामण को, जिसके अंतर्गत संपत्ति का ऐसा कोई विभाजन या वसीयती व्यय भी है, जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया था, प्रभावित या अविधिमान्य नहीं करेगी ।

(2) कोई संपत्ति, जिसके लिये कोई हिन्दू नारी उपधारा (1) के आधार पर हकदार बन जाती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की प्रसंगतियों सहित धारित की जाएगी और, इस अधिनियम या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी वसीयती व्ययन द्वारा उसके द्वारा किये जाने योग्य संपत्ति के रूप में समझी जाएगी।

(3) जहाँ किसी हिंदू की, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् मृत्यु हो जाती है, वहाँ मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिंदू कुटुम्ब की संपत्ति में उसका हित, यथास्थिति, इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाएगा परंतु उत्तरजीविता के आधार पर नहीं और सहदायिकी संपत्ति इस प्रकार विभाजित की गई समझी जाएगी, मानो विभाजन हो चुका था, और-

(a) पुत्री को वही अंश आबंटित होगा जो पुत्र को आबंटित किया गया है;

(b) पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री का अंश, जो उन्हें तब प्राप्त हुआ होता यदि वे विभाजन के समय जीवित होते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र या ऐसी पूर्व मृत पुत्री की उत्तरजीवी संतान को आबंटित किया जाएगा; और

(c) किसी पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान का अंश जो उस संतान ने उस रूप में प्राप्त किया होता यदि वह विभाजन के समय जीवित होती, यथास्थिति, पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान की संतान को आबंटित किया जाएगा ।

स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये हिंदू मिताक्षरा सहदायिक का हित संपत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे आबंटित किया गया होता यदि उसकी अपनी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व संपत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किये बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।

(4) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् कोई न्यायालय किसी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह, या प्रपितामह से शोध्य किसी ऋण की वसूली के लिये हिंदू विधि के अधीन पवित्र बाध्यता के आधार पर ही ऐसे किसी ऋण को चुकाने के लिये ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा :

परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से पूर्व लिये गए ऋण की दशा में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई बात निम्नलिखित को प्रभावित नहीं करेगी, -

(a) यथास्थिति, पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये किसी ऋणदाता का अधिकार ; या

(b) किसी ऐसे ऋण के संबंध में या उसके चुकाए जाने के लिये किया गया कोई संक्रामण और कोई ऐसा अधिकार या संक्रामण पवित्र बाध्यता के नियम के अधीन वैसी ही रीति में और उसी सीमा तक प्रवर्तनीय होगा जैसा कि उस समय प्रवर्तनीय होता जबकि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित न किया गया होता ।

स्पष्टीकरण: खंड (a) के प्रयोजनों के लिये, "पुत्र", "पौत्र" या "प्रपौत्र" पद से यह समझा जाएगा कि वह, यथास्थिति, ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के प्रति निर्देश है, जो हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पूर्व पैदा हुआ था दत्तक ग्रहण किया गया था ।

(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसे विभाजन को लागू नहीं होगी जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया है।

स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये "विभाजन" से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 के 16) अधीन सम्यक् रूप से रजिस्ट्रीकृत किसी विभाजन विलेख के निष्पादन द्वारा किया गया कोई विभाजन या किसी न्यायालय की किसी डिक्री द्वारा किया गया विभाजन अभिप्रेत है ।