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आपराधिक कानून
लोकसेवक की परिभाषा
16-May-2024
मालदा ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक कर्मचारी संघ एवं अन्य बनाम भारत का चुनाव आयोग एवं अन्य "सरकार द्वारा वित्त पोषित सहकारी बैंक का कोई कर्मचारी, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 21 के अंतर्गत लोकसेवक नहीं है"। न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य |
स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सब्यसाची भट्टाचार्य की पीठ ने स्पष्ट किया कि सहकारी बैंक का एक कर्मचारी जो सरकार द्वारा वित्तपोषित नहीं है, वह भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 21 के अंर्तगत लोक सेवक नहीं है।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा मालदा ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक कर्मचारी संघ एवं अन्य बनाम भारत निर्वाचन आयोग एवं अन्य के मामले में यह टिप्पणी की गई।
मालदा ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक कर्मचारी संघ एवं अन्य बनाम भारत निर्वाचन आयोग एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता एसोसिएशन के सदस्य क्रमांक. 1, जो एक ज़िला सहकारी बैंक के कर्मचारी थे, को लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RP अधिनियम) की धारा 26 के अंतर्गत चल रहे संसदीय चुनाव के लिये मतदान अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था।
- भारतीय चुनाव आयोग (ECI) द्वारा सहकारी बैंक के कर्मचारियों को मतदान अधिकारी के रूप में नियुक्त करने के लिये IPC की धारा 21 का उपयोग किया।
- याचिकाकर्त्ता क्रमांक.1 ज़िला सहकारी बैंक के कर्मचारियों का एक संघ है, जो ऐसे कर्मचारियों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।
- याचिकाकर्त्ता संघ क्रमांक. 1 के सचिव, याचिकाकर्त्ता क्रमांक 2 हैं।
- सहकारी बैंक पश्चिम बंगाल सहकारी सोसायटी अधिनियम, 2006 के अंर्तगत पंजीकृत है, लेकिन यह किसी भी सरकार द्वारा नियंत्रित अथवा वित्तपोषित नहीं है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें एसोसिएशन के सदस्यों की मतदान अधिकारी के रूप में नियुक्ति को चुनौती दी गई।
- इसी मुद्दे पर कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त रिट याचिका भी दायर की गई थी, जिसमें मुगबेरिया सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक के कर्मचारी भी शामिल थे।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि सहकारी बैंक के कर्मचारियों को RP अधिनियम की धारा 26 के अंर्तगत मतदान अधिकारी के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि बैंक अधिनियम की धारा 159 (2) के दायरे में नहीं है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि सहकारी बैंक केंद्रीय, प्रांतीय अथवा राज्य अधिनियम के अंर्तगत स्थापित नहीं है, और साथ ही यह केवल पश्चिम बंगाल सहकारी सोसायटी अधिनियम, 2006 के अंर्तगत पंजीकृत है।
- याचिकाकर्त्ताओं ने कर्मचारियों को मतदान अधिकारी के रूप में नियुक्त करने के लिये IPC की धारा 21 पर ECI की निर्भरता को चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया कि IPC की धारा 21 के संदर्भ में ही "लोक सेवक" शब्द को परिभाषित करती है तथा साथ ही इस परिभाषा को RP अधिनियम जैसे किसी अलग कानून तक विस्तृत नहीं है, जो पूरी तरह से एक अलग क्षेत्र में संचालित होता है।
- न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया कि सहकारी बैंक न केवल पश्चिम बंगाल सहकारी सोसायटी अधिनियम, 2006 के अंर्तगत पंजीकृत था, बल्कि इसकी स्थापना, उस अधिनियम के अंर्तगत नहीं की गई थी, न ही इसे किसी सरकार द्वारा वित्तपोषित या प्रबंधित किया गया था।
- न्यायालय द्वारा रिट याचिकाओं को स्वीकार कर लिया गया तथा सहकारी बैंकों के लिये मतदान अधिकारी के रूप में कार्य करने वाले याचिकाकर्त्ता संघों के सदस्यों की मांग के साथ नियुक्ति को भी रद्द कर दिया।
- हालाँकि वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में उत्पन्न बाधा से बचाव हेतु, न्यायालय द्वारा नियुक्तियों को वर्तमान में हो रहे चुनाव के लिये वैध होने की अनुमति दी, लेकिन निर्देश दिया कि टिप्पणियों को अगले चुनावों से प्रभावी किया जाएगा।
नए एवं पुराने आपराधिक कानून के अंतर्गत लोक सेवक कौन हैं?
पुराना कानून (IPC)
IPC की धारा 21 में कहा गया है कि "लोक सेवक" शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित पदधारक व्यक्ति आते हैं, अर्थात्:
- सैन्य कार्मिक (दूसरा खंड):
- भारत की सेना, नौसेना या वायुसेना में प्रत्येक कमीशन प्राप्त अधिकारी
- न्यायाधीश तथा न्यायिक अधिकारी (तीसरा खंड):
- कोई भी न्यायाधीश, साथ ही कानून द्वारा अधिकृत कोई भी व्यक्ति स्वयं या अन्य लोगों के साथ मिलकर कोई भी न्यायिक भूमिका निभा सकता है,
- न्यायालय के अधिकारी (चौथा खंड):
- न्यायालय का प्रत्येक अधिकारी (एक परिसमापक, रिसीवर या आयुक्त सहित) जिसका कर्तव्य है, ऐसे अधिकारी के रूप में, कानून या तथ्य के किसी भी मामले की जाँच करना अथवा रिपोर्ट करना, या कोई दस्तावेज़ बनाना, प्रामाणित करना, या रखना, या किसी भी संपत्ति का प्रभार लेना एवं निपटान करना, या किसी न्यायिक प्रक्रिया को निष्पादित करना, अथवा कोई शपथ दिलाना, या व्याख्या करना, या न्यायालय में आदेश को संरक्षित करना, तथा प्रत्येक व्यक्ति विशेष रूप से न्यायालय द्वारा ऐसे किसी भी कर्त्तव्य को निभाने के लिये अधिकृत किया गया है।
- जूरी सदस्य और मूल्यांकनकर्त्ता (पाँचवाँ खंड):
- प्रत्येक जूरीमैन, मूल्यांकनकर्त्ता, अथवा पंचायत का सदस्य, जो न्यायालय या लोक सेवक की सहायता करता है।
- मध्यस्थ और न्यायालय द्वारा नियुक्त व्यक्ति (छठा खंड):
- प्रत्येक मध्यस्थ अथवा अन्य व्यक्ति जिसे किसी न्यायालय या किसी अन्य सक्षम सार्वजनिक प्राधिकारी द्वारा निर्णय या रिपोर्ट के लिये कोई कारण या मामला भेजा गया है।
- दूसरों को सीमित रखने के लिये सशक्त व्यक्ति (सातवाँ खंड):
- प्रत्येक व्यक्ति जो कोई ऐसा पद धारण करता है, जिसके आधार पर उसे किसी व्यक्ति को कारावास में रखने का अधिकार है।
- कानून प्रवर्तन एवं सार्वजनिक सुरक्षा अधिकारी (आठवाँ खंड):
- सरकार का प्रत्येक अधिकारी जिसका कर्त्तव्य है, ऐसे अधिकारी के रूप में अपराधों को रोकना, अपराधों की जानकारी देना अथवा अपराधियों को न्याय दिलाना या सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं सुविधा की रक्षा करना शामिल है।
- सरकारी राजस्व एवं संपत्ति अधिकारी (नौवाँ खंड):
- प्रत्येक अधिकारी, जिसका कर्त्तव्य, ऐसे अधिकारी के रूप में, सरकार की ओर से किसी भी संपत्ति को लेना, प्राप्त करना, रखना या खर्च करना है, या सरकार की ओर से कोई सर्वेक्षण, मूल्यांकन या संविदा करना है, या किसी राजस्व प्रक्रिया को निष्पादित करना है, या सरकार के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाले किसी भी मामले की जाँच करना, या रिपोर्ट करना, या सरकार के आर्थिक हितों से संबंधित किसी दस्तावेज़ को प्रामाणित करना या रखना, या सरकार के आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिये किसी भी कानून के उल्लंघन को रोकना।
- स्थानीय प्राधिकारी राजस्व एवं संपत्ति अधिकारी (दसवाँ खंड):
- प्रत्येक अधिकारी जिसका कर्त्तव्य है, ऐसे अधिकारी के रूप में, किसी भी संपत्ति को लेना, प्राप्त करना, रखना या खर्च करना, कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन करना या किसी गाँव, कस्बे या ज़िले के किसी धर्मनिरपेक्ष सामान्य उद्देश्य के लिये कोई दर या कर लगाना, या किसी गाँव, कस्बे या ज़िले के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये कोई दस्तावेज़ बनाना, प्रामाणित करना या रखना।
- प्रत्येक अधिकारी जिसका कर्त्तव्य है, ऐसे अधिकारी के रूप में, किसी भी संपत्ति को लेना, प्राप्त करना, रखना या खर्च करना, कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन करना या किसी गाँव, कस्बे या ज़िले के किसी धर्मनिरपेक्ष सामान्य उद्देश्य के लिये कोई दर या कर लगाना, या किसी गाँव, कस्बे या ज़िले के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये कोई दस्तावेज़ बनाना, प्रामाणित करना या रखना।
- चुनाव अधिकारी (ग्यारहवाँ खंड):
- प्रत्येक व्यक्ति जो कोई ऐसा पद धारण करता है जिसके आधार पर उसे मतदाता सूची तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या संशोधित करने या चुनाव या चुनाव का भाग आयोजित करने का अधिकार है।
- सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी (बारहवाँ खंड):
- सरकार की सेवा में या वेतन पाने वाला या सरकार द्वारा किसी सार्वजनिक कर्त्तव्य के निष्पादन के लिये शुल्क या कमीशन द्वारा पारिश्रमिक प्राप्त करने वाला प्रत्येक व्यक्ति
- किसी स्थानीय प्राधिकारी, केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम के अंतर्गत स्थापित निगम या कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 617 में परिभाषित सरकारी कंपनी की सेवा या वेतन प्राप्त करने वाले प्रत्येक व्यक्ति।
नया कानून (भारतीय न्याय संहिता, 2023)
- BNS की धारा 28 लोक सेवक को परिभाषित करती है।
- धारा 28 IPC की धारा 21 की तुलना में अद्यतन शब्दावली का उपयोग करती है।
- उदाहरण के लिये, यह IPC की धारा 21 में उल्लिखित कंपनी अधिनियम, 1956 के बजाय "कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 के खंड (45) में परिभाषित सरकारी कंपनी" को संदर्भित करता है।
- धारा 28 सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 3 के खंड (31) का संदर्भ देकर "स्थानीय प्राधिकरण" को परिभाषित करती है।
- IPC की धारा 21 "स्थानीय प्राधिकरण" के लिये कोई विशिष्ट परिभाषा प्रदान नहीं करता है।
आपराधिक कानून
गिरफ्तारी का आधार
16-May-2024
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रबीर पुरकायस्थ बनाम दिल्ली NCT राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि 'गिरफ्तारी के कारण' एवं 'गिरफ्तारी के आधार' वाक्यांशों के मध्य एक महत्त्वपूर्ण अंतर होता है।
प्रबीर पुरकायस्थ बनाम दिल्ली NCT राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, PS स्पेशल सेल, नई दिल्ली के अधिकारियों ने अपीलकर्त्ता एवं कंपनी, मेसर्स PPK न्यूज़क्लिक स्टूडियो प्राइवेट लिमिटेड (कंपनी) के आवासीय एवं आधिकारिक परिसरों पर विधिविरुद्ध गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत, दण्डनीय अपराधों के लिये, दर्ज FIR के संबंध में व्यापक छापेमारी की।
- अपीलकर्त्ता को उक्त FIR के संबंध में 3 अक्टूबर 2023 को गिरफ्तार किया गया था तथा गिरफ्तारी का ज्ञापन कंप्यूटरीकृत प्रारूप में था और इसमें अपीलकर्त्ता की गिरफ्तारी के आधार के संबंध में कोई कॉलम नहीं था।
- यही मुद्दा मुख्य रूप से अपील के पक्षों के मध्य विवाद का कारण है।
- अपीलकर्त्ता को विद्वान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की न्यायालय में प्रस्तुत किया गया तथा अपीलकर्त्ता को 4 अक्टूबर 2023 के आदेश के अनुसार सात दिनों की पुलिस अभिरक्षा में भेज दिया गया।
- अपीलकर्त्ता ने तुरंत दिल्ली उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील दायर करके अपनी गिरफ्तारी तथा दी गई पुलिस अभिरक्षा रिमांड पर प्रश्न उठाया, जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय के विद्वान एकल न्यायाधीश ने खारिज कर दिया।
- उक्त आदेश उच्चतम न्यायालय के समक्ष, विशेष अनुमति द्वारा वर्तमान अपील में चुनौती के अधीन है।
- उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की खंडपीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के कारण तथा गिरफ्तारी के आधार वाक्यांशों के मध्य महत्त्वपूर्ण अंतर होता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के कारण औपचारिक हैं तथा आम तौर पर किसी अपराध के लिये गिरफ्तार किये गए किसी भी व्यक्ति पर लागू हो सकते हैं। दूसरी ओर, गिरफ्तारी के आधार व्यक्तिगत एवं गिरफ्तार किये गए व्यक्ति के लिये विशिष्ट होते हैं।
- न्यायालय ने यह भी माना कि गिरफ्तारी का आधार निश्चित रूप से आरोपी के लिये व्यक्तिगत होगा तथा गिरफ्तारी के उन कारणों के साथ तुलना नहीं की जा सकती, जो सामान्य प्रकृति के हैं।
- आगे यह माना गया कि लिखित रूप में सूचित गिरफ्तारी के आधार पर गिरफ्तार आरोपी को सभी बुनियादी तथ्य बताए जाने चाहिये, जिसके आधार पर उसे गिरफ्तार किया जा रहा है, ताकि उसे अभिरक्षा में रिमांड के विरुद्ध स्वयं का बचाव करने एवं ज़मानत लेने का अवसर मिल सके।
गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
परिचय:
- गिरफ्तारी का अर्थ है किसी व्यक्ति को विधिक प्राधिकार या किसी स्पष्ट विधिक प्राधिकार द्वारा उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना।
- CrPC के प्रावधान जो गिरफ्तारी से संबंधित हैं, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अध्याय V के अधीन धारा 41 से 60 A तक हैं।
- CrPC के अधीन गिरफ्तारी की जा सकती है:
- पुलिस अधिकारी द्वारा (धारा 41)
- निजी व्यक्ति द्वारा (धारा 43)
- मजिस्ट्रेट द्वारा (धारा 44)
गिरफ्तारी के लिये अधिकृत व्यक्ति:
पुलिस अधिकारी:
- बिना वारंट के गिरफ्तारी- कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना एवं बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है (धारा 41 CrPC के अधीन)।
- उसकी उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करता है,
- ऐसा संज्ञेय अपराध करता है, जिसके लिये 7 वर्ष से कम या उसके बराबर कारावास, ज़ुर्माने के साथ या बिना ज़ुर्माने के दण्डनीय है:
- जिनके विरुद्ध युक्तियुक्त शिकायत की गई है।
- विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है।
- उचित संदेह मौजूद है, यदि:
- पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर, यह विश्वास करने का कारण है कि, अमुक व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है।
- पुलिस अधिकारी संतुष्ट है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है।
- ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकना।
- अपराध की उचित जाँच हेतु।
- ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्यों को गायब करने या ऐसे साक्ष्यों के साथ किसी भी तरह से छेड़छाड़ करने से रोकना।
- ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वचन देने से रोकना ताकि उसे न्यायालय या पुलिस अधिकारी के सामने ऐसे तथ्यों का प्रकटन करने से रोका जा सके।
- जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता, आवश्यकता पड़ने पर न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती।
- बशर्ते कि एक पुलिस अधिकारी, उन सभी मामलों में जहाँ इस उपधारा के प्रावधानों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा।
- पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय अपने कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा:
- जिसके विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त हुई है या विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है और उचित संदेह है कि ऐसे व्यक्ति ने एक संज्ञेय अपराध किया है, जिसमें 7 वर्ष से अधिक के कारावास के साथ या बिना ज़ुर्माने के दण्डनीय है तथा उस जानकारी के आधार पर पुलिस राय है कि अमुक व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है।
- जब ऐसा व्यक्ति घोषित अपराधी हो।
- जिसके कब्ज़े में कुछ चोरी की संपत्ति पाई जाती है तथा यह मानने का कारण हो कि ऐसे व्यक्ति ने उस चोरी की संपत्ति के संबंध में कोई अपराध किया है।
- जब ऐसा व्यक्ति, पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है।
- जो वैध अभिरक्षा से भाग गया है या भागने का प्रयास किया है।
- जब ऐसे व्यक्ति पर संघ के सशस्त्र बलों से भगोड़ा होने का उचित संदेह हो।
- जब ऐसा व्यक्ति भारत के बाहर किये गए किसी कार्य से चिंतित होता है, जो भारत में अपराध है और जिसके विरुद्ध उचित शिकायत प्राप्त हुई है या कुछ विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है या उचित संदेह मौजूद है तथा उसी के लिये, वह भारत में लागू किसी भी विधि के अंतर्गत प्रत्यर्पण या गिरफ्तारी के लिये उत्तरदायी है।
- जब ऐसा व्यक्ति रिहा किया गया अपराधी हो तथा उसने अपनी रिहाई से संबंधित कुछ नियमों का उल्लंघन किया हो।
- जब उसे किसी पुलिस अधिकारी द्वारा ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करने की मांग के अधीन गिरफ्तार किया जाता है, जिसे बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है।
वारंट के साथ गिरफ्तारी (धारा 42 के अधीन):
- गैर-संज्ञेय अपराध में शामिल कोई भी व्यक्ति या जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है या विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है या उसके ऐसा करने का उचित संदेह है, उसे वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
- निजी व्यक्ति:
एक निजी व्यक्ति, CrPC की धारा 43 के आधार पर गिरफ्तारी कर सकता है, जब कोई व्यक्ति:- उनकी उपस्थिति में गैर-ज़मानती एवं संज्ञेय अपराध करता है।
- घोषित अपराधी है।
- मजिस्ट्रेट:
एक मजिस्ट्रेट (कार्यकारी या न्यायिक) CrPC की धारा 44 के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी कर सकता है:- या तो स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति को अपने स्थानीय अधिकार क्षेत्र के अंदर अपराधी को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है।
- वह किसी भी समय, अपनी उपस्थिति में, अपने स्थानीय अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तारी का निर्देश दे सकता है, जिसकी गिरफ्तारी के लिये वह उस समय एवं परिस्थितियों में वारंट जारी करने में सक्षम है।
गिरफ्तारी की प्रक्रिया:
गिरफ्तारी कैसे की जाए, इसकी प्रक्रिया संहिता की धारा 46 के अंतर्गत प्रदान की गई है।
धारा 46 - गिरफ्तारी कैसे की गई:
(1) गिरफ्तारी करते समय पुलिस अधिकारी या ऐसा करने वाला अन्य व्यक्ति गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वास्तव में छूएगा या कैद करेगा, जब तक कि शब्द या कार्यवाही द्वारा अभिरक्षा में न दिया जाए:
बशर्ते कि जहाँ एक महिला को गिरफ्तार किया जाना है, जब तक कि परिस्थितियाँ विपरीत संकेत न दें, गिरफ्तारी की मौखिक सूचना पर उसकी अभिरक्षा में प्रस्तुत करना माना जाएगा तथा, जब तक कि परिस्थितियों की अन्यथा आवश्यकता न हो या जब तक पुलिस अधिकारी एक महिला न हो, पुलिस अधिकारी महिला की गिरफ्तारी के लिये उसके शरीर को नहीं छूएगा।
(2) यदि ऐसा व्यक्ति उसे गिरफ्तार करने के प्रयास का बलात विरोध करता है, या गिरफ्तारी से बचने का प्रयास करता है, तो ऐसा पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तारी के लिये आवश्यक सभी साधनों का उपयोग कर सकता है।
(3) इस धारा में कुछ भी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनने का अधिकार नहीं देता है, जो मौत या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का आरोपी नहीं है।
(4) असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, किसी भी महिला को सूर्यास्त के बाद एवं सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, तथा जहाँ ऐसी असाधारण परिस्थितियाँ हों, महिला पुलिस अधिकारी एक लिखित रिपोर्ट देकर, प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति प्राप्त करेगी। जिसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र में अपराध किया गया है, या गिरफ्तारी की जानी है।
गिरफ्तारी के संबंध में आवश्यक शर्तें:
- जहाँ गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, वहाँ गिरफ्तारी से पहले अनिवार्य रूप से नोटिस जारी किया जाना चाहिये।
- CrPC की धारा 41 B के अनुसार, प्रत्येक पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करते समय:
- उसके नाम का सटीक, दृश्यमान एवं स्पष्ट पहचान रखें।
- कम से कम एक साक्षी द्वारा सत्यापित एवं गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित गिरफ्तारी ज्ञापन तैयार करें।
- सूचित करने वाले व्यक्ति ने किसी रिश्तेदार को सूचित करने के अपने अधिकार को समाप्त कर दिया।
- CrPC की धारा 41C के अनुसार हर ज़िले एवं राज्य स्तर पर पुलिस नियंत्रण कक्ष स्थापित किये जाने हैं।
- CrPC की धारा 41D के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति पूछताछ के दौरान किसी अधिवक्ता से मिलने का अधिकारी है, पूछताछ के दौरान नहीं।
- एक पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के अतिरिक्त, निम्नलिखित शक्तियों का प्रयोग कर सकता है:
- गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति द्वारा प्रवेश किये गए स्थान की तलाशी ले सकता है।
- भारत में किसी भी स्थान पर किसी भी व्यक्ति का पीछा कर सकता है।
- किसी व्यक्ति पर आवश्यकता से अधिक अंकुश नहीं लगाया जाएगा।
- गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी का कारण सूचित करें।
- गिरफ्तार व्यक्ति को ज़मानत के अधिकार के बारे में सूचित करें।
- किसी नामित व्यक्ति को गिरफ्तारी के बारे में सूचित करने का दायित्व है।
- गिरफ्तार व्यक्ति की तलाश करें।
- आक्रामक हथियार ज़ब्त करें।
- पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर आरोपी की मेडिकल जाँच की गई।
- बलात्संग के आरोपी व्यक्ति की मेडिकल जाँच।
- गिरफ्तार व्यक्ति का मेडिकल परीक्षण।
- गिरफ्तार व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की उचित देखभाल करना अभिरक्षा में रखने वाले व्यक्ति का कर्त्तव्य है।
- CrPC की धारा 57 के अनुसार गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने ले जाना चाहिये।
- प्रभारी अधिकारी बिना वारंट के सभी गिरफ्तारियों की रिपोर्ट ज़िला मजिस्ट्रेट को देगा।
- गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को उसके स्वयं के मुचलके/ज़मानत/मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश पर रिहा किया जायेगा।
- भागने की स्थिति में पीछा करने एवं पुनः पकड़ने की शक्ति।
- CrPC की धारा 60A के अनुसार सख्ती से गिरफ्तारी की जाएगी।
- अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि पुलिस अधिकारी आरोपी को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करें तथा मजिस्ट्रेट ऐसे मामलों में अभिरक्षा को अधिकृत न करें।
वाणिज्यिक विधि
धारा 201 एवं 202 के अंतर्गत एजेंसी (अभिकरण ) का समापन
16-May-2024
पी. शेषारेड्डी (डी) अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से सह अपरिवर्तनीय GPA धारक एवं समनुदेशित कोटमरेड्डी कोडंडरामी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य यदि अभिकर्त्ता संविदा में निर्दिष्ट संपत्ति में हित बनाए रखता है, तो अभिकरण, मालिक के निधन के बाद भी वैध बनी रहेगी। न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं बी. वी. नागरत्ना |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने पुनः स्पष्टीकृत किया कि प्रधान (मालिक) की मृत्यु की स्थिति में भी, अगर अभिकर्त्ता संविदा में उल्लिखित संपत्ति में निहित हित बनाए रखता है, तो अभिकरण विधिक रूप से बाध्य रहेगी।
- इसकी पुन: पुष्टि पी. शेषरेड्डी (डी) अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से सह अपरिवर्तनीय GPA धारक एवं समनुदेशित कोटमरेड्डी कोडंडरामी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की।
पी. शेषरेड्डी (डी) अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से सह अपरिवर्तनीय GPA धारक एवं समनुदेशित कोटमरेड्डी कोडंडरामी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- पी. शेषरेड्डी (अपीलकर्त्ता) ने कर्नाटक राज्य (प्रतिवादी) के साथ एक संविदा के लिये कोटमरेड्डी कोडंडरामी रेड्डी को अपने जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी के रूप में नियुक्त किया।
- विवाद उत्पन्न हुए, जिसके कारण शेषरेड्डी द्वारा मध्यस्थता शुरू की गई।
- उनकी मृत्यु के बाद, उनके विधिक उत्तराधिकारियों ने संपत्ति संभाली, लेकिन मामला खारिज कर दिया गया।
- कोडंडरामी रेड्डी ने बहाली के लिये याचिका दायर की, जिसे ट्रायल जज ने मंज़ूर कर लिया।
- प्रतिवादी ने ट्रायल जज के आदेशों के विरुद्ध रिट याचिका दायर की, जिसे एकल न्यायाधीश ने ट्रायल जज के आदेशों को रद्द करते हुए स्वीकार कर लिया।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि एकल न्यायाधीश ने केवल भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 201 पर विचार किया तथा धारा 202 एवं 209 की अनदेखी की। इस बात पर बल दिया गया कि अपीलकर्त्ता का संविदा में वैध हित था, जिससे उन्हें मूलधन के बावजूद कार्यवाही जारी रखने में मदद मिली। ठेकेदार की मृत्यु एवं प्रतिवादी-राज्य द्वारा दायर रिट याचिका को अनुमति दी गई।
- उच्चतम न्यायालय ने ICA की धारा 202 पर प्रकाश डालते हुए एकल न्यायाधीश की व्याख्या को त्रुटिपूर्ण माना। संविदा में अपीलकर्त्ता के हित को समर्पण-पत्र ने स्थापित किया, जिससे अभिकरण को इसके विपरीत स्पष्ट प्रावधानों के अभाव में जारी रखने की अनुमति मिल गई। ट्रायल जज के निर्णय को उचित माना गया तथा एकल जज के निर्णय को पलट दिया गया।
- अपीलें निस्तारित कर दी गईं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की कि तत्कालीन एकल न्यायाधीश ने धारा 202 पर विचार किये बिना केवल ICA की धारा 201 पर विचार करके चूक की।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि तत्कालीन एकल न्यायाधीश ने इस तथ्य को अनदेखा कर दिया कि समर्पण-पत्र के कारण अपीलकर्त्ता को संविदा में हित प्राप्त हुआ था।
- यह निर्विवाद है कि विचाराधीन संविदा अभिकरण का केंद्र बिंदु था। इसलिये, बिना किसी स्पष्ट प्रावधान के अन्यथा संकेत दिये, अपीलकर्त्ता को अभिकरण को लेकर आगे बढ़ने का उचित अधिकार था।
- पीठ ने उच्च न्यायालय के निष्कर्षों को पलटते हुए कहा कि यदि अभिकर्त्ता का संविदा में विशेष रूप से उल्लिखित संपत्ति में निहित हित है, जो अभिकरण के केंद्र बिंदु के रूप में कार्य करता है, तो अभिकरण संविदा को प्रधान (मालिक) की मृत्यु पर भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 ("1872 अधिनियम") के धारा 201 के अंतर्गत समाप्त नहीं किया जाएगा।
- अपीलकर्त्ता ने दावा किया कि अधिनियम की धारा 202 के अंतर्गत, अभिकरण की विषयवस्तु बनाने वाली संपत्ति में उनका हित एक स्पष्ट संविदा के बिना अभिकरण को समाप्त करने से रोकती है, जो उनके हित पर गलत प्रभाव डालेगी।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यदि अभिकर्त्ता के पास संविदा के अंदर एक निर्दिष्ट हित है, तो प्राथमिक ठेकेदार की मृत्यु, अभिकर्त्ता (अटॉर्नी की शक्ति) को संविदा से उत्पन्न होने वाली कार्यवाही को शुरू करने से नहीं रोकेगी।
- वर्तमान परिदृश्य में, मुख्य ठेकेदार ने अपीलकर्त्ता को पावर ऑफ अटॉर्नी प्रदान की।
- मुख्य ठेकेदार की मृत्यु के बाद, प्रतिवादी ने अभिकरण, यानी पावर ऑफ अटॉर्नी को समाप्त करने की मांग की।
- हालाँकि, अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि चूँकि वे संविदा में निहित हित बनाए रखते हैं, इसलिये मुख्य ठेकेदार की मृत्यु पर अभिकरण की समाप्ति, अधिनियम की धारा 201 के अंतर्गत लागू नहीं होगी।
संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 201 एवं 202 क्या है?
परिचय:
- ICA, 1872 की धारा 201 में कहा गया है कि प्रधान (मालिक) की मृत्यु या उसके पागलपन से अभिकरण-संबंध समाप्त हो जाता है।
- ICA, 1872 की धारा 202 उस अभिकरण को समाप्त करने से संबंधित है, जहाँ अभिकर्त्ता का अभिकरण की विषय वस्तु में हित है।
- यह निर्दिष्ट करता है कि यदि अभिकर्त्ता की संपत्ति में व्यक्तिगत रुचि है, जो अभिकरण की विषयवस्तु है, तो अभिकरण को ऐसे हित के पूर्वाग्रह के कारण समाप्त नहीं किया जा सकता है, जब तक कि ऐसी समापन की अनुमति देने के लिये कोई स्पष्ट संविदा न की गई हो।
विधिक प्रावधान:
- धारा 201 अभिकरण की समापन से संबंधित है:
- एक अभिकरण को प्रधान (मालिक) द्वारा उसके अधिकार को रद्द करके समाप्त कर दिया जाता है, या अभिकर्त्ता द्वारा अभिकरण का व्यवसाय त्यागना, या अभिकरण का व्यवसाय पूरा होने से, या तो प्रधान (मालिक) या अभिकर्त्ता के मरने या मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जानेसे, या दिवालिया देनदारों की राहत के लिये उस समय लागू किसी अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत प्रधान (मालिक) को दिवालिया घोषित किया जा सकता है।
- धारा 202 अभिकरण के समापन से संबंधित है, जहाँ अभिकर्त्ता का हित विषयवस्तु में निहित है।
- जहाँ अभिकर्त्ता का स्वयं उस संपत्ति में हित है, जो अभिकरण की विषयवस्तु है, वहाँ अभिकरण को, किसी स्पष्ट संविदा के अभाव में, ऐसे हित के पूर्वाग्रह के कारण समाप्त नहीं किया जा सकता है।
अभिकरण के समापन के विभिन्न तरीके क्या हैं?
ICA, 1872 की धारा 201 अभिकरण की समापन के विभिन्न तरीकों का वर्णन करती है।
- पक्षकारों के कृत्य द्वारा अभिकरण की समाप्ति:
- करार:
- किसी भी अन्य करार की तरह, प्रधान (मालिक) एवं अभिकर्त्ता का संबंध, प्रधान (मालिक) एवं अभिकर्त्ता के मध्य आपसी करार से किसी भी समय और किसी भी स्तर पर समाप्त किया जा सकता है।
- प्रधान द्वारा निरस्तीकरण:
- ICA, 1872 की धारा 203 के अनुसार, अभिकर्त्ता द्वारा अपने अधिकार का प्रयोग करने से पहले प्रधान (मालिक) किसी भी समय अभिकर्त्ता के अधिकार को रद्द कर सकता है, ताकि प्रधान (मालिक) को बाध्य किया जा सके, जब तक कि अभिकरण अपरिवर्तनीय न हो।
- अभिकर्त्ता द्वारा त्याग:
- एक अभिकर्त्ता कार्य करने से मना करके या प्रधान (मालिक) को यह सूचित करके अपनी शक्ति त्यागने का अधिकारी है कि वह प्रधान (मालिक) के लिये कार्य नहीं करेगा।
- करार:
- विधि के संचालन द्वारा अभिकरण की समाप्ति:
- संविदा का निष्पादन:
- जहाँ अभिकरण किसी विशेष उद्देश्य के लिये होती है, वहाँ वह उद्देश्य पूरा हो जाने पर या लक्ष्य पूरा होना असंभव हो जाने पर समाप्त कर दी जाती है।
- समय की समाप्ति:
- जब अभिकर्त्ता को एक निश्चित अवधि के लिये नियुक्त किया जाता है, तो उस समय की समाप्ति के बाद अभिकरण समाप्त हो जाता है, भले ही कार्य पूरा न हुआ हो।
- मृत्यु और पागलपन:
- ICA, 1872 की धारा 209 के अनुसार, जब अभिकर्त्ता या प्रधान (मालिक) की मृत्यु हो जाती है या वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है, तो अभिकरण समाप्त कर दिया जाता है।
- दिवाला:
- यह स्वीकार किया जाता है कि अभिकर्त्ता के दिवालिया होने से अभिकरण भी समाप्त हो जाता है, जब तक कि अभिकर्त्ता द्वारा किये जाने वाले कार्य केवल औपचारिक कार्य न हों।
- विषयवस्तु का नाश:
- एक अभिकरण जो एक निश्चित विषयवस्तु से निपटान के लिये बनाया गया है, विषयवस्तु के नष्ट होने से समाप्त हो जाती है।
- प्रधान (मालिक) एवं अभिकर्त्ता का एलियन कंपनी होना:
- अभिकरण की संविदा तब तक वैध है, जब तक प्रधान (मालिक) एवं अभिकर्त्ता के देश शांतिकाल में हैं। यदि दोनों देशों के मध्य युद्ध छिड़ जाता है तो अभिकरण की संविदा समाप्त कर दी जाती है।
- किसी कंपनी का विघटन:
- जब कोई कंपनी भंग हो जाती है, तो कंपनी के साथ या कंपनी द्वारा अभिकरण की संविदा स्वतः समाप्त हो जाती है।
- संविदा का निष्पादन:
निर्णयज विधियाँ:
भगवानभाई करमनभाई बनाम आरोग्यनगर सहकारी हाउसिंग सोसायटी लिमिटेड (2003) मामले में भूमि की बिक्री के लिये सभी भूस्वामियों द्वारा एक अपरिवर्तनीय पावर ऑफ अटॉर्नी निष्पादित की गई थी। साथ ही, भूस्वामियों ने पावर ऑफ अटॉर्नी धारक के पक्ष में अपना अधिकार त्याग दिया। गुजरात उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि भूमि मालिकों में से किसी एक की मृत्यु पर, मृत भूमि मालिक के उत्तराधिकारियों एवं विधिक प्रतिनिधियों से सहमति लेने के लिये पावर ऑफ अटॉर्नी धारक की कोई आवश्यकता नहीं थी। ऐसा इसलिये था, क्योंकि अभिकरण की समापन के लिये कोई स्पष्ट संविदा नहीं थी।