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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

शपथ-पत्र

 23-May-2024

डॉन पॉल बनाम केरल राज्य

CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन के साथ शपथ-पत्र आवश्यक है, वैवाहिक/पारिवारिक विवादों में आवेदन स्वीकार करते समय मजिस्ट्रेट को सावधानी बरतनी चाहिये।

न्यायमूर्ति ए. बदहरूदीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल के एक निर्णय में, न्यायालय ने डॉन पॉल बनाम केरल राज्य के एक मामले में कार्यवाही को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया। इसमें वैवाहिक संपत्ति के दुरुपयोग का आरोप शामिल है। न्यायालय ने वित्तीय, वैवाहिक या वाणिज्यिक विवादों से जुड़े मामलों में मजिस्ट्रेटों द्वारा सावधानी बरतने की आवश्यकता पर जोर दिया और जाँच शुरू करने से पहले आरोपों के सत्यापन का आग्रह किया।

  • न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन शपथ-पत्र के साथ आवेदनों का समर्थन करने के महत्त्व पर प्रकाश डाला, जिसका उद्देश्य दुर्भावनापूर्ण वादियों को रोकना है।

डॉन पॉल बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता, पहले आरोपी ने CrPC की धारा 482 के अधीन न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट- I, वैकोम में लंबित अनुलग्नक B अंतिम रिपोर्ट एवं C.C.No.878/2019 में सभी कार्यवाही को रद्द करने के लिये एक आपराधिक विविध मामला दायर किया।
  • यह मामला याचिकाकर्त्ता की पत्नी द्वारा CrPC की धारा 200 से 204 के साथ पठित धारा 190 के अधीन दायर शिकायत में लगाए गए आरोपों के इर्द-गिर्द घूमता है।
  • शिकायत में याचिकाकर्त्ता पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 406 के अधीन दण्डनीय अपराध करने का आरोप लगाया गया है।
  • याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि IPC की धारा 406 लागू नहीं है, CrPC की धारा 190 के अधीन निजी शिकायत के बजाय CrPC की धारा 154 के अधीन FIR करने का सुझाव दिया गया है।
  • शिकायत के अनुसार, याचिकाकर्त्ता ने विवाह की व्यवस्था के अंतर्गत 75 सोने के आभूषण एवं 50 लाख रुपए की मांग की। सगाई की तिथि पर 25 लाख रुपए सौंपे गए तथा याचिकाकर्त्ता एवं शिकायतकर्त्ता द्वारा संयुक्त रूप से रखी गई सावधि जमा में 25 लाख रुपए जमा किये गए।
  • कथित तौर पर, शिकायतकर्त्ता की सहमति के बिना, याचिकाकर्त्ता एवं एक अन्य आरोपी ने सावधि जमा रसीदों का विक्रय कर दिया तथा उन्हें सौंपे गए सोने के आभूषणों का भी दुर्विनियोग कर दिया।
  • कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति ए. बदहरुदीन ने वित्तीय मामलों, वैवाहिक या पारिवारिक विवादों, वाणिज्यिक अपराधों, चिकित्सकीय उपेक्षा, भ्रष्टाचार, या निर्दिष्ट विलंब या उपेक्षा वाली स्थितियों से जुड़े मामलों में जाँच के लिये आवेदनों पर विचार करते समय सावधानी बरतने वाले मजिस्ट्रेटों के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
    • जहाँ CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदनों को शिकायतकर्त्ता द्वारा विधिवत शपथ-पत्र द्वारा समर्थित किया जाना चाहिये, जो मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना चाहता है।
    • किसी उपयुक्त मामले में, विद्वान मजिस्ट्रेट को आरोपों की सच्चाई एवं शुद्धता को सत्यापित करने की सलाह दी जाएगी।
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन याचिका दायर करने से पहले CrPC की धारा 154(1) एवं 154(3) के अधीन आवेदन होना चाहिये।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि शपथ-पत्र की आवश्यकता बेईमान वादियों को दुर्भावनापूर्ण आशय से आवेदन करने से हतोत्साहित करेगी, क्योंकि मिथ्या शपथ-पत्र के परिणामस्वरूप विधिक वाद चलाया जा सकता है, जिससे आपराधिक न्यायालय में स्वाभाविक मुकदमेबाज़ी को रोका जा सकेगा।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पुलिस की अंतिम रिपोर्ट से पहले, आरोपी की जाँच का तुरंत विरोध करने में विफलता, भारतीय दण्ड संहिता IPC की धारा 403 के अधीन बाद के आरोप को रेखांकित करती है, जिसे जाँच के निष्कर्ष के बाद ही सामने लाया गया था।

शपथ-पत्र क्या है?

  • परिचय:
    • एक शपथ-पत्र स्वेच्छा से दिये गए तथ्यों का एक लिखित बयान है, जो इसे बनाने वाले पक्ष की शपथ या प्रतिज्ञान द्वारा पुष्टि की जाती है, तथा उस व्यक्ति के समक्ष हस्ताक्षरित होती है, जो ऐसी शपथ दिलाने के लिये अधिकृत है (जैसे कि नोटरी पब्लिक या न्यायालय अधिकारी)।
    • यह विधिक कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में कार्य करता है तथा अक्सर न्यायालयी मामलों में सूचना या गवाही प्रदान करने के लिये उपयोग किया जाता है, जब कोई साक्षी व्यक्तिगत रूप से गवाही देने के लिये उपलब्ध नहीं होता है।
    • शपथ-पत्रों को विधिक रूप से बाध्यकारी दस्तावेज़ माना जाता है तथा इनका महत्त्व न्यायालय में शपथ के अंतर्गत दी गई गवाही के समान ही होता है।
    • इनका उपयोग आम तौर पर सिविल वादों, आपराधिक मामलों एवं प्रशासनिक कार्यवाही सहित विभिन्न विधिक मामलों में किया जाता है।
  • शपथ-पत्र का प्रारूप तैयार करने का अधिकार:
    • शपथ-पत्र किसी भी व्यक्ति द्वारा तैयार किया जा सकता है, केवल आवश्यक शर्तें जैसे कि विधिक उम्र एवं इसके घटकों की समझ।
    • शपथ-पत्र के महत्त्व की समझ सुनिश्चित करने के लिये मानसिक क्षमता आवश्यक है।
    • नकाबपोश महिला घोषणाकर्त्ताओं द्वारा प्रस्तुत शपथ-पत्रों की वैधता के लिये संबंधित अधिकारियों द्वारा उचित पहचान एवं प्रामाणीकरण की आवश्यकता होती है।

शपथ-पत्र के प्रकार क्या हैं?

शपथ-पत्रों को न्यायिक शपथ-पत्रों एवं गैर-न्यायिक शपथ-पत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • न्यायिक शपथ-पत्र
    • न्यायिक शपथ-पत्र किसी आपराधिक मामले जैसी न्यायिक कार्यवाही के संबंध में प्रस्तुत या दायर किया जाता है।
    • न्यायिक शपथ-पत्र में साक्षी के मामले से संबंधित तथ्यों का बयान, शपथ या प्रतिज्ञान के अंतर्गत शपथ या प्रतिज्ञान शामिल होता है तथा शपथ दिलाने के लिये अधिकृत सक्षम अधिकारी के समक्ष हस्ताक्षर किये जाते हैं।
    • एक न्यायिक शपथ-पत्र विचारण के दौरान मौखिक गवाही एवं साक्षियों की प्रतिपरीक्षा की आवश्यकता को कम करके विचारण की प्रक्रिया को तेज़ करता है।
  • गैर-न्यायिक शपथ-पत्र:
    • एक गैर-न्यायिक शपथ-पत्र, किसी भी न्यायिक कार्यवाही के परे निष्पादित किया जाता है। इसका उपयोग विभिन्न विधिक उद्देश्यों के लिये किया जाता है, जैसे- घोषणाएँ करना, पुष्टि करना, या तथ्य का बयान देना।
    • गैर-न्यायिक शपथ-पत्रों का उपयोग सामान्य तौर पर विधिक कार्यवाही के पूर्व-परीक्षण चरणों में, जाँच के दौरान, या किसी दावे या बचाव के समर्थन में सूचना या साक्ष्य प्रदान करने के लिये किया जाता है।
    • ये शपथ-पत्र सरकारी एजेंसियों, निजी संस्थाओं या व्यक्तियों को विभिन्न उद्देश्यों, जैसे आवेदन, संविदा, प्रामाणन, या विवाद के लिये प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
    • वैध एवं विधिक रूप से बाध्यकारी माने जाने के लिये गैर-न्यायिक शपथ-पत्रों को अभी भी शपथ दिलाने के लिये अधिकृत किसी सक्षम अधिकारी, जैसे नोटरी पब्लिक या कोर्ट क्लर्क, के समक्ष शपथ या पुष्टि की जानी चाहिये।

शपथ-पत्र के आवश्यक घटक क्या हैं?

  • लिखित प्रपत्र: एक शपथ-पत्र लिखित रूप में प्रलेखित होना चाहिये।
  • अभिसाक्षी द्वारा घोषणा: यह अभिसाक्षी द्वारा की गई औपचारिक घोषणा के रूप में कार्य करता है, आमतौर पर शपथ या प्रतिज्ञान के दौरान।
  • सत्यता: शपथ-पत्र में बताए गए तथ्य अभिसाक्षी के सर्वोत्तम ज्ञान के अनुसार सटीक एवं सत्य होने चाहिये।
  • अनुप्रामाणित शपथ: शपथ-पत्र को मान्य करने के लिये, इसे किसी अधिकृत अधिकारी, जैसे नोटरी पब्लिक या मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथ या पुष्टि की जानी चाहिये।
  • व्यक्तिगत घोषणा: एक शपथ-पत्र सदैव अभिसाक्षी द्वारा दिया गया एक सीधा बयान होता है तथा इसे किसी अन्य व्यक्ति की ओर से नहीं किया जा सकता है।

विधि में शपथ-पत्र की स्थिति क्या है?

  • आदेश XIX CPC:
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश XIX साक्षियों की प्रतिपरीक्षा को नियंत्रित करता है।
    • यह पक्षकारों को मौखिक गवाही के बजाय शपथ-पत्र के माध्यम से साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति देता है।
    • यह आदेश उनके प्रारूप, सामग्री एवं सत्यापन आवश्यकताओं सहित शपथ-पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया की रूपरेखा बताता है। शपथ-पत्रों को सक्षम प्राधिकारी के समक्ष शपथ या पुष्टि की जानी चाहिये तथा निर्दिष्ट समय-सीमा के अंदर दाखिल किया जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, आदेश XIX शपथ-पत्रों के साक्षियों की प्रतिपरीक्षा का प्रावधान करता है, जिससे पक्षकारों को वाद की कार्यवाही के दौरान उसमें दिये गए बयानों को चुनौती देने में सक्षम बनाया जा सके।
  • धारा 296 CrPC:
    • धारा 296 शपथ-पत्र पर औपचारिक चरित्र के साक्ष्य से संबंधित है।
    • किसी भी व्यक्ति का साक्ष्य, जिसका साक्ष्य औपचारिक चरित्र का है, शपथ-पत्र द्वारा दिया जा सकता है तथा सभी अपवादों के अधीन, इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जाँच, परीक्षण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है।
    • न्यायालय, यदि उचित समझे, अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर, ऐसे किसी भी व्यक्ति को बुला सकता है तथा उसके शपथपत्र में शामिल तथ्यों के बारे में जाँच कर सकता है।
  • धारा 1 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872:
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) किसी भी न्यायालय में या उसके समक्ष सभी न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होता है, जिसमें कोर्ट-मार्शल भी शामिल है, लेकिन शपथ-पत्रों पर नहीं।

शपथ-पत्रों पर महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • शिवराज बनाम ए.पी. बत्रा (1955):
    इस मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शपथ-पत्रों की स्थिति पर निम्नलिखित बिंदुओं को साक्ष्य के रूप में माना:
    • IEA शपथ-पत्रों पर लागू नहीं होता, यह कहने के समान नहीं है कि शपथ-पत्र साक्ष्य नहीं हैं। IEA की वह प्रस्तावना जो बताती है कि IEA शपथ-पत्र पर लागू नहीं होता है, उसमें यह भी शामिल है कि किसी भी न्यायालय में या उसके समक्ष सभी न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होता है।
      • इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी न्यायालय में या उसके समक्ष न्यायिक कार्यवाही में मौखिक साक्ष्य लिया जाता है, ताकि न्यायालय की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीश के लिये उस साक्ष्य को केंद्र में रखना संभव हो सके।
    • उदाहरण के लिये, न्यायाधीश मुख्य परीक्षा में अस्वीकार्य साक्ष्य या प्रमुख प्रश्नों को अस्वीकार कर देगा।
      • लेकिन शपथ-पत्र, जबकि इसके विरुद्ध कोई रोक नहीं है, आम तौर पर उस न्यायालय के समक्ष शपथ नहीं ली जाती है, जिसमें उनका उपयोग किया जाता है, जो कि किसी अन्य न्यायालय या शपथ दिलाने के लिये अधिकृत व्यक्ति के समक्ष शपथ ली जाती है।
      • इसलिये IEA के नियमों के अनुसार अभिसाक्षी पर न्यायालय का उपरोक्त नियंत्रण एक शपथ-पत्र के मामले में संभव नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यही कारण है कि अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि यह शपथ-पत्रों पर लागू नहीं होता है।
    • हालाँकि IEA शपथ-पत्र पर लागू नहीं होता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि शपथ-पत्र को साक्ष्य के तौर पर प्रयोग किया जाता है।
  • खानदेश Spg एवं Wvg मिल्स कंपनी लिमिटेड बनाम राष्ट्रीय गिरनी कामगार संघ (1960):
    • उच्चतम न्यायालय ने मामले में स्पष्ट किया कि एक शपथ-पत्र को साक्ष्य के तौर पर तभी प्रयोग किया जा सकता है जब न्यायालय पर्याप्त कारणों के साथ ऐसा आदेश दे। इसलिये, एक विशिष्ट न्यायालयी आदेश के बिना, एक शपथ-पत्र को आम तौर पर साक्ष्य के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

आपराधिक कानून

स्थानीय समिति

 23-May-2024

X बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य

"यदि संपूर्ण परिवाद को पढ़ा जाए तो यह निष्कर्षित है कि यह PoSH की धारा 9(1) के अंतर्गत समय-सीमा अवधि के भीतर थी”।

न्यायमूर्ति कौशिक चंदा

स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति कौशिक चंदा की पीठ ने महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 (PoSH) के अंतर्गत समय-सीमा अवधि से संबंधित एक याचिका अनुज्ञात की।

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने X बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य के मामले में यह टिप्पणी दी।

सिद्ध नाथ पाठक और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याची, एक विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर, ने स्थानीय समिति, 24-परगना (उत्तर) के समक्ष PoSH के तहत प्रत्यर्थी संख्या 7 के विरुद्ध परिवाद दर्ज किया।
  • याची ने अपने परिवाद में सितंबर 2019 से अप्रैल 2023 की अवधि में लैंगिक उत्पीड़न की घटनाओं और उसके बाद अप्रैल 2023 से 21 दिसंबर, 2023 की अवधि में हुए उत्पीड़न तथा अहितकर व्यवहार को अभिकथित किया।
  • 05 मार्च 2024 के एक आदेश द्वारा, स्थानीय समिति ने याची के परिवाद को समय-सीमा अवधि के आधार पर खारिज कर दिया।
    • समिति ने पाया कि अभिकथित लैंगिक उत्पीड़न की आखिरी घटना 30 अप्रैल 2023 के भीतर हुई थी किंतु परिवाद PoSH अधिनियम की धारा 9(1) के तहत समय-सीमा अवधि के बाद, 26 दिसंबर 2023 को दर्ज की गई थी।
    • समिति ने याची की विलंब की माफी की अर्जी भी खारिज कर दी।
  • स्थानीय समिति के आदेश से व्यथित होकर, याची ने कलकत्ता HC के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि स्थानीय समिति अप्रैल 2023 और 21 दिसंबर 2023 के बीच हुई अभिकथित घटनाओं को 2013 के अधिनियम की धारा 3(2) के दायरे में "लैंगिक उत्पीड़न" के रूप में मानने में विफल रही।
  • न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि परिवाद में किये अभिकथनों से पता चलता है कि अप्रैल 2023 और दिसंबर 2023 के बीच कथित तौर पर उत्पीड़न तथा अहितकर व्यवहार की परिस्थितियों का सितंबर 2019 एवं अप्रैल 2023 की अवधि के बीच याची के साथ हुए अभिकथित लैंगिक उत्पीड़न के साथ संबंध है।
  • न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि यदि संपूर्ण परिवाद को पढ़ा जाए तो यह निष्कर्षित है कि यह PoSH की धारा 9(1) के अंतर्गत सीमा अवधि के भीतर थी।
  • न्यायालय ने स्थानीय समिति द्वारा पारित 5 मार्च 2024 के आदेश को रद्द कर दिया और स्थानीय समिति को याची के परिवाद के संबंध में शुरू की गई कार्यवाही का समापन PoSH के उपबंधों के अनुसार गुणागुण के आधार पर करने का निर्देश दिया।

PoSH के अंतर्गत लैंगिक उत्पीड़न क्या है?

  • PoSH की धारा 2(n):
    "लैंगिक उत्पीड़न" के अंतर्गत निम्नलिखित कोई एक अथवा अधिक अवांछनीय कार्य अथवा व्यवहार (चाहे प्रत्यक्ष रूप से हो अथवा विवक्षित रूप से) शामिल हैं, अर्थात्-
    • शारीरिक संपर्क और अग्रगमन; अथवा
    • लैंगिक अनुकूलता की मांग अथवा अनुरोध करना; अथवा
    • लैंगिक अत्युक्त टिप्पणियाँ करना; अथवा
    • अश्लील साहित्य दिखाना; अथवा
    • लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछनीय शारीरिक, मौखिक या अमौखिक आचरण;
  • PoSH की धारा 3(2):
    अन्य परिस्थितियों में निम्नलिखित परिस्थितियाँ, यदि वे लैंगिक उत्पीड़न के किसी कार्य अथवा आचरण के संबंध में होती हैं या विद्यमान हैं या उससे संबद्ध हैं, लैंगिक उत्पीड़न की कोटि में आ सकेंगी-
    • उसके नियोजन में अधिमानी उपचार का विवक्षित या सुस्पष्ट वचन देना; या
    • उसके नियोजन में अहितकर व्यवहार की विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
    • उसकी वर्तमान या भावी नियोजन की प्रास्थिति के बारे में विवक्षित या सुस्पष्ट धमकी देना; या
    • उसके कार्य में हस्तक्षेप करना या उसके लिये अभित्रासमय या संतापकारी या प्रतिकूल कार्य वातावरण सृजित करना; या
    • उसके स्वास्थ्य या सुरक्षा को प्रभावित करने की संभावना वाला अपमानजनक व्यवहार करना।

PoSH के अंतर्गत स्थानीय समिति क्या है?

  • धारा 6: स्थानीय समिति का गठन और उसकी अधिकारिता-
    • गठन: प्रत्येक ज़िला अधिकारी ऐसे स्थापनों से जहाँ आंतरिक समिति गठित नहीं की गई हैं या यदि परिवाद स्वयं नियोजक के विरुद्ध है, वहाँ लैगिक उत्पीड़न के परिवाद ग्रहण करने के लिये ज़िले में एक "स्थानीय समिति" का गठन करेगा।
    • नोडल अधिकारी: ज़िला अधिकारी 7 दिन की अवधि के भीतर परिवाद ग्रहण करने और परिवाद को संबद्ध स्थानीय समिति को अग्रेषित करने के लिये ग्रामीण/शहरी क्षेत्रों में नोडल अधिकारी को पदाभिहित करेगा।
    • अधिकारिता: स्थानीय समिति की अधिकारिता का विस्तार ज़िले के उन क्षेत्रों पर होगा, जहाँ वह गठित की गई है।
  • धारा 7: स्थानीय समिति की संरचना, सेवाधृति और अन्य शर्तें-
    • संरचना:
      • अध्यक्ष: ज़िला अधिकारी द्वारा नामनिर्दिष्ट प्रख्यात महिला सामाजिक कार्यकर्त्ता
      • 1 सदस्य: ज़िला अधिकारी द्वारा नामनिर्दिष्ट ब्लॉक/ताल्लुका में कार्यरत महिला
      • 2 सदस्य: महिलाओं के हित के लिये प्रतिबद्ध गैर सरकारी संगठनों/व्यक्तियों में से नामनिर्दिष्ट (अधिमानतः एक विधि ज्ञान से सुपरिचित और दूसरा SC/ST/OBC/अल्पसंख्यक)
      • पदेन सदस्य: सामाजिक कल्याण/महिला एवं बाल विकास से संबंधित अधिकारी
    • कार्यकाल: समिति का अध्यक्ष और प्रत्येक सदस्य, ज़िला अधिकारी द्वारा विनिर्दिष्ट की गई 3 वर्ष की अवधि के लिये पद धारण करेगा।
    • निष्कासन: यदि अध्यक्ष/सदस्य उपबंधो का उल्लंघन करते हैं, दोषी पाए जाते हैं, अनुशासनात्मक कार्यवाही में दोषी पाए जाते हैं या अपने पद का दुरुपयोग करते हैं तो उन्हें उनके पद से हटाया जा सकता है।
    • शुल्क/भत्ते: अध्यक्ष और नामांकित सदस्य निर्धारित कार्यवाही के संचालन के लिये शुल्क/भत्ते के हकदार हैं।
    • वर्ष 2016 का संशोधन:
    • वर्ष 2016 में संशोधन के माध्यम से प्रतिस्थापन से पूर्व, “स्थानीय समिति” पद को “स्थानीय परिवाद समिति” के रूप में जाना जाता था।

PoSH के अंतर्गत समय-सीमा अवधि क्या है?

  • धारा 9(1):
    • कोई व्यथित महिला, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का लिखित परिवाद, घटना की तिथि से तीन मास की अवधि के भीतर, आंतरिक समिति को, यदि इस प्रकार गठित की गई है या यदि इस प्रकार गठित नहीं की गई है तो स्थानीय समिति को कर सकेगी,
    • और शृंखलाबद्ध घटनाओं की दशा में अंतिम घटना की तारीख से तीन मास की अवधि के भीतर कर सकेगी।
  • उपबंध 1: परिवाद करने में सहायता-
    • जहाँ पारिवाद लिखित रूप में नहीं किया जा सकता है, पीठासीन अधिकारी अथवा आंतरिक समिति के किसी सदस्य अथवा अध्यक्ष अथवा स्थानीय समिति के किसी सदस्य, जिस प्रकार मामला हो, द्वारा लिखित में परिवाद करने के लिये महिला को सभी उचित सहायता प्रदान की जाएगी।
  • प्रावधान 2: समय-सीमा में विस्तार-
    • आंतरिक समिति अथवा, जिस भी प्रकार का मामला हो, स्थानीय समिति, लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों से, समय-सीमा को तीन मास की अवधि से अधिक नहीं बढ़ा सकती है, यदि वह संतुष्ट है कि परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिसने महिला को उक्त अवधि के भीतर परिवाद दर्ज करने से बाधित किया था।
  • धारा 9(2) के अंतर्गत विधिक वारिस अथवा अन्य द्वारा शिकायत:
    • जहाँ व्यथित महिला अपनी शारीरिक अथवा मानसिक असमर्थता अथवा मृत्यु के कारण अथवा अन्यथा परिवाद करने में असमर्थ है वहाँ उसका विधिक वारिस अथवा ऐसा कोई अन्य व्यक्ति जो विहित किया जाए, इस धारा के अधीन परिवाद कर सकेगा।

सिविल कानून

बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम

 23-May-2024

सी. सुब्बैया उर्फ़ कदंबुर जयराज एवं अन्य बनाम पुलिस अधीक्षक एवं अन्य

पूरी तरह से उथले FIR के कारण आरोपी या अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक अभियोजन किया गया, जो विधि की प्रक्रिया के दुरुपयोग के समान है।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोई भी व्यक्ति बेनामी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार के आधार पर उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके नाम पर संपत्ति है या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध बचाव नहीं कर सकता है।

सी. सुब्बैया उर्फ कदंबुर जयराज एवं अन्य बनाम पुलिस अधीक्षक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शिकायतकर्त्ता को वर्ष 2007 में एक सरकारी शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। इस नौकरी से पहले वह पिछले 16 वर्षों से रियल एस्टेट का कारोबार कर रहा था।
  • शिकायतकर्त्ता सुब्बैया एवं उसकी पत्नी के संपर्क में आया। सुब्बैया के माध्यम से उसकी मुलाकात चंद्रशेखर, उसके बेटे, पत्नी और भाई (आरोपी) से हुई। ये सभी रियल एस्टेट कारोबार से जुड़े थे।
  • उन्होंने शिकायतकर्त्ता को अपने रियल एस्टेट व्यवसाय में सम्मिलित होने के लिये विवश किया, क्योंकि उनके मज़बूत राजनीतिक संबंध थे।
  • उन्होंने शिकायतकर्त्ता से लेन-देन के प्रारंभ में ही प्रवंचना करने के आशय से भूमि का क्रय-विक्रय (सौदे) करने का आग्रह किया।
  • साथ ही शिकायतकर्त्ता को इस वचन पर ज़मीन में निवेश करने के लिये प्रभावित किया कि उनके मज़बूत राजनीतिक संबंध हैं, जो उन्हें लाभ कमाने में सहायता करेंगे।
  • शिकायतकर्त्ता ने आरोप लगाया कि आरोपी (अपीलकर्त्ता) उसके भाग का भुगतान करने में विफल रहे।
  • शिकायतकर्त्ता ने थाने में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
  • उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील किया तथा उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि वह ज़िला पुलिस अधीक्षक को एक नई शिकायत प्रस्तुत करें। पुनः कोई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज नहीं की गई।
  • फिर शिकायतकर्त्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अधीन इसे पुलिस को अग्रेषित करने की प्रार्थना के साथ क्षेत्राधिकारी मजिस्ट्रेट के न्यायालय में शिकायत दर्ज की।
  • न्यायालय के निर्देश के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई तथा आरोप-पत्र समर्पित किया गया।
  • शिकायतकर्त्ता ने इन्हीं आरोपों के लिये एक सिविल वाद भी दायर किया था, जो ज़िला न्यायाधीश के समक्ष लंबित था।
  • अभियुक्तों (अपीलकर्त्ताओं) ने FIR एवं आरोप-पत्र के प्रत्युत्तर में उच्च न्यायालय में अपील दायर की तथा उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।
  • इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति द्वारा अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय (SC) ने कथित लेन-देन के समय लागू बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम 1988 (बेनामी अधिनियम) की धारा 2 (a), धारा 2 (c) एवं धारा 4 का उल्लेख किया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि शिकायतकर्त्ता ने भूमि सौदों में निवेश करने के बावजूद, जो स्पष्ट रूप से बेनामी लेन-देन थे, उन व्यक्तियों के विरुद्ध वसूली के लिये कोई नागरिक कार्यवाही शुरू नहीं की, जिनके नाम पर संपत्तियाँ थीं, जो इस मामले में आरोपी या अपीलकर्त्ता होंगे।
  • चूँकि बेनामी अधिनियम की धारा 4(1) एवं 4(2) में निहित प्रावधानों के आधार पर, शिकायतकर्त्ता को इन बेनामी लेन-देन के संबंध में सिविल दोष के लिये आरोपी पर वाद लाने से प्रतिबंधित किया गया है, परिणामस्वरूप, आपराधिक अभियोजन चलाने की अनुमति मिलती है क्योंकि स्वयं के संबंध में अभियुक्त पर कार्यवाही का कारण विधि में अस्वीकार्य होगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक विवाद जो पूरी तरह से सिविल प्रकृति का है, उसे आपराधिक विधि के प्रावधानों का दुरुपयोग करके प्रवंचना एवं आपराधिक विश्वास-भंग का आरोप लगाते हुए आपराधिक अभियोजन का रंग दिया गया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पुनः कहा कि बेनामी अधिनियम की धारा 4 में निहित स्पष्ट रोक के कारण, शिकायतकर्त्ता, आरोपी और अपीलकर्त्ताओं पर उन्हीं तथ्यों एवं आरोपों के लिये अभियोजित नहीं कर सकता था, जिन्हें आपराधिक कार्यवाही का आधार बनाया गया है।

बेनामी लेन-देन (निषेध), अधिनियम 1988 क्या है?

  • बेनामी संपत्ति:
    • 'बेनामी' शब्द उर्दू से लिया गया है जिसका अर्थ है 'कोई नाम नहीं' या 'बिना नाम' के
    • बेनामी संपत्ति में कोई भी चल या अचल, मूर्त या अमूर्त एवं अधिकार या संपत्ति में स्वामित्व या हित का साक्ष्य देने वाला कोई दस्तावेज़ शामिल है।
  • बेनामी लेन-देन:
    • बेनामी लेन-देन में संपत्ति, एक व्यक्ति को अंतरित की जाती है, लेकिन प्रतिफल किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदान या भुगतान किया जाता है।
    • यह एक ऐसी प्रणाली है, जहाँ वास्तविक स्वामियों के अतिरिक्त अन्य नामों पर संपत्ति का स्वामित्व होना या अर्जित करना संभव है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • बेनामी संपत्ति से संबंधित लेन-देन को पहली बार वर्ष 1778 में न्यायपालिका द्वारा मान्यता दी गई थी।
    • गोपीक्रिस्ट गोसाईं बनाम गंगा परसाद गोसाईं (1854) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने पाया कि बेनामी लेन-देन को न्यायिक मान्यता की आवश्यकता है।
    • चूँकि बेनामी लेन-देन के संबंध में कोई विशेष प्रावधान नहीं था, इसलिये इसे विधायी मान्यता प्राप्त थी: न्यास अधिनियम, 1882 की धारा 82, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 66 और संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 53
    • वर्ष 1972 में सरकार द्वारा विधि आयोग को एक संदर्भ दिया गया था। आयोग ने अपनी 57वीं रिपोर्ट में अनुशंसा की कि बेनामी लेन-देन को अपराध घोषित किया जाना चाहिये।
    • आयोग की अनुशंसा पर, विधानमंडल ने वर्ष 1988 में बेनामी लेन-देन (संपत्ति पुनर्प्राप्त करने के अधिकार का निषेध) अध्यादेश, 1988 अधिनियमित किया।
    • उसके बाद, आयोग ने एक नई संविधि बनाने की अनुशंसा की तथा विधि आयोग की 130वीं रिपोर्ट के आधार पर बेनामी लेन-देन (निषेध) अधिनियम, 1988 बनाया गया।
    • बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन अधिनियम, 2016 के माध्यम से एक बड़ा बदलाव किया गया था।
      • यह अधिनियम 1 नवंबर 2016 को लागू हुआ।
      • यह अधिनियम 9 धाराओं से बढ़कर 72 धाराओं तक विस्तारित हो गया।
      • यह बेनामी लेन-देन के विभिन्न पहलुओं को परिभाषित करता है तथा नए अपराधों एवं उनके दण्डों का प्रावधान करता है।
      • संशोधित विधि अधिहरण (ज़ब्ती की प्रक्रिया) प्रदान करता है।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

बेनामी अधिनियम की धारा 2 (a): परिभाषा

बेनामी लेन-देन का अर्थ है, कोई भी लेन-देन, जिसमें संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भुगतान या प्रदान किये गए प्रतिफल के द्वारा एक व्यक्ति को अंतरित की जाती है।

बेनामी अधिनियम की धारा 2 (c): परिभाषा

संपत्ति का अर्थ है किसी भी प्रकार की संपत्ति, चाहे वह चल या अचल, मूर्त या अमूर्त हो तथा ऐसी संपत्ति में कोई भी अधिकार या हित निहित है।

बेनामी अधिनियम की धारा 4: बेनामी रखी गई संपत्ति को पुनर्प्राप्त करने के अधिकार का निषेध-

(1) बेनामी रखी गई किसी भी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार को लागू करने के लिये उस व्यक्ति के विरुद्ध, जिसके नाम पर संपत्ति है या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध कोई वाद, दावा या कार्यवाही ऐसी संपत्ति के वास्तविक स्वामी होने का दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से नहीं की जाएगी।

(2) बेनामी रखी गई किसी भी संपत्ति के संबंध में किसी भी अधिकार पर आधारित कोई भी बचाव, चाहे वह उस व्यक्ति के विरुद्ध हो, जिसके नाम पर संपत्ति है, या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध, किसी भी वाद, दावे या कार्यवाही में या उसकी ओर से जो ऐसी संपत्ति का वास्तविक स्वामी होने का दावा करता हो, को भी अनुमति नहीं दी जाएगी।

(3) इस धारा में कुछ भी लागू नहीं होगा–

(a) जहाँ, जिस व्यक्ति के नाम पर संपत्ति है, वह हिंदू अविभाजित परिवार में सहदायिक है तथा संपत्ति परिवार में सहदायिकों के लाभ के लिये रखी गई है, या

(b) जहाँ, जिस व्यक्ति के नाम पर संपत्ति है वह न्यासी है या परस्पर संबंध वाला कोई अन्य व्यक्ति है, तथा संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिये रखी गई है, जिसके लिये वह न्यासी है या जिसके प्रति वह ऐसे परस्पर संबंध में प्रस्तुत है।