Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 243(2)

 12-Jan-2024

दिवाकर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

"जब तक मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये यह आवश्यक है, तब तक मजिस्ट्रेट पहले से जाँचे गए अभियोजन पक्ष के गवाहों को दोबारा पेश होने के लिये बाध्य नहीं कर सकता।"

न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, दिवाकर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 243(2) के प्रावधानों के अनुसार, जब तक मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये यह आवश्यक है, तब तक मजिस्ट्रेट पहले से जाँचे गए अभियोजन पक्ष के गवाहों को दोबारा पेश होने के लिये बाध्य नहीं कर सकता।

दिवाकर सिंह बनाम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • याचिकाकर्त्ता को पुलिस उप-निरीक्षक के रूप में तैनात किया गया था, और उसने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की थी।
  • पुलिस ने मामले की जाँच की और उसमें नामित व्यक्तियों के खिलाफ नहीं बल्कि याचिकाकर्त्ता के खिलाफ चार्जशीट दायर की, जिसमें कहा गया कि याचिकाकर्त्ता ने अपने अज्ञात सहयोगियों के साथ लूट की फर्ज़ी घटना दिखाने की साज़िश रची और उसने झूठी घटना को असली दिखाने के लिये झूठे कागज़ात भी तैयार किये।
  • अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पुरे होने के बाद, याचिकाकर्त्ता ने न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिये कुछ गवाहों जिनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल थे, को बुलाने के लिये न्यायालय से अनुरोध करते हुए आवेदन दायर किया और ट्रायल कोर्ट ने उसके दोनों आवेदनों को खारिज़ कर दिया।
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता द्वारा एक आपराधिक पुनरीक्षण को प्राथमिकता दी गई जिसे आंशिक रूप से अनुमति दी गई थी।
  • पुनरीक्षण न्यायालय के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जो अभी भी लंबित है।
  • उच्च न्यायालय के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान, ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर आवेदनों को अनुमति दी। हालाँकि, आदेश को पुनरीक्षण न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट को एक नया तर्कसंगत आदेश पारित करने के निर्देश के साथ रद्द कर दिया था।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 227 के तहत एक याचिका दायर की गई है, जिसमें उस आदेश को रद्द करने की मांग की गई है जिसके द्वारा आवेदन खारिज़ कर दिये गए थे, साथ ही न्यायालय को उचित निर्देश जारी करने की भी मांग की गई। बाद में यह याचिका खारिज़ कर दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा ने कहा कि कानून यह प्रावधान करता है कि आमतौर पर पहले मामले में मजिस्ट्रेट प्रक्रिया जारी कर सकता है जब तक कि वह यह नहीं मानता कि इस तरह के आवेदन को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिये कि यह परेशान करने या विलंब करने या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के लिये किया गया है।
    • दूसरे मामले में (अर्थात्, जब किसी व्यक्ति से बचाव पक्ष द्वारा पहले ही जिरह की जा चुकी हो), ऐसे गवाह की उपस्थिति के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि मजिस्ट्रेट संतुष्ट न हो जाए कि यह न्याय के लिये आवश्यक है।
  • न्यायालय ने आगे निष्कर्ष निकाला कि CrPC की धारा 243(2) मजिस्ट्रेट को बाध्य करती है कि वह ऐसे किसी भी गवाह को उपस्थित होने के लिये बाध्य न करे जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि यह न्याय के लिये आवश्यक है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 243:

  • CrPC की धारा 243 प्रतिरक्षा के लिये साक्ष्य से संबंधित है जबकि यही प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 266 के तहत शामिल किया गया है।
  • धारा 243(1) में कहा गया है कि अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे तथा अपना साक्ष्य पेश करे; और यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो मजिस्ट्रेट उसे अभिलेख में फाइल करेगा।
  • धारा 243(2) में कहा गया है कि यदि अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट से आवेदन करता है कि वह परीक्षा या प्रतिरक्षा के, या कोई दस्तावेज़ या अन्य चीज़ पेश करने के प्रयोजन से हाज़िर होने के लिये किसी साक्षी को विवश करने के लिये कोई आदेशिका जारी करे तो, मजिस्ट्रेट ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उस का यह विचार न हो कि ऐसा आवेदन इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया जाना चाहिये कि वह तंग करने के या विलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है, और ऐसा कारण उसके द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा
  • धारा 243(2) गवाहों की दो श्रेणियों से संबंधित है-
  • नए गवाह जिन्हें बचाव पक्ष पेश करना चाहता है।
  • वे गवाह जिन्हें अभियोजन साक्ष्य के दौरान पहले ही पेश किया जा चुका है, लेकिन बचाव पक्ष आगे की जाँच/ज़िरह करना चाहता है।
  • धारा 243(3) में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अधीन किसी आवेदन पर किसी साक्षी को समन करने के पूर्व यह अंपेक्षा कर सकता है कि विचारण के प्रयोजन के लिये हाज़िर होने में उस साक्षी द्वारा किये जाने वाले उचित व्यय न्यायालय में जमा कर दिये जाएँ।

COI का अनुच्छेद 227:

यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा।

(2) पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय-

(a) ऐसे न्यायालयों से विवरण मंगा सकेगा;

(b) ऐसे न्यायालयों की पद्धति और कार्यवाहियों के विनियमन के लिये साधारण नियम व प्रारूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा;

(c) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रारूप विहित कर सकेगा

(3) उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियाँ भी स्थिर कर सकेगा, जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को तथा सभी लिपिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-व्यावसाय करने वाले अटर्नियों, अधिवक्ताओं एवं प्लीडरों को अनुज्ञेय होंगी।

(4) इस अनुच्छेद की कोई बात उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण पर अधीक्षण की शक्तियाँ देने वाली नहीं समझी जाएगी


आपराधिक कानून

CrPC की धारा 319

 12-Jan-2024

गुरदेव सिंह भल्ला बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य

"इस मामले में, भ्रष्टाचार के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 319 के तहत दायर एक अर्ज़ी को बरकरार रखा।”

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और राजेश बिंदल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने गुरदेव सिंह भल्ला बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य के मामले में भ्रष्टाचार के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 319 के तहत दायर एक आवेदन को बरकरार रखा है।

गुरदेव सिंह भल्ला बनाम पंजाब राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में, पंजाब एग्रो फूडग्रेन कॉर्पोरेशन लिमिटेड, बठिंडा ने पुलिस स्टेशन, फूल, ज़िला बठिंडा में अभियुक्त देवराज मिगलानी के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अपराध की शिकायत दर्ज की।
  • इस मामले की जाँच सतर्कता ब्यूरो, बठिंडा को स्थानांतरित कर दी गई, जहाँ अपीलकर्त्ता (गुरदेव सिंह भल्ला) को एक इंस्पेक्टर के रूप में तैनात किया गया था और उन्हें उक्त अपराध की जाँच का कार्य सौंपा गया था, उन्होंने अभियुक्त देवराज को गिरफ्तार कर लिया गया था।
  • वर्तमान मामले के सूचक (informant) के अनुसार, हेड कांस्टेबल किक्कर सिंह ने अभियुक्त देवराज की भतीजी सुश्री ऋतु से उसके कार्यस्थल पर संपर्क किया और एक पर्ची देकर 50,000/- रुपए की मांग की, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे अभियुक्त देवराज द्वारा लिखा हुआ था।
  • इसमें पाया गया कि प्रथम दृष्टया हेड कांस्टेबल किक्कर सिंह के विरुद्ध आरोप बनता है।
  • ट्रायल कोर्ट ने CrPC की धारा 319 के तहत आवेदन को स्वीकार कर लिया और चार पुलिस अधिकारियों जनक सिंह, गुरदेव सिंह भल्ला, हरजिंदर सिंह एवं राजवंत सिंह को तलब किया।
  • अपीलकर्त्ता ने उपर्युक्त आदेश को चंडीगढ़ में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।
  • इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जिसे बाद में खारिज़ कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ-

  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि इसे अपीलकर्त्ता के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिये रिकॉर्ड पर प्रथम दृष्टया साक्ष्य प्रतीत होते हैं।
    • न्यायालय ने भ्रष्टाचार के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 319 के तहत दायर एक आवेदन को बरकरार रखा। इस प्रकार, न्यायालय विवादित आदेश में हस्तक्षेप करने का इच्छुक नहीं है।
  • न्यायालय ने आगे यह स्पष्ट कर दिया कि इस आदेश में की गई कोई भी टिप्पणी ट्रायल कोर्ट के सामने प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर अपनी योग्यता के अनुसार मुकदमे का निर्णय लेने में बाधा नहीं बनेगी, जो इस निर्णय से पूर्ण रूप से अप्रभावित है।

CrPC की धारा 319:

परिचय:

  • CrPC की धारा 319 अपराध के लिये दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करने की शक्ति से संबंधित है, जबकि इसी प्रावधान को धारा 358 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के तहत कवर किया गया है।
  • यह सिद्धांत ज्यूडेक्स दमनतुर कम नोसेंस एब्सोलविटुर (judex damantur cum nocens absolvitur) पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि दोषी को बरी कर दिये जाने पर न्यायाधीशों की निंदा की जाती है। यह खंड बताता है कि-

(1) जहाँ किसी अपराध की जाँच या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति ने, जो अभियुक्त नहीं है, कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिये ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचारण किया जा सकता है, वहाँ न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिये जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है, कार्यवाही कर सकता है।

(2) जहाँ ऐसा व्यक्ति न्यायालय में हाज़िर नहीं है वहाँ पूर्वोक्त प्रयोजन के लिये उसे मामले की परिस्थितियों की अपेक्षानुसार, गिरफ्तार या समन किया जा सकता है

(3) कोई व्यक्ति जो गिरफ्तार या समन न किये जाने पर भी न्यायालय में हाज़िर है, ऐसे न्यायालय द्वारा उस अपराध के लिये, जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है, जाँच या विचारण के प्रयोजन के लिये निरुद्ध किया जा सकता है।

(4) जहाँ न्यायालय किसी व्यक्ति के विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन कार्यवाही करता है, वहाँ-

(a) उस व्यक्ति के बारे में कार्यवाही फिर से प्रारंभ की जाएगी और साक्षियों को फिर से सुना जाएगा;

(b) खंड (a) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, मामले में ऐसे कार्यवाही की जा सकती है, मानो वह व्यक्ति उस समय अभियुक्त व्यक्ति था जब न्यायालय ने उस अपराध का संज्ञान किया था जिस पर जाँच या विचारण प्रारंभ किया गया था

धारा 319 के आवश्यक तत्त्व:

  • किसी अपराध की कोई जाँच या मुकदमा चल रहा हो।
  • साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता हो, कि किसी व्यक्ति ने, अभियुक्त न होते हुए कोई अपराध किया हो, जिसके लिये उस व्यक्ति पर अभियुक्त के साथ मिलकर मुकदमा चलाए जाने योग्य हो।

निर्णयज विधि:

  • हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 319 इस सिद्धांत पर आधारित है, कि निर्दोष को दंडित नहीं किया जाए, साथ ही वास्तविक अपराधी को बचने की अनुमति न दी जाए।
  • लाल सूरज @ सूरज सिंह एवं अन्य बनाम झारखंड राज्य (2008) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 319 एक विशेष प्रावधान है। इसके तहत एक असाधारण स्थिति से निपटने का प्रयास किया गया है। हालाँकि यह व्यापक आयाम प्रदान करता है, लेकिन इसका प्रयोग संयमित ढंग से करना आवश्यक है।

सांविधानिक विधि

हेवी ड्यूटी वाहनों के लिये नीति निर्धारण हेतु दिशा-निर्देश

 12-Jan-2024

कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम अजय खेड़ा एवं अन्य

न्यायालय ने भारत सरकार को हेवी ड्यूटी वाले डीज़ल वाहनों को चरणबद्ध तरीके से हटाने और उन्हें BS-6 वाहनों से बदलने की नीति बनाने के निर्देश दिये।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने भारतीय सरकार को हेवी ड्यूटी वाले डीज़ल वाहनों को चरणबद्ध तरीके से हटाने और उन्हें BS-VI वाहनों से परिवर्तित करने की नीति तैयार करने के निर्देश दिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम अजय खेड़ा एवं अन्य के मामले में निर्देश दिये।

कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम अजय खेड़ा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • पहले प्रतिवादी ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 (NGT अधिनियम) की धारा 15 व धारा 18(1) के साथ पठित धारा 14 के तहत मूल आवेदन दायर किया और तुगलकाबाद में अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (ICD) द्वारा उत्पन्न प्रदूषण का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया।
    • आवेदन में यह आरोप लगाया गया था कि उक्त ICD का उपयोग उन ट्रकों/ट्रेलरों द्वारा किया जाता है जो दिल्ली के लिये नियत नहीं हैं और इसका उपयोग दिल्ली के बाहर के स्थानों से डिलीवरी/पिकअप के लिये किया जाता है।
  • पहले प्रतिवादी ने बताया कि उक्त ICD में बड़ी संख्या में ट्रकों/ट्रेलरों के आने के कारण, ट्रकों/ट्रेलरों से धुएँ के उत्सर्जन के कारण दिल्ली NCR में वायु प्रदूषण काफी बढ़ गया है।
    • उसने तर्क दिया कि दिल्ली के आसपास अन्य ICD हैं, और इसलिये, ट्रकों/ट्रेलरों की आमद को दिल्ली NCR के आसपास अन्य ICD की ओर डाइवर्ट करना संभव है।
    • इसलिये, पहले प्रतिवादी ने अपीलकर्ता कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड और रेलवे बोर्ड को तुगलकाबाद में उक्त ICD के संचालन को स्थानांतरित करने का निर्देश देने की मांग की, जो दिल्ली के लिये बाध्य नहीं हैं, उन्हें दिल्ली के बाहर अन्य स्थानों पर स्थानांतरित किया जाए।
  • दूसरा निर्देश उक्त ICD, तुगलकाबाद में कंटेनरों/ट्रेलरों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना था, जो दिल्ली के लिये बाध्य नहीं हैं और केवल CNG संचालित/बैटरी चालित फोर्कलिफ्ट/खाली हैंडलर तथा छोटे वाहनों, साथ ही उक्त ICD के अंदर और बाहर डीज़ल इंजनों के बजाय इलेक्ट्रिक ट्रेनें चलाने का उपयोग करना था।
  • NGT ने एक आदेश पारित कर अपीलकर्त्ता को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि, चरणबद्ध तरीके से डीज़ल वाहन ICD में आना बंद कर दें और इलेक्ट्रिक, हाइब्रिड एवं CNG वाहनों में परिवर्तित हो जाएँ।
    • NGT के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण (EPCA) को अपील में उठाए गए मुद्दों पर गौर करने और अपनी सिफारिशों वाली एक रिपोर्ट दाखिल करने के निर्देश दिये थे।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश, EPCA द्वारा 30 जून, 2020 को प्रस्तुत की गई रिपोर्ट में की गई सिफारिशों पर आधारित हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि NGT ने अन्य बातों के साथ-साथ आकलन किया है कि दिल्ली NCR में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये इन वाहनों को दादरी, रेवाड़ी, बल्लभगढ़, खटुआवास या दिल्ली के आसपास किसी अन्य ICD में डायवर्ट करके तुगलकाबाद में उक्त ICD में डीज़ल वाहनों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का एक विकल्प है जैसे कि केवल दिल्ली NCR में रहने वाले लोग ही प्रदूषण मुक्त वातावरण के हकदार हैं, न कि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोग।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि NGT की इस तरह की टिप्पणी इस तथ्य को पूरी तरह से अनदेखा करती है कि दिल्ली NCR के अलावा देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले नागरिकों को भी प्रदूषण मुक्त वातावरण का मौलिक अधिकार है, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटी दी गई है।
    • ऐसा मौलिक अधिकार सभी के लिये समान रूप से प्रवर्तनीय है और यह केवल दिल्ली NCR के लोगों तक ही सीमित नहीं है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि NGT दिल्ली NCR के लोगों के उपर्युक्त मौलिक अधिकारों की रक्षा/सुरक्षा करते हुए दिल्ली NCR के बाहर रहने वाले नागरिकों के समान मौलिक अधिकार के उल्लंघन की अनुमति नहीं दे सकती है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अंततः NGT की टिप्पणी को पूरी तरह से अनुचित और निराधार माना।

उच्चतम न्यायालय द्वारा क्या निर्देश दिये गए?

  • सिफारिशों की जाँच करने के बाद, भारत सरकार हेवी-ड्यूटी डीज़ल वाहनों को चरणबद्ध तरीके से हटाने और उनकी जगह BS­-VI वाहनों को लाने की नीति बनाएगी। भारत संघ आदेश की तिथि से छह महीने के भीतर इस संबंध में उचित नीति तैयार करेगा;
  • हालाँकि इस मामले में भारत सरकार पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के माध्यम से एक पार्टी है, लेकिन सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय को औपचारिक रूप से एक पार्टी नहीं बनाया गया है।
    • इसलिये न्यायालय ने रजिस्ट्री को इस आदेश की एक प्रति सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव को भेजने का निर्देश दिया।
  • हेवी ड्यूटी वाहनों के उपयोग के लिये CNG/हाइब्रिड/इलेक्ट्रिक सहित बेहतर स्रोत खोजने की संभावना तलाशने की प्रक्रिया जारी रहेगी।
  • सिफारिश संख्या 3.2 के अनुसार दिल्ली के आसपास ICD के इष्टतम उपयोग की योजना अपीलकर्त्ता द्वारा आदेश की तिथि से छह महीने के भीतर तैयार की जाएगी।
    • इस बीच, अपीलकर्त्ता दिल्ली NCR के आसपास ICD के पास केंद्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना को सक्षम करने के लिये सभी आधिकारिक एजेंसियों के साथ समन्वय करेगा;
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को उक्त ICD में वाहनों के पार्किंग प्रबंधन में सुधार के लिये फरवरी 2021 में KPMG द्वारा की गई सिफारिशों को लागू करने का निर्देश दिया।
    • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को KPMG की सिफारिशों को लागू करने के लिये छह महीने का समय दिया।