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आपराधिक कानून
आपराधिक प्रकृति का सिविल वाद
14-Mar-2024
नरेश कुमार एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य "केवल किसी एक पक्ष द्वारा संविदा-भंग, हर मामले में दाण्डिक अपराध के लिये अभियोजन नहीं चलाया जाएगा।" न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और प्रसन्ना बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने कहा कि केवल किसी एक पक्ष द्वारा संविदा-भंग, हर मामले में दाण्डिक अपराध के लिये अभियोजन नहीं चलाया जाएगा।
- उच्चतम न्यायालय ने नरेश कुमार एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में यह टिप्पणी दी।
नरेश कुमार एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ताओं ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें उनके विरुद्ध दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत उनकी याचिका खारिज़ कर दिया गया था।
- यह विवाद अपीलकर्त्ताओं (एक साइकिल निर्माण कंपनी के सहायक प्रबंधक और प्रबंध निदेशक) और प्रतिवादी नंबर 2 के बीच साइकिलों की असेंबली, परिवहन एवं डिलीवरी के लिये एक संविदा से उत्पन्न हुआ।
- अपीलकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि आपराधिक न्यासभंग और छल का आरोप लगाने वाली FIR मुख्य रूप से सिविल विवाद से उपजी है।
- FIR के बाद पक्षकारों के बीच एक स्वीकृत समझौता हुआ, जहाँ अपीलकर्त्ता प्रतिवादी को अतिरिक्त राशि देने पर सहमत हुए, जिसे विधिवत भुगतान किया गया और स्वीकार कर लिया गया।
- हालाँकि, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं के तर्क को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और माना कि प्रथम दृष्टया, उनके विरुद्ध छल का मामला बनता है।
- अतः अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निष्कर्षों से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि पक्षकारों के बीच विवाद मुख्य रूप से सिविल प्रकृति का था।
- पक्षकारों के बीच समझौते ने अपीलकर्त्ताओं की ओर से आपराधिक आशय के अभाव का संकेत दिया।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने कई ऐतिहासिक मामलों को ध्यान में रखते हुए जहाँ सिविल प्रकृति के आपराधिक विवाद न्यायालय द्वारा निपटाए गए, उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द करते हुए और FIR से उत्पन्न होने वाली आपराधिक कार्यवाही को रद्द करते हुए अपील की अनुमति दी।
इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या थे?
- परमजीत बत्रा बनाम उत्तराखंड राज्य (2013):
- उच्चतम न्यायालय ने धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का संयमपूर्वक प्रयोग करने की आवश्यकता को पहचाना और अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति की आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के कर्त्तव्य पर ज़ोर दिया। न्यायालय ने कहा:
- संहिता की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय, उच्च न्यायालय को सतर्क रहना चाहिये।
- इस शक्ति का उपयोग संयमित ढंग से और केवल किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय सुनिश्चित करने के लिये किया जाना चाहिये।
- कोई शिकायत किसी दाण्डिक अपराध का खुलासा करती है या नहीं, यह उसमें कथित तथ्यों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
- दाण्डिक अपराध के आवश्यक संघटक मौजूद हैं या नहीं इसका निर्णय उच्च न्यायालय को करना होगा।
- सिविल लेनदेन का खुलासा करने वाली शिकायत का स्वरूप आपराधिक भी हो सकता है। लेकिन उच्च न्यायालय को यह अवश्य देखना चाहिये कि क्या एक विवाद जो अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति का है, उसे दाण्डिक अपराध का आवरण दिया गया है।
- ऐसी स्थिति में, यदि कोई सिविल उपचार उपलब्ध है और वास्तव में, जैसा कि इस मामले में हुआ है, अपनाया गया है, तो उच्च न्यायालय को न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने में संकोच नहीं करना चाहिये।
- रणधीर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021):
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि आपराधिक कार्यवाही का उत्पीड़न के उपकरण के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
- उषा चक्रवर्ती एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (2023):
- उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की, कि जो विवाद अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति के होते हैं, लेकिन आपराधिक आवरण दिये जाते हैं, उन्हें CrPC की धारा 482 के तहत रद्द किया जा सकता है।
- सरबजीत कौर बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2023):
- उच्चतम न्यायालय द्वारा यह स्थापित किया गया था कि केवल संविदा-भंग आवश्यक रूप से आपराधिक अभियोजन चलाने की आवश्यकता नहीं है।
- वेसा होल्डिंग्स (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम केरल राज्य (2015):
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविदा का प्रत्येक उल्लंघन छल का अपराध नहीं है; धोखाधड़ी या बेईमानी का आशय सिद्ध होना चाहिये।
उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों पर नई और पुरानी आपराधिक विधि क्या है?
प्रमुख प्रावधान |
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) |
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNS) |
धारा संख्या |
धारा 482 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को शामिल करती है। |
BNSS की धारा 528 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को शामिल करती है। |
प्रावधान |
इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी, जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हों। |
इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी, जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हों। |
आपराधिक कानून
जारकर्म का अपराध
14-Mar-2024
राजेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य "एक विवाहित महिला का अपने पति द्वारा छोड़े जाने के बाद दूसरे धर्म के बूढ़े व्यक्ति के साथ उसके घर में रहना जारकर्म नहीं है।" न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी |
स्रोत: पटना उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, पटना उच्च न्यायालय ने राजेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के मामले में कहा है कि एक विवाहित महिला का अपने पति द्वारा छोड़े जाने के बाद दूसरे धर्म के बूढ़े व्यक्ति के साथ उसके घर में रहना जारकर्म नहीं है।
राजेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह याचिकाकर्त्ता का मामला है कि विपरीत पक्ष (याचिकाकर्त्ता की पत्नी) ने याचिकाकर्त्ता और उसके वैवाहिक संबंधों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A के तहत अपराध करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की।
- याचिकाकर्त्ता की ओर से दलील दी गई कि विपरीत पक्ष अलग धर्म के किसी अन्य व्यक्ति के साथ रह रहा है जो IPC की धारा 497 के अर्थ में जारकर्म है।
- आगे यह तर्क दिया गया कि विपक्षी पक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के प्रावधानों के तहत कोई भी भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है।
- याचिकाकर्त्ता की याचिका कुटुंब न्यायालय द्वारा खारिज़ कर गई।
- इसके बाद, पटना उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी ने कहा कि यदि पिता के मित्र के घर में रहना जारकर्म है, तो समाज में कोई सामाजिक बंधन नहीं हो सकता है और यदि यह न्यायालय यह मानने के लिये सहमत है कि एक विवाहित महिला द्वारा अलग धर्म के बूढ़े व्यक्ति के घर में रहना जारकर्म के समान है, पुरुष-पुरुष, स्त्री-पुरुष के बीच के संपूर्ण सामाजिक संबंध को केवल लैंगिक संबंध के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिये।
- यह भी कहा गया कि यह न्यायालय सभी संबंधों पर लैंगिक संबंधों के संदर्भ में विचार करने की स्थिति में नहीं है। इस प्रकार, अपने पति द्वारा छोड़े जाने के बाद अपने पिता के मित्र, जो एक अलग धर्म का पालन करता है, के घर में शरण लेने वाली महिला का कृत्य जारकर्म नहीं है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
IPC की धारा 497:
परिचय:
- IPC की धारा 497 जारकर्म को अपराध मानती है।
- इसमें ऐसे व्यक्ति को दोषी ठहराया गया जो किसी दूसरे पुरुष की पत्नी के साथ लैंगिक संबंध बनाता है।
- जारकर्म के लिये अधिकतम पाँच वर्ष कारावास की सज़ा है।
- हालाँकि महिलाओं को अभियोजन से छूट दी गई।
- यह धारा तब लागू नहीं होती, जब कोई विवाहित पुरुष किसी अविवाहित महिला के साथ लैंगिक संबंध बनाता है।
- इस धारा का उद्देश्य विवाह की पवित्रता की रक्षा करना था।
विधिक प्रावधान:
- इस धारा को इस प्रकार पढ़ा जा सकता है:
- जो कोई ऐसे व्यक्ति के साथ, जो कि किसी अन्य पुरुष की पत्नी है और जिसका किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है या विश्वास करने का कारण रखता है, उस पुरुष की सम्मति या मौनानुकूलता के बिना ऐसा मैथुन करेगा जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नहीं आता, वह जारकर्म के अपराध का दोषी होगा, और दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दण्डनीय नहीं होगी।
जारकर्म का निरापराधिकरण:
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) मामले में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा तथा वर्तमान (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर, आर.एफ. नरीमन और इंदु मल्होत्रा के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने माना कि जारकर्म कोई अपराध नहीं है तथा इसे IPC से हटा दिया।
- हालाँकि यह स्पष्ट किया गया कि जारकर्म एक व्यावहारिक तौर पर गलत कृत्य माना जाएगा और विवाह-विच्छेद का वैध आधार बना रहेगा।
IPC की धारा 498A:
परिचय:
- धारा 498A विवाहित महिलाओं को पति या उसके नातेदारों द्वारा क्रूरता का शिकार होने से बचाने के लिये वर्ष 1983 में पेश की गई थी।
- इसमें कहा गया है कि जो कोई, किसी स्त्री का पति या पति का नातेदार होते हुए, ऐसी स्त्री के प्रति क्रूरता करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, “ क्रूरता” से निम्नलिखित अभिप्रेत है-
- जानबूझकर किया गया कोई आचरण जो ऐसी प्रकृति का है जिससे उस स्त्री को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित करने की या उस स्त्री के जीवन, अंग या स्वास्थ्य की (जो चाहे मानसिक हो या शारीरिक) गंभीर क्षति या खतरा कारित करने के लिये उसे करने की संभावना है; या
- किसी स्त्री को तंग करना, जहाँ उसे या उससे संबंधित किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति के लिये किसी विधिविरुद्ध मांग को पूरी करने के लिये प्रपीड़ित करने की दृष्टि से या उसके अथवा उससे संबंधित किसी व्यक्ति के ऐसे मांग पूरी करने में असफल रहने के कारण इस प्रकार तंग किया जा रहा है।
- इस धारा के तहत अपराध संज्ञेय और अज़मानती अपराध है।
- धारा 498A के तहत शिकायत अपराध से पीड़ित महिला या उसके रक्त, विवाह या गोद लेने से संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा दर्ज की जा सकती है, और यदि ऐसा कोई नातेदार नहीं है, तो किसी भी लोक सेवक द्वारा जिसे राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में अधिसूचित किया जा सकता है।
- धारा 498-A के तहत अपराध करने का आरोप लगाने वाली शिकायत कथित घटना के 3 साल के भीतर दर्ज की जा सकती है। हालाँकि, धारा 473 आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) न्यायालय को सीमा अवधि के बाद किसी अपराध पर संज्ञान लेने में सक्षम बनाती है यदि वह संतुष्ट है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है।
आवश्यक तत्व:
- धारा 498-A के तहत अपराध करने के लिये, निम्नलिखित आवश्यक संघटकों को संतुष्ट करना आवश्यक है:
- महिला विवाहित होनी चाहिये;
- उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया जाना चाहिये;
- ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न या तो महिला के पति या उसके पति के किसी रिश्तेदार द्वारा किया गया हो।
निर्णयज विधि:
- दिनेश सेठ बनाम दिल्ली एन.सी.टी. राज्य (2008) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 498-A का दायरा व्यापक है और इसमें उन सभी मामलों को शामिल किया गया है जिनमें पत्नी अपने पति या पति के रिश्तेदार द्वारा क्रूरता का शिकार होती है जिसके परिणामस्वरूप आत्महत्या के माध्यम से मृत्यु हो सकती है या गंभीर चोट या जीवन को खतरा हो सकता है। संपत्ति की किसी भी गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिये महिला या उससे संबंधित किसी भी व्यक्ति को मजबूर करने के उद्देश्य से अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) या यहाँ तक कि उत्पीड़ित भी किया गया हो।