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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

गैर ज़मानती वारंट

 03-May-2024

शरीफ अहमद एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

गैर-ज़मानती वारंट, तब तक जारी नहीं किये जाने चाहिये, जब तक कि आरोपी पर जघन्य अपराध का आरोप न हो तथा विधि की प्रक्रिया से बचने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने या उन्हें नष्ट करने की संभावना न हो।

न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं एस.वी.एन. भट्टी

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि गैर-ज़मानती वारंट, तब तक जारी नहीं किये जाने चाहिये, जब तक कि आरोपी पर जघन्य अपराध का आरोप न हो तथा विधि की प्रक्रिया से बचने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने या उन्हें नष्ट करने की संभावना न हो।

  • उपरोक्त टिप्पणी शरीफ अहमद एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में की गई थी।

शरीफ अहमद एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, ज़मानती वारंट जारी होने के बावजूद अपीलकर्त्ताओं द्वारा न्यायालय के समक्ष उपस्थित न होने के कारण विचारण न्यायालय द्वारा अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध गैर-ज़मानती वारंट जारी किया गया था।
  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये आरोप-पत्र दायर किया गया था।
  • अपीलकर्त्ताओं ने आरोप-पत्र एवं कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोप-पत्र रद्द करने की अर्जी खारिज कर दी।
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।
  • अपील को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने कहा कि हालाँकि गैर-ज़मानती वारंट जारी करने के लिये दिशा-निर्देशों का कोई व्यापक सेट नहीं है, लेकिन इस न्यायालय ने कई अवसरों पर देखा है कि गैर-ज़मानती वारंट जारी नहीं किये जाने चाहिये, जब तक कि आरोपी पर जघन्य अपराध के साथ, तथा विधि की प्रक्रिया से बचने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने या नष्ट करने की संभावना का आरोप न लगाया जाए।
  • आगे यह माना गया कि यह विधि की स्थापित स्थिति है कि गैर-ज़मानती वारंट नियमित तरीके से जारी नहीं किया जा सकता है तथा किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को तब तक कम नहीं किया जा सकता है, जब तक कि जनता एवं राज्य के व्यापक हित के लिये आवश्यक न हो।

वारंट से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

परिचय:

  • वारंट राज्य की ओर से न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया एक लिखित दस्तावेज़ है, जो किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी और हिरासत या किसी व्यक्ति की संपत्ति की तलाशी एवं ज़ब्ती को अधिकृत करता है।
  • गिरफ्तारी का वारंट तब तक लागू रहता है, जब तक कि इसे जारी करने वाला न्यायालय द्वारा इसे निष्पादित या रद्द नहीं किया जाता है।

उद्देश्य:

  • वारंट जारी करने का प्राथमिक कारण न्याय का उचित प्रशासन सुनिश्चित करना है।
  • सावधानी को ध्यान में रखते हुए वारंट जारी किया जा सकता है, जिससे आरोपी को न्यायालय में प्रस्तुत होने के लिये बाध्य किया जा सके।

आवश्यक तत्त्व:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता , 1973 (CrPC) की धारा 70 के अनुसार, गिरफ्तारी वारंट की अनिवार्यताएँ निम्नलिखित हैं:
    • गिरफ्तारी का वारंट लिखित रूप में होना चाहिये।
    • इस पर मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर होने चाहिये।
    • इस पर न्यायालय की मुहर अवश्य लगी होनी चाहिये।
    • ऐसे वारंट के निष्पादक का नाम एवं पदनाम अंकित करें।
    • अभियुक्त का स्पष्ट नाम व पता बताएँ।
    • वह अपराध बताएँ, जिसके लिये अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है।
    • जारी करने की तिथि बताएँ।
    • उपस्थिति की तिथि बताएँ।
    • भारत में किसी भी स्थान पर निष्पादित की जा सकती है।

ज़मानतीय वारंट:

  • जब गिरफ्तारी वारंट में यह निर्देश निहित होता है कि, यदि वारंट के अधीन गिरफ्तार किया गया व्यक्ति, एक बाॅण्ड निष्पादित करता है तथा न्यायालय में अपनी उपस्थिति के लिये प्रतिभूति देता है, तो उसे रिहा कर दिया जाएगा।
  • ऐसे निर्देश वाले वारंट को आम तौर पर गिरफ्तारी का ज़मानती वारंट कहा जाता है।
  • यह वारंट आरोपी को ज़मानत देने और वाद तक अभिरक्षा से रिहा करने की अनुमति देता है।

गैर ज़मानतीय वारंट:

  • गैर-ज़मानती वारंट एक प्रकार का गिरफ्तारी वारंट है, जो न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है जब किसी व्यक्ति पर गंभीर अपराध का आरोप लगाया जाता है तथा न्यायालय का मानना ​​है कि एक महत्त्वपूर्ण जोखिम है कि ज़मानत पर रिहा होने वाला व्यक्ति भाग सकता है या विधिक कार्यवाही में सहयोग नहीं कर सकता है।
  • गैर-ज़मानती वारंट, आरोपी को ज़मानत पर रिहा करने की अनुमति नहीं देता है। इसके बजाय, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है तथा न्यायालय में प्रस्तुत होने तक या न्यायालय के अगले आदेश तक अभिरक्षा में रखा जाता है।
  • गैर-ज़मानती वारंट जारी करने का निर्णय न्यायाधीश द्वारा अपराध की प्रकृति, आरोपों की गंभीरता, आरोपी के भागने की संभावना एवं अन्य प्रासंगिक कारकों के आधार पर किया जाता है।

वारंट का निष्पादन:

  • CrPC की धारा 72 के अनुसार, वारंट पुलिस अधिकारी या किसी भी व्यक्ति को निर्देशित किया जा सकता है।
  • CrPC की धारा 74 के अनुसार, किसी भी पुलिस अधिकारी को निर्देशित वारंट को किसी अन्य पुलिस अधिकारी द्वारा भी निष्पादित किया जा सकता है, जिसका नाम निर्देशित पुलिस अधिकारी द्वारा समर्थित है।
  • CrPC की धारा 78 के अनुसार, न्यायालय के स्थानीय क्षेत्राधिकार के बाहर निष्पादित किये जाने वाले गिरफ्तारी वारंट को न्यायालय पुलिस अधिकारी द्वारा निष्पादित करने का निर्देश दे सकता है या किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट या ज़िला पुलिस अधीक्षक या आयुक्त को वारंट भेज सकता है। पुलिस जिसके अधिकार क्षेत्र में इसे निष्पादित किया जाना है। वारंट का रिसीवर वारंट पर अपना नाम अंकित करेगा तथा संहिता के प्रावधान के अनुसार इसे निष्पादित करेगा।
  • CrPC की धारा 80 के अनुसार, यदि कोई आरोपीन, वारंट जारी करने वाले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, तो उसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, यदि वह गिरफ्तारी के स्थान से तीस किलोमीटर के भीतर है तथा आरोपी ज़मानत प्राप्त करने में विफल रहता है।

वारंट के निष्पादन की प्रक्रिया:

  • वारंट की शर्तों को सुबह 6 बजे से रात 10 बजे के बीच निष्पादित किया जाना है। दिन का और, यदि उक्त वारंट को दिये गए समय के बाहर निष्पादित किया जाता है, तो समयावधि, एक न्यायाधीश द्वारा बढ़ा दी जाती है तथा पुलिस अधिकारी को उचित प्राधिकारी को सूचित करना होगा।
  • CrPC की धारा 75 के अनुसार, पुलिस अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति जो वारंट निष्पादित कर रहा है, उसे गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति को वारंट की सामग्री के बारे में सूचित करना होगा।
  • CrPC की धारा 76 के अनुसार, वारंट पर गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को बिना किसी देरी के, यानी संहिता द्वारा निर्धारित 24 घंटे के भीतर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा। 24 घंटे की निर्धारित समय अवधि में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट की न्यायालय तक की यात्रा के लिये आवश्यक समय शामिल नहीं है।

निर्णयज विधि:

  • बिहार राज्य बनाम J.A.C. सल्दान्हा (1980), के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि परिस्थितियों पर उचित विचार किये बिना, गैर-ज़मानती वारंट जारी नहीं किया जाना चाहिये तथा यह मानने के लिये वैध कारण होने चाहिये कि आरोपी भाग सकता है या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है।

सांविधानिक विधि

महिला आरक्षण

 03-May-2024

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी.डी कौशिक

"सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा पारित किसी भी प्रस्ताव के बावजूद, कार्यकारी समिति में कुछ पद बार की महिला सदस्यों के लिये आरक्षित होने चाहिये”।

जस्टिस सूर्यकांत और के.वी. विश्वनाथन

स्रोतः उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जस्टिस सूर्यकांत और के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा है कि "सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा पारित किसी भी प्रस्ताव के बावजूद, कार्यकारी समिति में कुछ पद बार की महिला सदस्यों के लिये आरक्षित होने चाहिये"।

  • उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक के मामले में दिया।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • उच्चतम न्यायालय ने पहले 14 अगस्त 2023 के निर्णय के द्वारा चुनाव प्रक्रिया में सुधार के संबंध में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) सदस्यों से सुझाव आमंत्रित किये थे।
  • SCBA ने 30 अप्रैल 2024 को एक विशेष आम सभा की बैठक आयोजित की, जहाँ आठ प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए, लेकिन सभी प्रस्ताव उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के आवश्यक 2/3 बहुमत को प्राप्त करने में विफल रहे।
    • ये प्रस्ताव SCBA पदाधिकारियों के लिये पात्रता मानदंड को संशोधित करने, प्रवेश और जमा शुल्क को संशोधित करने, बैठकें बुलाने के लिये आवश्यक सदस्यों की न्यूनतम संख्या बढ़ाने, कार्यकारी समिति का कार्यकाल बढ़ाने तथा महिलाओं के लिये आरक्षण की शुरुआत करने से संबंधित थे।

न्यायालय के निर्णय क्या थे?

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) देश के सर्वोच्च न्यायिक फोरम का अभिन्न अंग है।
    • न्यायालय ने बार सदस्यों के सुझावों पर उचित विचार सुनिश्चित करते हुए उभरती चुनौतियों का सामना करने के लिये SCBA में समय पर सुधार की आवश्यकता को स्वीकार किया।
  • तद्नुसार, निम्नलिखित प्रमुख निर्देश जारी किये गए:
    • SCBA कार्यकारी समिति को 19 जुलाई 2024 तक अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक नोटिस के माध्यम से सभी बार सदस्यों से सुझाव आमंत्रित करने का निर्देश दिया गया था, जिसमें पहले से प्राप्त सुझाव भी शामिल थे।
    • संकलित सुझावों पर अन्य सुझाव 9 अगस्त 2024 तक आमंत्रित किये जाने थे।
    • SCBA शासन में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये, निम्नलिखित आरक्षण तत्काल प्रभाव से लागू किये गए:
      • कार्यकारी समिति में न्यूनतम 1/3 सीटें (9 में से 3)।
      • न्यूनतम 1/3 (6 में से 2) वरिष्ठ कार्यकारी सदस्य।
      • पदाधिकारी का कम-से-कम एक पद चक्रीय आधार पर महिलाओं के लिये आरक्षित है।
      • वर्ष 2024-25 के चुनाव के लिये कोषाध्यक्ष का पद महिलाओं के लिये आरक्षित होगा।
    • वर्ष 2024-25 के लिये SCBA चुनाव 16 मई 2024 को 2023 मतदाता सूची के आधार पर आयोजित करने का निर्देश दिया गया था, जिसे 01 मार्च 2023 से 29 फरवरी 2024 तक पात्र सदस्यों को शामिल करने के लिये अद्यतन किया गया था।
    • उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री को 03 मई 2024 तक पात्र सदस्यों की अपेक्षित अद्यतन सूची प्रदान करने का निर्देश दिया गया था।

भारत में महिला आरक्षण का कालक्रम क्या है?

  • राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना:
    • वर्ष 1988 में महिलाओं के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना ने पंचायत स्तर से संसद तक महिलाओं के लिये आरक्षण प्रदान करने की सिफारिश की।
  • 73वाँ और 74वाँ संवैधानिक संशोधन:
    • 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन,1992 ने सभी राज्यों को स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया।
    • अनुच्छेद 243D (2) और अनुच्छेद 243T (2) ने क्रमशः पंचायत तथा नगर पालिकाओं में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया।
  • महिला आरक्षण विधेयक:
    • संसद और राज्य विधानसभाओं के लिये महिला आरक्षण विधेयक पहली बार वर्ष 1996 में प्रस्तुत किया गया था
    • हालाँकि बहुमत न होने के कारण यह पारित नहीं हो सका।
    • इसके बाद वर्ष 1998, 1999 और 2008 में प्रयास किये गए, लेकिन संबंधित लोकसभा के विघटन के साथ सभी विधेयक समाप्त हो गए।
    • राज्यसभा ने इसे वर्ष 2010 में पारित कर दिया था, लेकिन यह लोकसभा में लंबित रहा।
    • महिलाओं की स्थिति पर वर्ष 2013 की समिति सहित विभिन्न समितियों और रिपोर्टों ने सभी निर्णय लेने वाले निकायों में महिलाओं के लिये कम-से-कम 50% आरक्षण की सिफारिश की।

महिला आरक्षण पर प्रमुख समितियाँ:

वर्ष 1971 भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति (CSWI):

  • इसकी स्थापना तत्कालीन शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा की गई थी, जिसने महिलाओं की सामाजिक स्थिति को प्रभावित करने वाले संवैधानिक, प्रशासनिक तथा विधिक प्रावधानों की जाँच की।
  • 'समानता की ओर' रिपोर्ट ने लैंगिक समानता की गारंटी देने में राज्य की अक्षमता की ओर ध्यान आकर्षित किया और स्थानीय अधिकारियों में महिलाओं के लिये आरक्षण का सुझाव दिया।

वर्ष 1987 में मार्गरेट अल्वा के अधीन समिति:

  • इस समिति ने महिलाओं के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना 1988-2000 प्रस्तुत की, जिसमें निर्वाचित निकायों में महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित करने की सिफारिश शामिल थी।
  • इसके परिणामस्वरूप 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों,1992 के तहत स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये एक तिहाई सीटें आरक्षित करना अनिवार्य हो गया।

वर्ष 1996 में गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली चयन समिति:

  • वर्ष 1996 में पहला महिला आरक्षण विधेयक गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली प्रवर समिति को भेजा गया था।
  • समिति ने उचित समय पर ओबीसी महिलाओं को आरक्षण देने पर विचार करने की सिफारिश की।

वर्ष 2013 में महिलाओं की स्थिति पर समिति:

  • महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा गठित महिलाओं की स्थिति पर वर्ष 2013 की समिति ने संसद और राज्य विधानसभाओं सहित सभी निर्णय लेने वाले निकायों में महिलाओं के लिये कम-से-कम 50% आरक्षण सुनिश्चित करने की सिफारिश की।

महिला आरक्षण अधिनियम, 2023:

  • परिचय:
    • संविधान (106वाँ संशोधन) अधिनियम, 2023 एक ऐतिहासिक कानून है जो लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में महिलाओं के लिये सभी सीटों में से एक तिहाई सीटें आरक्षित करता है, जिसे महिला आरक्षण अधिनियम, 2023 भी कहा जाता है।
    • इस अधिनियम का उद्देश्य देश के सर्वोच्च निर्णय लेने वाले निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में वृद्धि करना है।
  • सम्मिलित और संशोधित अनुच्छेद:
    • लोकसभा में आरक्षण के लिये अनुच्छेद 330A,
    • राज्य विधानसभाओं में आरक्षण के लिये अनुच्छेद 332A और
    • दिल्ली विधानसभा में आरक्षण के लिये अनुच्छेद 239AA में संशोधन किया गया।


सिविल कानून

रुग्ण कंपनी

 03-May-2024

फर्टिलाइज़र कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स कोरोमंडल सैक्स प्राइवेट लिमिटेड

यदि रुग्ण कंपनी के विरुद्ध वसूली के लिये मुकदमे से परिसंपत्तियों या संपत्तियों को कोई खतरा नहीं है तथा रुग्ण कंपनी के पुनरुद्धार की योजना पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, तो वसूली के लिये वाद लाने पर कोई रोक नहीं है।

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी रुग्ण कंपनी से बकाया की वसूली के लिये दायर किया गया वाद रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 (1985 का अधिनियम) की धारा 22 (1) से रुग्ण कंपनी या पुनरुद्धार योजना की संपत्तियाँ प्रभावित नहीं होगा, यदि यह प्रभावित नहीं होता है।

फर्टिलाइज़र कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स कोरोमंडल सैक्स प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • एक कंपनी मेसर्स कोरोमंडल सैक्स प्राइवेट लिमिटेड, मूल वादी जो उच्च घनत्व पॉली एथिलीन (HDPE) बैग के निर्माण में लगी हुई है।
  • एक कंपनी फर्टिलाइज़र कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, मूल प्रतिवादी जो भारत सरकार का एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है।
  • मूल प्रतिवादियों को अपने ग्राहकों के लिये HDPE बैग की आवश्यकता थी तथा उन्होंने वादी को इसके लिये ऑर्डर दिया।
  • बैगों की तकनीकी विशिष्टताओं एवं भुगतान के लिये नियम एवं शर्तें कभी-कभी जारी किये गए निविदा आमंत्रण नोटिस (NIT) और उसके अनुसरण में जारी किये गए खरीद आदेशों में निर्दिष्ट की गई थीं।
  • ऐसी शर्तों के अनुसार, प्रतिवादी को बैग की प्राप्ति एवं उसकी मंज़ूरी के 20 दिनों के भीतर पूरा भुगतान करना होगा।
  • खरीद आदेश की शर्तें प्रतिवादियों को मूल वादी द्वारा बैग की आपूर्ति में देरी पर परिसमाप्त क्षति के लिये संविदा मूल्य का अधिकतम 5% तक कटौती करने का भी अधिकार देती हैं।
  • वादी ने विचारण न्यायालय के समक्ष एक मुकदमा दायर किया तथा उसका तर्क यह था कि बैग की संख्या बढ़ाने के लिये खरीद आदेशों में संशोधन किया गया था और इस आवश्यकता के लिये वादी ने मात्रा से अधिक 42,000 बैग की आपूर्ति की।
  • वादी आपूर्ति में देरी एवं बैग की खराब गुणवत्ता के लिये प्रतिवादियों द्वारा की गई कटौती से व्यथित था।
  • वादी ने यह भी दावा किया कि ऑर्डर देने के बाद 25,000 बैग स्वीकार करने से मना करने के कारण उसे नुकसान हुआ।
  • वादी ने मुकदमा शुरू होने की तिथि तक ब्याज के रूप में 10,31,803.14/- रुपए के साथ 8,27,100.74/- रुपए की वसूली के लिये सिविल वाद लाया।
  • प्रतिवादी ने अपने लिखित बयान में कहा कि उन्हें रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 (1985 का अधिनियम) की धारा 3 (1) (o) के अंतर्गत एक रुग्ण कंपनी घोषित किया गया था तथा वसूली के लिये यह मुकदमा चलने योग्य नहीं है। 1985 अधिनियम की धारा 22(1) के अनुसार 24% की दर से ब्याज लगाया जाने के लिये उत्तरदायी नहीं था।
  • विचारण न्यायालय ने वादी के वाद का निर्णय सुनाते हुए कहा कि प्रतिवादी की कंपनी यह सिद्ध करने में विफल रही कि वह एक रुग्ण कंपनी है और प्रतिवादी को वादी को रुपए 55710, 100,848 एवं 118000 रुपए 12% प्रतिवर्ष ब्याज के साथ तथा 172734 रुपए 12% प्रति वर्ष ब्याज के साथ भुगतान करने का निर्देश दिया।
  • उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई। उच्च न्यायालय ने ब्याज के मुद्दे पर वादी की दलील को स्वीकार कर लिया तथा देय राशि पर 24% चक्रवृद्धि ब्याज दिया और विचारण न्यायालय के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसने वादी के पक्ष में 12% साधारण ब्याज दिया था।
  • प्रतिवादी उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत करता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह वाद संविदा के अंतर्गत कथित अवैध कटौतियों के तहत उत्पन्न बकाया राशि की वसूली के लिये एक साधारण वाद था।
  • वसूली के लिये वाद ऐसी प्रकृति का नहीं था जो प्रतिवादी रुग्ण कंपनी की संपत्तियों के लिये खतरा सिद्ध हो सकता था या पुनरुद्धार योजना पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता था।
  • इसे निष्पादन, कष्ट या उस जैसी प्रकृति की कार्यवाही नहीं कहा जा सकता है तथा इसलिये मुकदमा 1985 अधिनियम की धारा 22(1) के अंतर्गत नहीं आता है।
  • 1985 अधिनियम की धारा 22(1) के अंतर्गत दी गई शर्तें पूरी की जाती हैं, रुग्ण कंपनी के विरुद्ध वाद दायर करने पर कोई रोक नहीं है।
  • उच्च न्यायालय के आदेश को केवल उस अवधि के संशोधन के अधीन यथावत् रखा जाता है, जिसके लिये ब्याज दिया जा सकता है और उच्च न्यायालय ने 24% ब्याज देने में कोई त्रुटि नहीं की।

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • भोरुका टेक्सटाइल्स लिमिटेड बनाम कश्मीरी चावल उद्योग (2009)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि 1985 अधिनियम की धारा 22 के अंतर्गत लगाए गए क्षेत्राधिकार संबंधी प्रतिबंध के संदर्भ में सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को हटा दिया गया है, तो उसके द्वारा दिया गया कोई भी निर्णय गैर-न्यायिक होगा एवं परिणामस्वरूप निरर्थक भी होगा।
  • रहेजा यूनिवर्सल लिमिटेड बनाम NRC लिमिटेड एवं अन्य (2012)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि 1985 के अधिनियम की धारा 22(1) के अंतर्गत सरलता से धन की वसूली का वाद निलंबित नहीं किया जा सकता है।
  • टाटा मोटर्स लिमिटेड बनाम फार्मास्युटिकल प्रोडक्ट्स ऑफ इंडिया लिमिटेड (2008)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि 1985 का अधिनियम एक विशेष विधि है तथा इस प्रकार, कंपनी अधिनियम, 1956 जैसे अन्य अधिनियमों को आच्छादित करता है।

रुग्ण कंपनी कौन है?

  • रुग्ण कंपनी से तात्पर्य ऐसी कंपनी से है, जो एक निश्चित समय के भीतर सुरक्षित लेनदारों के ऋण का भुगतान करने या उसे सुरक्षित करने में विफल रही है।
  • एक कंपनी, जो अपने नेट वर्थ से अधिक या उसके बराबर संचित घाटे के साथ वित्तीय रूप से संघर्ष कर रही है, उसे रुग्ण कंपनी कहा जाता है।
  • जितना संभव हो किसी रुग्ण कंपनी को बंद करने से बचा जाता है, क्योंकि इससे सरकारी राजस्व, नौकरियाँ एवं लेनदारों के पैसे पर असर पड़ता है। सबसे खराब स्थिति में, रुग्ण कंपनी बंद हो सकती है।
  • 'रुग्ण औद्योगिक कंपनी' शब्द को 1985 अधिनियम की धारा 3 (1) (o) के अंतर्गत परिभाषित किया गया था, "एक औद्योगिक कंपनी, (पाँच साल से कम समय के लिये पंजीकृत कंपनी) जिसकी किसी भी वित्तीय वर्ष के अंत में संचित घाटा बराबर हो, इसकी संपूर्ण नेट वर्थ के बराबर या उससे अधिक हो”।
  • कंपनी अधिनियम, 2013 रुग्ण कंपनियों को पुनर्जीवित एवं पुनर्वास करने के लिये एक विस्तृत विधिक प्रक्रिया निर्धारित करता है।

रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 क्या है?

  • सरकार ने पाया कि कंपनियों की रुग्णता की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन की हानि, रोज़गार की हानि, राजस्व की हानि आदि होती है।
  • सरकार को रुग्ण कंपनियों को निवारक, उपचारात्मक उपाय एवं पुनर्वास प्रदान करने के लिये विधि बनाने की आवश्यकता महसूस हुई।
  • रुग्ण औद्योगिक कंपनी अधिनियम 1985 को रुग्ण कंपनियों एवं संभावित रूप से रुग्ण कंपनियों की पहचान करने या पता लगाने के लिये अधिनियमित किया गया था। किसी समस्या का समाधान करना और उन्हें पुनर्जीवित एवं पुनर्वासित करने का प्रयास करना।
  • अधिनियम ने रुग्ण कंपनियों की मदद एवं पुनर्वास के लिये दो स्तरीय निकाय बनाए।
  • औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR)।
  • औद्योगिक और वित्तीय पुनर्निर्माण के लिये अपीलीय प्राधिकरण (AAIFR)
  • 1985 अधिनियम को निरस्त कर दिया गया और वर्ष 2003 में रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) निरसन अधिनियम 2003 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
  • 1985 अधिनियम को वर्ष 2016 में पूरी तरह से निरस्त कर दिया गया था, क्योंकि इसके कुछ प्रावधान अध्याय XIX (धारा 253 से 269) के अंतर्गत एक अलग अधिनियम, 2013 के कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के साथ आच्छादित हो गए थे।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?

रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 की धारा 22(1):

  • यह धारा विधिक कार्यवाही, संविदा आदि के निलंबन से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि जहाँ किसी औद्योगिक कंपनी के संबंध में धारा 16 के अंतर्गत जाँच लंबित है या धारा 17 के अंतर्गत संदर्भित कोई योजना तैयारी या विचाराधीन है या कोई स्वीकृत योजना कार्यान्वयन के अधीन है या जहाँ किसी औद्योगिक कंपनी के संबंध में धारा 25 के अंतर्गत अपील की गई है। लंबित है, तो, कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) या किसी अन्य विधि या औद्योगिक कंपनी के ज्ञापन एवं एसोसिएशन के लेख या उक्त अधिनियम या अन्य विधि के अधीन प्रभाव रखने वाले किसी अन्य विधि में निहित किसी भी प्रावधान के बावजूद, कोई कार्यवाही नहीं औद्योगिक कंपनी के समापन के लिये या औद्योगिक कंपनी की किसी भी संपत्ति के विरुद्ध निष्पादन, संकट आदि के लिये या उसके संबंध में एक रिसीवर की नियुक्ति के लिये और धन की वसूली के लिये या किसी सुरक्षा के प्रवर्तन के लिये कोई मुकदमा नहीं औद्योगिक कंपनी के विरुद्ध या औद्योगिक कंपनी को दिये गए किसी भी ऋण या अग्रिम के संबंध में कोई गारंटी, बोर्ड की सहमति या, जैसा भी मामला हो, अपीलीय प्राधिकारी की सहमति के बिना, रखी जाएगी या आगे बढ़ाई जाएगी।

कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत पुनर्वास एवं पुनरुद्धार की प्रक्रिया क्या है?

कंपनी अधिनियम में संकट के समय में मदद करने के लिये रुग्ण औद्योगिक कंपनियों के पुनरुद्धार एवं पुनर्वास हेतु अध्याय XIX के तहत एक प्रक्रिया दी गई है।

  • कंपनी की रुग्णता के निर्धारण के लिये आवेदन दाखिल करना
    • कंपनी के 50% या अधिक बकाया ऋण वाला कोई भी सुरक्षित क्रेडिटर ट्रिब्यूनल के समक्ष आवेदन दायर कर सकता है।
  • ट्रिब्यूनल द्वारा पारित आदेश
    • ट्रिब्यूनल/अधिकरण आवेदन प्राप्त होने के 60 दिनों के अंदर सभी तथ्यों, दस्तावेज़ों और साक्ष्यों पर विचार करने के बाद एक आदेश पारित करेगा।
    • यदि न्यायाधिकरण इस बात से संतुष्ट है कि कोई कंपनी एक रुग्ण कंपनी है, तो आगे की प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिये।
  • पुनरुद्धार एवं पुनर्वास हेतु ट्रिब्यूनल को एक आवेदन प्रस्तुत करना
    • कोई भी सुरक्षित ऋणदाता या रुग्ण कंपनी, कंपनी को पुनर्जीवित करने तथा पुनर्वास के उपाय तय करने के लिये न्यायाधिकरण के समक्ष आवेदन कर सकते हैं। जिसमें निम्नलिखित दस्तावेज़ जमा करने होंगे: वित्तीय विवरण, प्रारूप योजना, यदि कोई हो, अन्य जानकारी, दस्तावेज़ एवं शुल्क।
  • अंतरिम प्रशासक की नियुक्ति
    • ट्रिब्यूनल, आवेदन प्राप्त होने के 7 दिनों के अंदर एक अंतरिम प्रशासक नियुक्त करेगा।
    • अंतरिम प्रशासक ट्रिब्यूनल के आदेश के 45 दिनों के अंदर क्रेडिटर की समिति की बैठक आयोजित करेगा।
    • अंतरिम प्रशासक को ट्रिब्यूनल के आदेश के 60 दिनों के अंदर एक रिपोर्ट जमा करनी होगी।
    • अंतरिम प्रशासक ऋणदाताओं की एक समिति बनाएगा।
    • वह उनसे कोई भी जानकारी या दस्तावेज़ उपलब्ध कराने के लिये कह सकता है।
  • अधिकरण का आदेश
    • तय सुनवाई की तिथि पर ट्रिब्यूनल यह तय करता है कि कंपनी को पुनर्जीवित किया जा सकता है या पुनर्वास किया जा सकता है।
    • यदि कंपनी को पुनर्जीवित करना या पुनर्वास करना संभव है, तो ट्रिब्यूनल एक मसौदा योजना तैयार करने के लिये किसी एक व्यक्ति को नियुक्त करेगा।
  • कंपनी प्रशासक की नियुक्ति
    • वह रुग्ण कंपनी को पुनर्जीवित करने के लिये एक योजना का प्रारूप तैयार करेगा और ट्रिब्यूनल उसे कंपनी का प्रबंधन संभालने का आदेश भी दे सकता है।
  • पुनरुद्धार एवं पुनर्वास हेतु योजना की तैयारी
    • कंपनी प्रशासक, कंपनी द्वारा दायर ड्राफ्ट योजना पर विचार करने के बाद पुनरुद्धार एवं पुनर्वास की एक योजना तैयार करेगा।
    • प्रशासक अपनी नियुक्ति के 60 दिनों के भीतर योजना प्रस्तुत करेगा।
    • एक बार योजना स्वीकृत हो जाने पर, प्रशासक इसे ट्रिब्यूनल को प्रस्तुत कर सकता है।
    • यदि ट्रिब्यूनल संतुष्ट है कि योजना को लागू करने की संभावना है, तो ट्रिब्यूनल योजना को मंज़ूरी दे देगा।
  • योजना का कार्यान्वयन
    • एक स्वीकृत योजना रुग्ण कंपनी, उसके कर्मचारियों, शेयरधारकों, लेनदारों, गारंटरों एवं विलय करने वाली कंपनी पर बाध्यकारी होती है।