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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

दहेज़ का अपराध

 10-Apr-2024

नरेश पंडित बनाम बिहार राज्य एवं अन्य।

“नवजात बच्चे के भरण-पोषण के लिये पति द्वारा अपनी पत्नी के माता-पिता से पैसे की मांग करना दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 (i) के दायरे में नहीं आता है”।

न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी

स्रोत: पटना उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पटना उच्च न्यायालय ने नरेश पंडित बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के मामले में कहा है कि यदि पति नवजात शिशु के भरण-पोषण के लिये अपनी पत्नी के माता-पिता से पैसे की मांग करता है, तो ऐसी मांग, दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 (i) का दायरे के अंतर्गत नहीं आती है

नरेश पंडित बनाम बिहार राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता (पति) का विवाह वर्ष 1994 में प्रतिपक्ष (पत्नी) के साथ हुआ था।
  • विवाह के दौरान, पत्नी ने तीन बच्चों (2 बेटे और 1 बेटी) को जन्म दिया।
  • पत्नी ने आरोप लगाया कि उनकी बेटी के जन्म के तीन साल बाद, याचिकाकर्त्ता एवं उसके रिश्तेदारों ने बच्ची के भरण-पोषण और देखभाल के लिये उसके पिता से 10,000 रुपए की मांग की
  • यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ता एवं अन्य वैवाहिक संबंधों की मांग पूरी न होने पर पत्नी को प्रताड़ित किया गया
  • इसके बाद पत्नी ने याचिकाकर्त्ता एवं अन्य वैवाहिक संबंधियों के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई
  • ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्त्ता एवं दो अन्य आरोपियों को दोषी ठहराया तथा सज़ा सुनाई।
  • अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देते हुए, पति ने पटना उच्च न्यायालय का रुख किया, जहाँ उसके अधिवक्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता एवं अन्य आरोपी व्यक्तियों के विरुद्ध पत्नी द्वारा लगाए गए आरोप सामान्य एवं सर्वव्यापी प्रकृति के हैं।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बिबेक चौधरी ने कहा कि यदि पति नवजात बच्चे के पालन-पोषण और भरण-पोषण के लिये पत्नी के पैतृक घर से पैसे की मांग करता है, तो ऐसी मांग दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 (i) के अनुसार दहेज़ की परिभाषा के दायरे में नहीं आती है।
  • आगे यह माना गया कि दहेज़ का आवश्यक तत्त्व विवाह के प्रतिफल के रूप में दिये गए या दिये जाने के लिये धन, संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति का भुगतान या मांग है।

दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2(i) क्या है?

  • दहेज़ को दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2(i) के अधीन परिभाषित किया गया है।
  • इसमें कहा गया है कि दहेज़ का अर्थ है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी गई या देने के लिये सहमत कोई संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा-
    (a) विवाह के एक पक्ष द्वारा विवाह के दूसरे पक्ष द्वारा, या
    (b) विवाह के किसी भी पक्ष के माता-पिता द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा, विवाह के किसी भी पक्ष या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा,
  • विवाह के समय या उससे पहले या उसके बाद किसी भी समय या उक्त पक्षों के विवाह के संबंध में।
  • इसमें उन व्यक्तियों के मामले में मेहर शामिल नहीं है जिन पर मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू होता है।
  • मूल्यवान सुरक्षा अभिव्यक्ति का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 30 में है।

सांविधानिक विधि

ज़ब्त वाहन की रिहाई

 10-Apr-2024

खेंगरभाई लाखाभाई डंभाला बनाम गुजरात राज्य

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 451 के अधीन मजिस्ट्रेट से संपर्क किये बिना उच्च न्यायालय में अपील करना उचित उपाय नहीं होगा।

न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय  ने माना कि ज़ब्त किये गए वाहन की रिहाई के लिये भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 226/227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में सीधे अपील करना दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 451 के अधीन मजिस्ट्रेट से संपर्क किये बिना उचित उपाय नहीं होगा।

  • उपरोक्त टिप्पणी खेंगरभाई लाखाभाई डंभाला बनाम गुजरात राज्य के मामले में की गई थी।

खेंगरभाई लाखाभाई डंभाला बनाम गुजरात राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता का वाहन ज़ब्त कर लिया गया और आरोपी लाखाभाई खेंगारभाई (वर्तमान अपीलकर्त्ता का बेटा) तथा अन्य के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई।
  • उक्त वाहन का चालक बिना किसी पास या परमिट के उक्त वाहन में 7 लाख रुपए मूल्य की अंग्रेज़ी शराब ले जा रहा था।
  • अपीलकर्त्ता ने CrPC की धारा 451 के अधीन मजिस्ट्रेट से संपर्क किये बिना उक्त वाहन को रिहा करने के उद्देश्य से अपने रिट क्षेत्राधिकार का उपयोग करके सीधे गुजरात उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
  • उक्त आवेदन को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
  • उसी से व्यथित होकर, वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज कर दिया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल की खंडपीठ ने कहा कि जब CrPC में एक विशिष्ट वैधानिक प्रावधान है जो आपराधिक न्यायालय को जाँच या मुकदमे के लंबित रहने तक संपत्ति की उचित हिरासत एवं निपटान के लिये उचित आदेश पारित करने का अधिकार देता है, तो अपीलकर्त्ता ऐसा नहीं कर सकता है। अपने वाहन की रिहाई की मांग करते हुए COI के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के असाधारण क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल किया है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि जब जब्त की गई संपत्ति/वाहन को संबंधित आपराधिक न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है, तो संबंधित न्यायालय का दायित्व है कि वह विचारण के लंबित रहने तक वाहन को उचित हिरासत में रखने के लिये उचित आदेश पारित करे

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

COI का अनुच्छेद 226

परिचय:

यह अनुच्छेद कुछ रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1)अनुच्छेद 32 में किसी भी प्रावधान के बावजूद, प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन सभी प्रदेशों के संबंध में, जिनके संबंध में वह अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है, भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी के प्रवर्तन के लिये और किसी अन्य उद्देश्य के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, को वारंटो तथा उत्प्रेषण या उनमें से किसी की प्रकृति में रिट किसी भी व्यक्ति या प्राधिकारी को, उचित मामलों में, किसी भी सरकार को, निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति होगी।

(2) किसी भी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निर्देश, आदेश या रिट जारी करने के लिये खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन क्षेत्रों के संबंध में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाले किसी भी उच्च न्यायालय द्वारा भी किया जा सकता है, जिसके भीतर कार्रवाई का कारण, पूर्ण या आंशिक रूप से उत्पन्न होता है। ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिये, इस बात के बावजूद कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवास उन क्षेत्रों के भीतर नहीं है।

(3) जहाँ कोई भी पक्ष जिसके विरुद्ध अंतरिम आदेश, चाहे निषेधाज्ञा या स्थगन के माध्यम से या किसी अन्य तरीके से, खंड (1) के तहत याचिका पर या उससे संबंधित किसी भी कार्यवाही में दिया जाता है, बिना-

(a) ऐसे पक्ष को ऐसी याचिका की प्रतियाँ और ऐसे अंतरिम आदेश के लिये याचिका के समर्थन में सभी दस्तावेज़ उपलब्ध कराना, तथा

(b) ऐसे पक्ष को सुनवाई का अवसर देते हुए, ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय में आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रति उस पक्ष को देता है जिसके पक्ष में ऐसा आदेश दिया गया है या ऐसे पक्ष के अधिवक्ता को, उच्च न्यायालय द्वारा आवेदन का निपटान उस तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर किया जाएगा जिस तारीख को यह प्राप्त हुआ है या उस तारीख से जिस दिन ऐसे आवेदन की प्रति प्रस्तुत की गई है, जो भी बाद में हो, या जहाँ अंतिम दिन उच्च न्यायालय बंद है वह अवधि, जिसके अगले दिन की समाप्ति से पहले उच्च न्यायालय खुला है; और यदि आवेदन का निपटान इस प्रकार नहीं किया जाता है, तो अंतरिम आदेश, उस अवधि की समाप्ति पर, या, जैसा भी मामला हो, उक्त अगले दिन की समाप्ति पर, रद्द हो जाएगा।

(4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अनादर नहीं होगा

निर्णयज विधि

  • जगदीश प्रसाद शास्त्री बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1970), उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि किसी रिट याचिका में गलत तथ्यात्मक मैट्रिक्स शामिल है तथा उच्च न्यायालय इसे अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च विशेषाधिकार रिट की मांग करने वाली याचिका के माध्यम से समाधान के लिये अनुपयुक्त मानता है, तो वह ऐसे मामलों को संबोधित करने से मना करने का अधिकार यथावत रखता है।

COI का अनुच्छेद 227

Article 227 of the COI

यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के पास उन सभी क्षेत्रों में सभी न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों पर अधीक्षण होगा, जिसके संबंध में वह क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है।

(2) पूर्वगामी प्रावधान की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय-

(a) ऐसी न्यायलयों से रिटर्न की मांग करें,

(b) ऐसे न्यायालयों की प्रैक्टिस एवं कार्यवाहियों को विनियमित करने के लिये सामान्य नियम बनाना और जारी करना तथा प्रपत्र निर्धारित करना,

(c) ऐसे प्रपत्र निर्धारित करें जिनमें ऐसी किसी भी न्यायालय के अधिकारियों द्वारा पुस्तकें, प्रविष्टियाँ और खाते रखे जाएंगे।

(3) उच्च न्यायालय अपने शासनाधिकारी एवं ऐसी न्यायालयों के सभी लिपिक व अधिकारियों तथा वहाँ विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं और इनको को दी जाने वाली शुल्क की तालिका भी तय कर सकता है।

(4) इस लेख में किसी भी प्रावधान को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी भी विधि के अधीन या उसके अधीन गठित किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण पर अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति प्रदान करने वाला नहीं माना जाएगा।

CrPC की धारा 451

CrPC की धारा 451 कुछ मामलों में विचारण के दौरान लंबित संपत्ति की हिरासत एवं निपटान के आदेश से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

जब किसी जाँच या मुकदमे के दौरान किसी भी संपत्ति को किसी आपराधिक न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय जाँच या मुकदमे के निष्कर्ष तक ऐसी संपत्ति की उचित हिरासत के लिये ऐसा आदेश दे सकती है, जैसा वह उचित समझती है तथा यदि संपत्ति शीघ्र नष्ट होने वाली, प्राकृतिक क्षय, या यदि ऐसा करना अन्यथा समीचीन है, तो न्यायालय, ऐसे साक्ष्य दर्ज करने के बाद, जैसा वह आवश्यक समझे, इसे बेचने या अन्यथा निपटाने का आदेश दे सकता है।

स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, "संपत्ति" में शामिल हैं-

(a) किसी भी प्रकार की संपत्ति या दस्तावेज़ जो न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया हो या जो उसकी हिरासत में हो,

(b) कोई भी संपत्ति जिसके संबंध में कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है या जिसका उपयोग किसी अपराध के लिये किया गया प्रतीत होता है।


सिविल कानून

परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत विलंब को क्षमा करने के सिद्धांत

 10-Apr-2024

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से पथपति सुब्बा रेड्डी (मृत्यु) एवं अन्य बनाम विशेष उप कलेक्टर

यदि पर्याप्त कारण बताया गया हो तो न्यायालयों को विलंब, जैसे विभिन्न कारकों के लिये स्थापित किया गया है, जहाँ अत्यधिक विलंब, लापरवाही एवं उचित परिश्रम की कमी है, को क्षमा करने के लिये विवेक का प्रयोग करने का अधिकार है, लेकिन शक्ति का प्रयोग प्रकृति में विवेकाधीन है तथा पर्याप्त कारण होने पर भी इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि "यदि पर्याप्त कारण बताया गया हो तो न्यायालयों को विलंब, जैसे विभिन्न कारकों के लिये स्थापित किया गया है, जहाँ अत्यधिक विलंब, लापरवाही एवं उचित परिश्रम की कमी है, को क्षमा करने के लिये विवेक का प्रयोग करने का अधिकार है, लेकिन शक्ति का प्रयोग प्रकृति में विवेकाधीन है तथा पर्याप्त कारण होने पर भी इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है”।

  • न्यायालय ने यह टिप्पणी विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से पथपति सुब्बा रेड्डी (मृत्यु) एवं अन्य बनाम विशेष उप कलेक्टर के मामले में दी।

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से पथपति सुब्बा रेड्डी (मृत्यु) एवं अन्य बनाम विशेष उप कलेक्टर की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला वर्ष 1989 में तेलगू गंगा परियोजना के लिये आंध्र प्रदेश के गंडलुरू गाँव में भूमि अधिग्रहण के आस-पास घूमता है।
  • सोलह दावेदारों ने मुआवज़े का विरोध किया, लेकिन कार्यवाही के दौरान कुछ की मृत्यु हो गई तथा कोई उत्तराधिकारी नहीं मिला।
  • पाँच साल से अधिक समय के बाद, केवल एक मृत दावेदार के वारिसों ने 5659 दिन की विलंब के बाद अपील करने की मांग की।
  • उन्होंने दूर रहने के कारण जागरूकता की कमी का हवाला दिया तथा अन्य दावेदारों या उनके उत्तराधिकारियों ने अपील में सह अपीलार्थी नहीं बने।
  • उच्च न्यायालय ने अनुचित विलंब के कारण देते हुए अपील खारिज कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि दर्ज किये गए कारणों के लिये उच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग किये गए विवेकाधिकार में हस्तक्षेप करने का कोई अवसर नहीं है।
    • पहले, दावेदारों ने संदर्भ को आगे बढ़ाने तथा फिर प्रस्तावित अपील दायर करने में लापरवाही की।
    • दूसरे, अधिकांश दावेदारों ने संदर्भ न्यायालय के निर्णय को स्वीकार कर लिया है।
    • तीसरा, यदि याचिकाकर्त्ताओं को इसके निर्णय से पहले संदर्भ में प्रतिस्थापित और पक्ष नहीं बनाया गया है, तो वे प्रक्रियात्मक समीक्षा के लिये आवेदन कर सकते थे जो उन्होंने कभी नहीं किया।
  • इस प्रकार, मामले को आगे बढ़ाने में उनकी ओर से स्पष्ट रूप से कोई उचित परिश्रम नहीं किया गया। तद्नुसार, न्यायालय की राय में, उच्च न्यायालय द्वारा अपील दायर करने में विलंब को क्षमा करने से मना करना उचित था

परिसीमन अधिनियम के अधीन विलंब को क्षमा करने के लिये न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत क्या हैं?

जैसा कि ऊपर कहा गया है, विधि के प्रावधानों एवं इस न्यायालय द्वारा निर्धारित विधि पर सामंजस्यपूर्ण विचार करने पर, यह स्पष्ट है कि:

  • परिसीमा विधि, लोक नीति पर आधारित है कि अधिकार के बजाय उपचार के अधिकार को ज़ब्त करके मुकदमेबाज़ी की प्रवृत्ति का अंत होना चाहिये,
  • एक अधिकार या उपाय जिसका लंबे समय से प्रयोग या लाभ नहीं उठाया गया है, एक निश्चित अवधि के बाद समाप्त हो जाना चाहिये,
  • परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों को अलग ढंग से समझना होगा, जैसे धारा 3 को सख्त अर्थ में समझना होगा जबकि धारा 5 को उदारतापूर्वक समझना होगा,
  • पर्याप्त न्याय को आगे बढ़ाने के लिये, हालाँकि उदार दृष्टिकोण, न्याय-उन्मुख दृष्टिकोण या पर्याप्त न्याय के कारण को ध्यान में रखा जा सकता है, लेकिन इसका उपयोग परिसीमन अधिनियम की धारा 3 में निहित परिसीमा के पर्याप्त विधि को पराजित करने के लिये नहीं किया जा सकता है,
  • यदि पर्याप्त कारण बताया गया हो तो न्यायालयों को विलंब, जैसे विभिन्न कारकों के लिये स्थापित किया गया है, जहाँ अत्यधिक विलंब, लापरवाही एवं उचित परिश्रम की कमी है, को क्षमा करने के लिये विवेक का प्रयोग करने का अधिकार है, लेकिन शक्ति का प्रयोग प्रकृति में विवेकाधीन है तथा पर्याप्त कारण होने पर भी इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है,
  • केवल कुछ व्यक्तियों ने समान मामले में राहत प्राप्त की है, इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य लोग भी उसी लाभ के अधिकारी हैं यदि न्यायालय अपील दायर करने में विलंब के लिये दिखाए गए कारण से संतुष्ट नहीं है,
  • विलंब को क्षमा करने के लिये मामले के गुण-दोषों पर विचार करना आवश्यक नहीं है, तथा
  • विलंब क्षमा आवेदन का निर्णय विलंब क्षमा के लिये निर्धारित मापदंडों के आधार पर किया जाना है और जिस कारण से शर्तें लगाई गई हैं उस विलंब को क्षमा करना वैधानिक प्रावधान की अवहेलना करने के समान है।

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 एवं धारा 5 क्या हैं?

  • धारा 3: सीमा की बाधा:
    • धारा 4 से 24 (समावेशी) में निहित प्रावधानों के अधीन, स्थापित प्रत्येक वाद, वरीयता प्राप्त अपील एवं निर्धारित अवधि के बाद किया गया आवेदन खारिज कर दिया जाएगा, हालाँकि बचाव के रूप में परिसीमा स्थापित नहीं की गई है।
    • इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिये-
      • एक वाद स्थापित किया गया है -
        • सामान्य मामले में, जब वादपत्र उचित अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है;
        • एक कंगाल के मामले में, जब एक कंगाल के रूप में वाद चलाने की अनुमति के लिये उसका आवेदन किया जाता है, तथा
        • किसी कंपनी के विरुद्ध दावे के मामले में, जिसे न्यायालय द्वारा बंद किया जा रहा है, जब दावेदार पहली बार अपना दावा आधिकारिक परिसमापक को भेजता है;
      • किसी मुजरा या प्रतिदावे के माध्यम से किये गए किसी भी दावे को एक अलग वाद के रूप में माना जाएगा तथा उसे संस्थित माना जाएगा-
      • मुजरा किये जाने की स्थिति में, उसी दिनांक को जिस दिनांक को वाद दायर किया गया है जिसमें मुजरा किये जाने का अनुरोध किया गया है,
      • किसी प्रतिदावे के मामले में, उस दिनांक को जिस दिन न्यायालय में प्रतिदावा किया जाता है,
      • उच्च न्यायालय में प्रस्ताव की सूचना द्वारा एक आवेदन तब किया जाता है जब आवेदन उस न्यायालय के उचित अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
  • धारा 5: कुछ मामलों में निर्धारित अवधि का विस्तार:
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के अधीन आवेदन के अतिरिक्त कोई भी अपील या कोई आवेदन, निर्धारित अवधि के बाद स्वीकार किया जा सकता है यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक न्यायालय को संतुष्ट करता है कि उसके पास ऐसी अवधि के अंदर अपील न करने या आवेदन न करने का पर्याप्त कारण हैं।

स्पष्टीकरण- यह तथ्य कि अपीलकर्त्ता या आवेदक निर्धारित अवधि सुनिश्चित करने या गणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, अभ्यास या निर्णय से चूक गया था, इस धारा के अर्थ में पर्याप्त कारण हो सकता है।