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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

IPC की धारा 498A

 29-Apr-2024

संघमित्रा बनाम  राज्य

"महिला पुलिस अधिकारी भी अपने पति एवं ससुराल वालों द्वारा क्रूरता का शिकार हो सकती है”।

न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में संघमित्रा बनाम राज्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि चूँकि याचिकाकर्त्ता एक पुलिस अधिकारी है, इसलिये हम यह नहीं कह सकते कि उसे डराया-धमकाया नहीं जा सकता, परेशान नहीं किया जा सकता और उसके पति तथा ससुराल वालों द्वारा दहेज़ की मांग नहीं की जा सकती।

संघमित्रा बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता ने अपने पति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A के अधीन शिकायत दर्ज कराई थी।
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा लगाया गया आरोप यह था कि, उसने अपने पति से वर्ष 1998 में बौद्ध रीति-रिवाज़ों एवं समारोहों के अनुसार शादी की थी।
  • उसके माता-पिता ने अपनी सर्वोत्तम आर्थिक क्षमता के अनुसार विवाह तय किया था तथा दहेज़ भी दिया था।
  • याचिकाकर्त्ता एवं उसके पति, दोनों दिल्ली पुलिस में कार्यरत थे। शादी के तुरंत बाद, उसके पति, उसके माता-पिता और उसकी बहनों ने अपर्याप्त दहेज़ लाने के लिये उसे ताना देना एवं चिढ़ाना शुरू कर दिया।
  • उसका पति उससे अधिक दहेज़ देने के लिये कहता था तथा 1.5 लाख रुपए, एक कार एवं एक अलग घर की मांग करता था। याचिकाकर्त्ता के पिता की ओर से मांगों को पूरा करने में विफलता के परिणामस्वरूप याचिकाकर्त्ता को यातना एवं शारीरिक चोटें पहुँचाई गईं।
  • चूँकि याचिकाकर्त्ता अपने पति एवं ससुराल वालों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ थी, इसलिये उसे कथित तौर पर पीटा गया तथा 8 सितंबर 1999 को उसके वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया।
  • उसी दिन उसने क्रूरता की घटनाओं का उल्लेख करते हुए शिकायत दर्ज कराई
  • अप्रैल में याचिकाकर्त्ता ने एक बेटी को जन्म दिया था तथा उसे अपने वस्तुओं की नितांत आवश्यकता थी, लेकिन उसके पति ने उसका वस्तुएँ वापस नहीं किया। आख़िरकार उसने पुलिस उपायुक्त, काव सेल, नई दिल्ली के पास शिकायत दर्ज कराई। शिकायत के आधार पर, प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) 19 दिसंबर 2002 को दर्ज की गई थी।
  • इस मामले में आरोपी व्यक्तियों (उसके पति एवं ससुराल वालों) के विरुद्ध IPC की धारा 498A, 406 एवं 34 के अधीन आरोप-पत्र दायर किया गया था।
  • मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, नई दिल्ली ने 4 जून 2006 को आदेश पारित किया था तथा आरोपी व्यक्तियों पर IPC की धारा 34 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 498A के अधीन आरोप लगाए गए थे। यहाँ उन्होंने IPC की धारा 406 के अधीन आरोप हटा दिये।
  • आरोपी व्यक्तियों ने एक पुनरीक्षण याचिका दायर की थी तथा विद्वान सत्र न्यायालय ने उन्हें याचिकाकर्त्ता द्वारा अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, दिल्ली द्वारा पारित निर्णय को रद्द करने के लिये वर्तमान याचिका दायर की गई थी।
  • विद्वान सत्र न्यायालय द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय को उच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने कहा कि याचिकाकर्त्ता द्वारा अपराध होने की तारीख से 2 वर्ष और 10 महीने की अवधि के भीतर शिकायत दर्ज की गई थी, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973(CrPC) की धारा 468 के अनुसार 3 वर्ष की सीमा अवधि के भीतर है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि एक पुलिस अधिकारी भी घरेलू हिंसा का शिकार हो सकता है तथा न्यायालय को किसी भी पेशे से जुड़ी लिंग-आधारित या रूढ़िवादी धारणाओं से अंधा नहीं होना चाहिये।

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या थे?

  • सारा मैथ्यू बनाम कार्डियो वैस्कुलर रोग संस्थान (2014):
    • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 468 CrPC के अधीन सीमा की अवधि की गणना के लिये, प्रासंगिक तारीख शिकायत दर्ज करने की तारीख या अभियोजन शुरू करने की तारीख है, न कि वह तारीख जिस पर मजिस्ट्रेट संज्ञान लेता है।
  • जापानी साहू बनाम चंद्र शेखर मोहंती (2007):
    • इस मामले में, यह माना गया कि परिसीमा की अवधि की गणना के प्रयोजन के लिये, न्यायालय द्वारा संबंधित तारीख को शिकायत दर्ज करने या आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की तारीख के रूप में माना जाना चाहिये, न कि मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लेने या प्रक्रिया जारी करने की तारीख के रूप में।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 498A

  • यह धारा किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करने से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई भी किसी महिला का पति या पति का रिश्तेदार होते हुए ऐसी महिला के साथ क्रूरता करेगा, उसे तीन वर्ष तक की कैद की सज़ा दी जाएगी तथा ज़ुर्माना भी लगाया जाएगा।
  • स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजन के लिये, "क्रूरता" का अर्थ है-
    • कोई भी जानबूझकर किया गया आचरण, जो ऐसी प्रकृति का हो, जिससे महिला को आत्महत्या करने के लिये प्रेरित किया जा सके या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) को गंभीर चोट या खतरा हो, या
    • महिला का उत्पीड़न जहाँ ऐसा उत्पीड़न उसे या उससे संबंधित किसी व्यक्ति को किसी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा की किसी भी अविधिक मांग को पूरा करने के लिये विवश करने के उद्देश्य से होता है या उसके या उससे संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा ऐसी मांग को पूरा करने में विफलता के कारण होता है।

CrPC की धारा 468:

  • यह धारा परिसीमा अवधि बीत जाने के बाद संज्ञान लेने पर रोक से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-
  • इस संहिता में अन्यत्र अन्यथा प्रदान किये जाने के अतिरिक्त, कोई भी न्यायालय परिसीमा अवधि की समाप्ति के बाद, उप-धारा (2) में निर्दिष्ट श्रेणी के किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा।
  • परिसीमा की अवधि होगी-
    • छह महीने, यदि अपराध, केवल ज़ुर्माने से दण्डनीय है,
    • एक वर्ष, यदि अपराध एक वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दण्डनीय है,
    • तीन वर्ष, यदि अपराध एक वर्ष से अधिक लेकिन तीन वर्ष से अधिक की अवधि के लिये कारावास से दण्डनीय है।
    • इस धारा के प्रयोजनों के लिये, उन अपराधों के संबंध में परिसीमा की अवधि, जिनका एक साथ अभियोजन चलाया जा सकता है, उस अपराध के संदर्भ में निर्धारित की जाएगी, जो अधिक गंभीर दण्ड से दण्डनीय है या, जैसा भी मामला हो, सबसे गंभीर दण्ड है।

सांविधानिक विधि

EVM निर्णय

 29-Apr-2024

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत निर्वाचन आयोग एवं अन्य

“केवल इस संदेह के आधार पर कि EVM के माध्यम से डाले गए वोटों एवं VVPAT द्वारा डाले गए वोटों की संख्या में अंतर हो सकता है, जिससे 100% VVPAT पर्चियों के सत्यापन की मांग को बढ़ावा मिल सकता है, वर्तमान रिट याचिकाओं के संदर्भ में सुनवाई योग्य मानने हेतु पर्याप्त आधार नहीं है।”

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत निर्वाचन आयोग एवं अन्य के मामले में यह माना कि “केवल इस संदेह के आधार पर कि EVM के माध्यम से डाले गए वोटों एवं VVPAT द्वारा डाले गए वोटों की संख्या में अंतर हो सकता है, जिससे 100% VVPAT पर्चियों के सत्यापन की मांग को बढ़ावा मिल सकता है, वर्तमान रिट याचिकाओं के संदर्भ में सुनवाई योग्य मानने हेतु पर्याप्त आधार नहीं है”।

माया गोपीनाथन बनाम अनूप S.B. मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला भारत के चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVMs) के उपयोग को चुनौती देने वाली याचिकाओं से संबंधित है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने भारत निर्वाचन आयोग (ECI) की ओर से किसी आशय या दुर्भावना का आरोप नहीं लगाया है, या यह दावा नहीं किया है कि किसी उम्मीदवार या दल के पक्ष में EVM में धांधली की गई है।
    • हालाँकि उन्होंने तर्क दिया कि EVM में हेरफेर की संभावना के कारण मतदाताओं में संदेह होने के साथ विश्वास की कमी होती है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने वैकल्पिक रूप से तर्क दिया कि
    • कागज़ी मतपत्र प्रणाली की ओर लौटा जाए
    • मतदाताओं को वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) पर्ची के माध्यम से अपने वोट को सत्यापित करने तथा गिनती के लिये इसे मतपेटी में जमा करने की अनुमति देना, या
    • इलेक्ट्रॉनिक गिनती के अलावा VVPAT पर्चियों की भी 100% गिनती करना।
    • मतदाताओं को यह जानने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिये कि उनका वोट सही ढंग से पंजीकृत हुआ है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने कहा कि वोटों की गलत गणना की किसी भी संभावना को रोकने के लिये तथा मतदाताओं को यह जानने की अनुमति देने के लिये कि उनके वोट को रिकॉर्ड किया गया है, EVM और VVPAT के रूप में जाँच तथा संतुलन की एक कड़ी प्रणाली है। यह प्रणाली पहले की पेपर बैलेट प्रणाली की तुलना में अधिक संतोषजनक है।
  • न्यायालय ने कहा कि केवल संदेह पर आधारित रिट याचिकाओं पर विचार नहीं किया जाना चाहिये। किसी रिट याचिका पर सुनवाई के लिये विश्वसनीय साक्ष्य होना चाहिये।
  • रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत रिट याचिकाओं पर भी लागू होता है। जब तक पहले से उठाए गए पर्याप्त नए आधार प्रस्तुत नहीं किये जाते, तब तक न्यायालय किसी याचिका को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर सकती है, यदि मुद्दे पर पहले ही निर्णय हो चुका है।
  • EVM की प्रभावकारिता पर संदेह के विशिष्ट मुद्दे पर, न्यायालय ने कहा कि इस मामले को पहले भी उठाया गया है और अब इसे निश्चित रूप से समाप्त करने की आवश्यकता है। कागज़ी मतपत्रों की ओर लौटने जैसे प्रतिगामी कदम तब तक नहीं अपनाए जा सकते जब तक कि EVM के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य पेश नहीं किये जाते।
  • न्यायालय ने संतुलित परिप्रेक्ष्य बनाए रखने, प्रणाली के किसी भी हिस्से पर आँख मूंदकर अविश्वास करने से बचने के साथ प्रणाली की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हुए सार्थक सुधार की अनुमति देने के क्रम में साक्ष्य एवं कारणों द्वारा निर्देशित एक महत्त्वपूर्ण लेकिन रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया।

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से संबंधित विधि:

  • EVM का इतिहास:
    • इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM ) का विचार पहली बार वर्ष 1977 में आया था तथा वर्ष 1979 में इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ECIL) द्वारा इसका एक प्रोटोटाइप विकसित किया गया था।
    • राजनीतिक सहमति के बाद, वर्ष 1982 में केरल चुनाव में पायलट आधार पर EVM का प्रयोग किया गया था।
    • हालाँकि इसे ए.सी. जोस बनाम सिवन पिल्लई (1984) के मामले में चुनौती दी गई थी तथा उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया था कि निर्वाचन आयोग विधियों से परे नहीं जा सकता है और विधिक प्रावधानों के बिना EVM का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
  • EVM उपयोग के लिये विधायी संशोधन:
    • उच्चतम न्यायालय के वर्ष 1984 के फैसले के बाद, सरकार ने EVM के उपयोग के लिये विधिक मंज़ूरी प्रदान करने हेतु धारा 61A जोड़कर वर्ष 1989 में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया।
    • इस संशोधन की संवैधानिक वैधता को अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त (2001) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यथावत रखा गया था।
  • EVMs एवं VVPATs से संबंधित विधिक प्रावधान:
    • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 एवं चुनाव संचालन नियम, 1961 में EVMs के उपयोग से संबंधित कई प्रावधान शामिल किये गए, जैसे EVMs की विफलता के कारण नए सिरे से मतदान, EVMs से जुड़े बूथ कैप्चरिंग जैसे अपराध, EVMs डिज़ाइन के नियम, मतदान और गिनती की प्रक्रिया आदि।
    • VVPATs को शुरू करने के लिये वर्ष 2013 में भी संशोधन किये गए थे।
  • देश भर में EVM को अपनाना:
    • वर्ष 1989 के विधिक संशोधनों के बाद, EVM का उपयोग धीरे-धीरे भारत भर में लगातार होने वाले चुनावों में अधिक व्यापक रूप से किया जाने लगा- वर्ष 1998-99 में कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में, वर्ष 2000 के बाद से विशिष्ट राज्य चुनावों में और अंततः वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों के लिये सभी निर्वाचन क्षेत्रों में EVM का उपयोग देश भर में किया गया।
  • EVMs का तकनीकी विकास:
    • समय के साथ EVMs में तकनीकी उन्नयन हुआ है- वर्ष 2006 से पहले M1 EVMs थे, वर्ष 2006-2010 के बीच M2 मॉडल तैयार किये गए थे और वर्ष 2013 से बाद का नवीनतम संस्करण M3है।

इस मामले से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या थे?

  • सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत निर्वाचन आयोग (2013)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि EVMs में सटीकता सुनिश्चित करने तथा मतदाताओं का विश्वास बहाल करने के लिये स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों हेतु "पेपर ट्रेल" (VVPATs) एक अनिवार्य आवश्यकता है।
    • 1 मिलियन मतदान केंद्रों के विनियमन की तार्किक चुनौतियों के कारण ECI को पूरे भारत में क्रमिक/चरणबद्ध तरीके से VVPAT शुरू करने की अनुमति दी गई थी।
  • एन. चंद्रबाबू नायडू एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2019):
    • संबंधित दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रति निर्वाचन क्षेत्र में 1 EVM के VVPAT सत्यापन के बजाय, उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि प्रति निर्वाचन क्षेत्र में 5 EVM के VVPAT का सत्यापन किया जाना चाहिये।
    • इसका उद्देश्य मतदाताओं के बीच अधिक संतुष्टि के साथ चुनाव परिणामों की पूर्ण सटीकता सुनिश्चित करना था।

सांविधानिक विधि

RTI अधिनियम के अंतर्गत जानकारी

 29-Apr-2024

भारतीय विदेश व्यापार संस्थान बनाम कमल जीत छिब्बर

"सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत कोई प्राधिकारी, इस आधार पर सूचना देने से मना नहीं कर सकता कि मांगी गई सूचना ज़्यादा है”।

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय विदेश व्यापार संस्थान बनाम कमल जीत छिब्बर के मामले में कहा है कि कोई भी प्राधिकारी सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI अधिनियम) के अंतर्गत इस आधार पर जानकारी देने से मना नहीं कर सकता है कि मांगी गई सूचना ज़्यादा है।

भारतीय विदेश व्यापार संस्थान बनाम कमल जीत छिब्बर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता भारतीय विदेश व्यापार संस्थान (IIFT) देश के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं व्यवसाय को बढ़ावा देने एवं पेशेवर बनाने के लिये भारत सरकार द्वारा स्थापित एक शैक्षणिक संस्थान है।
  • प्रतिवादी संख्या 1, याचिकाकर्त्ता का पूर्व कर्मचारी है तथा प्रतिवादी संख्या 2, केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) है, जो एक अर्ध-न्यायिक निकाय है।
  • प्रतिवादी संख्या 1 ने कुछ सूचना मांगने के लिये, भारतीय विदेश व्यापार संस्थान के पास PIO के संग एक RTI आवेदन दायर किया।
  • प्रतिवादी को कोई उत्तर नहीं दिया गया तथा उसने 3 सितंबर 2013 को प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपील दायर की।
  • उत्तर से असंतुष्ट, प्रतिवादी ने जानकारी न देने का दावा करते हुए CIC से संपर्क किया।
  • CIC द्वारा 25 दिसंबर 2015 एवं 25 जनवरी 2016 को दो आदेश पारित किये गए। पहले आदेश में, आयोग ने IIFT को प्रतिवादी संख्या 1 को रिकॉर्ड का निरीक्षण करने की अनुमति देने का आदेश दिया।
  • हालाँकि, जनवरी 2016 के आदेश में, CIC ने संस्थान को उठाए गए सभी 27 बिंदुओं पर स्पष्ट जानकारी प्रदान करने का निर्देश दिया।
  • संस्थान ने तर्क दिया कि प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा मांगी गई जानकारी मात्रा में ज़्यादा है, जिसका प्रकटन करने से मना कर दिया गया, क्योंकि इसमें बहुत सारे संसाधन लगेंगे।
  • CIC के आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • CIC के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण न पाते हुए उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि कोई प्राधिकारी RTI अधिनियम के अंतर्गत इस आधार पर जानकारी देने से मना नहीं कर सकता कि मांगी गई सूचना मात्रा में ज़्यादा है।
  • आगे यह माना गया कि RTI आवेदक द्वारा मांगी गई जानकारी RTI अधिनियम की धारा 8 में निहित किसी भी छूट के अंतर्गत नहीं आती है। यदि यह न्यायालय वर्तमान रिट याचिका में उठाए गए तर्कों को स्वीकार करता है, तो यह RTI अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत एक और छूट जोड़ने के समान होगा।

RTI अधिनियम क्या है?

RTI अधिनियम:

परिचय:

  • यह भारत की संसद का एक अधिनियम है, जो नागरिकों के सूचना के अधिकार के संबंध में नियम एवं प्रक्रियाएँ निर्धारित करता है।
  • RTI अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत, भारत का कोई भी नागरिक किसी सार्वजनिक प्राधिकरण से सूचना के लिये अनुरोध कर सकता है, जिसका उत्तर शीघ्रता से या तीस दिनों के अंदर देना आवश्यक है।
  • RTI विधेयक 15 जून 2005 को भारत की संसद द्वारा पारित किया गया तथा 12 अक्टूबर 2005 से लागू हुआ।

उद्देश्य:

  • नागरिकों को सशक्त बनाना।
  • पारदर्शिता एवं जवाबदेही को बढ़ावा देना।
  • भ्रष्टाचार से निपटने के लिये।
  • लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को बढ़ाना।

सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019:

  • इसमें प्रावधान है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक सूचना आयुक्त (केंद्र के साथ-साथ राज्यों के) केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित अवधि के लिये पद पर रहेंगे। इस संशोधन से पहले इनका कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित था।
  • इसमें प्रावधान किया गया कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक सूचना आयुक्त (केंद्र के साथ-साथ राज्यों के) का वेतन, भत्ते एवं अन्य सेवा शर्तें केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जाएंगी।

अधिनियम की धारा 8:

  • यह अधिनियम, सूचना के प्रकटीकरण से छूट से संबंधित है।