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आपराधिक कानून

आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन

 28-May-2024

मनदीप बनाम हरियाणा राज्य

घटना के समय लगे घावों की संख्या निर्णायक कारक नहीं है, घटना आकस्मिक एवं पूर्व-निर्धारित होनी चाहिये”।

न्यायमूर्ति गुरविंदर सिंह गिल और न्यायमूर्ति एन. एस. शेखावत  

स्रोत: पंजाब  एवं हरियाणा उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि घटना के समय लगे घावों की संख्या निर्णायक कारक नहीं है, परंतु अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि घटना आकस्मिक एवं बिना सोचे-समझे हुई होगी तथा अपराधी ने आवेश में आकर ऐसा किया होगा।

मनदीप बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में शिकायत मोहिंदर सिंह के पिता मांगे राम ने की थी।
  • शिकायतकर्त्ता के अनुसार 25 मार्च 2010 को उसका बेटा खेत में पानी देने के लिये गया था।
  • उसके पिता उसके पीछे आ रहे थे, मोहिंदर खेत से सटे बिजली के खंभे के पास पहुँच गया।
  • मनदीप ने मोहिंदर को वहाँ जाने के लिये कहा तो उसने उत्तर दिया कि वह पौधों को पानी देकर आएगा।
  • मोहिंदर और मनदीप एक दूसरे से हाथापाई करने लगे। मनदीप के भाई सोमपाल व रोहताश तथा मनदीप के पिता करम सिंह (करमू) भी खेत में आ गए।
  • मोहिंदर खुद को बचाने के लिये भागा, लेकिन सभी आरोपियों ने उसे पकड़ लिया तथा मंदीप ने उसके पेट में चाकू घोंप दिया।
  • शिकायतकर्त्ता (मोहिंदर के पिता) भी अपने बेटे को बचाने के लिये घटनास्थल पर पहुँचे, परंतु सोमपाल ने उन पर लाठी से हमला कर दिया।
  • वहाँ मौजूद शिकायतकर्त्ता का पोता तथा सभी ग्रामीण घटनास्थल की ओर आए, परंतु सभी आरोपी भाग गए थे।
  • शिकायतकर्त्ता ने ग्रामीणों की सहायता से मोहिंदर को अपने घर पहुँचाया। वह गंभीर रूप से घायल था, घर पहुँचते ही चाकू से लगे घावों के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है।
  • शिकायतकर्त्ता के बयान पर प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई। जाँच के दौरान सोमपाल, करमू और मनदीप को अभिरक्षा में ले लिया गया तथा मनदीप के कब्ज़े से एक चाकू प्राप्त किया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने मंदीप (अपीलकर्त्ता) और अन्य आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के तहत आरोप तय किया।
  • अपीलकर्त्ता का प्रतिवाद यह था कि अपीलकर्त्ता और मोहिंदर घनिष्ठ मित्र थे तथा भोजन करने के लिये एक साथ बैठते थे। घटना के दिन अचानक मोबाइल फोन को लेकर हाथापाई हो गई और अपीलकर्त्ता ने उससे मोबाइल वापस करने के लिये कहा, मोहिंदर ने अपीलकर्त्ता को चोटें पहुँचाईं तथा अकस्मात् ही अपीलकर्त्ता ने चाकू से एक वार किया।
  • उसका तर्क था कि यह आपराधिक मानव वध का मामला है जो हत्या के तुल्य नही है तथा जो IPC की धारा 304 के भाग II के अधीन दण्डनीय है क्योंकि अपीलकर्त्ता का मामला IPC की धारा 300 के अपवाद संख्या 4 के अंतर्गत आता है।
  • ट्रायल कोर्ट ने एक निर्णय दिया तथा अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 302 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये दोषी ठहराया तथा आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। वहीं दो अन्य आरोपियों (सोमपाल और करमू) को संदेह का लाभ प्राप्त होने पर दोषमुक्त कर दिया।
  • इसके उपरांत, अपीलकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने माना कि झगड़े का कारण प्रासंगिक नहीं है, न ही यह प्रासंगिक है कि किस व्यक्ति ने प्रकोपन किया अथवा किसने पहले हमला किया। परंतु यह प्रासंगिक है कि अपराधी ने कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया हो अथवा क्रूरता से काम न किया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच दुश्मनी का कोई इतिहास नहीं है। यह स्पष्ट है कि चाकू (रसोई में सब्ज़ी आदि काटने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले) से चोट पहुँचाकर, अपीलकर्त्ता का मोहिंदर की हत्या करने का कोई आशय नहीं था।
  • हालाँकि इस चाकू का प्रयोग इतनी ज़ोर से किया गया था कि व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। अतः अपीलकर्त्ता पर संज्ञान का नियम आरोपित करना होगा तथा उस स्थिति में, वर्तमान मामला IPC की धारा 304 के भाग II में आएगा।
  • न्यायालय ने माना कि अपीलकर्त्ता ने स्वीकार किया है कि उसने क्रूर अथवा असामान्य तरीके से हमला नहीं तथा यह झगडा आवेश में हुआ था। सुरक्षित रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपीलकर्त्ता ने IPC की धारा 304 भाग-II के तहत अपराध किया था, न कि IPC की धारा 302 के तहत।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान शामिल है?

  • आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नहीं है, के लिये दण्ड IPC की धारा 304 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 103 में उल्लिखित है: जो कोई भी, आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नही है जैसा अपराध कारित करेगा, उसे आजीवन कारावास अथवा किसी एक अवधि के लिये कारावास, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जाएगा तथा वह अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा, यदि वह कार्य जिसके कारण मृत्यु हुई है, मृत्यु कारित करने के इरादे से अथवा ऐसी शारीरिक चोट कारित करने के इरादे से जिससे मृत्यु होने की संभावना हो, किया गया हो।

या किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड, या दोनों से दण्डित किया जा सकता है, यदि कार्य इस ज्ञान के साथ किया गया है कि इससे मृत्यु होने की संभावना है, परंतु मृत्यु कारित करने के किसी इरादे के बिना किया गया है, अथवा ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने के इरादे से किया गया है जिससे मृत्यु होने की संभावना हो।

'आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन' से संबंधित विधि क्या है?

  • परिचय:
    • IPC की धारा 300, का अपवाद 1 हत्या के मामले में प्रतिवाद प्रदान करती है।
    • 'प्रकोपन' शब्द का अर्थ जानबूझकर कुछ ऐसा करना या कहना है जिससे कोई क्रोधित हो जाए।
    • जब व्यक्ति ऐसे प्रकोपन से अपना नियंत्रण खो देता है और प्रकोपन करने वाले व्यक्ति अथवा किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, तो वह आपराधिक मानव वध जो हत्या के तुल्य नही है, के लिये उत्तरदायी होगा।
    • मामला तय करने में 'आशय' अहम भूमिका निभाता है, चाहे मामला IPC की धारा 300 के अपवाद के अंतर्गत आता हो अथवा नहीं।
    • आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन के मामले में, आशय पूर्व-निर्धारित नहीं होना चाहिये।
  • आवश्यक तत्त्व:
    • अभियुक्त को प्रकोपित किया गया हो,
    • प्रकोपन, गंभीर एवं आकस्मिक हो
    • अभियुक्त अपना संयम खो दे
    • इसी क्रोध के कारण अभियुक्त ने एक व्यक्ति की हत्या कारित कर दी, जिस समय अभियुक्त ने हत्या की उस समय से पूर्व उसका क्रोध शांत नहीं हो पाया था।
    • अभियुक्त का इरादा हत्या का नहीं होना चाहिये; हालाँकि, ज्ञान हो सकता है।
  • निर्णयज विधियाँ:
    • के. एम. नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961)
      • इसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अपवाद के अधीन 'गंभीर एवं आकस्मिक’ प्रकोपन का परीक्षण यह होना चाहिये कि अभियुक्त के जैसे ही समाज के उसी वर्ग के एक युक्तियुक्त व्यक्ति को, अभियुक्त के समान स्थिति में रखा जाए तथा इतना प्रकोपित किया जाए कि वह अपना आत्मसंयम खो बैठे।
      • अभियुक्त के आचरण से साफ पता चलता है कि हत्या जानबूझकर और सोच-समझकर की गई थी।
      • केवल यह तथ्य कि गोली मारने से पूर्व आरोपी ने मृतक को गाली दी थी, तथा मृतक ने गाली का समान प्रत्युत्तर दिया था, हत्या के लिये प्रकोपन नहीं माना जा सकता।
      • आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन करने वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार तत्काल होना चाहिये जब अभियुक्त को प्रकोपित किया गया हो, परंतु अभियुक्त के शांत होने के लिये पर्याप्त समय के उपरांत नहीं।
  • बैटर्ड वाइफ सिंड्रोम:
    • बैटर्ड वाइफ सिंड्रोम उन पत्नियों की मानसिक स्थिति है जो लंबे समय तक प्रताड़ित होती हैं, तथा ऐसी यातना के कारण अपने उत्पीड़न करने वालों को मार देती हैं, उन्हें आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन का प्रतिवाद प्राप्त होगा।
    • यह परीक्षण आर. वी. डफी (1949) मामले में लॉर्ड डेवलिन द्वारा निर्धारित किया गया था।
    • यदि प्रकोपन और हत्या के बीच समय का अंतराल हो तो 'आकस्मिक एवं गंभीर प्रकोपन' का प्रतिवाद, उचित नहीं है।
    • आर बनाम अहलूवालिया (1992) के मामले में अदालत ने प्रकोपन के प्रतिवाद को खारिज कर दिया क्योंकि प्रकोपन और हत्या के बीच समय का अंतराल था।
    • हालाँकि न्यायालय ने तत्काल संयम खोने वाली स्थिति के स्थान पर धीमी गति से होने वाली प्रतिक्रिया को मान्यता दी।

इस मामले में उद्धृत ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • सुखबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2002)
    • माननीय उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 300 के अपवाद संख्या 4 के प्रयोजनों के लिये सभी घातक चोटों के परिणामस्वरूप मृत्यु को, क्रूर या असामान्य नहीं कहा जा सकता है।
    • ऐसे मामलों में, जहाँ घायल के गिरने के बाद, अपीलकर्त्ता ने घायल के असहाय स्थिति में होने के कारण कोई और चोट नहीं पहुँचाई, यह संकेत देता है कि उसने क्रूर या असामान्य तरीके से कार्य नहीं किया था।
  • एलिस्टर एंथोनी परेरा बनाम महाराष्ट्र राज्य (2012)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 304 भाग I के अधीन दण्ड के लिये अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अभियुक्त के कृत्य के कारण हुई थी तथा अभियुक्त का आशय ऐसे कृत्य से मृत्यु कारित करने अथवा ऐसी शारीरिक चोट पहुँचाने का था जिससे मृत्यु कारित होने की संभावना हो।
    • IPC की धारा 304 भाग II के लिये दण्ड के संबंध में, अभियोजन पक्ष को सिद्ध करना होगा कि संबंधित व्यक्ति की मृत्यु, अभियुक्त के कृत्य के कारण हुई थी तथा अभियुक्त जानता था कि उसके ऐसे कृत्य से मृत्यु होने की संभावना है।

सिविल कानून

रजिस्ट्रीकरण अधिनियम की धा रा 22-A (1)

 28-May-2024

शालीन बनाम ज़िला रजिस्ट्रार एवं अन्य

"रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 22-A (1), जो रजिस्ट्रीकरण अधिकारी को कुछ दस्तावेज़ों के रजिस्ट्रीकरण से मना करने की अनुमति देती है तथा चर्च की संपत्तियों पर लागू नहीं होती है”।

न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन की पीठ ने कहा कि रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 22-A (1), जो रजिस्ट्रीकरण अधिकारी को कुछ दस्तावेज़ों के रजिस्ट्रीकरण से मना करने की अनुमति देती है तथा चर्च की संपत्तियों पर लागू नहीं होती है।

  • मद्रास उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी शालीन बनाम ज़िला रजिस्ट्रार एवं अन्य के मामले में दी थी।

शालीन  बनाम ज़िला रजिस्ट्रार एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता ने 28 मार्च 2023 को बिक्री विलेख के माध्यम से विजया से संपत्ति खरीदी।
  • दूसरे प्रतिवादी (उप-रजिस्ट्रार) ने बिक्री विलेख को पंजीकृत करने से मना कर दिया तथा अस्वीकृति-पत्र जारी कर दिया।
    • यह अस्वीकृति मद्रास उच्च न्यायालय की खंड पीठ के 04 मई 2017 के एक अंतरिम आदेश पर आधारित था, जिसमें निर्देश दिया गया था कि TELC (तमिल इवेंजेलिकल लूथरन चर्च) के पक्ष में दी गई संपत्तियों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना रजिस्ट्रीकृत नहीं किया जाना चाहिये।
  • उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के आधार पर रजिस्ट्रीकरण महानिरीक्षक ने एक सर्कुलर भी जारी किया था।
  • विजया ने यह संपत्ति एम. प्रेमकुमार पृथ्वीराज से निपटान विलेख के माध्यम से प्राप्त की, जिन्होंने इसे एक पंजीकृत बिक्री विलेख के माध्यम से TELC से खरीदा था।
  • दूसरे प्रतिवादी द्वारा बिक्री विलेख को पंजीकृत करने से मना करने से व्यथित होकर, याचिकाकर्त्ता ने वर्तमान रिट याचिका दायर की, जिसमें विवादित अस्वीकृति-पत्र को चुनौती दी गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय का अंतरिम आदेश अप्रभावी हो गया है क्योंकि मुख्य रिट याचिका का निपटारा हो चुका है तथा TELC संपत्तियों के संबंध में कोई प्रतिबंध आदेश लागू नहीं था।
  • न्यायालय ने माना कि पंजीकरण अधिनियम 1908 की धारा 22-A (1) चर्च की संपत्तियों पर लागू नहीं है क्योंकि यह केवल तमिलनाडु हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1959 के अंतर्गत हिंदू धार्मिक संस्थानों से संबंधित या उनके लिये एकत्रित संपत्तियों को शामिल करती है तथा तमिलनाडु वक्फ बोर्ड के अधीक्षण के अंतर्गत वक्फ संपत्तियों को शामिल करती है।
  • न्यायालय ने कहा कि जबकि रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 हिंदू एवं इस्लामी धार्मिक बंदोबस्ती की रक्षा करता है, यह चर्च की संपत्तियों के लिये समान सुरक्षा प्रदान नहीं करता है तथा अब चर्च की संपत्तियों को भी धारा 22-A (1) के दायरे में शामिल करने का समय आ गया है।
  • न्यायालय ने सब-रजिस्ट्रार के विवादित आदेश को रद्द कर दिया तथा याचिकाकर्त्ता को आवश्यक स्टांप शुल्क एवं रजिस्ट्रीकरण शुल्क के भुगतान के अधीन, रजिस्ट्रीकरण के लिये बिक्री विलेख को पुनः प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।

रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 की धारा  22 (A) क्या है?

कुछ दस्तावेज़ों को रजिस्ट्रीकृत करने से अस्वीकरण-

इस अधिनियम में किसी प्रावधान के होते हुए भी, रजिस्ट्रीकरण अधिकारी निम्नलिखित दस्तावेज़ों में से किसी को भी रजिस्ट्रीकृत करने से मना कर देगा, अर्थात्-

(1) बिक्री, उपहार, बंधक, विनिमय या पट्टे के माध्यम से अचल संपत्तियों के अंतरण से संबंधित लिखत-

(i) तमिलनाडु टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट, 1971 (1972 का तमिलनाडु एक्ट 35) की धारा 9-A के अंतर्गत स्थापित राज्य सरकार या स्थानीय प्राधिकरण या चेन्नई मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी से संबंधित,

(ii) किसी धार्मिक संस्था से संबंधित या उसके प्रयोजन के लिये दी गई या संपन्न, जिस पर तमिलनाडु हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1959 (1959 का तमिलनाडु अधिनियम 22) लागू है,

(iii) भूदान यज्ञ के लिये दान दिया गया और तमिलनाडु भूदान यज्ञ अधिनियम, 1958 (1958 का तमिलनाडु अधिनियम XV) की धारा 3 के अंतर्गत स्थापित तमिलनाडु राज्य भूदान यज्ञ बोर्ड में निहित किया गया, या

(iv) वक्फ, जो वक्फ अधिनियम, 1995 (1995 का केंद्रीय अधिनियम 43) के अंतर्गत स्थापित तमिलनाडु वक्फ बोर्ड के पर्यवेक्षण के अधीन हैं,

जब तक कि संबंधित अधिनियम के अंतर्गत प्रदान किये गए सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संबंध में स्वीकृति निर्गत नहीं की जाती है या ऐसे किसी प्राधिकारी की अनुपस्थिति में, इस उद्देश्य के लिये राज्य सरकार द्वारा अधिकृत कोई प्राधिकारी, रजिस्ट्रीकरण अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता है।


सिविल कानून

समय-वर्जित वाद

 28-May-2024

एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य

"जो वाद, निर्धारित परिसीमा अवधि से अधिक हो गया है, उसे खारिज कर दिया जाना चाहिये, भले ही परिसीमा का उल्लेख नहीं किया गया हो”।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई एवं संदीप मेहता

स्रोत:  उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?    

हाल के एक निर्णय में, एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने वाद दायर करने के लिये निर्धारित परिसीमा अवधि का पालन करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया है, भले ही परिसीमा का उल्लेख प्रारंभ में नहीं किया गया हो।

  • यह मामला परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के महत्त्व को रेखांकित करता है तथा भागीदारी विघटन एवं खातों के प्रस्तुतीकरण से संबंधित मामलों में समय पर विधिक कार्यवाही की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।

एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? भागीदारी फर्म "मेसर्स शिवराज रेड्डी एंड ब्रदर्स" का गठन 15 अगस्त 1978 को किया गया था, जो सरकार एवं नगर पालिकाओं के साथ निर्माण क्षेत्र के संविदा में संलिप्त थी।

  • एस. रघुराज रेड्डी ने फर्म एवं खातों को भंग करने की मांग करते हुए आवेदन दायर किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने एस. रघुराज रेड्डी के पक्ष में निर्णय दिया तथा वर्ष 1979 से 1998 तक के खातों को भंग करने का आदेश दिया।
  • मेसर्स शिवराज रेड्डी एंड ब्रदर्स एवं अन्य, 1984 में एक भागीदार की मृत्यु के कारण परिसीमा का दलील देते हुए उच्च न्यायालय में अपील की गई, एकल न्यायाधीश ने इस आधार पर अपील की अनुमति दी कि आवेदन परिसीमा के कारण वर्जित था, क्योंकि मौजूदा भागीदारी फर्म में एक भागीदार श्री एम. बलराज रेड्डी की मृत्यु वर्ष 1984 में हो गई थी, इसलिये भागीदार की मृत्यु पर फर्म तुरंत भंग हो गई। चूँकि मूल वाद वर्ष 1996 में दायर किया गया था, इसलिये इसे परिसीमा के उल्लंघन के कारण रोक दिया गया था।
  • एस. रघुराज रेड्डी ने उच्चतम न्यायालय, खण्ड पीठ में अपील की तथा तर्क दिया कि परिसीमा याचिका प्रारंभ में नहीं उठाई गई थी।
  • न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली तथा उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के निर्णय को बहाल कर दिया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने वी. एम. सालगावकर एवं ब्रदर्स बनाम मोर्मुगाव बंदरगाह के न्यासी बोर्ड एवं अन्य (2005) के मामले पर विश्वास किया तथा इस मामले को प्रस्तुत करने के लिये:
    • इस बात पर ज़ोर दिया गया कि परिसीमा अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, न्यायालय को निर्दिष्ट परिसीमा अवधि के बाद दायर किसी भी वाद को खारिज कर देना चाहिये, भले ही परिसीमा का मुद्दा बचाव के रूप में नहीं उठाया गया हो।
    • लेन-देन चुकाने के लिये वाद दायर करने की परिसीमा अवधि भागीदारी विघटन की तिथि से तीन वर्ष है।
    • वर्तमान मामले में, फर्म श्री एम. बलराज रेड्डी (मृत भागीदार) की मृत्यु के कारण वर्ष 1984 में भंग हो गई तथा इस प्रकार, वाद उस घटना से केवल तीन वर्ष की अवधि के अंदर ही शुरू किया जा सकता था।
    • निर्विवाद रूप से, वाद वर्ष 1996 में दायर किया गया था तथा स्पष्ट रूप से समय-वर्जित वाद था।
    • भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42(c) में कहा गया है कि भागीदार की मृत्यु पर भागीदारी फर्म स्वतः ही समाप्त हो जाती है।
    • परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत समय-वर्जित वाद पर विचार करने के लिये एक विशिष्ट रोक के लागू होने के कारण परिसीमा अवधि से परे दायर कोई भी वाद विचारण योग्य नहीं होगा।

समय वर्जित परिसीमा अधिनियम क्या है?

  • परिसीमा के विधि की जड़ें "इंटरेस्ट रिपब्लिक यूट सिट फिनिस लिटियम" विधिक सूत्र में मिलती हैं, जिसका अर्थ है कि समग्र रूप से राज्य के हित में मुकदमेबाज़ी और विजिलेंटिबस नॉन डॉर्मिएंटिबस जुरा सबवेनियंट की एक सीमा होनी चाहिये, जिसका अर्थ है कि विधि केवल उनकी सहायता करेगा, जो अपने अधिकारों के प्रति सतर्क हैं, न कि उनकी जो अधिकारों के प्रति सजग नहीं हैं।
  • परिसीमा अधिनियम, 1963 वाद, अपील या आवेदन दाखिल करने के लिये परिसीमा की विभिन्न अवधि निर्धारित करता है।
  • परिसीमा अधिनियम में, "समय-वर्जित" दावा एक विधिक कार्यवाही को संदर्भित करता है, जिसे न्यायालय में नहीं आवेदन किया जा सकता है क्योंकि यह परिसीमाओं के प्रासंगिक विधि द्वारा निर्धारित समय-सीमा को पार कर चुका है।
  • एक बार विधिक कार्यवाही प्रारंभ करने की निर्धारित अवधि बीत जाने के बाद, दावा कालातीत हो जाता है, जिसका अर्थ है कि वादी उस मामले के लिये न्यायिक उपचार प्राप्त करने का अधिकार खो देता है।
  • परिसीमा अधिनियम की धारा 3 में प्रावधानित सामान्य नियम के अनुसार यदि कोई वाद, अपील या आवेदन निर्धारित समय की समाप्ति के बाद न्यायालय के समक्ष लाया जाता है तो न्यायालय ऐसे वाद, अपील या आवेदन को कालबाधित मानकर खारिज कर देगी।

धारा 3 के अंतर्गत परिसीमा की बाधा क्या है?

अधिनियम की धारा 3 में प्रावधान है कि कोई भी वाद, अपील या आवेदन परिसीमा अधिनियम में निर्दिष्ट परिसीमा अवधि के अंदर किया जाना चाहिये।

  • यदि कोई वाद, अपील या आवेदन परिसीमा की निर्धारित अवधि से परे किया जाता है, तो यह न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह ऐसे वाद पर आगे न बढ़े, भले ही परिसीमा की याचिका बचाव के रूप में स्थापित की गई हो या नहीं।
  • धारा 3 के प्रावधान अनिवार्य हैं तथा न्यायालय परिसीमा के प्रश्न पर स्वत: संज्ञान ले सकता है।
  • यह प्रश्न कि क्या कोई वाद परिसीमा द्वारा वर्जित है, का निर्णय उन तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिये जो वादपत्र प्रस्तुत करने की तिथि पर उपस्थित या प्रस्तुत थे। यह एक महत्त्वपूर्ण धारा है जिस पर संपूर्ण परिसीमा अधिनियम अपनी प्रभावकारिता के लिये निर्भर करता है।
  • धारा 3 का प्रभाव न्यायालय को उसके अधिकार क्षेत्र से वंचित करना नहीं है। इसलिये, निर्धारित अवधि के बाद दायर किये गए वाद को अनुमति देने वाला न्यायालय का निर्णय क्षेत्राधिकार के अभाव में दूषित नहीं है। कालबाधित वाद में पारित डिक्री अमान्य नहीं है।

समय-वर्जित वाद से संबंधित प्रमुख निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • क्राफ्ट सेंटर बनाम कोंचेरी कॉयर फैक्ट्रीज़ (1990):
    • केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया कि वादी का कर्त्तव्य न्यायालय को यह विश्वास दिलाना है कि उसका वाद परिसीमा के अंदर है।
    • यदि यह परिसीमा की अवधि से परे है तथा वादी परिसीमा से बचने के लिये संस्वीकृतियों पर निर्भर करता है, तो मना किये जाने पर उसे दलील देनी होगी या उन्हें सिद्ध करना होगा।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि, धारा 3 का प्रावधान पूर्ण एवं अनिवार्य है तथा यदि कोई वाद समय वर्जित है, तो अपीलीय चरण में भी वाद खारिज करना न्यायालय का कर्त्तव्य है, भले ही परिसीमा का विषय का तर्क न दिया गया हो।
  • पंजाब नेशनल बैंक एवं अन्य बनाम सुरेंद्र प्रसाद सिन्हा (1992):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परिसीमा के नियम पक्षकारों के अधिकारों को नष्ट करने के लिये नहीं हैं। धारा 3 केवल उपचार पर रोक लगाती है, लेकिन उस अधिकार को नष्ट नहीं करती है जिससे उपचार संबंधित है।