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आपराधिक कानून

घरेलू हिंसा की शिकायत

 09-Jan-2024

श्रीमती ज़ेबा मोहसिन पठान @ ज़ेबा ईसाक पठान एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य

"घरेलू हिंसा से महिला सुरक्षा अधिनियम, 2005 के तहत एक सास द्वारा अपनी बहू के खिलाफ दायर की गई शिकायत संधार्य है।"

न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने श्रीमती ज़ेबा मोहसिन पठान @ ज़ेबा इसाक पठान एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में माना है कि एक सास द्वारा अपनी बहू के खिलाफ घरेलू हिंसा से महिला सुरक्षा अधिनियम, 2005 (DV अधिनियम) के प्रावधानों के तहत दायर की गई शिकायत संधार्य है।

श्रीमती ज़ेबा मोहसिन पठान @ ज़ेबा ईसाक पठान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ता, ज़ेबा, प्रतिवादी, आफरीन की बहू है।
  • ज़ेबा ने मई 2016 में आफरीन के बेटे मोहसिन से शादी की थी।
  • ज़ेबा के मुताबिक, उसके पति और उसके परिवार ने उसके साथ बहुत ज़्यादा दुर्व्यवहार और क्रूरता की।
  • इसलिये उसे मोहसिन और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ संबंधित पुलिस अधिकारियों के पास शिकायत दर्ज कराने के लिये मजबूर होना पड़ा।
  • अपने वैवाहिक घर में घरेलू हिंसा की शिकायत करते हुए, उसने अपने पति, सास, ससुर और सास के भाई के खिलाफ DV अधिनियम के तहत एक आवेदन भी दिया।
  • प्रतिवादी ने ज़ेबा, उसके पिता और भाई के खिलाफ DV अधिनियम की धारा 12 के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी के न्यायालय में अनुतोष की मांग करते हुए आवेदन दायर किया।
  • इसके बाद, न्यायालय ने ज़ेबा और उसके परिवार के सदस्यों को समन जारी किया, जिन्होंने शिकायत और समन को बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी थी।
  • उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के परिवार के सदस्यों के खिलाफ शिकायत को खारिज़ कर दिया लेकिन यह माना कि ज़ेबा के खिलाफ शिकायत संधार्य है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले ने कहा कि हालाँकि DV अधिनियम का लक्ष्य और उद्देश्य एक महिला को घरेलू हिंसा से बचाना है, लेकिन यह सास को DV अधिनियम के तहत अपनी बहू के पिता और भाई पर मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं देता है।
  • न्यायालय ने यह कहते हुए पिता और भाई के खिलाफ कार्यवाही रद्द कर दी कि शिकायतकर्त्ता कोई घरेलू संबंध दिखाने में विफल रही। हालाँकि, न्यायालय ने यह मानते हुए कि दोनों पक्ष विवाह से संबंधित थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहने वाले परिवार के सदस्य थे, बहू के खिलाफ शिकायत को रद्द करने से इनकार कर दिया

प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

DV अधिनियम:

  • यह महिलाओं को सभी प्रकार की घरेलू हिंसा से बचाने के लिये बनाया गया एक सामाजिक लाभकारी कानून है।
  • यह उन महिलाओं के अधिकारों की प्रभावी सुरक्षा प्रदान करता है जो परिवार के भीतर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा से पीड़ित हैं।
  • इस अधिनियम की प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है कि अधिनियम की पहुँच यह है कि हिंसा, चाहे शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक या आर्थिक हो, सभी का निवारण कानून द्वारा किया जाना है।

DV अधिनियम की धारा 12:

यह धारा मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1) कोई व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति, इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिये मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा।

परंतु मजिस्ट्रेट, ऐसे आवेदन पर कोई आदेश पारित करने से पहले, किसी संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता से उसके द्वारा प्राप्त, किसी घरेलू हिंसा की रिपोर्ट पर विचार करेगा।

(2) उपधारा (1) के अधीन ईप्सित किसी अनुतोष में वह अनुतोष भी सम्मिलित हो सकेगा जिसके लिये किसी प्रत्यार्थी द्वारा की गई घरेलू हिंसा के कार्यों द्वारा कारित की गई क्षतियों के लिये प्रतिकर या नुकसान के लिये वाद संस्थित करने के ऐसे व्यक्ति के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, किसी प्रतिकर या नुकसान के संद्दय के लिये कोई आदेश जारी किया जाता है।

परंतु जहाँ किसी न्यायालय द्वारा, प्रतिकर या नुकसानी के रूप में किसी रकम के लिये, व्यथित व्यक्ति के पक्ष में कोई डिक्री पारित की गई है यदि इस अधिनियम के अधीन, मजिस्ट्रेट द्वारा किये गए किसी आदेश के अनुसरण में कोई रकम संदत्त की गई है या संदेय है तो ऐसी डिक्री के अधीन संदेय रकम के विरुद्ध मुजरा होगी और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, वह डिक्री, इस प्रकार मुजरा किया जाने के पश्चात् अतिशेष रकम के लिये, यदि कोई हो, निष्पादित की जाएगी।

(3) उपधारा (1) के अधीन प्रत्येक आवेदन, ऐसे प्रारूप में और ऐसी विशिष्टयाँ जो विहित की जाएँ या यथासंभव उसके निकटम रूप में अंतर्विष्ट होगा।

(4) मजिस्ट्रेट, सुनवाई की पहली तारीख नियत करेगा, जो न्यायालय द्वारा आवेदन की प्राप्ति की तारीख से सामान्यतः तीन दिन से अधिक नहीं होगी।

(5) मजिस्ट्रेट, उपधारा (1) के अधीन दिये गए प्रत्येक आवेदन का, प्रथम सनुवाई की तारीख से साठ दिन की अवधि के भीतर निपटारा करने का प्रयास करेगा।


वाणिज्यिक विधि

समझौता विलेख के पश्चात् धारा 138 की शिकायत को रद्द करना

 09-Jan-2024

घनश्याम गौतम बनाम उषा रानी (मृतक) L.R.S रविशंकर के माध्यम से

"एक बार जब पार्टियों के बीच समझौता विलेख निष्पादित हो जाता है, तो चेक के अनादरण की शिकायत को रद्द कर दिया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने उस स्थिति का अवलोकन किया जहाँ परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत एक शिकायत को रद्द किया जा सकता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी घनश्याम गौतम बनाम उषा रानी (मृतक), L.R.S रविशंकर के माध्यम से, के मामले में दी।

घनश्याम गौतम बनाम उषा रानी (मृतक) L.R.S रविशंकर के माध्यम से मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • NI एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही कर अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया गया।
  • इस बीच, पक्षकारों ने अपना हिसाब बराबर कर लिया था और 16 जनवरी, 2018 को एक समझौता विलेख दायर किया था, जिसके अनुसार, प्रतिवादी-शिकायतकर्त्ता चेक राशि और ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए ज़ुर्माने के पूर्ण व अंतिम निपटान के रूप में 1,14,000/- रुपए (एक लाख और चौदह हज़ार रुपए) की राशि स्वीकार करने के लिये सहमत हुए, जिसकी पुष्टि उच्च न्यायालय ने की थी।
  • फिर भी, प्रतिवादी पक्ष की ओर से किसी ने भी न्यायालय को जानकारी प्रस्तुत नहीं की क्योंकि मामला 2018 से अभी भी लंबित है।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “एक बार जब समझौता हो जाता है तथा शिकायतकर्त्ता द्वारा डिफॉल्ट राशि और ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई ज़ुर्माना राशि के पूर्ण और अंतिम निपटान में एक विशेष राशि स्वीकार करते हुए विलेख पर हस्ताक्षर कर दिया जाता है, तो NI अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही को रद्द करना चाहिये।”
  • न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली।

परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 क्या है?

  • परिचय:
    • NI अधिनियम की धारा 138 विशेष रूप से अपर्याप्त धनराशि के कारण या लेखीवाल के खाते से भुगतान की जाने वाली राशि से अधिक होने पर चेक का अनादरण करने के अपराध से संबंधित है।
    • यह उस प्रक्रिया से संबंधित है जहाँ किसी ऋण को पूरी तरह या आंशिक रूप से चुकाने के लिये लेखीवाल द्वारा जारी किया जाता है और चेक बैंक को वापस कर दिया जाता है।
  • महत्त्वपूर्ण तत्त्व:
    • लेखीवाल का दायित्व:
      • चेक बाउंस/अस्वीकृत चेक होने पर लेखीवाल आपराधिक रूप से उत्तरदायी हो जाता है।
      • अंतर्निहित लेनदेन की प्रकृति से परे आपराधिक दायित्व स्थापित किया जाता है।
    • अपराध के लिये शर्तें:
      • आवश्यक शर्तों में ऋण या अन्य देनदारी का अस्तित्व, चेक जारी करना और उसके बाद उसका अनादरण शामिल है।
      • यदि लेखीवाल के पास पर्याप्त धनराशि है, लेकिन किसी अन्य कारण से चेक अनादरित हो गया है, तो यह अपराध लागू नहीं होता है।
  • अभियोजन की प्रक्रिया:
    • लेखीवाल को नोटिस:
      • भुगतान प्राप्तकर्त्ता को अनादरण के 30 दिनों के भीतर भुगतान की मांग करते हुए एक नोटिस जारी करना चाहिये।
      • स्थिति को सुधारने के लिये लेखीवाल के पास 15 दिन का समय होता है, अन्यथा कानूनी कार्रवाई शुरू की जा सकती है।
    • शिकायत दर्ज करने की समय सीमा:
      • धारा 138 के तहत शिकायत 15 दिन की नोटिस अवधि समाप्त होने के एक महीने के भीतर दर्ज की जानी चाहिये।
    • शिकायत दर्ज करने का क्षेत्राधिकार:
      • शिकायत उस न्यायालय में दायर की जा सकती है जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में भुगतान प्राप्तकर्त्ता का बैंक स्थित है।
  • सज़ा:
    • कारावास:
      • धारा 138 के तहत दोषसिद्धि होने पर दो वर्ष तक का कारावास हो सकता है।
    • ज़ुर्माना:
      • लेखीवाल को ज़ुर्माना देना पड़ सकता है जो चेक या ऋण की राशि का दोगुना तक हो सकता है।
  • ऐतिहासिक मामला:
    • डालमिया सीमेंट (भारत) लिमिटेड बनाम गैलेक्सी ट्रेडर्स एंड एजेंसीज़ लिमिटेड (2001):
      • उच्चतम न्यायालय ने माना कि जिस तिथि को फैक्स द्वारा भेजा गया नोटिस चेक लेखीवाल के पास पहुँचा, उस दिन 15 दिनों की अवधि (जिसके भीतर उसे भुगतान करना होता है) शुरू हो गई थी और अवधि की समाप्ति पर अपराध हो गया था, जब तक कि इस अवधि में राशि का भुगतान न कर दिया गया हो।