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आपराधिक कानून
दूसरी पत्नी शिकायत नहीं कर सकती
29-Jan-2024
“दूसरी पत्नी द्वारा अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ दायर की गई शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है।” न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत |
स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सुमन शर्मा और अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य और अन्य मामले में फैसला सुनाया है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A के प्रावधानों के तहत दूसरी पत्नी द्वारा अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ दायर की गई शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है।
सुमन शर्मा एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में शिकायतकर्त्ता ने सह-अभियुक्त (सुभाष शर्मा) और याचिकाकर्त्ताओं के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज कराई थी।
- शिकायतकर्त्ता का आरोप था कि सह-अभियुक्त और याचिकाकर्त्ता संख्या 1 पहले से ही शादीशुदा था और उसकी शादी के तुरंत बाद याचिकाकर्त्ता और सह-अभियुक्त ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया।
- इसके बाद, उसने सह-अभियुक्तों और याचिकाकर्त्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 498-A के तहत अपराध के लिये एक लिखित शिकायत दर्ज की।
- शिकायतकर्त्ता द्वारा दायर शिकायत को चुनौती देते हुए याचिकाकर्त्ताओं ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत एक और याचिका दायर की।
- सुनवाई के दौरान, एकल न्यायाधीश ने शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) और राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) मामले में उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा दिये गए फैसलों में विरोधाभास पाया और मामले को संदर्भित किया।
- खंडपीठ ने माना कि उपर्युक्त मामलों में दिये गए निर्णयों के साथ कोई स्पष्ट विरोधाभास नहीं है और इसीलिये CrPCकी धारा 482 के तहत याचिका पर निर्णय लेने के लिये यह मामला एकल न्यायाधीश के समक्ष सूचीबद्ध किया गया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की खंडपीठ ने कहा कि IPC की धारा 498-A के तहत दंडनीय अपराध के लिये दूसरी पत्नी द्वारा दर्ज की गई शिकायत मान्य नहीं होगी।
- न्यायालय ने आगे कहा कि शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) और राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) में उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए फैसले में कोई स्पष्ट विरोधाभास नहीं था।
- शिवचरण लाल वर्मा और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2007) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विवाह का अमान्य होने की स्थिति में IPC की धारा 498-A के तहत दोषसिद्धि का कोई विशेष अर्थ नहीं है।
- राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हस्बैंड की परिभाषा के अभाव में ऐसे व्यक्तियों को विशेष रूप से शामिल किया जाना चाहिए जो पति के रूप में अपनी भूमिका के कथित अभ्यास में ऐसी महिला के साथ विवाह करते हैं और सहवास करते हैं। उन्हें आईपीसी की धारा 498-ए के दायरे से बाहर करने का कोई आधार नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पति की परिभाषा का अभाव जिसमें स्पष्ट रूप से उन लोगों को शामिल किया गया है जो पति के रूप में अपनी भूमिका के कथित अभ्यास में ऐसी महिला के साथ विवाह करते हैं और सहवास करते हैं, उन्हें IPC की धारा 498-A के दायरे से बाहर करने का कोई आधार नहीं है।
- यदि उच्चतम न्यायालय की समान संख्या वाली पीठों के निर्णयों में कोई विरोधाभास है, तो पहले वाले फैसले का ही पालन किया जाना चाहिये और तद्नुसार मौजूदा मामले में शिवचरण लाल वर्मा मामले में किये गए फैसले का पालन किया जाना चाहिये।
IPC की धारा 498-A क्या है?
परिचय:
- विवाहित स्त्रियों को पति अथवा उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का शिकार होने से बचाने के लिये वर्ष 1983 में धारा 498A पेश की गई थी।
- इसके अनुसार जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का नातेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
- स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये "क्रूरता" से निम्नलिखित अभिप्रेत है:
- जानबूझकर किया गया कोई आचरण जो ऐसी प्रकृति का है जिससे उस स्त्री को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने की या उस स्त्री के जीवन, अंग या स्वास्थ्य को (जो चाहे मानसिक हो अथवा शारीरिक) गंभीर क्षति या खतरा कारित करने की संभावना है; या
- किसी स्त्री को इस दृष्टि से तंग करना कि उसको अथवा उसके किसी नातेदार को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की कोई मांग पूरी करने के लिये प्रपीड़ित किया जाए या किसी स्त्री को इस कारण तंग करना कि उसका कोई नातेदार ऐसी मांग पूरी करने में असफल रहा है।
- इस धारा के तहत अपराध संज्ञेय और गैर जमानती अपराध है।
- धारा 498-A के तहत शिकायत अपराध से पीड़ित स्त्री अथवा उसके रक्त-संबंधी, विवाह अथवा दत्तक ग्रहण से संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है। और यदि ऐसा कोई रिश्तेदार नहीं है, तो राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में अधिसूचित किसी भी लोक सेवक द्वारा किया जा सकता है।
- धारा 498-A के तहत अपराध का आरोप लगाने वाली शिकायत कथित घटना के 3 वर्ष के भीतर दर्ज की जा सकती है। हालाँकि, धारा 473 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) न्यायालय को इस सीमा अवधि के बाद किसी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार प्रदान करती है यदि वह संतुष्ट है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है।
आवश्यक तत्त्व:
- धारा 498-A के तहत अपराध में निम्नलिखित आवश्यक तत्त्वों का होना आवश्यक है:
- स्त्री विवाहित होनी चाहिये;
- उसके साथ क्रूरता अथवा उत्पीड़न किया गया हो;
- ऐसी क्रूरता अथवा उत्पीड़न या तो स्त्री के पति अथवा उसके पति के रिश्तेदार द्वारा किया गया हो।
लोक विधि:
- अरुण व्यास बनाम अनीता व्यास, (1999) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 498-A में अपराध का मुख्य आधार क्रूरता है। यह एक कंटीन्यूइंग ऑफेंस है और स्त्री द्वारा क्रूरता का शिकार बनने के प्रत्येक अवसर को क्रूरता की सीमा का एक नया प्रारंभिक बिंदु माना जाएगा।
- मंजू राम कलिता बनाम असम राज्य (2009) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि किसी अभियुक्त को IPC की धारा 498A के तहत दोषी ठहराने के लिये यह स्थापित करना होगा कि स्त्री के साथ लगातार अथवा समय-समय पर क्रूरता की गई है, कम से कम शिकायत दर्ज करने के समय के करीब। छोटे-मोटे झगड़ों को IPC की धारा 498-A के प्रावधानों के तहत क्रूरता नहीं कहा जा सकता।
आपराधिक कानून
CrPC की धारा 100(5)
29-Jan-2024
CrPC की धारा 100(5) के तहत तलाशी और ज़ब्ती के गवाहों को गवाह के रूप में न्यायालय में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन न किया जाए। न्यायमूर्ति अंबुज नाथ |
स्रोत: झारखण्ड उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मोहम्मद रेयाज़ुल और अन्य बनाम झारखंड राज्य मामले में ने झारखंड उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 100(5) के तहत तलाशी और ज़ब्ती के गवाहों को गवाह के रूप में न्यायालय में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन न किया जाए।
मोहम्मद रेयाज़ुल और अन्य बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, याचिकाकर्त्ताओं को निचली न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 414 के तहत अपराध के लिये दो वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा सुनाई थी।
- मुकदमे के दौरान याचिकाकर्त्ताओं द्वारा पहले ही काटी गई कारावास की अवधि को समाप्त करने का आदेश दिया गया था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के न्यायालय में अपील दायर की, यहाँ भी निचली न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि के फैसले को बरकरार रखा गया।
- इसके बाद, झारखंड उच्च न्यायालय के समक्ष अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित फैसले के विरुद्ध एक आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन दायर किया गया।
- याचिकाकर्त्ताओं के वरिष्ठ अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ताओं के अपराध के संबंध में निचली न्यायालय के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय भी गलत निष्कर्ष पर पहुँची और अभियोजन पक्ष जब्ती गवाहों की जाँच करने में विफल रहा इस तथ्य पर विचार नहीं किया गया था।
- उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण आवेदन को आंशिक रूप से अनुमति दे दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति अंबुज नाथ ने कहा कि वसूली के तथ्य को साबित करने के लिये अभियोजन पक्ष को केवल ज़ब्ती सूची को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। CrPC की धारा 100(5) के तहत तलाशी और ज़ब्ती के गवाहों को गवाह के रूप में न्यायालय में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन न किया जाए।
इसमें शामिल प्रासंगिक विधिक प्रावधान कौन से हैं?
CrPC की धारा 100:
CrPC की धारा 100 बंद स्थानों के भारसाधक व्यक्तियों को तलाशी की अनुमति देने से संबंधित है जबकि इसी प्रावधान को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 103 के तहत शामिल किया गया है। इसमें कहा गया है कि -
(1) बंद स्थान के भारसाधक व्यक्ति तलाशी लेने देंगे- जब कभी इस अध्याय के अधीन तलाशी लिये जाने अथवा निरीक्षण किये जाने वाला कोई स्थान बंद है तब उस स्थान में निवास करने वाला या उसका भारसाधक व्यक्ति उस अधिकारी या अन्य व्यक्ति की, जो वारंट का निष्पादन कर रहा है, मांग पर और वारंट के पेश किए जाने पर उसे उसमें अबाध प्रवेश करने देगा और वहां तलाशी लेने के लिये सब उचित सुविधाएँ देगा।
(2) यदि उस स्थान में इस प्रकार प्रवेश प्राप्त नहीं हो सकता है तो वह अधिकारी अथवा अन्य व्यक्ति, जो वारंट का निष्पादन कर रहा है धारा 47 की उपधारा (2) द्वारा उपबंधित रीति से कार्यवाही कर सकेगा।
(3) जहाँ किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में, जो ऐसे स्थान में अथवा उसके आसपास है, उचित रूप से यह संदेह किया जाता है कि वह अपने शरीर पर कोई ऐसी वस्तु छिपाए हुए है जिसके लिये तलाशी ली जानी चाहिये तो उस व्यक्ति की तलाशी ली जा सकती है और यदि वह व्यक्ति स्त्री है, तो तलाशी शिष्टता का पूर्ण ध्यान रखते हुए अन्य स्त्री द्वारा ली जाएगी।
(4) इस अध्याय के अधीन तलाशी लेने के पूर्व ऐसा अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जब तलाशी लेने ही वाला हो, तलाशी में हाज़िर रहने और उसके साक्षी बनने के लिये उस मुहल्ले के, जिसमें तलाशी लिया जाने वाला स्थान है, दो या अधिक स्वतंत्र और प्रतिष्ठित निवासियों को या यदि उक्त मुहल्ले का ऐसा कोई निवासी नहीं मिलता है या उस तलाशी का साक्षी होने के लिये रज़ामंद नहीं है तो किसी अन्य मुहल्ले के ऐसे निवासियों को बुलाएगा और उनको या उनमें से किसी को ऐसा करने के लिये लिखित आदेश जारी कर सकेगा।
(5) तलाशी उनकी उपस्थिति में ली जाएगी और ऐसी तलाशी के अनुक्रम में अभिगृहीत सब चीजों की और जिन-जिन स्थानों में वे पाई गई हैं उनकी सूची ऐसे अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा तैयार की जाएगी और ऐसे साक्षियों द्वारा उस पर हस्ताक्षर किए जाएँगे, किंतु इस धारा के अधीन तलाशी के साक्षी बनने वाले किसी व्यक्ति से, तलाशी के साक्षी के रूप में न्यायालय में हाज़िर होने की अपेक्षा उस दशा में ही की जाएगी जब वह न्यायालय द्वारा विशेष रूप से समन किया गया हो।
(6) तलाशी लिये जाने वाले स्थान के अधिभोगी को या उसकी ओर से किसी व्यक्ति को तलाशी के दौरान हाज़िर रहने की अनुज्ञा प्रत्येक दशा में दी जाएगी और इस धारा के अधीन तैयार की गई उक्त साक्षियों द्वारा हस्ताक्षरित सूची की एक प्रतिलिपि ऐसे अधिभोगी या ऐसे व्यक्ति को परिदत्त की जाएगी।
(7) जब किसी व्यक्ति की तलाशी उपधारा (3) के अधीन ली जाती है तब कब्जे में ली गई सब चीजों की सूची तैयार की जाएगी और उसकी एक प्रतिलिपि ऐसे व्यक्ति को परिदत्त की जाएगी।
(8) कोई व्यक्ति जो इस धारा के अधीन तलाशी में हाज़िर रहने और साक्षी बनने के लिये ऐसे लिखित आदेश द्वारा, जो उसे परिदत्त या निविदत्त किया गया है, बुलाए जाने पर, ऐसा करने से उचित कारण के बिना इंकार या उसमें उपेक्षा करेगा, उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 187 के अधीन अपराध किया है।
IPC की धारा 414
- IPC की धारा 414 चोरी की संपत्ति को छुपाने में सहायता से संबंधित है और इसी प्रावधान को भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 317(5) के तहत शामिल किया गया है।
- भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 414 के अनुसार जो कोई असी संपत्ति को छिपाने में, या व्यक्तिगत करने में, या इधर-उधर करने में स्वेच्छया सहायता करेगा, जिसके विषय में वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है की वह चुराई हुई संपत्ति है, वह दोनों में से, किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक हो सकेगी, ज़ुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
- चुराई हुई संपत्ति शब्द को IPC की धारा 410 में परिभाषित किया गया है।
आपराधिक कानून
CrPC की धारा 406 और 407
29-Jan-2024
"CrPC की धारा 407 के तहत शक्तियों का उपयोग करके जाँच को अंतरित नहीं किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति शिवशंकर अमरन्नवर |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति शिवशंकर अमरन्नवर की पीठ ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 407 के अनुप्रयोग पर एक याचिका पर सुनवाई की।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हेब्बागोडी पुलिस स्टेशन में दर्ज मेसर्स अचीवर एग्री इंडिया (P) लिमिटेड और अन्य बनाम राज्य के मामले में इस पर सुनवाई की है।
सब-इंस्पेक्टर, हेब्बागोडी पुलिस स्टेशन द्वारा मेसर्स अचीवर एग्री इंडिया (P) लिमिटेड और अन्य बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- मामले में वर्तमान याचिका विभिन्न पुलिस स्टेशनों में दर्ज 16 प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को उन न्यायालयों में से एक में अंतरित करने की मांग करते हुए दायर की गई थी, जहाँ उक्त अपराधों की एक साथ सुनवाई की जानी लंबित हैं।
- इस मामले में न्यायालय को FIR के अंतरण के लिये CrPC की धारा 406 और 407 के अनुप्रयोग के संबंध में चर्चा करनी थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि " यह नहीं कहा जा सकता है कि CrPC की धारा 407 के तहत इस न्यायालय की शक्तियों को लागू करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय में कोई मामला लंबित है, इसलिये याचिकाकर्त्ताओं ने FIR के अंतरण की मांग की है"।
- उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि FIR का अंतरण जाँच के अंतरण के समान है।
- CrPC की धारा 407 के तहत शक्तियों का उपयोग करके जाँच को अंतरित नहीं किया जा सकता। CrPC की धारा 407 की शक्तियों के तहत मामलों तथा अपीलों को अंतरित किया जा सकता है।
CrPC की धारा 406 क्या है?
- धारा 406:
- जब कभी उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिये यह समीचीन है कि इस धारा के अधीन आदेश किया जाए, तब वह निदेश दे सकता है कि कोई विशिष्ट मामला अथवा अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दंड न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ समान या वरिष्ठ अधिकारिता वाले दूसरे दंड न्यायालय को अंतरित कर दी जाए।
- उच्चतम न्यायालय भारत के महान्यायवादी या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धारा के अधीन कार्य कर सकता है और ऐसा प्रत्येक आवेदन समावेदन द्वारा किया जाएगा जो उस दशा के सिवाय, जब कि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता है, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा।
CrPC की धारा 407 क्या है?
- धारा 407:
- जब कभी उच्च न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि
- उसके अधीनस्थ किसी दंड न्यायालय में ऋजु और पक्षपातरहित जाँच अथवा विचारण न हो सकेगा ; अथवा
- किसी असाधारणतः कठिन विधिप्रश्न के उठने की संभाव्यता है ; अथवा
- इस धारा के अधीन आदेश इस संहिता के किसी उपबंध द्वारा अपेक्षित है, या पक्षकारों या साक्षियों के लिए साधारणतः सुविधाप्रद होगा, या न्याय के उद्देश्यों के लिये समीचीन है, तब उच्च न्यायालय मामलों को अंतरित करने की नौमती डे सकता है।
- जब कभी उच्च न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि
- धारा 407 के तहत आवेदन प्रक्रिया:
- उपधारा (1) के तहत आदेश के लिये सभी आवेदन प्रस्ताव द्वारा किये जाने चाहिये।
- राज्य के महाधिवक्ता के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रस्ताव के लिये हलफनामा अथवा प्रतिज्ञान आवश्यक है।
- यदि आवेदक एक आरोपी व्यक्ति है, तो उच्च न्यायालय के पास उसे जमानत के साथ अथवा उसके बिना एक बंधपत्र प्रदान करने का आदेश देने का अधिकार है, जो उपधारा (7) के तहत उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किसी भी नुकसान के भुगतान की गारंटी देता है।
- धारा 407 के तहत सरकारी वकील को नोटिस:
- इस प्रकार के आवेदन करने वाले आरोपी व्यक्तियों को आवेदन के आधार की एक प्रति के साथ लोक अभियोजक को लिखित सूचना देना आवश्यक है।
- आवेदन के गुण-दोष के आधार पर कोई आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि इस प्रकार का नोटिस देने तथा आवेदन की सुनवाई के बीच कम से कम चौबीस घंटे न बीत गए हों।
- धारा 407 के तहत मामले अथवा अपील का अंतरण:
- यदि आवेदन किसी अधीनस्थ न्यायालय से किसी मामले अथवा अपील के अंतरण के लिये है, तो उच्च न्यायालय संतुष्ट होने पर कि यह न्याय के हित में आवश्यक है, आवेदन के निपटान तक अधीनस्थ न्यायालय में कार्यवाही पर रोक लगाने का आदेश दे सकता है। .
- हालाँकि इस रोक का धारा 309 के तहत अधीनस्थ न्यायालय की प्रतिप्रेषण (रिमांड) की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं होगा।
- धारा 407 के तहत आवेदन खारिज करना:
- यदि उपधारा (1) के तहत कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है, तो उच्च न्यायालय, यदि उसे आवेदन हल्का अथवा कष्टप्रद लगता है, तो आवेदक को किसी भी विरोधी पक्ष को मुआवजा देने का आदेश दे सकता है, जो एक हज़ार रुपए से अधिक नहीं होगा, जैसा उच्च न्यायालय को उस परिस्थिति में उचित लगे।
- धारा 407 के तहत परीक्षण प्रक्रिया:
- जब उच्च न्यायालय उपधारा (1) के तहत किसी मामले को किसी भी न्यायालय से उसके समक्ष सुनवाई के लिये अंतरित करने का आदेश देता है, तो इसमें उसी प्रक्रिया का पालन किया जाएगा जैसा कि पहले के न्यायालय में किया गया था।
- धारा 407 के तहत अप्रभावी प्रावधान:
- इस धारा की किसी भी बात का धारा 197 के तहत सरकार के किसी भी आदेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।