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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

सिविल विवाद एवं आपराधिक अभियोजन

 23-Jan-2024

जय श्री बनाम राजस्थान राज्य

"केवल संविदा का उल्लंघन भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 या धारा 406 के अधीन अपराध नहीं है।"

न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की पीठ ने एक मामले की सुनवाई की, जहाँ संविदा के उल्लंघन को साबित करने के लिये कपट के अभिकथन लगाए गए थे।

  • उच्चतम न्यायालय ने जय श्री बनाम राजस्थान राज्य के मामले में यह टिप्पणी दी।

जय श्री बनाम राजस्थान राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अभियुक्त ने राजस्थान उच्च न्यायालय के एक निर्णय के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील की, जहाँ उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत देने से इनकार कर दिया था।
  • अभियुक्त ने शिकायतकर्त्ता के साथ एक संविदा की, जहाँ शिकायतकर्त्ता ने संविदा के उल्लंघन के कारण अभियुक्त के खिलाफ कपट और आपराधिक षड्यंत्र के लिये FIR दर्ज दायर की।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "केवल संविदा का उल्लंघन भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 420 या धारा 406 के अधीन अपराध नहीं है, जब तक कि लेनदेन के प्रारंभ में कपट या बेईमानी का आशय नहीं दिखाया गया हो"।

सिविल विवाद और आपराधिक विवाद के बीच क्या अंतर है?

अंतर के बिंदु

सिविल विवाद

आपराधिक विवाद

विवाद की प्रकृति

●       विवाद में आमतौर पर निजी पक्ष या संस्थाएँ शामिल होती हैं जो कानूनी अधिकारों या दायित्त्वों पर असहमति को हल करना चाहते हैं।

●       उदाहरण के लिये, संविदा विवाद, व्यक्तिगत क्षति का दावा, पारिवारिक कानून के मामले (विवाह-विच्छेद, बच्चे की अभिरक्षा), और संपत्ति विवाद।

●       इनमें उन कानूनों का उल्लंघन शामिल होता है जिन्हें राज्य या समाज के खिलाफ अपराध माना जाता है। अपराधों पर सरकारी अधिकारियों द्वारा अभियोजन चलाया जाता है, और इसका उद्देश्य अपराधी को गलत काम के लिये दंडित करना होता है।

●       उदाहरण के लिये, चोरी, हमला, हत्या और ड्रग अपराध।

कार्यवाही का प्रारंभ

●       आमतौर पर निजी व्यक्तियों या संस्थाओं (वादी) द्वारा प्रारंभ किया जाता है जो किसी अन्य पक्ष (प्रतिवादी) के खिलाफ क्षतिपूर्ति, व्यादेश या अन्य उपचार की मांग करते हुए मुकदमा दायर करते हैं।

●       सरकार द्वारा प्रारंभ किया गया, एक अभियोजक द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया, जो अपराध करने के अभियुक्त किसी व्यक्ति या इकाई के खिलाफ आरोप दायर करता है।

सबूत का भार

 

●       भार आमतौर पर वादी पर होता है, जिसे सबूतों की प्रबलता से अपना मामला स्थापित करना होता है।

●       इसका अर्थ यह है कि उन्हें यह दिखाना होगा कि इस बात की अधिक संभावना है कि प्रतिवादी उत्तरदायी है।

●       यह भार अभियोजन पक्ष पर होता है, और इसे उचित संदेह से परे साबित किया जाना चाहिये।

●       यह अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा के लिये बनाया गया एक अधिक मांग वाला मानक है।

कार्यवाही का उद्देश्य

 

●       क्षतिग्रस्त पक्ष या पक्षों को उपचार प्रदान करना।

●       उपचारों में मौद्रिक प्रतिकर (नुकसान), विनिर्दिष्ट पालन, या व्यादेश शामिल हो सकते हैं।

●       कानूनों के उल्लंघन के लिये अपराधी को दंडित करना और दूसरों को समान अपराध करने से भयोपरत करना।

●       समाज का पुनर्वास और सुरक्षा भी महत्त्वपूर्ण लक्ष्य हैं।

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या थे?

  • इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम NEPC इंडिया लिमिटेड एवं अन्य (2006):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "आपराधिक अभियोजन के माध्यम से दबाव डालकर सिविल विवादों और दावों को निपटाने के किसी भी प्रयास को, जिसमें कोई आपराधिक अपराध शामिल नहीं है, विरोध और हतोत्साहित किया जाना चाहिये"।
  • सरबजीत कौर बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविदा के उल्लंघन में आपराधिक आरोप नहीं लगते हैं।

सांविधानिक विधि

लोकस स्टैंडी का नियम

 23-Jan-2024

आदिचुंचनगिरि महा संस्थान मठ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

लोकस स्टैंडी के नियम को आमतौर पर राज्य की उदारता के अवैध अनुदान से संबंधित मामलों में उदारतापूर्ण समझा जाता है और इससे लोक हित को बढ़ावा मिलेगा।

मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी. वराले और न्यायमूर्ति कृष्ण एस. दीक्षित

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी. वराले और न्यायमूर्ति कृष्ण एस. दीक्षित की पीठ ने मूल रिट याचिका में याचिकाकर्त्ता के मामले में लोकस स्टैंडी (सुने जाने का अधिकार) के अस्तित्व से संबंधित मामले पर सुनवाई की।

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आदिचुंचनगिरी महा संस्थान मठ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले की सुनवाई की।

आदिचुंचनगिरी महा संस्थान मठ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • ये दो इंट्रा-कोर्ट अपीलें एक सबंधित एकल न्यायाधीश के सामान्य आदेश को चुनौती देती हैं। आदेश ने एक साइट के अनुदान को रद्द कर दिया, निजी प्रतिवादियों का पक्ष लिया और अपीलकर्त्ता-मठ को आवंटन मूल्य की वापसी का निर्देश दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि कर्नाटक भूमि अनुदान नियम, 1969 के नियम 27, जो एक अपवाद के रूप में साइट आवंटन की अनुमति देता है, पर एकल न्यायाधीश द्वारा ठीक से विचार नहीं किया गया था।
  • अपीलकर्त्ता का तर्क है कि निजी प्रतिवादियों के पास अनुदान आदेशों पर लोकस स्टैंडी का अभाव है, एक बिंदु जिसे एकल न्यायाधीश ने पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया।
  • प्रतिवादी का तर्क है कि अनुच्छेद 227 के तहत दिया गया एकल न्यायाधीश का आदेश, आमतौर पर अपीलीय नहीं है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने दोहराया कि "लोकस स्टैंडी के नियम को आमतौर पर राज्य की उदारता के अवैध अनुदान से संबंधित मामलों में उदारतापूर्ण समझा जाता है और इससे लोक हित को बढ़ावा मिलेगा।"
  • न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी के पास लोकस स्टैंडी था और इसलिये अपीलकर्त्ता की अपील खारिज़ कर दी गई।

लोकस स्टैंडी की अवधारणा क्या है?

  • लोकस स्टैंडी, एक लैटिन शब्द, एक कानूनी स्थिति या किसी विशेष मुकदमा या कानूनी कार्रवाई के अधिकार को संदर्भित करता है।
  • यह एक कानूनी अवधारणा है जो यह निर्धारित करती है कि किसी व्यक्ति के पास किसी मामले को न्यायालय में लाने का औचित्य साबित करने के लिये पर्याप्त रुचि है या नहीं।
    • दूसरे शब्दों में, यह इस बात से संबंधित है कि क्या किसी व्यक्ति या संस्था की कानूनी विवाद के परिणाम में प्रत्यक्ष और व्यक्तिगत हिस्सेदारी है, जो उन्हें मामले में एक पक्ष बनने की अनुमति देता है।
  • लोकस स्टैंडी रखने के लिये, एक पक्ष को आमतौर पर यह प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है कि उन्हें एक विनिर्दिष्ट क्षति, हानि हुई है, या इस मामले में उनका सीधा हित है।
    • इस विचार से यह सुनिश्चित करना है कि केवल कानूनी मुद्दे से वास्तविक संबंध रखने वालों को ही कानूनी प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति दी जाए।
  • बिना लोकस स्टैंडी के, किसी व्यक्ति या इकाई को कानूनी कार्यवाही शुरू करने या मुकदमे में भाग लेने का अधिकार नहीं हो सकता है।