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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भारत में नज़रबंदी

 11-Dec-2023

मोहम्मद फारूक मोहम्मद हनीफ शेख @ फारूक शेख बनाम उप निदेशक एवं अन्य

"नज़रबंदी अंततः एक व्यक्ति की गिरफ्तारी है, जिससे एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की उसकी स्वतंत्रता अंततः कानून के संचालन से कम हो जाती है।"

न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी, न्यायमूर्ति श्याम सी. चांडक

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

परिचय:

न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी और न्यायमूर्ति श्याम सी. चांडक की पीठ ने कहा कि किसी अभियुक्त व्यक्ति की हिरासत की कुल अवधि निर्धारित करते समय नज़रबंदी की अवधि पर विचार किया जाना चाहिये।

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी मोहम्मद फारूक मोहम्मद हनीफ शेख @फारूक शेख बनाम उप निदेशक और अन्य के मामले में दी।

मोहम्मद फारूक मोहम्मद हनीफ शेख @फारूक शेख बनाम उप निदेशक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्ता धनशोधन के लिये पाँच वर्ष और आठ महीने से अधिक समय तक हिरासत में था, जैसा कि धारा 3 के तहत परिभाषित किया गया है, जो धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) की धारा 4 के तहत दंडनीय है।
  • ट्रायल कोर्ट ने अभी तक मामले में आरोप तय नहीं किये हैं।
  • याचिकाकर्ता एक ऐसे अपराध के लिये पिछले पाँच वर्ष और आठ महीने से अधिक समय से हिरासत/नज़रबंद था, जिसमें निर्धारित अधिकतम सज़ा सात वर्ष है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि "प्रतिवादी नंबर 1 यानी प्रवर्तन निदेशालय के संबंधित वकील" ने कहा कि याचिकाकर्ता की हिरासत की कुल अवधि की गणना के लिये नज़रबंदी की अवधि को ध्यान में नहीं रखा जा सकता है और इसे छोड़ने की आवश्यकता है।
  • न्यायालय ने कहा कि वह संबंधित वकील से सहमत नहीं है, क्योंकि न्यायालय के अनुसार, नज़रबंदी अंततः एक व्यक्ति की गिरफ्तारी है, जिससे एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की उसकी स्वतंत्रता अंततः कानून के संचालन से कम हो जाती है।
  • इसलिये, इसे समग्र हिरासत अवधि में गिना जा सकता है।

नज़रबंदी क्या है?

  • भारत में नज़रबंदी एक कानूनी उपाय है जो अधिकारियों को कारावास के विकल्प के रूप में किसी व्यक्ति को उसके निवास स्थान तक सीमित रखने की अनुमति देता है।
  • इसका उपयोग आमतौर पर तब किया जाता है, जब कोई व्यक्ति मुकदमे की या कुछ अपराधों के लिये सज़ा के हिस्से के रूप में प्रतीक्षा कर रहा हो।
  • भारत में नज़रबंदी के लिये कानूनी ढाँचे को किसी स्टैंडअलोन कानून में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, बल्कि इसे विभिन्न कानूनों में उल्लिखित विशिष्ट परिस्थितियों और शर्तों के तहत लागू किया जाता है।

नज़रबंदी से संबंधित कानूनी प्रावधान क्या हैं?

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC): CrPC की धारा 167 हिरासत की प्रक्रिया और उन शर्तों का प्रावधान करती है जिनके तहत किसी व्यक्ति को जाँच के दौरान हिरासत में लिया जा सकता है। यह मजिस्ट्रेट को किसी अभियुक्त व्यक्ति को हिरासत में रखने या घर में नज़रबंद करने का अधिकार देने की अनुमति देती है।
  • ज़मानती प्रावधान: ज़मानत के लिये एक शर्त के रूप में नज़रबंदी की अनुमति दी जा सकती है। ज़मानत CrPC की धारा 437 और 439 द्वारा शासित होती है, और न्यायालय यह सुनिश्चित करने के उपाय के रूप में घर में नज़रबंदी लगा सकते हैं कि अभियुक्त मुकदमे के दौरान भाग न जाए।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980: अधिनियम की धारा 5 राज्य को किसी व्यक्ति को "ऐसे स्थान पर और ऐसी शर्तों के तहत हिरासत में लेने का अधिकार प्रदान करती है, जैसा कि उपयुक्त सरकार, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट कर सकती है"।

आपराधिक कानून

वैवाहिक बलात्कार वयस्क पत्नी के खिलाफ अपराध नहीं है

 11-Dec-2023

"वैवाहिक बलात्कार से किसी व्यक्ति की सुरक्षा उन मामलों में जारी रहती है जहाँ उसकी पत्नी की आयु 18 वर्ष या उससे अधिक है।"

न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र

स्रोतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने कहा है कि 'वैवाहिक बलात्कार से किसी व्यक्ति की सुरक्षा उन मामलों में जारी रहती है जहाँ उसकी पत्नी की आयु 18 वर्ष या उससे अधिक है।

मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • अभियोजक, आरोपी की पत्नी और साथ ही मुखबिर ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code- IPC) की धारा 498-A, 323, 504, 377 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 (Dowry Prohibition Act) की धारा 3 और 4 का उपयोग करते हुए अपने पति के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) दर्ज की और दावा किया कि आरोपी ने उस पर अपने माता-पिता से दहेज लाने का दबाव डालते हुए एक फॉर्च्यूनर कार और 40 लाख रुपए नकद धनराशि की मांग की।
  • आरोपी ने अपनी दोषसिद्धि के खिलाफ तत्काल पुनरीक्षण याचिका दायर करते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया कि विचाराधीन FIR निराधार आरोपों से भरी है और यह पीड़िता तथा उसके परिवार के सदस्यों के कहने पर दायर की गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट ने उसे उपरोक्त धाराओं के तहत दोषी ठहराया और अपील में अपीलीय न्यायालय ने इस निष्कर्ष को भी बरकरार रखा कि किसी के पति या पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन कृत्यों जैसे गुदा मैथुन (Sodomy) और ओरल सेक्स में संलग्न होना वैवाहिक कदाचार है और यह पति द्वारा पत्नी के विरुद्ध किये गए क्रूरता के कृत्य का प्रतिनिधित्व करता है।
  • नतीजतन, IPC की धारा 323, 498-A और 377 के तहत उनकी सज़ा बरकरार रखी गई।
  • आरोपी तत्काल पुनरीक्षण याचिका के साथ उच्च न्यायालय चला गया।
  • उच्च न्यायालय ने रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले से न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पुनरीक्षणकर्त्ता IPC की धारा 377 के तहत आरोप से बरी होने के लिये उत्तरदायी था।
  • निचले न्यायालयों द्वारा दर्ज, IPC की धारा 498-A, 323 के तहत आरोप के लिये दोषसिद्धि और सज़ा की पुष्टि की गई तथा तत्काल पुनरीक्षण की आंशिक रूप से अनुमति दी गई।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • अपनी पत्नी के खिलाफ कथित तौर पर 'अप्राकृतिक अपराध' करने के लिये IPC की धारा 377 के तहत एक पति को आरोपों से बरी करते हुए, इलाहाबाद HC ने कहा है कि वैवाहिक बलात्कार से किसी व्यक्ति की सुरक्षा उन मामलों में जारी रहती है जहाँ उसकी पत्नी 18 वर्ष या उससे अधिक है।

इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

  • IPC, जिसे वर्ष 1860 में अधिनियमित किया गया था, स्पष्ट रूप से वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं मानता है। भारत में वैवाहिक बलात्कार को संबोधित करने में प्राथमिक चुनौतियों में से एक यह सामाजिक धारणा रही है कि विवाह संस्था यौन संबंधों के लिये स्वचालित सहमति प्रदान करती है।
  • हालाँकि हाल के वर्षों में ऐसे प्रमुख विकास हुए हैं जो इस मुद्दे की बढ़ती स्वीकार्यता का संकेत देते हैं। एक ऐतिहासिक मामला जिसने भारत में वैवाहिक बलात्कार की ओर ध्यान आकर्षित किया, वह इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2017) मामला है, जिसका फैसला उच्चतम न्यायालय ने किया।
    • इस मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया कि 15 से 18 वर्ष की आयु के बीच के पुरुष और उसकी अवयस्क पत्नी के बीच कोई भी यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में आएगा।
  • न्यायालय ने अपने फैसले में विवाहित महिलाओं की स्वायत्तता और अभिकरण को पहचानने के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए कहा कि विवाह की सीमा के भीतर भी एक महिला को अपनी दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार है। इस फैसले ने इस विचार को रेखांकित किया कि सहमति किसी भी यौन संबंध का एक मूलभूत पहलू है, जिसमें विवाह संस्था भी शामिल है।
  • IPC की धारा 375 'बलात्कार' के अपराध को कवर करती है, हालाँकि यह 18 वर्ष से अधिक आयु की पत्नी के साथ वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को मान्यता नहीं देती है।
  • दिल्ली HC के न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की खंडपीठ ने आर.आई.टी. फाउंडेशन बनाम भारत संघ और अन्य जुड़े मामलों (2022) के मामले में वैवाहिक बलात्कार पर खंडित फैसला दिया।
  • न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने कहा कि "IPC की धारा 375, 376B के अपवाद 2 जहाँ तक पति द्वारा अपनी पत्नी की सहमति के बिना उसके साथ संबंध बनाने की बात है, अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है और इसलिये असंवैधानिक है।"
  • हालाँकि न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर ने वैवाहिक बलात्कार को असंवैधानिक ठहराने की न्यायमूर्ति राजीव शकधर की दलील का समर्थन नहीं किया।

सिविल कानून

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 29 A

 11-Dec-2023

यूमैक्स प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम AIR फोर्स नेवल हाउसिंग बोर्ड, OMP (COMM)

"केवल माध्यस्थम् कार्यवाही में किसी पक्ष की भागीदारी को A एंड C अधिनियम की धारा 12(5) के तहत अधित्यजन नहीं माना जा सकता है।"

न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी ने कहा कि धारा 29(A) के तहत आवेदन दाखिल करना माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 12(5) के तहत मध्यस्थ की अपात्रता को चुनौती देने के अधिकार की लिखित अधित्यजन के समान नहीं है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्णय यूमैक्स प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम AIR फोर्स नेवल हाउसिंग बोर्ड, OMP(COMM) मामले में दिया।

यूमैक्स प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम AIR फोर्स नेवल हाउसिंग बोर्ड, OMP(COMM) मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्ता ने विभिन्न परियोजनाओं के लिये एक ही मध्यस्थ द्वारा दिये गए दो अंतिम मध्यस्थ पंचाटों को रद्द करने के लिये माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत याचिका दायर की।
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के सक्रिय कदमों के माध्यम से अंतर्निहित अधित्यजन हो सकती है, जैसे कि मध्यस्थ के अधिदेश के विस्तार के लिये धारा 29(A) के तहत आवेदन दाखिल करना और कुछ निर्णयों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता का विरोध करना, यह तर्क देते हुए कि धारा 29(A) के तहत आवेदन दाखिल करना अधित्यजन के समान है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता की आपत्तियों को अधित्यजन नहीं किया गया, याचिकाओं को स्वीकार करते हुए और पंचाटों को रद्द कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • धारा 29(A) के तहत आवेदन दाखिल करना A एंड C अधिनियम, 1996 की धारा 12(5) के तहत मध्यस्थ की अपात्रता को चुनौती देने के अधिकार की लिखित अधित्यजन के बराबर नहीं है।
  • जागरूकता और आपत्ति के अधिकार की सचेत अधित्यजन का संकेत देने वाले प्रत्यक्ष कार्य के बिना, केवल मध्यस्थता कार्यवाही में भागीदारी पर्याप्त नहीं है।

यूमैक्स प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम AIR फोर्स नेवल हाउसिंग बोर्ड, OMP(COMM) मामले के तहत क्या कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

  • धारा 29(A): माध्यस्थम् पंचाट हेतु समय सीमा:
  • (1) अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् के अतिरिक्त अन्य मामलों में पंचाट माध्यस्थम् न्यायाधिकरण द्वारा धारा 23 की उप-धारा (4) के तहत दलीलें पूरी होने की तिथि से बारह महीने की अवधि के भीतर दिया जाएगा:
  • बशर्ते कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् के मामले में पंचाट यथासंभव शीघ्रता से दिया जाए और धारा 23 की उप-धारा (4) के तहत दलीलें पूरी होने की तिथि से बारह माह की अवधि के भीतर मामले का निपटान करने का प्रयास किया जाए।
  • (2) यदि पंचाट उस तिथि से छह महीने की अवधि के भीतर दिया जाता है जब माध्यस्थम् न्यायाधिकरण संदर्भ में प्रवेश करता है, तो माध्यस्थम् न्यायाधिकरण उतनी अतिरिक्त फीस प्राप्त करने का हकदार होगा जितने पर पार्टियाँ सहमत हो सकती हैं।
  • (3) पार्टियों द्वारा, सहमति से, पंचाट देने के लिये उप-धारा (1) में निर्दिष्ट अवधि को छह महीने से अधिक की अतिरिक्त अवधि नहीं दी जाएगी।
  • (4) यदि उप-धारा (1) में निर्दिष्ट अवधि या उप-धारा (3) के तहत निर्दिष्ट विस्तारित अवधि के भीतर पंचाट नहीं दिया जाता है, तो माध्यस्थम्(ओं) का अधिदेश तब तक समाप्त हो जाएगा, जब तक कि न्यायालय ने निर्दिष्ट अवधि की समाप्ति से पहले या बाद में अवधि नहीं बढ़ा दी हो:
  • बशर्ते कि इस उप-धारा के तहत अवधि बढ़ाते समय, यदि न्यायालय को पता चलता है कि माध्यस्थम् न्यायाधिकरण से संबंधित कारणों से कार्यवाही में देरी हुई है, तो ऐसी देरी के प्रत्येक महीने के लिये वह माध्यस्थम्ओं की फीस में पाँच प्रतिशत से अधिक की कटौती का आदेश दे सकती है।
  • बशर्ते कि जहाँ उप-धारा (5) के तहत एक आवेदन लंबित है, माध्यस्थम् का आदेश उक्त आवेदन के निपटान तक जारी रहेगा:
  • बशर्ते यह भी कि फीस कम करने से पूर्व माध्यस्थम् को सुनवाई का अवसर दिया जाएगा।

(5) उप-धारा (4) में निर्दिष्ट अवधि का विस्तार किसी भी पक्ष के आवेदन पर हो सकता है तथा केवल पर्याप्त कारण और ऐसे नियमों एवं शर्तों पर दिया जा सकता है जो न्यायालय द्वारा लगाए जा सकते हैं।

 6) उप-धारा (4) में निर्दिष्ट अवधि का विस्तार करते समय, न्यायालय के पास एक या सभी मध्यस्थों को प्रतिस्थापित करने का अधिकार होगा और यदि एक या सभी मध्यस्थों को प्रतिस्थापित किया जाता है, तो मध्यस्थ कार्यवाही पूर्व से ही प्राप्त चरण से और रिकॉर्ड पर मौज़ूद साक्ष्य और सामग्री के आधार पर जारी रहेगी तथा इस धारा के तहत नियुक्त मध्यस्थों को उक्त साक्ष्य और सामग्री प्राप्त हुआ माना जाएगा।

(7) इस धारा के तहत मध्यस्थ नियुक्त किये जाने की स्थिति में, इस प्रकार पुनर्गठित मध्यस्थ न्यायाधिकरण को पहले से नियुक्त मध्यस्थ न्यायाधिकरण की निरंतरता में माना जाएगा।

(8) इस धारा के तहत किसी भी पक्ष पर वास्तविक या अनुकरणीय लागत लगाने के लिये न्यायालय खुली होगी।

(9) उप-धारा (5) के तहत दायर एक आवेदन को न्यायालय द्वारा यथासंभव शीघ्रता से निपटाया जाएगा और विपक्षी पक्ष को नोटिस दिये जाने की तिथि से साठ दिनों की अवधि के भीतर मामले को निपटाने का प्रयास किया जाएगा।

धारा 12: आक्षेप के लिये आधार:

(1) जहाँ किसी व्यक्ति से किसी मध्यस्थ के रूप में उसकी संभावित नियुक्ति के संबंध में प्रस्ताव किया जाता है तो वहाँ वह किसी ऐसी परिस्थिति को लिखित रूप में प्रकट करेगा जिससे उसकी स्वतंत्रता या निष्पक्षता के बारे में उचित शंकाएँ उठने की संभावना हो ।

(2) कोई मध्यस्थ, अपनी नियुक्ति के समय से और संपूर्ण माध्यस्थम् कार्यवाहियों के दौरान, विलंब के बिना पक्षकारों को उपधारा (1) में निर्दिष्ट किन्हीं परिस्थितियों को लिखित रूप में तब प्रकट करेगा जब तक कि उसके द्वारा उनके बारे में पहले ही सूचित न कर दिया गया हो।

स्पष्टीकरण 1: पाँचवीं अनुसूची में बताए गए आधार यह निर्धारित करने में मार्गदर्शन करेंगे कि क्या ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जो मध्यस्थ की स्वतंत्रता या निष्पक्षता के बारे में तर्कसंगत संदेह उत्पन्न करती हैं।

स्पष्टीकरण 2: प्रकटीकरण ऐसे व्यक्ति द्वारा छठी अनुसूची में निर्दिष्ट प्रपत्र में किया जाएगा।

(3) किसी मध्यस्थ पर केवल तभी आक्षेप किया जा सकेगा, यदि-

(a) ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हों जो उसकी स्वतंत्रता या निष्पक्षता के बारे में उचित शंकाओं को उत्पन्न करती हों, या

(b) उसके पास पक्षकारों द्वारा तय की गई अहर्ताएँ न हों।

(4) कोई पक्षकार, ऐसे किसी मध्यस्थ पर, जो उसके द्वारा नियुक्त हो या जिसकी नियुक्ति में उसने भाग लिया हो, केवल उन कारणों से जिनसे वह नियुक्ति किये जाने के पश्चात् अवगत होता है, आक्षेप कर सकेगा ।

(5) इसके विपरीत किसी भी पूर्व समझौते के बावजूद, कोई भी व्यक्ति जिसका संबंध, पक्षों या वकील या विवाद की विषय-वस्तु के साथ, सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट किसी भी श्रेणी के अंतर्गत आता है, मध्यस्थ के रूप में नियुक्त होने के लिये अयोग्य होगा। :

बशर्ते कि पक्ष, उनके बीच उत्पन्न होने वाले विवादों के बाद, लिखित रूप में एक स्पष्ट समझौते द्वारा इस उप-धारा की प्रयोज्यता को माफ कर सकते हैं।

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या है?

  • भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड बनाम यूनाइटेड टेलीकॉम लिमिटेड (2017):
    • दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) ने माना कि मध्यस्थ की अपात्रता पर आपत्ति किये बिना किसी पक्ष द्वारा बचाव का बयान दाखिल करना धारा 12(5) के तहत अधित्यजन के समान होगा, जो प्रतिवादी के मामले में सहायक नहीं है। अपात्रता के बारे में पता चलने के बाद अधित्यजन को लिखित रूप में व्यक्त किया जाना चाहिये।