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सांविधानिक विधि
ऋण पुनर्भुगतान की सुरक्षा के रूप में OCI कार्ड को बंधक न बनाना
17-Jan-2024
P बनाम Q "याचिकाकर्ता के ब्रिटिश पासपोर्ट और OCI कार्ड को बंधक बनाने की बैंक की कार्रवाई अवैध है।" जस्टिस एम. नागप्रसन्ना |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना की पीठ ने कहा कि कोई बैंक, ऋण पुनर्भुगतान की सुरक्षा के रूप में पासपोर्ट और भारत के प्रवासी नागरिक (OCI) कार्ड को नहीं रख सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
- यूनाइटेड किंगडम के एक OCI कार्ड धारक नागरिक को विजया बैंक (जो अब बैंक ऑफ बड़ौदा है) द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के कई प्रावधानों के तहत दोषी बनाया गया था।
- बैंक ने कहा कि 03 अक्टूबर 2018 को याचिकाकर्ता ने स्वेच्छा से दो आवास ऋण खाते बंद करने की प्रतिबद्धता जताई।
- जब याचिकाकर्ता ने प्रतिबद्धता पूरी नहीं की तो बैंक ने उसे पासपोर्ट और OCI कार्ड सरेंडर करने का निर्देश दिया।
- याचिकाकर्ता ने तर्क देते हुए कहा कि यूके द्वारा जारी पासपोर्ट पर बैंक का अधिकार नहीं है और केवल विदेश मंत्रालय ही OCI कार्ड पर कार्रवाई कर सकता है।
- बैंक ने नियमों का हवाला देते हुए इन दावों का खंडन किया, जिसके तहत याचिकाकर्ता स्वेच्छा से पासपोर्ट जमा करने हेतु सहमत हुआ था।
कोर्ट की टिप्पणी:
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि "याचिकाकर्ता के ब्रिटिश पासपोर्ट और OCI कार्ड को बंधक बनाने की बैंक की कार्रवाई अवैध है।"
भारत के प्रवासी नागरिक:
- परिचय:
- भारतीय मूल, लेकिन विदेशी नागरिकता रखने वाले व्यक्ति को अनिश्चित काल तक भारत में कार्य करने और रहने की अनुमति है।
- यह भारतीय मूल के विदेशी नागरिक को प्रदान की जाने वाली एक सुविधा है।
- इसे दोहरी नागरिकता की जरूरतों को पूरा करने के लिये बनाया गया था।
- ओवरसीज सिटीज़न ऑफ इंडिया योजना मौजूदा नागरिकता अधिनियम, 1995 में संशोधन करके वर्ष 2005 में लाई गई थी।
- इसे वर्ष 2006 में भारतीय प्रवासी दिवस के अवसर पर शुरू किया गया था।
- दोहरी नागरिकता संबंधी पहलू:
- OCI का दर्जा का आशय दोहरी नागरिकता नहीं है। यह स्थायी निवास का एक ऐसा रूप है जिसमें कुछ लाभ प्रदान किये जाते हैं लेकिन इससे भारतीय पासपोर्ट रखने का अधिकार नहीं मिलता है।
- OCI से अपने निवास वाले देश से अपने पासपोर्ट को नवीनीकृत करवाना अपेक्षित होता है।
- OCI कार्ड के लिये पात्रता:
- आवेदक को भारतीय मूल का होने के साथ किसी अन्य देश का नागरिक होना चाहिये या संविधान के लागू होने पर या उससे पहले भारत का नागरिक होना चाहिये; या
- आवेदक किसी अन्य देश का नागरिक होना चाहिये, या वह संविधान के लागू होने के समय भारत की नागरिकता के लिये पात्र था; या
- आवेदक किसी दूसरे देश का नागरिक हो लेकिन उस क्षेत्र से संबंधित होना चाहिये जो 15 अगस्त 1947 के बाद भारत का हिस्सा बन गया; या
- वह व्यक्ति ऐसे नागरिक की संतान/पोता/परपोता है; या
- व्यक्ति एक नाबालिग बच्चा है, जिसके माता-पिता दोनों भारतीय नागरिक हैं या माता-पिता में से एक भारत का नागरिक है
- आवेदक विदेशी मूल के भारतीय नागरिक या OCI कार्डधारक का जीवनसाथी है।
- अपवाद:
- ऐसा व्यक्ति जो किसी भी देश का नागरिक नहीं है, वह OCI कार्ड धारक बनने का पात्र नहीं है।
- किसी भी व्यक्ति को OCI कार्ड के लिये आवेदन करने से मना कर दिया जाएगा यदि उसके माता-पिता या दादा-दादी पाकिस्तान और बांग्लादेश के नागरिक हैं/थे।
सांविधानिक विधि
सम्मान से जीने का अधिकार
17-Jan-2024
महुया चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य। उच्च न्यायालय ने कहा कि, COI के अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चित किसी व्यक्ति के गरिमा के साथ जीने के अधिकार को केवल इसलिये वंचित नहीं किया जा सकता कि उसे दोषी ठहराया गया था। न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने महुया चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य के मामले में कहा है कि भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चित गरिमा के साथ किसी व्यक्ति को जीवन के अधिकार से केवल इसलिये वंचित नहीं किया जा सकता है, कि उसे दोषी ठहराया गया था।
महुया चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि:
- इस मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष याचिकाकर्त्ता ने राज्य सज़ा समीक्षा बोर्ड, पश्चिम बंगाल (SSRB) के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें याचिकाकर्त्ता, एक दोषी की पत्नी, जिसे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी, के आवेदन को खारिज़ कर दिया गया था।
- याचिकाकर्त्ता के पति पूर्व से ही दो दशक से अधिक समय से हिरासत में है।
- याचिकाकर्त्ता का तर्क यह था कि SSRB का गठन ठीक से नहीं किया गया था तथा SSRB द्वारा इस तरह की अस्वीकृति के लिये उद्धृत आधार उच्चतम न्यायालय और इस न्यायालय के साथ-साथ अन्य उच्च न्यायालयों द्वारा अपनाए गए सुसंगत दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं हैं।
- उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का अनुदेश दिया कि उचित रूप से गठित SSRB, याचिकाकर्त्ता को उसके पति की समयपूर्व रिहाई के अनुरोध पर पुनर्विचार करे।
न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य ने कहा कि COI के अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चितता के लिये किसी व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने के अधिकार से केवल इसलिये वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसे दोषी ठहराया गया था।
- आगे यह माना गया कि याचिकाकर्त्ता पहले ही काफी समय कारावास में बिता चुका है। याचिकाकर्त्ता को समाज की मुख्यधारा में फिर से शामिल होने का अवसर देने से इनकार करके याचिकाकर्त्ता के लिये कोई दोहरी सज़ा नहीं हो सकती, भले ही याचिकाकर्त्ता अन्यथा योग्य हो।
COI का अनुच्छेद 21:
परिचय:
- अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
- जीवन का अधिकार केवल पशु के समान अस्तित्व या जीवित रहने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार और जीवन के वे सभी पहलू शामिल हैं जो मनुष्य के जीवन को सार्थक, पूर्ण तथा जीने योग्य बनाते हैं।
- अनुच्छेद 21 दो अधिकार सुरक्षित करता है:
- जीवन का अधिकार
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
- इस अनुच्छेद को जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये प्रक्रियात्मक मैग्नाकार्टा के रूप में भी जाना जाता है।
- यह मौलिक अधिकार प्रत्येक व्यक्ति, नागरिकों और विदेशियों के लिये समान रूप से प्रभावी है।
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस अधिकार को मौलिक अधिकारों का हृदय बताया है।
- यह अधिकार राज्य के विरुद्ध प्रदान किया गया है।
अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार:
- अनुच्छेद 21 में शामिल अधिकार इस प्रकार हैं:
- निजता का अधिकार
- विदेश जाने का अधिकार
- आश्रय का अधिकार
- एकांत परिरोध के विरुद्ध अधिकार
- सामाजिक न्याय और आर्थिक सशक्तीकरण का अधिकार
- हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार
- हिरासत में मृत्यु के विरुद्ध अधिकार
- विलंबित निष्पादन के विरुद्ध अधिकार
- डॉक्टरों की सहायता का अधिकार
- सार्वजनिक फाँसी के विरुद्ध अधिकार
- सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का अधिकार
- प्रदूषण मुक्त जल एवं वायु का अधिकार
- प्रत्येक बच्चे को पूर्ण विकास का अधिकार
- स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सहायता का अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- विचाराधीन कैदियों की सुरक्षा
निर्णयज विधि:
- फ्राँसिस कोरली मुलिन बनाम प्रशासक (1981) मामले में, न्यायमूर्ति पी. भगवती ने कहा था कि COI का अनुच्छेद 21 एक लोकतांत्रिक समाज में सर्वोच्च महत्त्व के संवैधानिक मूल्य का प्रतीक है।
- खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1963) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जीवन शब्द से तात्पर्य मात्र पशु अस्तित्व से कहीं अधिक है। इसके अभाव के विरुद्ध निषेध उन सभी अंगों और क्षमताओं तक विस्तृत है, जिनके द्वारा जीवन का आनंद लिया जाता है। यह प्रावधान समान रूप से बख्तरबंद पैर को काटकर या एक आँख निकालकर, या शरीर के किसी अन्य अंग को नष्ट करके शरीर के क्षत-विक्षत होने पर रोक लगाता है, जिसके माध्यम से मनुष्य बाहरी दुनिया के साथ संचार करता है।
सांविधानिक विधि
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12
17-Jan-2024
X v. Y “घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के अनुसार, किसी पीड़ित महिला को राहत प्रदान करने के लिये संरक्षण अधिकारी की घरेलू हिंसा रिपोर्ट पूर्व-आवश्यक शर्त नहीं है।” जस्टिस चितरंजन दास |
स्रोत: उड़ीसा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के अनुसार, किसी पीड़ित महिला को राहत प्रदान करने के लिये संरक्षण अधिकारी की घरेलू हिंसा रिपोर्ट पूर्व-आवश्यक नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि:
- इस मामले में, विभिन्न राहत की मांग करने वाले याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत कार्यवाही शुरू की गई थी, जिसमें 10,00,000/रुपए या एक महँगी कार दहेज में न मिलने पर याचिकाकर्त्ता द्वारा पीड़िता को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया था।
- इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने उड़ीसा उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की और आरोपों से इनकार करते हुए ऐसी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी।
- याचिकाकर्त्ता के वकील ने तर्क दिया कि संरक्षण अधिकारी से DIR प्राप्त नहीं हुआ है, जैसा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के तहत आवश्यक है।
- उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज़ करते हुए कहा कि याचिका ठोस नहीं है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- न्यायमूर्ति चित्तरंजन दाश ने कहा कि संरक्षण अधिकारी से DIR अनिवार्य नहीं है और इसलिये, घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के तहत एक पीड़ित महिला को राहत देने की पूर्व-आवश्यकता नहीं है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि धारा 12(1) के तहत मजिस्ट्रेट को DIR पर विचार करने की आवश्यकता है। हालाँकि, आदेश पारित करने के लिये DIR अनिवार्य नहीं है और केवल उन मामलों में ही इस पर विचार किया जाएगा, जहाँ इसे दायर किया गया है।
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12:
अधिनियम का परिचय:
- यह महिलाओं को सभी प्रकार की घरेलू हिंसा से बचाने के लिये बनाया गया एक सामाजिक लाभकारी कानून है।
- यह उन महिलाओं के अधिकारों को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करता है, जो परिवार के भीतर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा की शिकार हैं।
- इस अधिनियम की प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है, कि अधिनियम की पहुँच यह है कि हिंसा, चाहे शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक या आर्थिक हो, सभी का निवारण कानून द्वारा किया जाना है।
DV अधिनियम की धारा 12:
मजिस्ट्रेट को आवेदन करना:
(1) कोई व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई व्यक्ति इस अधिनियम के तहत एक या अधिक अनुतोषों की ईप्सा करते हुए मजिस्ट्रेट को आवेदन पत्र प्रस्तुत कर सकेगा:
परंतु यह तब जबकि, ऐसे आवेदन-पत्र पर कोई आदेश पारित करने के पूर्व मजिस्ट्रेट, संरक्षा अधिकारी या सेवा प्रदायकर्ता से उसके द्वारा प्राप्त घरेलू घटना रिपोर्ट का विचारण करेगा।
(2) उपधारा (1) के तहत शामिल अनुतोष में, दोषीद्वारा कारित घरेलू हिंसा के कृत्यों द्वारा कारित क्षतियों के लिये प्रतिकर या क्षति के लिये वाद संस्थित करने के लिये ऐसे व्यक्ति के अधिकार पर कोई प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना प्रतिकर या क्षति के संदाय हेतु कोई आदेश पारित करने के लिये अनुतोष, प्राप्त हो सकेगा:
परन्तु यह तब अबकि, जहाँ प्रतिकर या नुकसानी के रूप में किसी राशि के लिए डिक्री, व्यथित व्यक्ति के हित में किसी न्यायालय द्वारा पारित की जा चुकी है तो राशि यदि कोई इस अधिनियम के तहत् मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए आदेश के अनुसरण में संदत्त की गई या संदेय, या , ऐसी डिक्री के अधीन संदेय राशि के विरुद्ध मुजरा किया जाएगा और डिक्री सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में समाहित कुछ भी के होते हुए भी, वह डिक्री, इस प्रकार ऐसे मुजरे के पश्चात् शेष राशि यदि कोई है, के निष्पादन किए जाने योग्य होगी।
(3) उपधारा (1) के तहत् प्रत्येक आवेदन-पत्र ऐसे प्रारूप में होगा और ऐसी विशिष्टियाँ समाविष्ट करेगा जैसी विहित की गई हों या उसके यथा साध्य यथा समीप हो।
(4) मजिस्ट्रेट प्रथम सुनवाई दिनांक नियत करेगा जो सामान्यतः न्यायालय द्वारा आवेदन की प्राप्ति दिनांक से तीन दिनों से परे की नहीं होगी।
(5) मजिस्ट्रेट उपधारा (1) के तहत् किये गये प्रत्येक आवेदन-पत्र का निपटान इसकी प्रथम सुनवाई दिनांक से 60 दिनों की अवधि के अंदर करने का प्रयास करेगा।
निर्णयज विधि:
- अजय कौल और अन्य वनाम वी. जम्मू एवं कश्मीर राज्य एवं अन्य (2019) के मामले में जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने माना कि DV अधिनियम की धारा 12 से यह इंगित नहीं होता है कि शिकायत प्राप्त होने पर कोई मजिस्ट्रेट किसी आवेदन पर किसी भी आदेश को पारित करने से पहले घरेलू घटना की रिपोर्ट मांगने के लिये बाध्य है। इसलिये इस अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत दिए गए किसी भी आदेश को पारित करने से पहले मजिस्ट्रेट के लिये घरेलू घटना संबंधी रिपोर्ट प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है।