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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

चेक अनादरण में मांग सूचना

 24-May-2024

राजीव मल्होत्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

"कूरियर सेवा के माध्यम से नोटिस, धारा 138 के अंतर्गत एक वैध लिखित नोटिस है”।

न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने कहा कि भले ही किसी चेक को प्रस्तुत करने से पहले, पूर्वसूचना की आवश्यकता होती है, परंतु प्रस्तुति से पहले कोई अधिसूचना नहीं दिये जाने के कारण इसके अनादर पर धारा 138 परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI  अधिनियम) का दायित्व आएगा।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी राजीव मल्होत्रा बनाम यूपी राज्य के मामले में दी थी।

राजीव मल्होत्रा बनाम यूपी राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन 16 अगस्त 2023 के समन आदेश और NI अधिनियम की धारा 138 के अधीन राहुल चौहान बनाम राजीव मल्होत्रा के चेक अनादर की पूरी कार्यवाही को रद्द करने के लिये दायर किया गया एक आवेदन था।
  • इसमें मुख्य मुद्दे थे:
    • क्या न्यायालय गैर-अभियोजन के लिये शिकायत को खारिज करने वाले अपने पूर्व के आदेश को वापस ले सकती है?
    • क्या बिना किसी पूर्व सूचना के प्रस्तुत किया गया सशर्त चेक, धारा 138 दायित्व को आकर्षित करता है?
    • क्या कूरियर सेवा के माध्यम से दिया गया नोटिस धारा 138 के तहत वैध नोटिस है?
    • क्या व्हाट्सएप के माध्यम से नोटिस, इलेक्ट्रॉनिक सेवा के लिये विशिष्ट नियमों के बिना, वैध है?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • अर्द्ध नागरिक(सिविल) प्रकृति:
    • न्यायालय अपने पहले के आदेश को वापस ले सकती है जिसमें प्रारंभिक चरण में अभियोजन न चलाने के लिये शिकायत को खारिज कर दिया गया था, क्योंकि NI अधिनियम की कार्यवाही प्रकृति अर्ध-सिविल प्रकार की है।
  • मांग सूचना:
    • कूरियर सेवा के माध्यम से नोटिस, धारा 138 के तहत एक वैध लिखित नोटिस है, परंतु सामान्य धारा अधिनियम, 1897 की धारा 27 के अधीन, सेवा की अवधारणा तब तक लागू नहीं की जा सकती जब तक कि कूरियर को पंजीकृत डाक के साथ शामिल नहीं किया जाता है।
    • व्हाट्सएप के माध्यम से सूचना, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) की धारा 13 के अंतर्गत वैध सेवा है तथा प्रक्रिया निर्धारित करने के लिये किसी अलग नियम की आवश्यकता नहीं है।
  • निष्कर्ष:
    • आवेदन खारिज कर दिया गया तथा न्यायालय ने सभी ज़िला न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि आदेश-पत्र साफ और सुपाठ्य लिखावट में लिखे जाएँ अथवा टाइप किये गए हों।

NI अधिनियम के अधीन चेक का अनादरण क्या है?

  • परिचय:
    • चेक का अनादरण धारा 138 के अधीन विनियमित किया जाता है, जो NI अधिनियम के अध्याय 17 के अंतर्गत वर्ष 1988 में शामिल किया गया है।
    • NI अधिनियम की धारा 138 विशेष रूप से धन की कमी अथवा चेक-जारीकर्त्ता के खाते द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि अधिक होने पर चेक के अनादरण के अपराध से संबंधित है।
    • यह उस प्रक्रिया से संबंधित है जहाँ कोई चेक, किसी ऋण को पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से चुकाने के लिये चेक-जारीकर्त्ता द्वारा जारी किया जाता है तथा यह चेक, बैंक को वापस कर दिया जाता है।

  • महत्त्वपूर्ण तत्त्व:
    • जारीकर्त्ता का उत्तरदायित्व:
      • चेक का अनादर होने पर चेक जारीकर्त्ता आपराधिक रूप से उत्तरदायी हो जाता है।
      • अंतर्निहित लेन-देन की प्रकृति की परवाह किये बिना आपराधिक दायित्व स्थापित किया जाता है।
    • अपराध के लिये शर्तें:
      • आवश्यक शर्तों में ऋण या अन्य देनदारी का होना, चेक जारी करना तथा उसके बाद उस चेक का अनादर शामिल है।
      • यदि चेक जारीकर्त्ता के पास पर्याप्त धनराशि है, परंतु किसी अन्य कारण से चेक अनादरित हो गया है, तो यह अपराध लागू नहीं होता है।
  • अभियोजन की प्रक्रिया:
    • जारीकर्त्ता को नोटिस:
      • भुगतान प्राप्तकर्त्ता को अनादर के 30 दिनों के भीतर भुगतान की मांग करते हुए एक नोटिस जारी करना होगा।
      • स्थिति को सुधारने के लिये नोटिस प्राप्त करने वाले के पास 15 दिन का समय है, अन्यथा विधिक कार्रवाई शुरू की जा सकती है।
    • शिकायत दर्ज करने की समय-सीमा:
      • धारा 138 के तहत शिकायत, 15 दिन की नोटिस अवधि समाप्त होने के एक महीने के भीतर दर्ज की जानी चाहिये।
    • शिकायत दर्ज करने का क्षेत्राधिकार:
      • शिकायत उस न्यायालय में दायर की जा सकती है जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में भुगतानकर्त्ता का बैंक स्थित है।
  • दण्ड:
    • कारावास:
      • धारा 138 के अधीन दोषसिद्धि पर दो वर्ष तक का कारावास हो सकता है।
    • अर्थदण्ड:
      • चेक जारीकर्त्ता को अर्थदण्ड देना पड़ सकता है जो चेक या ऋण की राशि के दोगुने तक हो सकता है।
  • महत्त्वपूर्ण मामले:
    • डालमिया सीमेंट (भारत) लिमिटेड बनाम गैलेक्सी ट्रेडर्स एंड एजेंसीज़ लिमिटेड (2001):
      • उच्चतम न्यायालय ने माना कि जिस तिथि को फैक्स द्वारा भेजा गया नोटिस, चेक जारीकर्त्ता के पास पहुँचा, उस दिन 15 दिनों की अवधि (जिसके भीतर उसे भुगतान करना होता है) प्रारंभ हो गई थी तथा अवधि की समाप्ति पर अपराध पूरा हो गया था, यदि इस अवधि के अंदर भुगतान न किया जाए।
    • सुनील तोड़ी एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2021):
      • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भले ही ऐसी शर्त हो कि चेक केवल प्रतिभूति के लिये है तथा पुष्टि के बाद जमा किया जाना है, नोटिस के 15 दिनों के अंदर राशि का भुगतान नहीं करने पर धारा 138 के अंतर्गत इसका अनादर माना जाएगा।

आपराधिक कानून

CrPC की धारा 313

 24-May-2024

विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं उज्जल भुइयां

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय (SC) ने विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के मामले में अभियुक्तों के बयानों को अभियोजन साक्ष्य के साथ संरेखित करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया तथा प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति के संबंध में पीड़ित की गवाही को चुनौती देने में विफलता पर ध्यान दिया और यौन उत्पीड़न के मामलों में गहन मूल्यांकन के महत्त्व पर प्रकाश डाला।

  • उच्चतम न्यायालय ने प्रतिपरीक्षा के दौरान पीड़िता को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 के अधीन बचाव पक्ष के दावे प्रस्तुत करने में विफलता का हवाला देते हुए बलात्संग की सज़ा की अपील को खारिज कर दिया।

विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • आरोपियों पर सामूहिक बलात्संग सहित अन्य अपराधों का आरोप था, लेकिन साक्ष्यों की कमी के कारण सत्र न्यायालय ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया।
  • हिमाचल प्रदेश राज्य ने इस दोषमुक्त किये जाने के विरुद्ध अपील की, जिसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया तथा मामले को विशेष रूप से सामूहिक बलात्संग के अपराध के लिये पुनः सुनवाई के लिये भेज दिया।
  • पाँचों आरोपियों (एक आरोपी की मृत्यु हो चुकी है) के विरुद्ध दोबारा सुनवाई के बाद, सत्र न्यायालय ने उन्हें पुनः दोषमुक्त कर दिया।
  • इसके बाद, उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए दस वर्ष से कम कारावास की सज़ा देने के विशेष कारणों का हवाला देते हुए भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 376(2)(g) के अधीन दोषमुक्त किये जाने को दोषसिद्धि में परिवर्तित कर दिया।
  • हिमाचल प्रदेश राज्य द्वारा दायर आपराधिक अपील, उच्च न्यायालय द्वारा लगाए गए तीन वर्ष से कम कारावास की सज़ा को चुनौती देती है, जो अपराध के समय IPC की धारा 376 (2) द्वारा निर्धारित न्यूनतम दस वर्ष की सज़ा से कम है।
  • इसके अतिरिक्त, आरोपी विजय द्वारा अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देने के लिये आपराधिक अपील दायर की गई है।
  • SC में अपील की गई है।
  • अपीलकर्त्ताओं ने अपने धारा 313 के बयानों में दावा किया कि वे पीड़िता के साथ सहमति से भुगतान द्वारा प्राप्त यौन संबंध में सम्मिलित हुए थे, उन्होंने इसमें पीड़िता की सहमति का आरोप लगाया। हालाँकि पीड़िता की प्रतिपरीक्षा के दौरान, आरोपी स्वैच्छिक संभोग के तथ्य को सिद्ध करने में विफल रहा, जिससे पीड़िता को आरोपी की धारा 313 के बयानों का खंडन करने का अवसर नहीं मिला।
  • अपील खारिज कर दी गई और अभियुक्तों/अपीलकर्त्ताओं को दोषी ठहराने के उच्च न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की गई।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं उज्जल भुइयां ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धारा 313 के अधीन आरोपी के बयान अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के साथ मेल खाने चाहिये, विशेषकर जब यौन उत्पीड़न के मामलों में सहमति एवं अनुमति का दावा किया जाता है।
  • प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति के संबंध में पीड़ित की गवाही को चुनौती देने में विफलता, अभियोजन साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं होने पर सहमति के बारे में आरोपी के बयान को अप्रासंगिक बना देती है।
  • न्यायमूर्ति अभय एस. ओका का निर्णय यौन उत्पीड़न के मामलों में प्रतिपरीक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालता है,
    • यह देखते हुए कि अभियुक्त प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति के संबंध में अभियोजन पक्ष की गवाही को चुनौती देने में विफल रहा।
    • यौन संबंध के संबंध में अभियोजक की गवाही अटल रही क्योंकि आरोपी ने प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति की कमी का विरोध नहीं किया।
    • अभियुक्तों द्वारा अपने मामले को पर्याप्त रूप से प्रस्तुत करने में विफलता, क्योंकि प्रतिपरीक्षा के दौरान न तो सहमति से संबंध का दावा किया गया और न ही यौन संबंधों के लिये भुगतान का मुद्दा उठाया गया, जिससे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन अभियुक्तों के बयानों की प्रासंगिकता कम हो गई।
    • प्रतिपरीक्षा के दौरान पीड़िता की सहमति ने उसे यौन संबंध के दौरान सहमति के संबंध में आरोपी के दावों का खंडन करने के अवसर से वंचित कर दिया।
  • अभियोजन पक्ष के साक्ष्य को स्वीकार करने के बावजूद, न्यायालय ने अभियुक्तों के धारा 313 बयानों पर विचार करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया, जहाँ उन्होंने पीड़िता को पैसे देकर उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किये जाने की बात स्वीकार की। बयान के व्यापक मूल्यांकन के लिये अभियोजक की प्रतिपरीक्षा के दौरान इस सूचना का उपयोग किया जाना चाहिये था।

CrPC की धारा 313 क्या है?

परिचय:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 न्यायालय द्वारा अभियुक्त की जाँच से संबंधित है।
  • यह अभियुक्तों को उनके विरुद्ध किसी भी परिस्थिति या साक्ष्य को समझाने का अवसर देता है, उन्हें अपना मामला प्रस्तुत करने और अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों में किसी भी विसंगति को स्पष्ट करने का अवसर देता है।
  • CrPC की धारा 313 को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) में धारा 351 में उल्लिखित किया गया है।

विधिक प्रावधान:

  • धारा 313 अभियुक्त से पूछताछ करने की शक्ति से संबंधित है।
  • यह प्रकट करता है कि
    • प्रत्येक जाँच या विचारण में, अभियुक्त को उसके विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से समझाने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से, न्यायालय-
      • किसी भी स्तर पर, बिना पूर्व चेतावनी के अभियुक्त, उससे ऐसे प्रश्न पूछ सकता है, जैसा न्यायालय आवश्यक समझे,
      • अभियोजन पक्ष के गवाहों की जाँच हो जाने के बाद तथा उसे अपने बचाव के लिये बुलाए जाने से पहले, उससे मामले पर आम तौर पर पूछताछ की जाएगी:
      • बशर्ते कि एक सम्मन मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दे दी है, यह खंड (b) के अंतर्गत उसकी परीक्षा से भी छूट मिल सकती है।
    • उप-धारा (1) के अधीन जाँच किये जाने पर आरोपी को कोई शपथ नहीं दिलाई जाएगी।
    • अभियुक्त ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने से मना करके या झूठे उत्तर देकर स्वयं को दण्ड का भागी नहीं बनाएगा।
    • अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों को ऐसी जाँच या परीक्षण में ध्यान में रखा जा सकता है तथा किसी अन्य अपराध की किसी अन्य जाँच, या परीक्षण में उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य में रखा जा सकता है, जो ऐसे उत्तरों से पता चलता है कि उसने किया है।
    • न्यायालय अभियुक्त से पूछे जाने वाले प्रासंगिक प्रश्नों को तैयार करने में अभियोजक एवं बचाव पक्ष के अधिवक्ता की सहायता ले सकता है तथा न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित बयान दाखिल करने की अनुमति दे सकता है।

धारा 313 की सीमा एवं उद्देश्य क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 की सीमा एवं उद्देश्य, जैसा कि सनातन नस्कर एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, (2010) के मामले में निर्धारित किया गया है।
  • इसमें आरोपी एवं न्यायालय के मध्य सीधा संवाद स्थापित करना शामिल है।
  • इस धारा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरोपियों के विरुद्ध सभी दोषी साक्ष्य उनके सामने प्रस्तुत किए जाएँ, जिससे आरोपियों को स्पष्टीकरण देने का अवसर मिले।
  • धारा 313 अभियोजन पक्ष के मामले की विश्वसनीयता का परीक्षण करने के उद्देश्य से कार्य करती है, क्योंकि अभियुक्त की परीक्षा केवल एक प्रक्रियात्मक औपचारिकता नहीं है, बल्कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य की वैधता का आकलन करने में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य में उद्धृत प्रमुख निर्णयज विधियाँ क्या है?

  • पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह, (1996) में न्यायालय ने माना कि पीड़िता को बलपूर्वक उस स्थान पर ले जाया गया, जहाँ बलात्संग हुआ था, उसके बाद दूसरे स्थान पर ले जाया गया, जिससे उसके सहमति के बिना यौन संबंध बनाने के दावे की पुष्टि होती है।
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि अभियोजक के पास आरोपी पर मिथ्या आरोप लगाने का कोई महत्त्वपूर्ण आशय नहीं है, तो न्यायालय को बिना किसी संकोच के उसकी गवाही स्वीकार करनी चाहिये।

वाणिज्यिक विधि

मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 32(2)(C) के अधीन मध्यस्थ की शक्ति

 24-May-2024

दानी वूलटेक्स कॉर्पोरेशन एवं अन्य बनाम शील  प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य

“दावेदार द्वारा मध्यस्थता न्यायाधिकरण से सुनवाई की तिथि निर्धारित करने का अनुरोध करने में विफलता, स्वतः ही यह निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं है कि कार्यवाही अनावश्यक हो गई है”।

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति पंकज मित्तल

स्रोत: उच्चतम  न्यायलय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यदि कोई पक्ष दावा दायर करने के उपरांत सुनवाई के लिये उपस्थित होने में विफल हो जाता है, तो मध्यस्थ यह नहीं कह सकता कि मध्यस्थ कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक हो गया है।

दानी वूलटेक्स कॉर्पोरेशन एवं अन्य बनाम शील प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • दानी वूलटेक्स (प्रथम अपीलकर्त्ता) एक साझेदारी फर्म थी तथा मुंबई में कुछ भूखंड इस फर्म के स्वामित्व में थे।
  • शील प्रॉपर्टीज़ (प्रथम प्रतिवादी) एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी जो रियल एस्टेट विकास में संलग्न थी। मैरिको इंडस्ट्रीज़ (दूसरा प्रतिवादी) भी उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार में एक लिमिटेड कंपनी है।
  • यह अनुमति दी गई थी कि पहले अपीलकर्त्ता की संपत्ति का एक भाग वर्ष 1993 में हुए समझौते के अंतर्गत शील प्रॉपर्टीज़ (शील) द्वारा विकसित किया जाएगा।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको इंडस्ट्रीज़ (मैरिको) ने मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (MOU) निष्पादित किया जिसके द्वारा प्रथम अपीलकर्त्ता अपनी संपत्ति का एक और भाग मैरिको को बेचने के लिये सहमत हुआ।
  • MOU के अंतर्गत मैरिको को एक निश्चित मात्रा में FSI/TDR का लाभ दिया गया।
  • आपत्तियाँ आमंत्रित करने के लिये मैरिको द्वारा एक सार्वजनिक अधिसूचना जारी की गई थी। शील द्वारा एक आपत्ति प्रस्तुत की गई थी तथा कहा गया था कि प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको के बीच कोई भी लेन-देन पूर्व में किये गए समझौते के अधीन होगा।
  • इस विवाद के कारण कथित सहमति शर्तों द्वारा संशोधित MOU के विशिष्ट प्रदर्शन के लिये शील द्वारा एक वाद दायर किया गया था।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और मैरिको, दोनों ही इस वाद में पक्षकार थे।
  • पहले अपीलकर्त्ता के विरुद्ध मैरिको द्वारा एक और वाद दायर किया गया था तथा शील को भी इस वाद में प्रतिवादी पक्ष बनाया गया था।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता और शील के बीच विवाद के कारण शील को वाद दायर करना पड़ा
  • मैरिको द्वारा दायर वाद में एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये 13 अक्टूबर 2011 को आदेश पारित किया गया था।
  • उसी एकमात्र मध्यस्थ के साथ विवाद का हवाला देकर एक वाद का (शील द्वारा दायर) निपटारा किया गया ।
  • अब मध्यस्थ न्यायाधिकरण को पहले अपीलकर्त्ता के विरुद्ध शील तथा मैरिको दोनों द्वारा दायर दावों से निपटना था।
  • मध्यस्थता कार्यवाही में मैरिको के दावों को सुना गया तथा पंचाट के साथ निपटान किया गया परंतु शील द्वारा दायर दावा आगे नहीं बढ़ा।
  • प्रथम अपीलकर्त्ता द्वारा मध्यस्थ न्यायाधिकरण को संपर्क किया गया तथा शील द्वारा दायर दावों को इस आधार पर खारिज करने का अनुरोध किया गया था कि कंपनी ने दावा छोड़ दिया था।
  • उसके बाद पहले अपीलकर्त्ता द्वारा मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 32 (2) (C) के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरण की शक्ति का उपयोग करते हुए एक आवेदन दायर किया गया था।
  • पहले अपीलकर्त्ता का तर्क यह था कि आठ वर्ष तक कोई भी कार्यवाही नहीं करने का शील का आचरण दर्शाता है कि उक्त कंपनी ने मध्यस्थ कार्यवाही को त्याग दिया।
  • शील द्वारा एक शपथ-पत्र दायर किया गया था और तर्क दिया गया था कि A&C अधिनियम की धारा 32 (2)(C) के तहत कार्रवाई करने का कोई आधार नहीं बनाया गया था। शील ने अन्य तथ्यात्मक तर्क भी दिये तथा कार्यवाही के परित्याग के आरोप से इनकार किया।
  • मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने एक आदेश पारित किया और A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c)) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग करते हुए मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त कर दिया।
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई थी और मुद्दा A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c) के अंतर्गत मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त करने के आदेश की वैधता तथा वैधता से संबंधित था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि A&C अधिनियम की धारा 32(2)(C) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है, जब किसी कारण से कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक या असंभव हो गया हो।
  • जब तक मध्यस्थ न्यायाधिकरण अभिलेखित सामग्री के आधार पर संतुष्ट नहीं हो जाता कि कार्यवाही अनावश्यक अथवा असंभव हो गई है, धारा 32(2)(C) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यदि उक्त शक्ति का प्रयोग लापरवाही से किया जाता है, तो यह A&C अधिनियम को लागू करने के मूल उद्देश्य को विफल कर देगा।
  • दावेदार द्वारा अपने दावे का परित्याग यह कहने का आधार हो सकता है कि मध्यस्थता की कार्यवाही अनावश्यक हो गई है। हालाँकि, परित्याग स्थापित किया जाना चाहिये। परित्याग या तो व्यक्त या निहित हो सकता है। परित्याग का तत्काल अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि एक दावेदार, अपने दावे का कथन दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि निर्धारित करने के लिये मध्यस्थ न्यायाधिकरण में नहीं जाता है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि दावेदार ने अपना दावा छोड़ दिया है।
  • न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि एक दावेदार, अपने दावे का कथन दाखिल करने के बाद, सुनवाई की तिथि निर्धारित करने के लिये मध्यस्थ न्यायाधिकरण में नहीं जाता है, तो दावेदार की यह विफलता, दावे को छोड़ने के समान नहीं होगी।

दावे का कथन क्या है?

  • दावे का कथन वह दस्तावेज़ है जिस पर विधिक दावा आधारित है।
  • यह उन दावों और उपचारों की सरल तथा स्पष्ट व्याख्या प्रदान करता है जिन्हें आप न्यायालय से मांग रहे हैं।
  • एक वाद को आधिकारिक रूप से प्रारंभ करने के लिये, दावे का कथन दायर किया जाता है।
  • यह वाद में कार्यवाही के लिये रूपरेखा निर्धारित करता है।
  • दावे के कथन में पक्ष का नाम तथा उनकी भूमिकाएँ, न्यायालय की सूचना, राहत, क्षति, दायित्व आदि शामिल होने चाहिये।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

A&C अधिनियम की धारा 32(2)(c): कार्यवाही की समाप्ति—

(1) मध्यस्थता कार्यवाही, अंतिम मध्यस्थ पंचाट अथवा उपधारा (2) के अंतर्गत मध्यस्थ न्यायाधिकरण के आदेश द्वारा समाप्त की जाएगी।

(2) मध्यस्थ न्यायाधिकरण मध्यस्थ कार्यवाही को समाप्त करने के लिये एक आदेश जारी करेगा, जहाँ-

(c) मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने पाया कि कार्यवाही जारी रखना किसी अन्य कारण से अनावश्यक अथवा असंभव हो गया है।