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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

पत्नी को आत्महत्या के लिये उकसाना

 29-Feb-2024

नरेश कुमार बनाम हरियाणा राज्य

IEA की धारा 113A के तहत कोई उपधारणा लागू करने से पूर्व, अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का साक्ष्य दिखाना होगा।

न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने नरेश कुमार बनाम हरियाणा राज्य के मामले में माना है कि केवल इस पर तथ्य कि मृतक ने अपने विवाह के सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या कर ली, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113A के तहत उपधारणा स्वचालित रूप से लागू नहीं होगी। इसलिये, IEA की धारा 113A के तहत कोई उपधारणा लागू करने से पूर्व, अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का साक्ष्य प्रदर्शित करना होगा।

नरेश कुमार बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मृतक रानी का विवाह अपीलकर्त्ता से तय हुआ और यह विवाह 10 मई, 1992 को संपन्न हुआ था।
  • दोषी के साथ विवाह के बाद रानी ने एक बेटी को जन्म दिया।
  • अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि विवाह के तुरंत बाद, अपीलकर्त्ता ने पैसे की मांग करना शुरू कर दिया।
  • रानी ने अपने पति (अपीलकर्त्ता) द्वारा लगातार उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली।
  • अपीलकर्त्ता पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 306 के तहत दण्डनीय, अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिये उकसाने के अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी ठहराया था।
  • इसके बाद, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई।
  • उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता द्वारा दायर अपील को खारिज़ कर दिया और इस तरह ट्रायल कोर्ट के निर्णय की पुष्टि की।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि केवल इस तथ्य पर कि मृतक ने अपने विवाह के सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या कर ली, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113A के तहत उपधारणा स्वचालित रूप से लागू नहीं होगी। इसलिये, IEA की धारा 113A के तहत कोई उपधारणा लागू करने से पूर्व, अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का साक्ष्य दिखाना होगा।
  • आगे यह माना गया कि आत्महत्या के लिये उकसाने के आरोप के मामले में, न्यायालय को आत्महत्या के लिये उकसाने के कृत्य के ठोस साक्ष्य की तलाश करनी चाहिये और इस तरह की अपमानजनक कार्रवाई घटना के समय के आस-पास होनी चाहिये।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 306:

परिचय:

  • यह धारा आत्महत्या के लिये उकसाने से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो जो कोई भी उसे ऐसी आत्महत्या के लिये उकसाएगा, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है और वह ज़ुर्माने के लिये भी उत्तरदायी होगा।
  • IPC की धारा 306 के तहत अपराध गठित करने का मूल संघटक आत्महत्या करना और उकसाना है।

निर्णयज विधि:

  • उदय सिंह एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य, (2019) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि किसी अभियुक्त को IPC की धारा 306 के तहत दोषी ठहराने के लिये, किसी विशेष अपराध को करने की मनःस्थिति दोष निर्धारण के संबंध में दिखाई देनी चाहिये।

IEA की धारा 113A:

परिचय:

  • यह धारा किसी विवाहित स्त्री द्वारा आत्महत्या के दुष्प्रेरण के बारे में उपधारणा से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जब प्रश्न यह है कि किसी स्त्री द्वारा आत्महत्या का करना उसके पति या उसके पति के किसी नातेदार द्वारा दुष्प्रेरित किया गया है और यह दर्शित किया गया है कि उसने अपने विवाह की तारीख से सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या की थी और यह कि उसके पति या उसके पति के ऐसे नातेदार ने उसके प्रति क्रूरता की थी, तो न्यायालय मामले की सभी अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह उपधारणा कर सकेगा कि ऐसी आत्महत्या उसके पति या उसके पति के ऐसे नातेदार द्वारा दुष्प्रेरित की गई थी।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए “क्रूरता” का वही अर्थ है, जो IPC की धारा 498A में है।
  • यह धारा आपराधिक विधि (द्वितीय संशोधन) अधिनियम 1983 द्वारा पेश की गई थी।
  • इस धारा के अनुसार, यह आवश्यक है कि उसके पति या पति के किसी नातेदार ने उसके साथ क्रूरता की हो और विवाहित महिला ने अपने विवाह की तारीख से सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या की हो।

निर्णयज विधि:

  • श्रीमती शांति बनाम हरियाणा राज्य (1991) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि विवाह के सात वर्ष के भीतर आत्महत्या के तथ्य से, जब तक कि क्रूरता साबित न हो जाए, किसी को उकसावे के निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिये। न्यायालय के पास उपधारणा को बढ़ाने या स्थिर रखने का विवेकाधिकार है, क्योंकि शब्द उपधारणा लगा सकते हैं। इसमें मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये जो एक अतिरिक्त सुरक्षा उपाय है।

आपराधिक कानून

फिरौती के लिये व्यपहरण

 29-Feb-2024

विलियम स्टीफन बनाम तमिलनाडु राज्य

"फोन कॉल के माध्यम से फिरौती की मांग के साक्ष्य के बावजूद, अभियोजन पक्ष अभियुक्त द्वारा दी गई मृत्यु की धमकियों को पर्याप्त रूप से साबित करने में विफल रहा।"

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ की पीठ ने माना कि भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364A के तहत अपराध का गठन करने के लिये मृत्यु की धमकी आवश्यक है।

  • उपर्युक्त टिप्पणी विलियम स्टीफन बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में की गई थी।

विलियम स्टीफन बनाम तमिलनाडु राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पीड़ित अभियोजन पक्ष के गवाह-2, तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला आठ वर्षीय बालक, 20 अक्तूबर, 2010 का ट्यूशन से लौटते समय व्यपहरण कर लिया गया था।
    • कथित तौर पर, मारुति कार में सवार अभियुक्त ने दावा किया कि बालक के पिता एक कार खरीदने का आशय रखते थे और उन्होंने उसे अपने वाहन के पास बुलाने के लिये फुसलाया था।
  • अभियोजन पक्ष ने दलील दी कि उन्होंने अभियोजन गवाह PW-3 को फोन करके 5 लाख रुपए की फिरौती मांगी थी।
  • पुलिस ने वेल्लोर ज़िले के पल्लीकोंडा टोल गेट से बालक को छुड़ाकर अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया था।
  • अभियोजन पक्ष ने PW-1 से लेकर PW-3 और PW-19, जाँच अधिकारी के कॉल रिकॉर्ड और गवाही पर भरोसा किया था।
  • अभियुक्त नंबर 1 व 2 ने मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा पारित 27 जुलाई, 2016 के निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की थी, जिसने IPC की धारा 364A के तहत उनकी दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सज़ा को बरकरार रखा था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत कथित व्यपहरण और धमकियों से संबंधित साक्ष्यों पर ध्यानपूर्वक विचार किया।
  • IPC की धारा 364A में दोषसिद्धि के लिये व्यपहरण और मृत्यु या हानि पहुँचाने की धमकी दोनों की आवश्यकता होती है।
  • न्यायालय ने पाया कि फोन कॉल के जरिये फिरौती की मांग के साक्ष्य के बावजूद, अभियोजन पक्ष अभियुक्त द्वारा दी गई मृत्यु की धमकियों को पर्याप्त रूप से साबित करने में विफल रहा।
  • हालाँकि साक्ष्यों के अभाव के कारण धारा 364A के तहत दोषसिद्धि को पलट दिया गया, लेकिन न्यायालय ने व्यपहरण से संबंधित IPC की धारा 363 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
  • उल्लेखनीय रूप से, न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं की लंबे समय तक कारावास की सज़ा को छोटे अपराध के लिये अधिकतम सज़ा से अधिक माना। परिणामस्वरूप, अपीलकर्त्ताओं को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया गया।

फिरौती के लिये व्यपहरण क्या होता है?

  • परिचय:
    • फिरौती के लिये व्यपहरण एक गंभीर अपराध है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा पर प्रहार करता है।
    • IPC की धारा 364A इस अपराध को संबोधित करती है, जो ऐसे जघन्य कृत्यों में शामिल लोगों से निपटने के लिये प्रावधान प्रदान करती है।
  • प्रावधान:
    • IPC की धारा 364A के तहत प्रावधान में कहा गया है कि जो कोई इसलिये किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करेगा या ऐसे व्यपहरण या अपहरण के पश्चात् ऐसे व्यक्ति को निरोध में रखेगा और ऐसे व्यक्ति की मृत्यु या उसकी उपहति कारित करने की धमकी देगा या अपने आचरण से ऐसी युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न करेगा कि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या उसको उपहति की जा सकती है या ऐसे व्यक्ति को उपहति या उसकी मृत्यु कारित करेगा जिससे कि सरकार या किसी विदेशी राज्य या अंतर्राष्ट्रीय अंतर-सरकारी संगठन या किसी अन्य व्यक्ति को किसी कार्य को करने या करने से प्रविरत रहने के लिये या फिरौती देने के लिये विवश किया जाए, वह मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
  • अनिवार्यताएँ:
    • किसी व्यक्ति का अपहरण या व्यपहरण।
    • व्यक्ति को हिरासत में रखना।
    • पीड़ित को धमकी देना या उपहति कारित करना या चोट पहुँचाना।
  • सज़ा:
    • धारा 364A के तहत अपराध के लिये सज़ा गंभीर है।
    • अपराधी को ज़ुर्माने के अलावा या तो मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी।
  • अपराध का वर्गीकरण:
    • सज़ा: मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास और ज़ुर्माना।
    • प्रकृति: संज्ञेय, अर्थात पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है।
    • ज़मानत: अज़मानती, जिसका अर्थ है कि अभियुक्त को पुलिस द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जा सकता है।
    • विचरण: सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय, यह दर्शाता है कि मामले की सुनवाई सत्र न्यायालय में की जाएगी।
    • समझौता: अशमनीय, जिसका अर्थ है कि पीड़ित और अभियुक्त के बीच अपराध का निपटारा न्यायालय के बाहर नहीं किया जा सकता है।

आपराधिक कानून

आदेशिका जारी करने का स्थगन

 29-Feb-2024

शिव जटिया बनाम जियान चंद मलिक एवं अन्य

एक बार जब मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 202 के तहत पुलिस रिपोर्टकी मांग की है, तो मजिस्ट्रेट तब तक समन जारी नहीं कर सकता जब तक कि पुलिस द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती है।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने शिव जटिया बनाम ज्ञान चंद मलिक एवं अन्य के मामले में माना है कि एक बार जब मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 202 के तहत पुलिस रिपोर्ट मांगी है, तो मजिस्ट्रेट तब तक समन जारी नहीं कर सकता जब तक कि पुलिस द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती है।

शिव जटिया बनाम जियान चंद मलिक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता एक गैस आपूर्तिकर्ता कंपनी है, जबकि प्रतिवादी एक गैस वितरक कंपनी है।
  • मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी द्वारा दर्ज की गई शिकायत के विरुद्ध अपीलकर्त्ता को समन जारी किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्त्ता ने प्रतिभूति निक्षेप वापस न करके और प्रतिवादी से खाली सिलेंडर स्वीकार न करके न्यासभंग किया है।
  • अपीलकर्त्ता ने आरोप लगाया कि मजिस्ट्रेट का समन आदेश पूरी तरह से अवैध था।
  • अपीलकर्त्ता के अनुसार, शिकायत को पढ़ने से पता चलता है कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध किसी ऐसे कार्य को करने या छोड़ने का कोई आरोप नहीं है जो किसी अपराध का गठन करता हो।
  • अपीलकर्त्ता के अनुसार, पुलिस द्वारा CrPC की धारा 202 के तहत एक रिपोर्ट कभी प्रस्तुत नहीं की गई थी।
  • चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने शिकायत को रद्द कर दिया।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि मजिस्ट्रेट बिना विचार किये अभियुक्त को आदेशिका जारी नहीं कर सकता और उसे पुलिस से रिपोर्ट मिलने तक अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करने की प्रतीक्षा करनी चाहिये थी।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि गवाहों के साक्ष्य दर्ज करने और रिकॉर्ड पर दस्तावेज़ों का अवलोकन करने के बाद, संबंधित मजिस्ट्रेट ने CrPC की धारा 202 के तहत रिपोर्ट मांगने का आदेश पारित किया। उसने आदेशिका जारी करना स्थगित कर दिया। संबंधित मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि मजिस्ट्रेट तब तक समन जारी नहीं कर सकता जब तक कि यह संतुष्टि न हो जाए कि तथ्य समन आदेश पारित करने के लिये पर्याप्त है।

CrPC की धारा 202 क्या है?

परिचय:

  • CrPC की धारा 202 मजिस्ट्रेट की ओर से आदेशिका के जारी किये को स्थगित करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
    (1) यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिये वह प्राधिकृत है या जो धारा 192 के अधीन उसके हवाले किया गया है, ठीक समझता है तो और ऐसे मामले में जहाँ अभियुक्त ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है जो उस क्षेत्र से परे है, जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो स्वयं ही मामले की जाँच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किये जाने के लिये निदेश दे सकता है।
  • परंतु अन्वेषण के लिये ऐसा कोई निदेश वहाँ नहीं दिया जाएगा-
    (a) जहाँ मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है; अथवा
    (b) जहाँ परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हो) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली जाती है।
    (2) उपधारा (1) के अधीन किसी जाँच में यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य ले सकता है।
    (3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिये उसे वारंट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियाँ होंगी।

CrPC की धारा 202 के आवश्यक तत्व:

  • मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के बाद धारा 202 लागू होती है।
  • मजिस्ट्रेट के पास CrPC की धारा 192 या धारा 202 के तहत प्राप्त शिकायत के तहत विचार के लिये रखे गए मामले की जाँच करने या पुलिस अधिकारी को जाँच करने का निर्देश देने की शक्ति है।
  • शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट अभियुक्त को समन या गिरफ्तारी वारंट जारी करने को स्थगित कर सकता है और इस दौरान, वे या तो स्वयं जाँच कर सकते हैं या पुलिस को जाँच करने का निर्देश दे सकते हैं।

निर्णयज विधि:

  • वाडीलाल पांचाल बनाम दत्ताराय दुलाजी घडीगांवकर एवं अन्य (1960) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 202 का उद्देश्य आदेशिका के मुद्दे को उचित ठहराने के उद्देश्य से शिकायत की प्रकृति का निर्धारण करना है।