Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

CrPC के अंतर्गत चार्जशीट से संबंधित प्रावधान

 04-Jan-2024

लक्ष्मण सिंह गुर्जर बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम एवं 2 अन्य।

"एक रिट याचिका आमतौर पर चार्जशीट के खिलाफ नहीं होती है जब तक कि यह स्थापित नहीं हो जाता है कि इसे किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा जारी किया गया था जो अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने के लिये सक्षम नहीं है।"

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड

स्रोत: राजस्थान उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय ने लक्ष्मण सिंह गुर्जर बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम और 2 अन्य के मामले में यह माना गया है कि एक रिट याचिका आमतौर पर चार्जशीट के खिलाफ नहीं होती है जब तक कि यह स्थापित नहीं हो जाता कि यह किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा जारी किया गया था जो अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने के लिये सक्षम नहीं है।

लक्ष्मण सिंह गुर्जर बनाम राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम एवं 2 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता जो एक ड्राइवर था, ने उसे जारी की गई एक चार्जशीट को चुनौती दी थी जिसमें उत्तरदाताओं द्वारा आरोप लगाए गए थे कि कुछ यात्री बिना टिकट के यात्रा करते पाए गए थे।
  • याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने कहा कि याचिकाकर्त्ता का कॅरियर खराब करने के गलत आशय से बिना किसी निश्चायक सबूत के याचिकाकर्त्ता को चार्जशीट जारी की गई थी।
  • प्रतिवादी ने कहा कि याचिकाकर्त्ता के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सत्यता का फैसला करने के लिये एक अनुशासनात्मक प्राधिकरण है, इसलिये न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने कहा कि "यह एक स्थापित कानून है कि चार्जशीट में न्यायालय द्वारा नियमित तरीके से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है"।
  • न्यायालय ने कहा कि दोषी कर्मचारी को प्रारंभिक चरण में चार्जशीट को रद्द करने की मांग करने के बजाय जाँच अधिकारी/अनुशासनात्मक प्राधिकारी के समक्ष अपना जवाब प्रस्तुत करना चाहिये और कार्यवाही के पूरा होने की प्रतीक्षा करनी चाहिये।
    • इसलिये न्यायालय ने याचिका खारिज़ कर दी।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के तहत चार्जशीट से संबंधित प्रक्रिया क्या है?

  • आरोप:
    • CrPC की धारा 2(b) के अनुसार, "आरोप" में आरोप का कोई भी प्रमुख शामिल होता है जब आरोप में एक से अधिक प्रमुख होते हैं।
  • चार्जशीट:
    • यह धारा जाँच अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट प्रस्तुत करने से संबंधित है।
    • जाँच पूरी करने के बाद, पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी मजिस्ट्रेट को लिखित रूप में एक रिपोर्ट भेजेगा।
    • रिपोर्ट में निम्नलिखित शामिल होना चाहिये:
      • पक्षकारों के नाम;
      • सूचना की प्रकृति;
      • उन व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होते हैं;
      • क्या ऐसा प्रतीत होता है कि कोई अपराध किया गया है और यदि हाँ, तो किसके द्वारा किया गया है;
      • क्या अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गया है;
      • क्या उसे उसके बॉण्ड पर रिहा किया गया है और यदि हाँ, तो क्या ज़मानत के साथ या उसके बिना;
      • क्या उसे CrPC की धारा 170 के तहत हिरासत में भेज दिया गया है।
    • अधिकारी, राज्य सरकार द्वारा निर्धारित तरीके से, अपने द्वारा की गई कार्रवाई की सूचना उस व्यक्ति, यदि कोई हो, को भी देगा, जिसके द्वारा अपराध के घटित होने से संबंधित जानकारी सबसे पहले दी गई थी।
  • मामला उद्धृत:
    • उड़ीसा राज्य बनाम संग्राम केशरी मिश्रा (2010):
      • उच्चतम न्यायालय ने माना कि आमतौर पर किसी चार्जशीट को जाँच के समापन से पहले इस आधार पर रद्द नहीं किया जाता है कि आरोप में बताए गए तथ्य गलत हैं क्योंकि आरोप की शुद्धता या सत्यता का पता लगाना अनुशासनात्मक प्राधिकारी का कार्य है।
  • ऐतिहासिक मामला:
    • के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ और अन्य (1991):
      • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि चार्जशीट CrPC की धारा 173(2) के तहत पुलिस अधिकारी की अंतिम रिपोर्ट है।

आपराधिक कानून

IPC की धारा 364A

 04-Jan-2024

नीरज शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

"व्यपहरण या अपहरण के कृत्य के लिये, अभियोजन पक्ष को फिरौती की मांग को साबित करना होगा, साथ ही अपहरण किये गए व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा भी साबित करना होगा।"

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, नीरज शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि व्यपहरण या अपहरण के कृत्य के लिये, अभियोजन पक्ष को फिरौती की मांग को साबित करना होगा, साथ ही अपहरण किये गए व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा भी साबित करना होगा।

नीरज शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ताओं ने 12वीं कक्षा के एक छात्र का अपहरण कर लिया था।
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, अपहरण फिरौती के लिये किया गया था तथा अभियुक्त द्वारा पीड़ित को मारने का कायरतापूर्ण प्रयास भी किया गया था, हालाँकि पीड़ित बच गया, लेकिन गंभीर चोटों के कारण उसका दाहिना पैर काटना पड़ा।
  • रात के दौरान, जब शिकायतकर्त्ता विश्राम कर रहा था, तो दोनों अपीलकर्त्ताओं ने मोटरसाइकिल के क्लच वायर से उसकी गर्दन दबाकर उसे मारने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप, शिकायतकर्त्ता बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया और अपीलकर्त्ताओं ने यह सोचकर कि शिकायतकर्त्ता मर गया है, उसके शरीर पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी।
  • शिकायतकर्त्ता भागने में सफल रहा व उसे अस्पताल ले जाया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ताओं को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364A के तहत अपराध के लिये दोषी ठहराया, जिसे छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा है।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
  • अपील को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि अभियोजन पक्ष को उचित संदेह से परे न्यायालय के समक्ष जिन आवश्यक तत्त्वों को साबित करना होगा, उनमें न केवल व्यपहरण या अपहरण का कृत्य शामिल है, बल्कि उसके बाद फिरौती की मांग के साथ-साथ व्यपहरण या अपहरण किये गए व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा भी शामिल है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि धारा 364A के दायरे में आने के लिये अपहरण से ज़्यादा फिरौती की मांग जैसे कुछ और कृत्य होने चाहिये, हमें नहीं लगता कि फिरौती की मांग की गई थी जैसा कि अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया है। इस संबंध में अभियोजन पक्ष द्वारा कोई सार्थक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।
  • इसलिये न्यायालय ने धारा 364A के तहत दोषसिद्धि के निष्कर्षों को IPC की धारा 364 में बदल दिया।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 364A:

  • IPC की धारा 364A फिरौती के लिये अपहरण आदि के अपराध से संबंधित है।
  • यह धारा 22 मई, 1993 से भारतीय दंड संहिता में शामिल की गई थी।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करेगा या ऐसे व्यपहरण या अपहरण के पश्चात् ऐसे व्यक्ति को निरोध में रखेगा और ऐसे व्यक्ति को मृत्यु कारित करने या उपहति करने के लिये धमकी देगा या अपने इस आचरण से ऐसी युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न करेगा कि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या उपहति की जा सकती है या कोई कार्य करने या कोई कार्य करने से प्रविरत रहने के लिये या मुक्ति धन देने के लिये सरकार या किसी विदेशी राज्य या अंतर्राष्ट्रीय अंतर सरकारी संगठन या किसी अन्य व्यक्ति को विवश करने के लिये ऐसे व्यक्ति को उपहति करेगा या मृत्यु कारित करेगा, वह मृत्यु से या आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा, और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।
  • विक्रम सिंह बनाम भारत संघ, (2015) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 364A के तीन अलग-अलग घटक हैं।
    • संबंधित व्यक्ति व्यपहरण या अपहरण कर लेता है या व्यपहरण या अपहरण के बाद पीड़ित को हिरासत में रखता है।
    • मौत या चोट पहुँचाने की धमकी देता है या मौत या चोट पहुँचाने की आशंका उत्पन्न करता है या वास्तव में चोट पहुँचाता है या मौत का कारण बनता है।
    • व्यपहरण, अपहरण या हिरासत और मौत या चोट की धमकी, ऐसी मौत या चोट या वास्तविक मौत या चोट की आशंका संबंधित व्यक्ति या किसी और को कुछ करने के लिये मज़बूर करने या कुछ करने से रोकने या फिरौती देने के लिये की जाती है।

IPC की धारा 364:

  • यह धारा हत्या के लिये व्यपहरण या अपहरण से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जो भी कोई किसी व्यक्ति की हत्या करने के लिये उसका व्यपहरण या अपहरण करे या उस व्यक्ति को ऐसे व्यवस्थित करे कि उसे अपनी हत्या होने का खतरा हो जाए, तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिये कठिन कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिये भी उत्तरदायी होगा।

सिविल कानून

प्रसूति के दौरान महिलाओं के अधिकार

 04-Jan-2024

लोरेटो कॉन्वेंट तारा हॉल स्कूल की प्रबंध समिति के सचिव बनाम शारू गुप्ता और अन्य

"बच्चे की देखभाल करना न केवल महिला का मौलिक अधिकार है बल्कि समाज के अस्तित्व के लिये उसके द्वारा निभाई जाने वाली एक पवित्र भूमिका भी है।"

न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर

स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लोरेटो कॉन्वेंट तारा हॉल स्कूल की प्रबंध समिति के सचिव बनाम शारू गुप्ता और अन्य के मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना है कि बच्चे की देखभाल करना न केवल महिला का मौलिक अधिकार है बल्कि समाज के अस्तित्व के लिये उसके द्वारा निभाई जाने वाली एक पवित्र भूमिका भी है।

लोरेटो कॉन्वेंट तारा हॉल स्कूल की प्रबंध समिति के सचिव बनाम शारू गुप्ता और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में प्रतिवादी को याचिकाकर्त्ता स्कूल में संविदा के आधार पर सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • उसे परिवीक्षा पर नियुक्त किया गया था और बाद में उसकी सेवाएँ समाप्त कर दी गईं।
  • बच्चे के जन्म के बाद, प्रतिवादी ने समाप्ति आदेश को रद्द करने के लिये श्रम निरीक्षक के समक्ष प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961 की धारा 17 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
  • प्राधिकृत निरीक्षक ने शिकायत स्वीकार की और प्रतिवादी को बहाल करने तथा उसे प्रसूति प्रसुविधा का भुगतान करने के निर्देश जारी किये।
  • इससे व्यथित होकर याचिकाकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय में अपील की जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर की एकल पीठ ने कहा कि गर्भधारण करना, बच्चे को जन्म देना और उसकी देखभाल करना न केवल महिला का मौलिक अधिकार है, बल्कि समाज के अस्तित्व के लिये उसके द्वारा निभाई जाने वाली एक अहम भूमिका भी है। इस कर्त्तव्य की कठिन प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, उसे वे सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिये जिनकी वह हकदार है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि माँ बनने का अधिकार भी सबसे महत्त्वपूर्ण मानवाधिकारों में से एक है और इस अधिकार की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिये तथा इसलिये, प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम के प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिये।

प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?

प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961:

परिचय:

  • यह प्रसवपूर्व या प्रसवोत्तर अवधि के लिये कुछ संस्थानों में महिलाओं के रोज़गार को विनियमित करने और प्रसूति प्रसुविधा तथा कुछ अन्य लाभ प्रदान करने के लिये एक अधिनियम है।
  • यह अधिनियम कामकाजी महिलाओं को सम्मानजनक तरीके से सभी सुविधाएँ प्रदान करने के लिये बनाया गया है ताकि वह प्रसवपूर्व या प्रसवोत्तर अवधि के दौरान जबरन अनुपस्थिति के कारण पीड़ित होने के डर से सम्मानजनक, शांतिपूर्वक और बिना डरे मातृत्व की स्थिति से उबर सके।
  • यह अधिनियम 1 नवंबर, 1963 को लागू हुआ।
  • इस अधिनियम की धारा 17 संदाय किये जाने का निदेश देने की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1) इस बात का दावा करने वाली कोई भी स्त्री कि-

(a) प्रसूति प्रसुविधा या कोई अन्य रकम, जिसका वह इस अधिनियम के अधीन हकदार है, अनुचित रूप से विधारित की गई है, और इस बात का दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति कि वह संदाय, जो धारा 7 के अधीन शोध्य है, अनुचित रूप से विधारित किया गया है।

(b) उसके नियोजक ने इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार, काम से उसकी अनुपस्थिति के दौरान या उसके कारण, उसको सेवोंमुक्त या पदच्युत कर दिया है, निरीक्षक को परिवाद कर सकेगी।

(2) निरीक्षक, स्वप्रेरणा से या उपधारा (1) में निर्दिष्ट परिवाद की प्राप्ति पर, जाँच कर सकेगा या करा सकेगा और यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि-

(a) संदाय सदोषतः विधारित किया गया है, तो वह अपने आदेशों के अनुसार संद्दय किये जाने का निदेश दे सकेगा।

(b) स्त्री को इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार काम से पदच्युततो वह ऐसे आदेश पारित कर सकेगा, जो मामले की परिस्थितियों के अनुसार न्यायसंगत और उचित हों।

(3) निरीक्षक के उपधारा (2) के अधीन के विनिश्चय से व्यथित कोई भी व्यक्ति, उस तारीख से जिसको ऐसा विनिश्चय ऐसे व्यक्ति को संसूचित किया जाए, तीस दिन के भीतर अपील विहित प्राधिकारी को कर सकेगा।

(4) जहाँ उपधारा (3) के अधीन अपील विहित प्राधिकारी को की गई हो, वहाँ उसका, और जहाँ ऐसी अपील न की गई हो, वहाँ निरीक्षक का विनिश्चय अंतिम होगा।

(5) इस धारा के अधीन संदेय रकम कलेक्टर द्वारा, निरीक्षक द्वारा उस रकम के लिये जारी किये गए प्रमाणपत्र पर, भू-राजस्व की बकाया की भांति वसूलीय होगी।

निर्णयज विधि:

  • दिल्ली नगर निगम बनाम महिला कर्मचारी (मस्टर रोल) (2000) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि माँ बनना एक महिला के जीवन में सबसे स्वाभाविक घटना है और इसके लिये, कामकाजी महिला को उसकी सेवा के साथ-साथ लाभों के विस्तार के संबंध में सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से लाभकारी कानून यानी प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961 लागू किया गया है।